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बनेकान्त
ऐसी विशेषता तो होनी ही चाहिए जो औरों में न हो। अपरिग्रह का पाठ रक्खा जिसे हमने भुला दिया और उसके सो यह विशेषता है-उनका अपरिग्रही होना। जब फलीभूत अहिंसादि धर्मों में अटक गए। संमारी मत-मतान्तर अहिंसा, सत्य अचौर्य और ब्रह्मचर्य
अपरिग्रह को गौण करके अहिंसा, दया आदि को पर जोर देते हैं तब जैनधर्म इन सबके मूल अपरिग्रह को
प्रधान बताने में मानव की एक और कमजोरी कारण बनी प्रमुखता देता है, यही 'अपरिग्रह' महावीर का मार्ग है
मालुम होती है और वह कमजोरी है-मनुष्य का विषयशेष अहिंसादि सभी इसी पर आधारित हैं।
वासना का कीड़ा बनना, इन्द्रियों का दास बनना । वासनास्थिति ऐसी है कि आज हम मोक्षमार्ग को बिसराकर
सक्त प्राणी जब अपने को विषयों का दास बना बैठता है सांसारिक वासनाओं के कीड़े बन चुके हैं और सांसारिक
तब वह भौतिक परिग्रह आदि सामग्री को त्यागने से कतप्राणियों की हाँ में हां मिनाए बिना हमारा गुजारा नहीं
राता है - उसे नहीं छोड़ पाता और छोड़ना नही चाहता। चल सकता । फलत.-हम नीति से काम लेने के अभ्यासी
फलतः वह धार्मिक बने रहने का कोई अन्य मार्ग दंढ़ता है। जैसे बन गए हैं। जब कि नीति-राजनीति और धर्म आपस
प्रतीत होता हैं कि बाद के जन-नामधारियों ने ऐसा ही में बहुत दूर; यहां तक कि परस्पर विपरीत दिशाओं के
मार्ग अपनाया। उन्होंने सोचा कि हमे कुछ छोड़ना भी मार्ग हैं। उदाहरणत:-लोक मे नीति है कि पानी में रह
न पड़े और हम सम्ते मे धर्मात्मा, दयालु और दानी बन कर मगर से बैर नही किया जाता-'मगर' जैसे हिंसक
समाज में प्रतिष्ठित होते रहें। बस, उन्होने मूल नारे को प्राणी को अमलियत जानते हुए भी उसे भइया, दहा आदि
अहिंसा जैसे गौण नारो मे विलीन कर दिया। इसके लिए जैसे संबोधन देने पड़ते हैं। पर इससे मगर का मगरपन
वे अहिंसादि का सूक्ष्मरूपता में विवेचन कर दूसरों से तो छूट नहीं जाता। हां, उसकी झूठी प्रशंसा से भौतिक
अपनों को ऊंचा मानने का प्रयल भी करने लगे। इससे वे प्राण-रक्षा अवश्य हो जाती है। उसी प्रकार स्वार्थ-वामना
लाख के दो लाख बनाते रहे और बढी धनगशि का प्रेरित मनुष्य जब दूसरों में बैठता है तब वह अपनी हृदयगत कमजोरी छुपाने या यश-प्रशंसा आदि के लालच सूक्ष्मांश दया, अहिंसा आदि के नाम पर दान करके में दूसरों की हां मे हां मिलाता है और अपरिग्रह धर्मात्मा बनने के अभ्यासी बनने लगे। आज स्थिति ऐसी को गोण कर उससे फलित जैन के अहिंसादि को प्रमुखता है कि वे परिग्रह के पुन बनकर रह गये और महावीर
'जिन' का धर्म-आरिग्रह उनसे दूर जा पड़ा। दूसरे शब्दो देने लगता है। ऐसा करने से यद्यपि यह क्षणिक या दीर्घ
में ऐसे समझिए कि परिग्रही धर्मभीरु लोग महावीर के सांसारिक लाभ तो प्राप्त कर लेता है पर अपना मूल-धर्म गंवा बैठता है। हाँ मे हाँ मिलाना, तो मुंह-देखी कहना
अपरिग्रही वीर-धर्म के ठेकेदार बन गए। इससे सबसे बड़ी हा, पगवलनन हुआ, और हआ राजनीति प्रेरित हानि यह भी हुई कि अपरिग्रह जैमा मूल धर्म लप्त जैसा नोकिक-रक्षण । जबकि धर्म स्वावलम्बी और पारलौकिक हो गया । काश, लोगो ने ऐना न २ र अपरियट को . सुख प्राप्ति का माधन है। यदि हम हां मे हो मिलाने की खता दा होती तो लोगो मे सयम भी होता और वे सचय वजाय हिम्मत के साथ अपनी मूल बात कहें तो हमारे के विविध आयामो--टैका चोरी, ब्लैक मार्केटिंग आदि से
को भी बचे रहते । जी धर्म का प्रभाव भी होता और देश मे हमारी मूल बात है-अपरिग्रह और इस अपरिग्रह से वे अधिक सुख-शान्ति भी होती। लोगो मे सवय-भावना न सब बातें स्वयं फलित हो जाती हैं जिन्हें सर्वसाधारण होती और सब सुखी होते।। अहिमा आदि के रूप में कहते हैं। यदि प्राणी अपरिग्रही अपरिग्रह-धर्म को भुलाने से आज स्थिति ऐसी बन गई होगा तो उसमें अहिंसा, सत्य, अत्रौर्य, ब्रह्मचर्य आदि स्वयं है कि धर्म की वह बागडोर जो कभी साधु-सन्तों और ही होगे। इसीलिए वीतराग भगवान ने जीवो के समक्ष विद्वानों के हाथो मे थी, वह धन के हाथो जा पड़ी है और अपने साक्षात् दिगम्बर-रूप द्वारा और उपदेश द्वारा भी जिसका फल धर्म-ह्रास के रूप मे सामने है। यदि हमें