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________________ २४, १८,कि.. से इन्हीं का स्वाध्यायादि करना प्रारम्भ कर दिया। आये, परन्तु हमको मालूम नहीं है, इसलिए कोणिका को अर्थात् जिस समय स्वाध्याय का समय होता, वे इन्ही तीन (पुत्री को) बतलाने के लिये आए हैं । देखो, वे कहते हैं संर श्लोकों का पाठ किया करते थे। निदान बिहार कि "अण्णथ किं पलोवसि तुम्हें एपम्मिणिबुढ़िया छिरे करते हुये वे धर्म नगर के बाग में जा, कायोत्सर्ग ध्यान- अच्छा कोणिया" अर्थात् यहां वहां खोज क्या करते हो, पूर्वक ठहरे। यह वही नगर था, जहा कि ये पूर्व में राजा कोणिका बिल में अर्थात् तहखाने में पड़ी है।" पश्चात थे।इनके आने की खबर सुन गर्दभ राजा और दीर्घमन्त्री जब मुनि ने तीसरा बण्डश्लोक पढ़ा, तब गर्दभ ने विचार ये दोनों यह समझ कर कि कहीं ये हमारा राज्य लेने को किया कि मुनि यह कहते हैं कि "अम्हादी गत्यि भयं न पाए हों, मारने को आये और यम मुनि के पीछे आ दीहादो भयं दीसते तुम्भ" अर्थात् मेरा भय कुछ नहीं है, बड़े हो गए। दीमत्री बार बार मारने के लिए तलवार तुझे दीहादि अर्थात् दीर्धादि से भय करना चाहिये" इससे उठाता परन्तु यह सोच कर कि व्रती का वध करने में जान पड़ता है कि दोर्ष मेरे साथ कुछ दुष्टता करेगा। बड़ा भारी पाप होता है, फिर रह जाता । और यही हाल बेचारे मुनि ती दयावान हैं। मोह के वश मुझे सचेत गर्दभ का था, अर्थात् वह भी इसी प्रकार तलवार उठा करने को आये हैं । इस प्रकार श्रदान करके वे दोनो मुनि शंकित चित्त हो रह जाता था। इसी समय मुनि के के पैरों पर गिर पड़े और धर्मश्रवण करके श्रावक होगये । स्वाध्याय का समय हुआ, अतएव उन्होंने अपने पूर्व रचित यह देख मुनि भी उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त हुये और खम लोकों का पढ़ना प्रारम्भ किया और पहले प्रथम उत्तम चरित्र के प्रभाव से अणिमादि सात ऋविधारी हुए। खण्ड प्रलोक को पढ़ा। उसे सुन गर्दभ ने दीर्घ से कहा- पश्चात् कुछ दिनों में घोर तपस्या कर अष्ट कमों को खपा मन्त्री जी, मुनि ने हमको जान लिया । देखो, वे कहते हैं कर मोक्ष को चले गये। कि "कहढं पुण णिवखेवसि रे गद्दहा जव पच्छेसि बादिउ" सारांश यह है कि इस प्रकार ऐसे श्रुत-स्वाध्याय से अर्थात "रे गधे, बार बार क्यो तलवार निकालता है, भी यम मुनि मोक्ष को प्राप्त हुए, यदि दूसरे लोग भी और फिर क्यों भीतर कर लेता है।" पश्चात् मुनि ने श्रेष्ठ शास्त्रों का अभ्यास करें, तो क्यों न अभीष्ट पदको दूसरे खण्ड फ्लोक का पाठ किया । तब गर्दभ ने अनुमान पावें ? अवश्य ही पावें। करके कहा-मन्त्री जी, मुनि हमारा राज्य लेने को नहीं -'पुण्यात्रव कथा कोश से ( आवरण पृष्ठ ३ का शेषांश ) १२. किसी के अवगुण को कषाय से मत देखो, हितको दृष्टिसे देखना कोई हानिकर नहीं। मात्मश्लाघाके लिए अच्छा कार्य करने का संकल्प मत करो। ऐसे कार्य करो जो लोगोंकी दृष्टि में मान पोषक न समझे जावें । आवेगमें आकर व्रत ग्रहण मत करो। प्रत ग्रहणका फल निवृत्तिमार्गकी प्राप्तिमें पर्यवसान हो । जो कार्य करो उसका फल उस कार्यकी सामग्री फिर न हो यही लक्ष्य रखना चाहिए। (३०१४) ११.क्यों परकी ओर देखते हो? कोई कुछ करे तुम उस ओर लक्ष्य ही मत दो। यदि कोई तुम से कहे-बड़े अज्ञानी हो सुन कर शान्त रहो । शब्द वर्गणाएं पुगलका परिणमन हैं, उनका तादात्म्य पुद्गलसे है, वाम्यासे नहीं । वाच्या काल्पनिक है जिससे लौकिक व्यवहार चल रहा है।
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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