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श्रमण संस्कृति एवं उसकी
विशेषताएं
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में हुबा और दूसरी बमण प्रधान विचारधारा का उद्भव श्रम संस्कृति की आधार भूत असि-मसि-कृषि-वाणिज्य आसाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा पूर्वी विद्या और शिल्प का उपदेश देकर मानव को 'जल में उत्तर प्रदेश के व्यापक अञ्चल में हुआ। श्रमण प्रधान भिन्न कमसवत रहने की चिना दी और मोम का द्वार विचारधारा के जनक थे जैन ।
खोला । उन्होंने बतलाया कि हे प्राणी तू संसार में जब श्रमेणसंस्कृति की विशेषतायें:
तक रहे, आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भी आवश्कता श्रमण संस्कृति विश्व की सस्कृतियों में अपना अपूर्व, पूर्ति के साधनों से ममत्व मत कर, उन साधनों का अधिक. प्राचीन और महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस संस्कृति में संचय मत कर । तू विषय वासनाओं को नश्वर समा। अपनी निज की अनेक विशेषतायें हैं, जिनके कारण इसने इसी मान्यता का प्रभाव संतोष और सुख की झलक के विश्व के सामने महान आदर्श प्रस्तुत किया है। इस रूप में मिल रहा है। संस्कृति की प्रमुख विशेषतायें निम्न हैं ।
जीमो और जीने दो:-इस सिद्धान्त का स्रोत २.श्रम औरत:--श्रम और तप श्रमण संस्कृति श्रमण संस्कृति अथवा जैन परम्परा ही है। इस आत्म-सतोष की प्रमुख विशेषतायें हैं। जो श्रम करता है, संयमित के साथ पराये अधिकारों का परहित सरक्षण भी है। जीवन बिताता है वह श्रमण है । श्रमण मुनियों का जीवन यदि मनुष्य चाहता है कि उसे कोई नष्ट न दे, उसके आदर्श एवं त्यागपूर्ण होता है। उनका प्रत्येक क्षण तप- अधिकारों से वंचित न करे तो उसका मुख्य कर्तव्य है कि श्चर्या-आत्म साधना में व्यतीत होता है। दिगम्बर मुनि वह स्वयं जीये और दूसरों को भी जीने दे। इस भावना (श्रमण) चर्या सुगम नहीं यह महाव्रती का जीवन है। से चोरी जैसे पर दुखदायी और आत्म-पतन जैसे निन्द्य अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह उनके कर्म का त्याग भी होता है। परिग्रह के परिमाण और महाबत हैं।
त्याग की भावना में उक्त सिद्धान्त अमोघ अस्त्र है। चारित्र की महत्ता:-श्रमण संस्कृति में चारित्र सुख का मूल मन्त्र आत्मोपलब्धि:-सांसारिक निर्माण पर पूर्ण बल दिया गया है । चारित्र आत्म विकास नश्वर विषय वासनाओ से विरक्त हो अविनाशी परमपद का स्रोत है । चारित्र के स्वरूप का अवलोकन करने और मोक्ष प्राप्त करना जैन सस्कृति के श्रमणों का मूल उद्देश्य उसके सौरभ का पान करने के लिये चक्रवर्ती सम्राट् और रहा है इसी का प्रतिफल है कि श्रमणों ने तार का भी स्वर्ग के देव-इन्द्र भी तरसते हैं। एक मात्र मनुष्य जन्म परित्याग कर दिया है। जैन श्रावक (गृहस्थ) के आचार ही ऐसा श्रेष्ट है, जिसमे चारित्र को धारण कर रत्नत्रय में इस आत्मोपलब्धि द्वार की झलक उसके अणवत, के आधार से मोक्ष तक प्राप्त किया जा सकता है । ससार गुणवत और शिक्षा व्रतो मे मिलती है । आत्मोपलब्धि श्रमण की समस्त परम्परायें रहे या जायें, कुछ बनता बिगड़ता परम्परा में अनवरत रूप से पाई जाती है। नाही, परन्तु यदि चारित्र रत्न चला गया तो आत्मविकास विगम्बरस्व:-पदार्थों के शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से चला गया। ऐसा समझना चाहिये । चारित्र ही धर्म है। सतार का प्रत्येक पदार्थ दिगम्बर रूप है। जब तक इस कहा भी है कि चारित्र के समान अन्य कोई परम तप रूप की प्राप्ति नही होती पदार्थ के स्वरूप का दर्शन नहीं नहीं है। यह चरित्र दो प्रकार का है -१“सकल चारित्र हो सकता। उदाहरणार्थ जव तक अग्नि राख से ढकी (श्रम सम्बन्धी चारित्र) २" विकल चारित्र (प्रहस्थ सम्ब- रहती है, उसका सेज अप्रकट ही रहता है । वस्त्र आदि न्धी चारित्र)
व्याधि हैं, यहां तक कि यह शरीर जो अपने साथ दृष्टिविषय पराङ्मुखता:-भोग भूमि काल में जब गोचर हो रहा है आत्मा का मावरण है। जब तक ऐसे मनुष्य संस्कृति विहीन अवस्था में था तब वह विषयों की सांसारिक पर पदार्थों से मोह नहीं छोड़ा जायेगा, इनका और दौड़ने मे सुख मानता था। उसे आत्म-परमात्म का परित्याग नहीं किया जायेगा तब तक आत्मोपलब्धि नहीं दोष न था। कर्म भूमि के आदि में तीर्थंकर ऋषभदेव ने हो सकेगी।