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विचारणीय प्रसंग
अपरिग्रह और उत्कृष्ट ध्यान
अपरिग्रहत्व से तात्पर्य है-मात्र "स्व" और ऐसे 'स्व' से जिसमें पर - परिग्रह का विकल्प ही न हो। अरहततीर्थकर अपरिग्रही पूर्ण दिगम्बर हैं 'स्व' में विराजमान और 'स्व' रूप मे स्थित भी । ज्ञान रूप आत्मा के सिवाय उनका स्व तत्व अन्य कुछ नहीं—वे ज्ञाता दृष्टा कहलाते हैं सो भी परकीय दृष्टि से ही । क्योंकि उनमें पर की कल्पना को अवकाश ही नहीं होता। जो पदार्थ उनके ज्ञान में प्रतिविम्बित होते हैं वे भी अपनी, पदार्थ की सना मात्र
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हो प्रतिविम्बित होते हैं - केवली के ज्ञान से उन पदार्थो की सत्ता का तादात्म्य नही— मात्र ज्ञेय-ज्ञायक भाव है और वह भी व्यवहारी है । क्योंकि स्व-वस्तु किसी विकल या कथन की चीज नहीं, मात्र अनुभव की चीज हैसर्वथा अनुभव की । आश्चर्य है कि उक्त वस्तु-स्थिति में भी हम स्वत्व - दिगम्बरत्व - अपरिग्रहत्व के अर्थ से अजान हैं और दिगम्बरत्व या अपरिग्रहत्व को मात्र बाह्य शरीरादि के आधार पर पहिचानने में लगे हुए हैं - मात्र निर्वस्त्र को दिगम्बर मान रहे हैं और उसे अपरिग्रही कह रहे हैं । खैर, कोई हर्ज नहीं; हम निर्वस्त्र को अपरिग्रही या दिगम्बर मानते रहें पर वस्त्र का भाव अवश्य हृदयंगम करें : वस्त्र (वेष्टन) आवरण का द्योतक है जो असलि यत को आच्छादित करता है-उसे प्रकट नहीं होने देता । उक्त भाव में स्व-रूप से भिन्न मभी दशाएं वस्त्र से आच्छादित जैसी हैं-सवस्त्र रूप ही है। इसी आच्छादन करने वाले सत्त्व को जेन-दर्शन में परिग्रह नाम से सम्बोधित किया गया है और इससे मुक्त रहने का पाठ दिया गया है । इस दर्शन में अपरिग्रही को पूज्य माना है क्योकि वह ही निर्दोष है और वह ही स्व-स्वभावी सर्वज्ञ दशा में स्थित होने में समर्थ है। कहा भी है-यस्तु न निर्दोष: स
श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, ई दिल्ली
न सर्वशः । आवरण रागादयोदोषास्तेभ्यो निष्क्रान्तत्वं हि निर्दोषत्वम् ।' -जो निर्दोष नहीं है वह सर्वज्ञ नहीं है और रागादि अन्तरग व धनादि बहिरंग आवरणों परिग्रहों से रहित होना ही निर्दोष है। और जैनागम में शुद्धात्मा को ही निर्दोष कहा है- 'स त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति शास्त्राविरोधि वाक्।' इसी निर्दोषता को लक्ष्य कर १८ दोषों को भी स्थूल रूप मे दर्शाया गया है'छुत भीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू । स्वेदं खेदं मदो रइ विम्यिणिद्दा जणु वेगो ॥ - नियमसार ६ । जम्बूदीपणत्ति और द्रव्य संग्रह टीका आदि मे भी इन दोषों का खुलासा है और ये सभी दोष स्व-स्वभाव न होने से पर - परिग्रह हैं - जिनसे आत्मा की अनन्त शक्ति आच्छादित होती है ।
हम यहां जैन मान्य उन अपरिग्रह की बात कर रहे हैं जिसमें जैनत्व व्याप्त होकर निवास करता है और जिससे जैनत्व जीवित रहता है । परिग्रह की बढ़वारी कर जैनी बने रहने का प्रयत्न करना मुर्दे मे हवा देकर उसे जीवित मानने जैसा है । मृत शरीर वायु से फूल सकता है, हिल भी सकता है। पर वह हिलना उसका जीवित होना नहीं होता मात्र पोद्गलिक क्रिया होती है ! ऐसे ही परिग्रह की बढ़वारी के प्रति जागृत जीव की बाह्य पर क्रियाएं भी जेनत्व की साधिका नहीं । क्योकि सारा का सारा जेनत्व परिग्रह को होनता में समाहित है. फिर चाहे वह परिग्रहहीनता अहिंसा में आती हो, सत्य या अचौर्य आदि में आती हो । यदि अहिंसादि के मूल में अपरिग्रहत्व की भावना नहीं तो सब व्यर्थ है। और यहाँ अपरिग्रहत्व से तात्पर्य राग-द्वेषादि कषायों के कुश