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________________ १२, बर्ष ३८ कि.१ भनेकान्त यदि पलटना नहीं तो चिंतन कैसा? वह तो कूटस्थपना ही अपितु मन को हटाना पड़ता है और इस मन को हटाना है और मन कटस्थ है तो वह मन कैसा ? फिर यदि मन ही-पर से निवृत्ति करना ही अपरिग्रह है और जैनसंक्रान्ति नही करता तो वहां कौन सी क्रिया करता है? दर्शन को यही निवृत्ति इष्ट है। फलत:-इस मायने में और जो क्रिया करता है वह क्रिया 'आस्रव' क्यों नही? उत्कृष्ट ध्यान और अपरिग्रह दोनों एक ही श्रेणी में ठहरते जब कि आचार्य ने मन, वचन या काय की क्रिया को हैं और ऐसा किए बिना 'तपसा निर्जरा च' सूत्र की सार्थमानव कहा है ? कता भी नहीं बनती और जिन-दशा तथा मुक्ति भी नही उक्त सभी परिस्थितियों से हम इसी निष्कर्ष पर बनती । विचार दीजिए । इसमें हमें कोई आग्रह नहीं। पहचते हैं कि- उक्त ध्यान में मन लगाना नही पडता, 7 (पृ० २५ का शेशा४) कि जैन के विधाता और गुरुओं की क्या विशेषता रही है? श्रेणी में आते हैं) से रहित, एकाकार शुद्ध ज्ञान-ज्योति से प्रथमतः वे प्रमाद-परिहार मे ही सन्नद्ध रहे हैं । युक्त हों वे देव और जो वाह्याभ्यंतर सभी प्रकार के जहां तक देव का प्रसंग है वे सदा ही वीतरागी कहलाए परिग्रहों से रहित-निर्ग्रन्थ हो वे गुरु होते हैं। ये देव और है और जैन के गुरू भी निग्रंथ रूप में प्रसिद्ध रहे हैं और गुरु सर्व-शुद्धि अर्थात् पर से मुक्ति का मार्ग बतलाते हैं। उनका चरम-लक्ष्य भी वीतरागता की प्राप्ति हो रहा हैं। शास्त्रों में भी पढ़ा जाता है कि मुनिगण निकट आए वे कभी भी किसी आचार्य के द्वारा- समय के प्रभाव में हुए श्रावकों को धर्मोपदेश देते समय प्रथम अपरिग्रह रूप भी कभी अहिंमक या सत्यवादी (हरिश्चन्द्र) जैसे विशेषणो मुनिमार्ग और तदनन्तर श्रावकाचार का उपदेश देते हैं। से प्रसिद्ध नही किए गए और ना ही उनके निश्चित इसमें उनका भाव ऐसा ही रहता है कि श्रोता पहिले लक्षणों में कभी कोई अन्तर ही आया। तथाहि-देव का वास्तविकता को समझें कि सर्वपापों की जड परिग्रह है। लक्षण-'अष्टादशमहादोषविमुक्तं मुक्तिवल्लभ । यदि श्रोता के.भाव हुए तो वह इसी जड़ पर प्रथम प्रहार ज्ञानात्मपरमज्योतिर्देव वन्दे जिनेश्वरम् ॥' करेगा और परिग्रह त्याग के साथ उसके शेष सभी पापों गुरु का लक्षण-वाह्याभ्यंतरभेदेन निर्ग्रन्थं ग्रन्थ सयुतं । के धुल जाने का मार्ग खुल सकेगा। विना परिग्रह मे कर्मणालघुमप्युच्चैर्गुरु हि गुरुवो विदुः ।।' संकोच किए, कोई भी व्रत फलित नही होगा। जरा जो अठारह प्रकार के दोषों-(जो परिग्रह की ही सोचिए ! - 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-चीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री बाबूलाल जैन, २, अन्सारी रोड, दरियागंज नई दिल्ली-२ रराष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक सम्पादक-श्री पत्रचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं बाबूलाल जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। बाबूलाल जैन प्रकाशक
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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