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वर्ष १८, शि०४
अनेकान्त
भी अनेक साधु हैं-पर आचार में शिथिलता परिग्रह के स्टैण्डर्ड नहीं रहा । साधारण सात्विक भोजन करना, कारण ही पाई है।
यानी मोटा खाना, मोटा पहनना यह स्टैण्डर्ड नहीं। स्टैंडर्ड आज के परिप्रेक्ष्य में हम सोचें तो स्पष्ट प्रतिभासित मेनटेन करने हेतु सब कुछ करना पड़ता है और उसमें होता है कि सब अनयों की जड परिग्रह है।
मुख्य परिग्रह में बढ़ोतरी ही है । और उसी के लिए सारे
धंध फंद करने पड़ते हैं । आतताई क्यों गुण्डागिरी करता है-कि उसे पैसा चाहिए, आतंकवादी क्यों प्राण लेता है कि उसे अभीष्ट
यह स्पष्ट है कि यदि परिग्रह नहीं रहे तो कोई पाप सिधि हेतु दूसरों को डराना है। अर्थ के प्रति मोह यानी नहीं रहता । अन्तरंग और बाह्य परिग्रह छुट जाय तो वह अर्थ मंग्रह हेतु ही भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी, गबन, बेईमानी, शुद्ध दशा प्राप्त हो जाती है । लेखक ने बताया है कि मिलानट, आहरण, धोखाधड़ी आदि बुराइयां फैल रही
हिंसादि करते हुए भी हम व्रती कहलाते हैं किन्तु परिग्रह हैं। दहेज प्रथा भी तो इसीलिए बढ़ रही है।
के लिए परिग्रह परिमाण ही कहा जायगा, उनके साथ व्रत
शब्द नही जोड़ा जाता। गर्ज यह है कि सब अनर्थों का मूल परिग्रह है। आज हमारी जरूरतें इतनी बढ़ा ली गई है कि उनकी पूर्ति हेतु जैन सिद्धांत में कर्म फिलासफी को प्रमुख स्थान हैसाधन जुटाने में ही हमारी शक्ति लगती है औ• वह बिना पर कर्म शुभ या अशुभ दोनों ही संसारवर्द्धक है । लेखक पैसे के सम्भव नहीं। फिर वह पैसा कहीं से भी आवे- ने इन्हें भी परिग्रह ही बताया है। सचमुच हैं भी ये परिसीधे रास्ते से आवे मा टेढ़े से, सही या गलत कोई भी ग्रह ही। अत: आवश्यकता है परिग्रह त्यागने की छोड़ने मार्ग हो मनुष्य उसे अपनाता है । यह युग अर्थ प्रधान बन की-जितना हम छोडते जायेंगे-उतनी ही बुराइयां गया है। स्टैण्डर्ड शब्द ऐसा चन गया है कि हर आदमी मिटती जायेंगी। लेखक ने इस छोटी-सी पुस्तक में इस अपना स्टेण्डर्ड कायम रखने की फिराक में है और उसके तथ्य को खब खोला है। इस पुस्तक का अधिकाधिक लिए परिग्रह संजोता है । सादगी सादा जीवन आज का प्रचार प्रसार आवश्यक है।
विध्यश्री कन्या की कथा
वाराणसी के राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा की पुत्री सुलोचना जैनधर्म की परमभक्त और सम्पूर्ण कलाओं में कुशल थी। वह विद्याओं का अभ्यास करती हुई सुख से रहती थी कि इतने में अकम्पन के मित्र विध्यपुर के राजा विध्यकीति, रानी पियगुश्री की पुत्री विध्यश्री उसके पिता ने सुलोचना को लाके सौंपी और कहा कि इसको पढ़ा लिखा कर सकल कलाओं मे प्रवीण करो। पश्चात् विध्यश्री पुत्री सुलोचना के पास सुख से रहने लगी।
एक दिन सुलोचना ने उसे महल के उद्यान मे फल चुनने के लिए भेजा कि वहां एक काले सांप ने निकल कर उसे डस लिया । सो सुलोचना के दिये हुए पंचनमस्कार मन्त्र के प्रभाव से मंगाकुट निवासिनी गंगादेवी हुई। सो बपनी उपकार करने वाली का स्मरण करके उसने सुलोचना के पास जाकर उसकी पूजा की, बऔर फिर अपने स्थान में पाकर सुख से काल बिताने लगी।