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________________ पूज्य प्राचार्य सूर्य सागर महाराज के उद्गार [माघ शु० ११ वि० सं० २००७ ] आज त्यागी छोटी-मोटी प्रतिज्ञा लेकर घर छोड़ देते हैं और अपने आपको एकदम पराश्रित कर देते हैं। इस क्रिया से त्यागियों की प्रतिष्ठा समाज में कम होती जा रही है। समन्तभद्र स्वामी ने परित्रहत्याग का जो कम रक्खा है उसी क्रम से यदि परिग्रह का त्याग हो तो त्यायो पुरुष को कभी व्यग्रता का अनुभव न करना पड़े। सातवी प्रतिमा सक न्याय पूर्ण व्यापार करने की आगम में छूट है फिर क्यों पहली दूसरी प्रतिमाधारी त्यागी व्यापारादि छोड़ भोजन अस्त्रादि के लिए परमुखापेक्षी बन जाते है। यद्यपि आशाधर जी ने गृहविरत श्रावक का भी वर्णन किया है पर वह अपने पास इतना परिग्रह रखता है जितने में उसका निर्वाह हो सकता है। यधार्थ में पर-गृह भोजन १०वी ग्यारहवी प्रतिमा से शुरू होता है। उसके पहले जो व्रती पर-गृह भोजन सापेक्ष होते हैं उन्हें संक्लेश का अनुभव करना पड़ता है। पास का पैसा छोड़ दिया और यातायात की इच्छा घटी नही ऐसी स्थिति में कितने ही त्यागी लोग तीर्थ यात्रादि के बहाने गृहस्थों से पैसे की याचना करते हैं। यह मार्ग अच्छा नही है । यदि याचना ही करनी थी तो त्याग का बाडम्बर ही क्यों किया ? रयाग का आडम्बर करने के बाद भी यदि अन्तःकरण में नही आया तो यह आत्मवञ्चना कहलायेगी। त्यागी को किसी संस्थान-वाद में नहीं पढ़ना चाहिए । यह कार्य गृहस्थों का है । त्यागी को इस दल-दल से दूर रहना चाहिए। घर छोड़ा, व्यापार छोडा, बाल-बच्चे छोडे, इस भावना से कि हमारा कर्तृत्व का अहंभाव दूर हो और समता भाव से आत्मकल्याण करें, पर त्यागी होने पर भी वहब ना रहा तो क्या किया? इस संस्थावाद के दल. दल में फंसाने वाला तत्त्व लोकषणा की चाह है। जिसके हृदय में यह विद्यमान रहती है वह संस्थाओं के कार्य दिखा कर लोक में अपनी ख्याति बढ़ाना चाहता है पर इरा थोथी लोकपणा से क्या होने जाने वाला है? जब तक लोगो का स्वार्थ किसी से सिद्ध होता है तब तक वे उनके गीत गाते है और जब स्वार्थ मे कमी पड़ जाती है तो फिर टके को भी नहीं पूछते । इसलिए आत्मपरिणामो पर दृष्टि रखते हुए जितना उपदेश बन सके उतना त्यागी दे, अधिक को व्यग्रता न करे । त्यागी को ज्ञान का अभ्यास अच्छा करना चाहिए। आज कितने ही त्यागी ऐसे हैं जो सभ्यग्दर्शन का लक्षण नही जानते, आठ मूल गुणो के नाम नहीं गिना पाते। ऐसे त्यागी अपने जीवन का समय किस प्रकार यापन करते हैं वे जाने । मेरी तो प्रेरणा है कि त्यागी को क्रम पूर्वक अध्ययन करने का अभ्यास करना चाहिए । समाज मे त्यागियों की कमी नही परन्तु जिन्हें आगम का अम्बाम है ऐसे स्यामी कितने है ? आगमज्ञान के बिना लोक में प्रतिष्ठा नही और प्रतिष्ठा की चाह घटी नही इसलिए उट-पांग क्रियाएं बताकर भोली-भाली जनता में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखना चाहते हैं पर इसे धर्म का रूप कैसे कहा जा सकता है ? ज्ञान का अभ्यास जिसे है वह सदा अपने परिणामों को तौल कर ही व्रत धारण करता है। परिणामों की गति को समझे बिना ज्ञानी मानव कभी प्रवृत्ति नहीं करता अतः मुनि हो चाहे श्रावक, सबको अभ्यास करना चाहिए । अभ्यास की दृष्टि से यदि दस बीस त्यागी एकत्र रह कर किसो विद्वान से अध्ययन करना चाहते है तो गृहस्थ लोग उसकी व्यवस्था कर दे सकते हैं। आज का व्रती वर्ग चाहे मुनि हो, चाहे श्रावक, स्वच्छन्द होकर विचरना चाहता है यह उचित नहीं है। मुनियों में तो उस मुनि के लिए एकल विहारी होने की आशा है जो गुरु के सान्निध्य में रहकर अपने आचार-विचार में पूर्ण दक्ष हो तथा धर्म-प्रचार की भावना से गुरु जिसे एकाको विहार करने की आज्ञा दे दें। आज यह देखा जाता है कि जिस गुरु से दीक्षा लेते हैं उसी गुरु की आज्ञा पालन में अपने को असमर्थ देख नवदीक्षित मूनि स्वयं एकाकी बिहार करने लगते हैं। गुरु के साथ अथवा अन्य साथियो के साथ विहार करने में इस बात को बना या भय का अस्तित्व रहता था कि यदि हमारी प्रवृत्ति आगम के विरुद्ध होगी तो लोग हमें बुरा कहेंगे, गुरु प्रायश्चित्त देंगे। पर एकल बिहारी
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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