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सुख-दुख में समता भाव:-मनुष्य के मन है। है। यह देन उन विश्ववन्य वीतराग तीर्थकरों की है, जब तक मन की क्रिया होती रहती है उसमें अच्छे बुरे जिन्होंने मनुष्य मात्र के कल्याण का मार्ग दर्शन किया। सभी प्रकार के विकल्प उठते रहते हैं। इन्ही विकल्पों का जो क्षेत्रीय प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय रागों से ऊपर उठकर नाम सुख-दुख है। ज्ञानी पुरूष इनमें राग-द्वेष नही करते। मनुष्य मात्र के कल्याण का चिंतन करते थे। जिनकी उनकी भावनाओं में सुख में मग्न न फूलें दुख में कभी न चरण-छाया में बैठने वाले आचायों ने 'क्षेमं सर्व प्रजानाम् घबराये की ध्वनि ही गूंजती है। जैसे दिन के पश्चान लिखा, न कि किसी एक जाति विशेष को लक्ष्य करके रात्रि और रात्रि के पश्चात दिन होता है वैसे ही सुख के हितोपदेश दिया। बाद दुख और दुख के बाद सुख का उदय होता है । ये श्रमरण सस्कृति की प्राचीनता:-श्रमण संस्कृति बस्त के अपने रूप नही, मानव की कल्पनाओ के रूप हैं विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृति है। यह संस्कृति सिन्ध, और क्षणिक है । अतः श्रमण संस्कृति में क्षणिकत्व जैसे मिस्र, यूनान, बेबीलोने तथा रोम की संस्कृतियों से कहीं इन नश्वर विकल्पों पर हर्ष-विषाद के लिये कोई स्थान अधिक पुरातन है। भागवत का आद्यमनु स्वायम्भुव के नही। जैन श्रमण मुनि और श्रावक दोनों ही सुख-दुख में प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ देव को दिगम्बर श्रमण और समत्व भाव रखने के आदि बने । इमलिये पदार्थों के सत्य ऊर्ध्वगामीमुनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता माना है। स्वरूप और अनित्य आवरण आदि भावनाओ का विषद उन्होंने ही श्रमण धर्म को जन्म दिया था। उनके सौ पुत्रों और निदोष विवेचन श्रमण संस्कृति मे किया गया है। मे से ६ पुत्र श्रमण बने ।" ऋषभदेव के सौ पुत्रो मे से १
नारी की प्रतिष्ठा :--नर और नारी ये दोनों रूप पुत्र बड़े भाग्यशाली थे। आत्मज्ञान में निपुण थे और परप्राकृतिक और अनादि नियम हैं। दोनों का अपना स्वतंत्र मार्थ के अभिलाषी थे। वे श्रमण दिगम्बर मुनि बन गये । अस्तित्व है। अतः श्रमण संस्कृति में नारी की पूर्ण प्रतिष्ठा वे अनशन आदिक तप करते थे। जो स्वयं तपश्चरण रही है । युग के अनादि तीर्थकर ऋषभदेव की दो पुत्रियों करते है वे श्रमण हैं। ब्राह्मी और सुन्दरी तथा कालान्तर में समय-समय पर होने ऋषभदेव के उपरान्त अनेक दिगम्बर जैन मुनियों ने इस वाली अनेकों नारियों ने सामाजिक और धार्मिक दोनों ही श्रमण संस्कृति की धारा को प्रवाहित किया । सभी तीर्थक्षेत्रों में आदर्श उपस्थित कर यश अर्जन किया है। वे योग्य कर श्रमण थे और उन्होंने श्रमण धर्म का उपदेश दिया से योग्य माता, आदर्श नारी और सौभ्यता की मूर्ति श्रम तथा इस संस्कृति में महान योगदान दिया। ऋषभदेव से णी-साध्वी तक हुई है । अतीत से वर्तमान तक की धारा लेकर महाश्रमण बर्द्धमान महावीर तीर्थकर तक श्रमण में होने वाली आदर्श नारियों में धर्मपरायण, पति परायण, संस्कति की धारा निरन्तर प्रवाहित होती रही। श्रमण आत्म परायणा सभी वर्ग की नारियाँ सम्मिलित हैं। धर्म ही आगे चलकर जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
माता मरूदेवी, महारानी त्रिशला, रानी चेलना, श्रमण संस्कति अथवा जैन धर्म की प्राचीनता सिन्धु घाटी महारानी सीता, द्रोपदी, चन्दनबाला, मैना सुन्दरी आदि में उत्खनन में प्राप्त ऋषभदेव की मूर्ति से स्पष्ट हो जाती सहस्रों सती नारिया ऐसी हुई है, जिन्हें पूर्ण सम्मान मिला है। सिन्ध सभ्यता के लोग ऋषभदेव की भी पूजा करते और जिनकी यशोगाथा आज भी आदर्श रूप है। थे तभी तो वहां से उनकी मूर्ति प्राप्त हुई है।
संक्षेप में यही श्रमण संस्कृति की प्रमुख विशेषतायें डा० विशुद्धानन्द पाठक तथा डा. जयशंकर मिश्र का हैं । अपनी उपर्युक्त विशेषताओं के कारण ही श्रमण विचार है कि "विद्वानों का अभिमत है कि जैन धर्म प्रागैसंस्कृति का यशोगान विश्व में होता रहा है। भारतीय तिहासिक और प्राग्वैदिक है । सिन्धु घाटी की सभ्यता से अमण संस्कृति के उदात्त तत्वों के प्रति आस्था ही वर्तमान मिली योगमूर्ति तथा ऋषभदेव के कतिपय मंत्रो में ऋषभ विश्व को संकट से परित्राण दिला सकती है । मानव जगत तथा अरिष्टने मी जैसे तीर्थकरों के नाम इस विचार के में मात्स्य न्याय की प्रवृति का निवारण इसी से हो सकता मुख्य आधार है। भागवत और विष्णु पुराग में मिलने