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प्रभावती रानी की कथा
वत्सदेश में एक रीरकपुर नगर है । वहां एक उद्दायन नाम का राजा राज्य करता था। उसके शुद्ध जैनमत को धारण करने वाली एक प्रभावती नाग की रानी थी। एक समय राजा किसी शत्रु के ऊपर चढ़ाई करने को गये, तब रानी प्रभावती की धाय मंदोदरी सन्यास धारण कर वहां से चली गई। परन्तु थोडे ही दिनों में वह अन्य बहुत-सी सन्यासिनियों के साथ आई और नगर के बाहर ठहरी तथा प्रभावती के निकट किमी स्त्री के द्वारा नापने आने के समाचार कहला भेजे। उस स्त्री ने जाकर कहा--मन्दोदरी आपको देखने के लिए माई : और नगर के बाहर ठहरी है। इसके उत्तर में रानी ने कहला भेना-वह मेरे ही यहां आवे मैं नही आ ती । यह गुनार मन्दोदरी क्रोधित हो स्वयं उसके घर गई। परन्तु प्रभावती ने इादो न प्रणाम किया, न प्रामा से उठी : आसन पर बैठे ही बैठे उसके लिए आसन डलवा दिया। तब मन्दोदरी ने कहा-पुत्री, प्रथम तो मैं तेरी माना, दूसरे गिर तपस्निी हो गई, फिर भी तू ने मुझे नमस्कार क्यों नही किया? प्रभावती ने कहा--- मैं सन्मार्ग (जैन गार्ग) को धारण करने वाली हूं और तू मिथ्यामार्ग को धारण करने वाली है, इसलिए मैंने प्रणाम नहीं दिया । मामिने कला-शिवप्रणीत (शैवमत) धर्म सन्मार्ग क्यों नहीं हो सकता? रानी ने कहा-नही । इस तरह दोनो का बला शास्त्रार्थ हुआ। और अन्त में रानी ने मन्दोदरी को निरुत्तर कर दिया । तब यह कोधित हो वहा से चली गई और सनी या एक मोहर चित्र खीच कर उसने उज्जयिनी के राजा चन्द्रप्रद्योत को जा दिवाया । चन्द्र प्रद्योत देखते ही आता हो गया। किसी तरह यह भी सुन लिया कि राजा उद्दायन किसी राजा पर चढ़ाई करने गया है। वहीं नहीं है । तब वह अपनी समस्त सेना ले रोरकपुर जा पहुंचा । नगर के बाहर अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया और एक अति चनुर मनुष्य प्रभावती देवी के (रानी के) पास भेजा । उसने उसके आगे अपने स्व.मी के रूप सौंदर्य के साप गाध अनेक गुणो की खूब प्रशंसा की। रानी यह जवाब देकर कि भाई, उसके गुणों मे मुझे क्या ? मेरे तो उद्दापन दो छोट, और सब पुरुष पिता, पुत्र भाई के समान हैं, उस दूत को निकलवा दिया और उस राजा के मेवकों का आओ यहा आना सर्वमा बन्द कर दिया । बची हुई सेना नगर के दरवाजे बन्द कर, नगर की रक्षा करने के लिए किले पर जा बैठी। चद्रप्रयोत ने नगर लेने का विचार कर, युद्ध प्रारम्भ किया। यह खबर मुन प्रमावती असर्ग मिटने तक का जनशन कर अपने इष्टदेव के मन्दिर में जा बैठी। इसी समय कोई देर आफशले जाता था, उगने रानी का अधि: द्वारा कष्ट जान चण्डप्रद्योत की सारी सेना अपने माया बल से उज्जयनी रहवा दी और आप उसका रूप धारण कर गली के शीन की परीक्षा के लिए उद्यत हुआ । उसने अपनी विक्रिया ऋद्धि से सेना बना ली पौर माया स गर की रक्षा करने वाली किले की सेना का नाश कर नगर में प्रवेश किया। फिर नगर के मध्य भाग में उस जिन नदिर में गया जहा कि प्रतिज्ञा करके प्रभावती ध्यानस्थ बैठी थी। मन्दिर में जाकर प्रभावती के सन्मुख अनेक पुरुषविकार ध्र विगदिक किए, परन्तु उसका चित्त चलायमान न हुआ। तब देने जानी माया रानेट प्रभावती की पूजा को और सनार मे घोषणापूर्वक प्रकट करके कि यह महाशीलवती है, अपने स्थान को गया।
राजा उद्दायन ने लौटकर ये सब समाचार सुने। उसे बड़ा हर्ष हुमा । कुछ काल राज्य कर सुकोति नाम के अपने पुत्र को राज्य दे वर्द्धमान स्वामी के समवसरण मे अनेक राजाओ के साथ दीक्षित हो गया। प्रमावती आयिका हो गई। राजा उद्दायन तो घोर तप करके अष्ट कर्मों का नाश कर मोक्ष को गया और प्रमावती पाव ब्रह्मस्वर्ग में देव हुई । इस तरह प्रभावती स्त्री होकर भी शोल के प्रभाव मे दोनों लोकों में देवा से पूजित हुई, तो और भी भक्तन जो इसको धारण करें, क्यों पूजित न होंगे ? अवश्य होंगे।