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तीर्थकर महावीर और अपरिग्रह महावीर के सच्चे अनुयायी और सच्चे जैनी बनना है तो हमारी दृष्टि से तो जिन पर पराया कुछ नहीं होता वे हमे 'अपरिग्रहवाद' पर बल देना पड़ेगा और अपरिग्रही वीतराग सर्वज्ञ देव ही सबसे बड़े दानी है। भला, शान साधु-सन्तों के चरणों में जाना पड़ेगा-अपने को उनके दान से बड़ा दान क्या होगा और शान-संचय से बड़ा भांति ढालना होगा-उन्हें अपने हाथो का खिलौना बनाने सवय क्या होगा? इन सब प्रसंगों से यही सिद्ध होता है से भी वाज आना होगा। जो लोग आज सच्चे साधु की कि श्रावक परिग्रह का परिमाण करे और साधु पूर्णत्याग पहिचान करने पर जोर दे रहे हैं-उन्हें भी पहिले स्वय को करे। यह तो हम पहिले ही लिख चुके हैं कि अपरिग्रह से पहिचानना होगा कि-सच्चा थावक कौन ? परिग्रह बढ़- अहिंसादि सभी धर्म स्वय फलित हो जाते हैं। तीर्थकर भी वारी का धनी या परिमाण में रहने वाला?
दीक्षा के समय पहिले सब परिग्रह छोड़ते हैं। तब बाद में 'अपरिग्रह-वाद' को गौण करने की हानिरूप में हम अन्य व्रत धारण और पचमुष्टि लोच आदि करते हैं । पिछले दिनों, सोनगढ़ी कान जी भाई, जो परिग्रही थे, पहिले वे पर-निवृत्ति के भाव से ओत-प्रोत होते है तब उनको तीर्थकर प्रचारित करने की लीला देख ही उनका पर से लगाव छूटता है और तभी बाद मे उनमें चके हैं। और आगे शायद चम्पावेन को भी किसी रूप में अहिंसादि महाव्रतों का संचार होता है। देखें। हमारा तो निवेदन है कि यदि 'जैन' को जीवित रखना है तो सोनगढ़ ही क्यो? कान जी जैसी स्थापित आग्रही लोगों का मत हो, कि जैन दर्शन अनेकान्तात्मक सभी अन्य शाखाओ से भी हम सतर्क रहें। और कान है। फलतः आचार्यों ने जब जिसको आवश्यक समझा मुख्य जी पन्थ के सभी अनुवादों, आयामो व विचारो को अपनी कर लिया और अन्य को गौण कर लिया। अहिंसादि पांचों कसोटी पर कसें । महावीर के अपरिग्रहवादी धर्म को व्रतों को भी उसी पद्धति से प्रधानता और गौणता देनी सुरक्षित बनाने में यह उपाय भी परम महायक सिद्ध हो चाहिए। स्व प. श्री जुगलकिशोरजी 'मुख्तार' ने जनहितैषी सकेगा, ऐसा हमारा अनुमान है।
(अगस्त १९१६) मे एक लेख लिखा था 'जैन तीर्थंकरों आगम मे सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र को माक्ष का शासन भेद' और इसके बाद वि० स० १९८५ मे एक मार्ग कहा है और श्रावक से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। पुस्तक प्रकाशित की थी-"जैनाचार्यों का शासन भेद।" जो श्रावकाचार मे अभ्यस्त होगा वह सहज रीति मे इस इनमे उन्होने अनेक प्रसंगों द्वारा प्रसिद्ध किया था कि मार्ग पर बढ़ने में भी समर्थ हो सकेगा और मुनि भी सहज धर्मोपदेश के माध्यमो और क्रमो मे समय-समय पर परिबन सकेगा। श्रावक शब्द के श्रा, ब, क, तीनो वर्ण हमे वर्तन होते रहे हैं। जैसे प्रयम और अन्तिम तीर्थंकर के इंगित करते हैं कि हम श्र-श्रद्धावान्, व-विवेकवान् रामय मे छेदोपस्थापना और बीच के २२ तीर्थकरो के समय
और क-क्रियावान् अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से मे सामायिक चारित्र का प्राधान्य रहा। ऐसे ही अष्टमूल पूर्ण हों। अब जरा सोचिए, जो सम्यग्दर्शन सम्पन्न- गुण आदि की नामावलि मे भी भिन्नता रही आदि । तत्त्वों का श्रद्धालु होगा, जिसे भली भाति तत्त्व स्वरूप का उक्त आधार को लेकर कुछ लोग अहिंसादि व्रतो मे भी ज्ञान होगा, जो सम्यक् प्रकार सच्चारित्र पालन के प्रति प्रधानत्व और गौणत्व मे बदलाव की कल्पना करते हो जागृत होगा वह परिग्रह की बढ़वारी करेगा या उसका और कहते हों कि समयानुसार कभी अहिंसा को, कभी परिमाण करेगा? हमारी समझ से तो परिग्रह-सचय करना सत्य या अपरिग्रह आदि को प्रधानता मिलती रही है, यतः मूढ़ता ही है। जो लोग ऐसा सोचते हो कि संग्रह से त्याग उनकी दृष्टि मे सभी परस्पर मापेक्ष है, इनमे कोई निश्चित का मार्ग सरल होता है-जितना अधिक होगा उतना ही एक ही प्रधान नहीं है आदि। ऐसे विचारकों को मूल अधिक दान-कर्म किया जा सकता है। ऐसे लोगो से भी कारण प्रमाद तथा जैन और जैनत्व के अर्थ और भागे हमारी प्रार्थना है कि-कीचड़ में सानकर पैर धोने से तो की गहराई को छूना चाहिए और यह भी देखना चाहिए यह ही उत्तम है कि कीचड़ में पैर साने ही न जायें ।
(शेष पृ. ३२ पर)