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जाति और धर्म
D डा. ज्योति प्रसाद जैन
अखिल भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में जिनधर्म इस विषय में दिगम्बर-श्वेताम्बर समग्र जैन सस्कृति का अपनी उदाराशयता एवं बिना किसी भेदभाव के प्राणी- सुस्पष्ट उद्घोष रहा है किमात्र के हित-सुख की व्यापक दृष्टि के कारण महत्वपूर्ण कम्मणा होइ बम्हणा, खत्तियो हवइ कम्मणा। विलक्षण स्थान रखता आया है। 'धर्म' शब्द की एक कम्मणा होइ वैस्सो, सुद्दोवि हबइ कम्मणा ॥ व्याख्या के अनुसार वह ऐसा कर्तव्य है जो मनुष्यमात्र के वास्तव में, प्रचलित जातिप्रथा कभी और कैसी भी ही नहीं, प्राणीमात्र के ऐहिलोक तथा पारलौकिक, रही हो, तथा किन्हीं परिस्थितियों या परिवेश में उपादेय उभयजीवन को नियंत्रित एवं अनुशासित करके सबको अथवा शायद क्वचित बावश्यक भी रही हो, कित सुपथ पर ले चलने में सहायक होता है। और, जैनधर्म कालदोष एव निहित स्वार्थों के कारण उसमें जो कुशील या जिनधर्म तो वस्तुत: आत्मधर्म है, एक ऐसा व्यक्तिवादी या कुरीतियां, विकृतियां, विसंगतिया एवं अन्धविश्वास धर्म है जो बिना किसी भेदभाव के समस्त प्रागियों के घर कर गये है, और परिणाम स्वरूप देश मे, राष्ट्र मे, ऐहिक तथा पारलौकिक उन्नयन और सुग्य-मुविधा का समाज में एक ही धर्म सम्प्रदाय के अनुयायियो मे जो विचार करता हैं। इसके विपरीत, सामाजिक या लौकिक टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं, पारस्परिक फूट, वैमनस्य एव भेदधर्म केवल मनुष्यों के ही इहलोकिक हितसाधन तक सीमित भाव खुलकर सामने आ रहे हैं, वे व्यक्ति या समूह, होता है, और बहुधा विविध अनगिनत अन्धविश्वासों तथा सम्प्रदाय या समाज, देश या राष्ट्र किसी के लिए भी रूढ़ियो पर अवलम्बित रहता है। आत्मधर्भ से भिन्न यह हितकर नही है, और प्रगति के सबसे बड़े अवरोधक है। लौकिक धर्म मूलतः प्रवृत्ति प्रधान ब्राह्म-वैदिक परम्परा धर्म की आड़ लेकर या कतिपय धर्मशास्त्रों, साधुसेवा, की देन है, जिसमें शनैः शनैः वर्णाश्रमधर्म का रूप ले पंडितों आदि की साक्षी देकर जो उक्त विघटनकारी लिया। उस परम्परा में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैग्य शुद्र धारणाओं का पोषण किया जाता है, और उनके विरोध
आदि वर्णभेद मूलतः गुण कर्मानुसारी ही थे, किन्तु ममय मे आवाज उठाने वाले का मुह बन्द करने की चेष्टा की के साथ उनके जन्मत: होने की मान्यता रूड़ होती गई। जाती है. उससे यह आवश्यक हो जाता है कि धर्म के धर्म जैन गृहस्थो के सामाजिक या लौकिक धर्म पर कालान्तर को घमं की मलाम्नाय के शमाणिक मौलिक शास्त्रो से में उक्त ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था तथा उससे उद्भूत जानि- जाना और समझा जाय । व्यवस्था का प्रभाव पड़ा, और धीरे-धीरे उन्होने भी उसे
धर्म-तत्त्व मानव इतिहास की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अपना लिया। किन्तु मूल जिनधर्म की प्रकृति एव स्वरूप उपलब्धि रही है। समी देशों और कालो मे जन-जन के के माथ उसकी कोई सगति नही है। कुन्द कुन्द, गुणधर, मानस को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला यही धर्म-तत्व धगेन, मनबलि, बट्टकेरि, शिवार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, रहा है। साथ ही, प्राय: सभी धर्म-प्रवर्तको ने, उन्होने भी जटागिहनदि, रविषेण, हरिवंशकार जिनमेन, जकलक, जिन्होने मनप्येतर अन्य प्राणियो की उपेक्षा की, मनुष्यों गुणभद्र अमितगति, प्रभाचन्द, शुभचन्द्र, प्रभृति अनेक को ऊच-नीच आदि के पारस्परिक भेदभावों से ऊपर उठने प्राचीन प्रामाणिक आचार्यपुंगवों ने जन्मत: जातिप्रथा का का भी उपदेश दिया। यहूदी, ईसाई, मुसलमान यहां तक निषेध ही किया है और गुणपद की ही स्थापना की है। कि बौद्ध, कवीरपंथी, सिख आदि कई भारतीय धर्म भी,