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अपरिग्रह और उत्कृष्ट ध्यान करने से और वाह्य-संग्रह की मर्यादा और त्याग आदि से अपरिग्रहत्व है-जैसा कि ध्यान में होता है या होना है। स्मरण रखना चाहिए कि सब व्रत-क्रियाएं आदि भी चाहिये । क्योंकि ध्यान और अपरिग्रहत्व दोनो में अन्यत्वपने तभी सार्थक हैं जब वे अपरिग्रह की भावना और अपरि- का अभाव होने से संवर-निर्जरा है। जबकि अन्य चिताबों ग्रही-क्रियाओं से अपरिग्रह की पुष्टि के लिए हों। से हटकर मन का एक और लक्ष्य होने में भी चिंतन रूप
हमारी भूल रही है कि हम अन्य व्रत आदि की क्रिया विद्यमान होने से आस्रव है-'कायवाग्मनः कर्मयोगः' क्रियाओं को (वह भी दिखावा रूप में) जैनत्व का रूप 'स आस्रवः। भले ही मन एकाग्र हो जाय-वह चिन्तन देने में आमत औरामति से नाता क्रिया तो करेगा ही। और जहां चितन रूप क्रिया होगी तोड़े हुए हैं। आज देश का जन-जन दुखी है वह भी परि- वहां आस्रव होगा ही। मन की क्रिया (चिन्तन) का नाम ग्रह की ज्यादती या लौकिक अनिवार्य पतियो के अभाव हा ती चिता है। यदि चिता-चितन क्रिया है तो योग है मे दुखी हैं । हिंसादि सभी प्रवृत्तिया भी परिग्रह से तथा आर याग का आस्रव कहा है, जो निर्जरा-प्रसग-गत परिग्रह की बढ़वारी के लिए ही की जा रही हैं । आश्चर्य के लक्षण से मेल नही खाता । प्रसग मे तो उसी ध्यान से है कि सरकार ने भी परिग्रह की बढ़वारी को किन्ही तात्पर्य है जो सवर-निर्जरा में हेतु हो। हम पुनः स्मरण अपराधो की परिधियों में नहीं बांधा । भारतीय दंडसहिता करा दें कि मन का कार्य चिंतन है और चितन कम होने से मे हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील के लिए जमे दंड निर्धा- आस्रव है । इस विषय में किसी समझौते को खोज कर रित है, वैसे परिग्रह की बढ़वारी की रोक के लिए शायद अन्य निर्णय सर्वथा अशक्य है। ही कोई धारा हो। यदि सरकार ने जैन मूल-सस्कृति सभी जानते हैं कि पूज्य उमास्वामी जी ने तत्वार्थअपरिग्रहत्व से नाता जोड़ा होता-ऐसी कोई धारा सूत्र के छठवें अध्याय से आठवें अध्याय तक आस्रव-बंध का निर्धारित की होती जो परिग्रह-परिमाण पर बल देती और नवम अध्याय मे संवर-निर्जरां का वर्णन किया है। होती-अति-परिग्रहियो के लिए दण्ड विधान करती होती इनमे पहिले उन्होने मन-वचन-काय की क्रिया को मानव तो देश को त्रास से काफी हद तक छुटकारा मिला होता। और फिर उसके निरोध को संवर कहा है। और इसी तब न हर कोई हर किसी के भाग पर कब्जा करता होता प्रसंग में नवम अध्याय मे ही तप को संबर और निर्जरा और न ही टैक्सो की चोरी आदि जैसी बातें ही आई होती। दोनो का कारण कहा है । और ध्यान की गणना तपों में व्यक्ति की सचय सीमा निश्चित होती और परिवार भी कराई है। इसका भाव यही है कि प्रसंग में ध्यान वही
में मदद कर पाते । इसमे (निरोध) है जो सवर-निर्जरा में कारण हो । ऐसे में ध्यान एक घर सम्पदा से अनाप-शनाप भरा और दूसरा सम्पदा के शुभ-अशुभ या मार्त-रौद्र जैसे भेदों को इसमें स्थान ही से सर्वथा खाली न होता । जैसा कि वर्तमान मे चल रहा कहो है जो उन्हें इस ध्यान में शामिल किया जा सके या है और जो जनसाधारण को परेशानी का कारण बन रहा प्रसगगत ध्यान (चितानिराध) को शुभ-अशुभ के मानव में है। अस्तु ।
कारण माना जा सके । वे दोनों और निचली दशा के यहाँ हम यह कहना भी उचित समझते हैं कि जिस मनोगत भाव-अ-त-रौद्र तो आस्रव ही हैं। ध्यान को तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्याय के २७वें सूत्र द्वारा इसके सिवाय ध्यान के फल का जो वर्णन है और जो दर्शाया गया है वह ध्यान भी अपरिग्रह मूलक और संवर- स्वामी का वर्णन है उससे भी स्पष्ट पता चलता है कि निर्जरा का साधक ही है । दूसरे रूप में यह भी कह सकते प्रसंग मे ध्यान संवर-निर्जरा का ही कारण है और वह हैं कि-अपरिग्रहत्व और वह ध्यान समकाल भावी और मिथ्यादृष्टि के नहीं होता । इसीलिए धवला में ध्यान के एक है। वैसा ध्यान तभी होगा जब अपरिग्रहत्व होगा- दो ही भेद कहे हैं-धर्य ध्यान और शुक्ल ध्यान । मोह की बिना अपरिग्रहत्त्व के ध्यान कसा? प्रसंग गत ध्यान के सर्वोपशमना करने से धर्म ध्यान को और शेष घातिलक्षण में 'अपने मे रह जाना' ध्यान है और वही पूर्ण अघाति का क्षय करने से शुक्ल ध्यान को ध्यान की श्रेणी में