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जाति और धर्म
मनुष्यमात्र की समानता का (इगेलिटेरियनिज्म ) दावा वर्तन, संशोधनादि करने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। करते हैं । श्रमण परपरा के निर्ग्रन्थ तीर्थकरों द्वारा आच- मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अतएव व्यावहारिक, सामारित एवं उपदेशित जिनधर्म का तो मूलाधार ही समत्व- जिक या लौकिक धर्म की व्यवस्थाएं, संस्थाएं और प्रयाएं भाव है। यदि कोई अपवाद है तो वह ब्राह्मण-वैदिक रहेंगी ही, उनका रहना अपेक्षित भी है, किन्तु वे ऐसी हों परम्परा से उद्भूत, वर्णाश्रम धर्म पर आधारित और जो सम्यक्त्व को दूपित करने वाली न हों, वरन् उसकी जन्मत: जातिवाद को स्वीकार करने वाला तथाकथित पोषक है-मोक्षमार्ग में साधक हों, बाधक न हों। हिन्दू धर्म है। यों तो, मूलतः समानतावादी एवं जातिवाद- १८५७ ई. के स्वातन्त्र्य-समर के उपरान्त जब इस विरोधी परम्पराओं मे भी ऊच-नीच का वर्गभेदपरक महादेश पर विदेशी अग्रेजी शासन सुव्यवस्थित हो जातिवाद किसी न किसी प्रकार या रूप में घर कर ही गया तो प्रायः सम्पूर्ण देश में नवजागृति एव अभ्युत्थान गया, किन्तु उनमें उसकी जकड़ और पकड़ इतनी सख्त की एक अभूतपूर्व लहर शनैः शनैः व्याप्त होने लगी, नहीं है जितनी कि हिन्दू धर्म में है । आज का प्रगतिशील जिससे जैन समाज भी अप्रभावित न रह सका । फल विश्वमानस ऐसे भेदभावों को मानव के कल्याण एवं स्वरूप लगभग १८७५ से १९२५ ई. के पचास वर्षों में उन्नयन में वाधक समझता है और उनका विरोध करता धर्मप्रचार एवं शिक्षाप्रचार के साथ-साथ समाजसुधार के
भी अनेक आन्दोलन और अभियान चले । धर्मशास्त्रों का जैन समाज में तद्विषयक भ्रान्ति के रूढ़ हो जाने में
मुद्रण-प्रकाशन, धार्मिक व लौकिक शिक्षालयों तथा परीक्षा कविप्रय ऐतिहासिक परिस्थितियों तथा विपरीत मान्यता बोडों की स्थापना, स्त्री जाति का उद्धार, कुरीतियों के वाले बहसख्यक समुदाय के निकट सम्पर्क के अतिरिक्त, निवारण का उद्घोष, कई अखिल भारतीय सुधारवादी दो कारण प्रमुख प्रतीत होते हैं-एक तो यह कि वर्ण- सगठनो का उदय, धार्मिक-सामाजिक, पत्र-पत्रिकाओं का जाति, कुल, गोत्र में से प्रत्येक शब्द के कई-कई अर्थ हैं। प्रकाशन आदि उन्हीं आन्दोलनों के परिणाम थे। जातिजिनागम में कर्म-सिद्धान्त के अनुसार उनमे से प्रत्येक का प्रथा की कुरीतियो एवं हानियों पर तथाकथित बाबू पार्टी जो अर्थ है, वह लोक व्यवहार में प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थात आधुनिक शिक्षा प्राप्त सुधारक वर्ग ने ही नही, और विलक्षण है। दोनो को अभिन्न मान लेने से भ्रान्त तथाकथित पडितदल के गुरू गोपालदास बरैया जैसे महाधारणाएं बन जाती हैं । दूसरे, जो लौकिक, सामाजिक या रथियों ने भी आवाज उठाई। बा. सूरजभान वकील, व्यवहार धर्म है, वह परिस्थितिजन्य हैं, और देशकाला- पं० नाथूराम प्रेमी, ब्र० शीतल प्रमाद, आचार्य जुगलनुसार परिवर्तनीय अथवा संशोधनीय है। इस स्थूल तथ्य किशोर मुख्तार प्रभृति अनेक शास्त्रज्ञ सुधारकों ने उस को भूलकर उसे जिनधर्म, आत्माधर्म, निश्चयधर्म या मोक्ष- अभियान में प्रभूत योग दिया। अनेक पुस्तके एव लेखादि मार्ग से, जो कि शास्वत एवं अपरिवर्तनीय है, अभिन्न लिखे गये। मुख्तार सा० की पुस्तकें जिनपूजाधिकारसमझ लिया जाता है। पक्षव्यामोह एवं कदाग्रह से मुक्त मीमांसा, शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण, जैनधर्म सर्वोदय होकर भ्रान्ति के जनक इन दोनों कारणों को जिनधर्म की तीर्थ हैं, ग्रन्थ-परीक्षाएं आदि, पं० दरबारी लाल सत्यभक्त प्रकृति, उसके सिद्धान्त, तत्वज्ञान एवं मौलिक परम्परा के की विजातीय विवाह-मीमांसा, बा. जयभगवान की वीरप्रतिपादक प्राचीन प्रामाणिक शास्त्रों के आलोक में भली. शासन की उदारता, पं० परमेष्ठीदास की जैनधर्म की भांति समझकर प्रकृत विषय के सम्बन्ध में निर्णय करने उदारता, प० फूलचन्द्र शास्त्री की जाति-वर्ण और धर्मचाहिए । इसका यह अर्थ नहीं है कि लौकिक, सामाजिक मीमांसा जैसी अनेक पुस्तकें तथा विभिन्न लेखकों के या व्यवहार धर्म को सर्वथा नकार दिया जाय । वैसा सैकड़ों लेख प्रकाशित हुए और सुधारवादी नेताओं के करना न सम्भव ही है और न हितकर ही। परन्तु उसमें जोशीले मंचीय भाषणों ने समाज को भरपूर मकझोरा। युगानुसारी तथा क्षेत्रानुसारी आवश्यक एवं समुचित परि- फलस्वरूप समाज में विचार परिवर्तन भी होने लगा।