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________________ जैनरव का मूल प्राधार - अपरिग्रह भंवरलाल न्यायतीर्थ, संपादक : 'वीरवाणी' "हम इकट्ठा करने में रहे और सब कुछ खो दिया। वहां परिग्रह से बेतहाशा लिपटते जा रहे हैं तो कब तक -यह एक ऐसा सत्य है जिसे लाखो-लाख प्रयत्नों के बाद टिक सकेगा-यह धर्म केवल बातों में । अपरिग्रह के गीत भी झुठलाया नहीं जा सकता । हम जैसे-जैसे जितना परि- गावें और आचरण उसके विपरीत, यह क्यों ? ग्रह बढ़ाते रहे वैसे-वैसे उतना 'जन' हमसे खिसकना गया लेखक ने अनेक शास्त्रों के उद्धरण देते प्रकृत विषय और आज स्थिति यह है कि हम जैन होने के साधन-भूत की पुष्टि की है और स्पष्ट किया है कि जैन संस्कृति का श्रावकोचित आचार-विचार में भी शून्य जैसे हो गए। मूल-अपरिग्रह है। लोगों ने जड़ो की खोज की, उन्होंने सारा ध्यान उन हिंसा, झंठ, चोरी और कुशील इन चारों पापों की पर शोध-प्रबन्धों के लिखने में केन्द्रित किया, उन्हें प्रका जड़ परिग्रह है । "क्रोधादिकषायाणामातं-रोद्रयोहिंसादिशित कराया और उन पर वे विविध लौकिक पारितोषिक पंचपापानां भयस्य च जन्मभूमिः परिग्रहः"-आचार्यों का पाते रहे । आत्मा की कथा करने वाले बड़े-बड़े वाचक यह वाक्य स्पष्ट है । परिग्रह का परिवार इतना बड़ा है भी परिग्रह-सत्रयन में लगे रहे और वे भी अहिंसा, दान कि उसमें सारी बुराइयां | सारे पाप गभित हो जाते हैं। आदि के विविध आयामों से विविध रूपों में परिग्रह- सब अनर्थों का मूल परिग्रह है। संचयन और मान-पोषण आदि मे लीन रहे जिससे वीत आश्चर्य इस बात का है कि हम हिंसा करने वाले को रागता का प्रतीक 'अपरिग्रहत्व-जनत्व' लप्त होता रहा। अपराधी मानते हैं-शासन भी उसे दण्डित करता है। हमारी दृष्टि में 'अपरिग्रहवाद' को अनाने के सिवाय इसी तरह झूठ, चोरी भी पाप है-उनको करने वाला 'जैन धर्म के संरक्षण का अन्य कोई उपाय नहीं।" अच्छी निगाह से नही देखा जाता और दण्ड भी उसे ये उद्गार है पं० पद्मनन्द जी शास्त्री दिल्ली के स्त्रा दिल्ला क मिलता है। व्यभिचारी को समाज में कोई आदर नहीं जिन्होने हाल ही में अपनी नवीनतम कृति "मूल जैन ने "मूल जन देता-वह बदनाम होता है, भले लोग उसकी सोहबत में संस्कृति-अपरिग्रह" नामक पुस्तक में प्रकट किये हैं। नहीं बैठते । इसी तरह पांचवां पाप परिग्रह है उसके बारे उन्होने आज के जैन जीवन का चित्रण एक सही तथ्य के में लोग कुछ नही कहते । जो ज्यादा परिग्रही है, राजसी रूप में प्रस्तुत किया है । जो धर्म निवृति प्रधान था ठाट से रहता है, उसका समाज में आदर होता है-बह आज वह प्रवृत्ति प्रधान हो गया है। निवृत्ति की बातें अगली पक्ति मे बिठाया जाता है चाहे उसकी सम्पत्ति केवल शास्त्रों में रह गई हैं। अधिकाधिक संग्रह की ओर किसी भी मार्ग से आई हो। कैसी विषमता? हम बह रहे हैं। जहां त्याग की महत्ता थी-वहाँ ग्रहणसंग्रह बढ़ता जा रहा है। अन्तर और बाह्य में, भावों में साधु संस्था में भी इस परिग्रह ने अपना काफी और क्रिया में, यश ख्याति लाभ अर्जन में और भौतिक स्थान बना रखा है-कूलर, हीटर का उपयोग, मन्दिर, साधन जुटाने में हमारी शक्ति लग रही है। जरूरत और मूर्ति, संघ संचालन आदि के लिए अर्थव्यवस्था, संघ को बेजरूरत का संग्रह बढ़ता जा रहा है। क्या यह अपरिग्रह बढ़ाने का आचार्य बनने का मोह-जयन्तियां मनाने का का मखौल नहीं? जो धर्म अपरिग्रह प्रधान था जिसका लोभ, ख्याति लाभ, यश की भावना आदि परिग्रह ही तो सारा ढांचा अपरिग्रह की नींव पर खड़ा हुआ था, आज- हैं। यह बात नहीं है कि सभी ऐसे है-इन बातों से दूर
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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