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________________ हमारे लिखने से संबंधित लोय इष्ट भी हो सकते हैं कल्पित सौर्यकर 'सूर्यकीति की मूर्ति हमारे देखते-देखतेपर लिखना तो हमें है ही। सो-इधर इस युग में, विरोध करते भी माजे बाजे के साथ जोर-शोर से स्थाबहुत से अभिनन्दन अंध भी प्रकाशित हुए और हो रहे पित्त हुई और हम उसे शेक न सके विरोध में सत्याग्रह हैं। उनमें कई तो जिन मंदिरों में भी पहुंच चुके हैं। का ऐलान करने वाले भी गायब रहे। कुछ लोय असफल यद्यपि ऐसे ग्रंथ किसी अनुयोग में नहीं आते फिर भी कुछ होकर भी शेप मिटाने के लिए "ये हो गया, पो हो गया लोग इन्हें मंदिरों में चौकियों पर रख इनका वाचन जब हम गागे यह करेंगे, वो करेंगे" धादि नारों से समाज करने लगे हैं। हमने जब एक प्रबुद्ध सज्जन को तथ्य बल- को भ्रमित या आश्वस्त करते रहे। तब अभिनन्दनपथ आदि लाया तो वे विरमित तो हो गए; किन बोले- इसमे प्रज्छन्न रूप में हमारी जिनवाणी के स्थान पर विराजआगम विरुद्ध तो कुछ भी नहीं है; आदि। मान होकर भविष्य में अभिनादन नायका को शलाका आशंका है कि कमी ऐसे ग्रंथ जिनवाणी का स्थान पुरुषों में शामिल कराई तो आश्चर्य नहीं। भले ही ही न ले लें। क्योकि साधारण जन की दृष्टि में ये भी बलाका पुरुषो में अभिनन्दित व्यक्ति के नाम का अभाव जिनवाणी की भांति पूर्वापरविरोध रहित होते है। इन ही क्यों न हो? सूर्यकोति का नाम भी तो थंकरों की ग्रंथो में शलाका पुरुषों के चरित्रो की भाति ग्रन्थ नायक सूची में नही था । अन हमे कहने में तनिक भी संकोच के (वह भी) प्रशसिन-चरित्र मात्र का ही वर्णन होता है। नहीं कि सभी असल साहिय की भाति अभिनदन ग्रंथ आदि उनमें कुछ धार्मिक, ऐतिहासिक और ताजिक कई लेख को भी मंदिरों-शस्त्र पंडारो से बाहर निकाला जाता भी शामिल होते है। ये प्राकृत-सस्कृत जैमी क्लिट मूल- चाहिए । लाग बुगन माने जोर मोचे कि खरी बात भाषा मे भी नहीं होते। पाठक इन्हें चि से और आसानी बहने वालो का विरोध कब तक कर रहेगे- उनके मुह मे पढ़ लेते हैं। उन्हें जैन से कोई विरोध भी प्रनीत नही पर ताला कब ना लगा रहेग? क्या वे पाहत है कि होता। यानी उनकी दृष्टि में इनमे चारो अनुयोग एक मच्चाई का गला घोट दिया जाय ! पाडा है कि माथ ही उपलब्ध हो रहे होते है अत: उन्हें ये सच्चो सचाई का गवाना पोटने पर उनका व्यापार पहो. जिनवाणी ही हैं। जायगा ? जरा-सोचिए ! पर. इसे भलीमाति ममझ लिया राय कि जब ---सपादक (पृ० २४ का क्षेपाश) देवता का स्मरण कर लो उसके गले पर तलवार का कमा रनब वसुपाल को राम श्रीपाल को यौवराज्य प्रहार किया। परन्तु वह तलवार कुवरप्रिय के कण्ठ का पद और कुवेरप्रिय के पुत्र बुबंगकात को श्रेष्ठी पद देकर स्पर्श करते ही उसके कण्ठ में मुन्दर हार रूप में परिणत उन्होने अनेक जनों के माय जिनदीक्षा ग्रहण की । सत्यवती हो गई। नब चांडाल "जय जय" शब्द करता हुआ अदय आदिक अनेक रानियो में भी आयिका के न धारण जा खुढ़ा हमा। यह देख चपनगति को और भी ईर्षा हुई, किए। उम चांडाल ने प्रतिज्ञा की कि मैं भी पर्व के दिनों इसलिए उसने सेवको महित बोर भी अनेक शम्त्री का में अहिंसाबत और उपवास करूगा । यह वही चौहान है, वार किया । परन्तु वे समस्त शस्त्र कोई फन स्थप और जिसमे लाक्षागृह मे लाख के घर में) विद्योग के लिए कोई पुष्परूप हो गए । देवों ने पाश्चर्य किये । यह खबर धर्मोपदेश दिया था। कुवेरप्रिय और गुमपाल मुनि ने घोर राजाको भीडई। इसलिए उसने पाकर चपलतका तप करके कैमाश पर कबनशान प्राप्त किया और कुछ काना मुंह कर गधे पर चढ़ाकर देशा से निकलवा दिया काल टा. वही से मोक्ष को गए। इस तरह कुवेरप्रिय और कुतेरप्रिय से क्षमा मांगी। बहत परिग्रही होने पर भी देवों के द्वारा पूजित हुआ। कप्रिय ने क्षमा करके कहा- मैं तो दिगम्बरीय झोल के प्रभाव से क्या मही हो सकता ? अर्थात सब कुछ दीक्षा धारण करना । राजा ने कहा-में भी धारण हो सकता है।
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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