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तीर्थकर महावीर और अपरिग्रह
श्री पाचन शास्त्री, नई दिल्ली हर साल महावीर जयन्ती मनाते हैं और गत दिनों कसौटी दी है। जैसे स्वर्ण को कसौटी पर कसकर उसके भी महावीर जयन्ती मनाई गई। यह सिलसिला काफी गुण-दोषों की परीक्षा की जाती है वैसे ही भगवान-रूप की वरसों से चला आ रहा है। हमारी दृष्टि में यह सब पहिचान के लिए जैन-दर्शन में 'अपरिग्रह रूप कसौटी का दिखावा लोक-रजन के लिए ही हो रहा है। आज प्रचलित निर्धारण किया गया है। जो अपरिग्रही हो वह शुद्ध और रीति के लोगो ने महावीर को न जाना है और ना ही जो परिग्रही हो वह अशुद्ध होता है। अब यह आपको जानने की कोशिश को है। लोगो को तो जयन्ती ऐसा देखना है कि भगवान महावीर शुद्ध थे या अशुद्ध? उत्सव बन कर रह गया है, जिसके माध्यम से उनका मन
जहां तक वाह्य अम्बरादि परिग्रह का प्रश्न है, सभी तुष्ट हो जाता हो। वरना, इनसे कोई पूछे कि महावीर
३ पूछ कि महावार मानते हैं कि तीर्थकर महावीर केवलहान अवस्था (जिसके का क्या रूप था; उनके क्या उपदेश थे? तो ये उन्ही कारण वे सर्वज्ञ भगवान कहलाए) में पूर्ण अपरिग्रहीबातों को दुहराएंगे जो चिरकाल से इनके दिमागो मे
नग्न ही थे। दिगम्बरों के अनुसार दीक्षा काल से ही और घर किए हुए हैं और जिनके मूल में साम्प्रदायिक पक्षपात श्वेताम्बरों के अनुसार केवलज्ञान प्राप्ति के १०-११ वर्ष का भाव है। कोई कहेगा-वे श्वेताम्बर थे तो कोई
पूर्व से। कहा भी है-'समणं भगवं महावीरे संबच्छर कहेगा वे दिगम्बर थे। कोई कहेगा कि-महावीर हमारे माहियं मासं ताबीवर बारी हत्या। तेणं पर अचेले थे और कोई कहेगा हमारे थे। सभी की मान्यता है कि जितियाहिए।'-कल्पसत्र। अन्तरंग परिग्रह त्याग के महावीर ने अहिंसा का झण्डा गाड़ा-'अहिंसा परमो विषय में जैन के सभी पन्थों में परस्पर सामंजस्य हैधर्म:' उनका मूल नारा था, आदि ।
सभी मानते हैं कि वे वीतरागी थे। जब हम उक्त बातों पर विचार करते हैं तो यह बात पर, जब हम वीतराग 'जिन' और उनके धर्म 'जैन' तो निर्विवाद मिद्ध होती है कि केवली अवस्था मे तीर्थकर को बात करते हैं तब हम पहिचान करने में जिन-मार्ग से महावीर सर्वथा दिगम्बर थे। उनम भौतिक अम्बर या स्खलित हो जाते है। तत्कालीन स्थिति के प्रभाव में हम अम्बरान्तरों की कल्पना सर्वथा ही मिथ्या है। यत: जैन- कभी कहते हैं-'महावीर ने अहिंसा का उपदेश दिया। धर्मानुसार प्रत्येक वस्तु अपने में पूर्ण होती है, अपनी कभी सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का उपदेश स्वतत्र सत्ता रखती है, उसमें 'स्व' के सिवाय पर का प्रवेश दिया ऐसा कहते हैं । गरज मतलब यह कि, हम जैसा सर्वथा ही नहीं होता। एतावता न कोई वस्तु स्वाभाविक अवसर देखते हैं तदनुरूप कल्पनाओं में महावीर का रूप में मलिन है और न न्यूनाधिक है। भला सोचो, जब हम उपदेश फलित करने लगते हैं और वैसा प्रचार करने महावीर को पूर्ण और भगवान मानने चले है तब क्या हम लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि वीतरागी महावीर इसे पसन्द करेंगे कि वे मलिन, न्यून या अधिक जैसे कुछ वीतरागता के कारण ही अहिंसक बने, उनमे सत्य, हों। यदि वे मलिन थे तो भगवान कैसे? न्यून थे तो अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि धर्म भी वीतरागी-अपरिग्रही केवलज्ञानी कैसे? और अधिक थे तो पर-सयुक्तरूप में होने से ही फलित हुए। काश, वे परिग्रहधारी रहे स्व-स्वभावी कैसे?
होते तो न उनमें अहिंसा हाती न सत्य, अचौर्य और ब्रह्मउक्त सभी बातों के निर्णय के लिए जैन धर्म ने एक चर्य ही होते । फिर, "जिन' और 'जन' में अन्यों से कुछ