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उत्तम ब्रह्मचर्य : एक अनुशीलन
लेखक : 810 कस्तूरचंद 'सुमन'
जैन धर्म में दस धर्म बताये गए हैं, उनमे यह शांति है।" किन्तु वे सुख साधन उपलब्ध होने पर भी उन्हें तब धर्म है।' आवार्य समन्तभद्र ने धर्म की संज्ञा उसे दी है तक ग्रहण नही करते जब तक कि वे उनसे परिचित नही जो जीवो को समार के दुःखों से निकाल कर उसम सुखों हो जाते। अतः ब्रह्मचर्य के विविध रूपों को आइए हम में पहुंचाता है, कर्मों का नाशक होता है, और उभय लोक समझें । में उपकार करता है। ब्रह्मचर्य एक ऐसा ही धर्म है। याचार्य उमा स्वामी ने "मैथुनमब्रह्म" कह कर मेथुन इसका धर्मों के अन्त में कहा जाना इस तथ्य का प्रतीक है क्रिया को अब्रह्म कहा है। तथा अमृतचन्द्राचार्य ने वेद कि इसके पूर्व कथित धर्मों की साधना के उपरान्त ही इस और राग के योग को मथुन संज्ञा दी है और उसे ही अब्रह्म धर्म की साधना सम्भव है। इस धर्म के सम्बन्ध में मुनि कहा है। भगवती-आराधना में ब्रह्म का अर्थ जीव बताया विद्यानन्द जी के विचार उल्लेखनीय है "जिस प्रकार है तथा पचनन्दि पञ्चविंशतिका में आत्मा। मन्दिर बनाने के बाद स्वर्ण कलश चढ़ाते हैं उसी प्रकार अतः इन उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है यह धर्म पर चढ़ा हुआ स्वर्ण कलश है। अतः कहा जा कि आत्मा का उपयोग आत्मा में ही लीन होने लगना, सकता है कि मानव जीवन में इसका उतना ही महत्व है ब्रह्मचर्य है । जैसे कछुआ दुःखों का संकेत पाकर अपने जितना महत्व है मन्दिर के स्वर्ण कलश का मन्दिर के अंगों का संकोच कर लेता है इसी प्रकार सुखाभिलाषी निर्माण में।"
जीव को भी विषयों से मुख मोड़ना होगा। ___ संसारी प्राणी दुःखों से भयभीत हैं वे सुख चाहते अब्रह्म अर्थात् मथुन के त्याग में आचार्यों की अन्त(पृ. १५ का शेषांश)
निहित भावना यही है कि प्राणी सुखी हो । सुख का २. त्रिषष्टिशालाका पुरुष चरित्र खण्ड ५ (हेमचन्द्रकृत)
कारण धर्म, जीव-दया पर आश्रित है तथा मैथुन है हिंसा अनु० हेलेन एम० जानसन, गायकवाड़ ओरियण्टल
जनित दोषों से पूर्ण ।' राग-जनित होने से भाव-प्राणों का सिरीज १३९ बड़ोदा १९६२ पृष्ठ ३६४-६६ ।
भी घातक है: रज और वीर्य जनित कीटाणुओं का घात ३. तिवारी मारुति नन्दन प्रसाद जैन प्रतिमा विज्ञान होने से द्रव्य प्राणो की हिंसा होती ही है। वाराणसी १९८१ पृष्ठ १२४-२५।
जीव दया का तात्पर्य शरीर दया नही है क्योकि ४. ठाकुर एस. आर. कैटलाग आफ स्काचर्स आर्केला- जीव नहीं है। जीव तो शरीर से भिन्न है । चैतन्य
जीकल म्यूजियम मध्य भारत पृष्ठ २१ क्रमांक ७। स्वभावी है। यथार्थ में उसकी रक्षा करता है-उसे ५. वही पृष्ठ २२ क्रमांक १२।
विकृति में नहीं जाने देना । अब्रह्म से हटकर ब्रह्म में रमण ६. वही पृष्ठ २३ क्रमांक १८ ।
करने से ऐसी ही जीव दया का संरक्षण होता है। और ७. दीक्षित एस० के० ए गाईड टू दो सेन्ट्रल आर्केलो- इसीलिए आवश्यक है कि हम ब्रह्म मे रमण करें । हिंसा
जीकल म्यूजियम ग्वालियर १९६२ पृष्ठ ४२, जनित अब्रह्म से बचें। एव ठाकुर एस० आर० पूर्वोक्त पृष्ठ २१ क्रमांक । निश्चय नय से तो ब्रह्मचर्य का यही स्वरूप है। मुनि
केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय, ऐसे ही ब्रह्मचर्य को धारते हैं, किन्तु व्यवहार से स्वकीय
गूजरीमहल, ग्वालियर परकीय दोनों प्रकार की स्त्रियों का त्याग हो जाना ब्रह्म