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________________ ३८ बर्ष ३८, कि०४ अनेकान्त इन श्रमणों का इस देश में रहने का कारण यही करते हैं, ऋषि और मुनि शब्द का प्रयोग बहुत कुछ था कि दिगम्बर वेश भारतीय संस्कृति में सर्वश्रेष्ठ एवं मिले-जुले अर्थ में होने लगा था। दोनों संस्कृतियों में परम वन्दनीय अवस्था मानी गई है। आचार्य सोमदेव ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से भिन्नता है। ऋषि सूरि लिखते हैं कि "लोक मे नग्नत्व सहज है, स्वाभाविक या वैदिक संस्कृति में कर्मकाण्ड की प्रधानता और अस. है । वस्त्रों से शरीर का आच्छादन विकार है।' हिष्णुता की प्रवृत्ति बढ़ी, तो श्रमण संस्कृति अथवा मुनि वैराग्यशतक में भी इस प्रकार की प्रार्थना की गई है संस्कृति में अहिंमा, निरामिषता तथा विचार सहिष्णुता कि "हे शम्भो ! वह समय कब आयेगा जब मैं एकाकी, की प्रवृत्ति दिखलाई दी।" इच्छा रहित, शान्त, करपात्रधारी, दिगम्बर, होकर कर्म- इस प्रकार श्रमण संस्कृति में सहिष्णुता, अहिंसा, निर्मूलन (निर्जरा) करने में समर्थ होऊंगा ।' तैत्तिरीय निरामिषता की प्रमुखता थी, जबकि वैदिक संस्कृति में आरण्यक मे भगवान ऋशभदेव के शिष्यों को वातरशन असहिष्णुता, कर्मकाण्ड की प्रधानता तथा वैदिक हिंसा ऋषि और ऊर्ध्वमथी कहा गया है। श्रीमद्भागवत पुराण हिसा न भवति' थी। अतः दोनों संस्कृतियो में पर्याप्त अंतर में लिखा है, 'स्वयं भगवान विष्णु महाराज नामि का दृष्टिगोचर होता है। डा. गुलाबराय ने श्रमण एवं प्रिय करने के लिए उनके रनिवाम मे महारानी महदेवी वैदिक संस्कृतियों के आदान-प्रदान का वर्णन करते हुए के गर्भ में आए। उन्होंने वातरशना श्रमण ऋषियो के इस प्रकार लिखा है, "वैदिक और श्रमण संरकृति में धर्म को प्रकट करने की इच्छा से यह अवतार ग्रहण सामजस्य का भावना क आधार पर आदान-प्रदान किया । और इन्होने भारतवर्ष की वैदिक एकता बनाये रखने का इस प्रकार श्रमण सस्कृति के प्रणेता प्राकृतिक (नग्न) महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की वेष मे विचरण करते थे और हर प्रकार के व्यसन से परम्परा का प्रतिनिधित्व भी जैन में किया।" मुक्त थे। उनको किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं थी श्रमण संस्कृति तथा वैदिक सस्कृति दोनो ने भारतीय तथा वे समत्व भाव को प्राप्त कर चुके थे। इन्ही उच्च संस्कृति के क्षेत्र में अपना अपना योगदान दिया और बादशों एव उज्ज्वल चरित्र के कारण जन साधारण तथा उसको सम्पन्न बनाया। इनमें भी श्रमण संस्कृति ने राजा महाराजाओं मे वे पूजनीय समझे जाते थे। राजा भारतीय संस्कृति को अमरत्व प्रदान किया। इसने सहिजनक उन्हें बड़े सम्मान के साथ आहार कराते थे। पुणुता, अहिंसा, त्याग, उदारता, सत्य, अपरिग्रह, विश्वमात्म विद्या विशारद भी यही श्रमण थे।" बन्धुत्व एवं सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् श्रमण संस्कृति एवं वैदिक संस्कृति :-श्रमण चारित्र आदि अमूल्य रत्नों से विभूषित किया। इस विषय संस्कृति का वैदिक संस्कृति पर बहुत प्रभाव पड़ा। स. में श्री वाचस्पति गैरोला का कथन बहुत ही उपयुक्त हैवासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है, 'श्रमण परम्परा के "भारतीय विचारधारा हमें आदिकाल से ही दो रूपों में कारण ब्राह्मण धर्म में वानप्रस्थ और सन्यास को प्रश्रय विभक्त हुई मिलती है।" पहली विचारधारा परम्परा मिला।" श्रमण मुनि तथा वैदिक संस्कृति के प्रतीक ऋषि मूलक ब्राह्मणवादी रही है, जिसका विकास वैदिक साहित्य शब्द की विशेषता तथा दोनों संस्कृतियों के मध्य अन्तर के वृहत् रूप में प्रकट हुआ। दूसरी विचारधारा पुरुषार्ड का उल्लेख करते हुए डा. गुलाबराय ने लिखा है कि मूलक, प्रगतिशील, धामण्य या श्रमण प्रधान रही है, "इस प्रकार मुनि शब्द के साथ शान, तप और वैराग्य जिसमें आचरण को प्रमुखता दी गई। ये दोनों विचारजैसी घटनामों का महरा सम्बन्ध है।" मुनि शब्द का धाराएं एक दूसरे की प्रपूरक भी रही और विरोधी भी। प्रयोग वैदिक संहिताओं में बहुत ही कम हुआ है। श्रमण इस राष्ट्र की बौद्धिक एकता को बनाए रखने में इन दोनों संस्कृति में ही यह सम अधिकांशतः प्रयुक्त हुआ है। का समान एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। पहली ब्रह्मवादी पुराणों में जो वैदिकता को बाराकों का समन्वय प्रस्तुत विचारधारा का जन्म पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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