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अपरिह बार उतारन्यान
मात्म-लक्ष्य के सिवाय अन्य का परिहार इष्ट है-इसी रूपस्य जैसे परावलम्बी ध्यानों को मोक्षमार्ग में परम्परित भाव में इच्छा निरोध को तप नाम दिया गया है- कारण होने से व्यवहार-ध्यानरूप और 'बहिरम्भंतर'तिणं रयणाणभाविब्भावट्ठमिच्छा निरोहो।'
किरियारोहों और रूपातीत जैसे स्वावलम्बी ध्यान को
निश्चय ध्यान रूप कहा है। यदि हम विचारें तो धवला'समस्तभावेच्छात्यागेन स्व-स्वरूपे प्रतपनं, विजयनं तप ।' कार के शब्दों से यह वात सर्वथा मेल खाती जैसी दिखती
प्रव० सा० ता. वृ०७४।१००११२ हैउक्त इच्छानिरोध में स्व और पर के भेद का संकेत अंतोमहत्तमेतं चितावल्याणमेगवति। भी नहीं है जिससे कि स्व की इच्छा को भी ग्राह्य माना जा छदुमत्थाणं झाण, 'जोगणिरोहो' जिणाणं तु॥' (उद्धृत) सके। यहां तो ऐसा ही मानना पड़ेगा कि ध्यान में सभी
___एक वस्तु मे अतर्मुहूर्त काल तक चिना का अवस्थानप्रकार की इच्छाओं (मन की क्रियाओं) का अभाव ही
रूप ध्यान छपस्थों का ध्यान है और योग निरोध रूप आचार्य को इष्ट है और वे आत्मा मे आत्मा के होने को
निश्चय ध्यान अर्हन्त भगवान का ध्यान है आदि। ही उत्कृष्ट ध्यान मानते हैं जो अपरिग्रहरूप है।
ऊपर के प्रसग से यह भी स्पष्ट है कि जिन्हें बात किन्हीं मनीषियों ने हमे 'एक पदार्थ को मुख्य बनाकर और रौद्र ध्यान के नामों से संबोधित किया जा रहा है वे उसके चिंतन में (मन का) रोध करना-मन को ठहरा सम्यग्दष्टी के लिए न तो व्यवहार ध्यान है और ना ही वे लेना ध्यान है' ऐसा अर्थ भी बतलाया है यानी उनके मत निश्चय की परिभाषामे आते हैं । अपितु यह कहा जाय कि में निरोध का अर्थ मन का स्थापित करना है। ऐसे मनी- वे सर्वथा अव्यवहार्य और जीव की दशा की अनिश्चिति में षियों को धवला मे आये 'निरोध' शब्द के अर्थ पर विचार कारण हैं, तो अधिक उपयुक्त होगा यतः वे मित्थ्याभाव करना चाहिए । और यह भी सोचना चाहिए कि मन को हैं। लगाने की क्रिया से आस्रव होगा या संवर-निर्जरा? एक साधारणत: 'ध्यान' शब्द ऐसा है जो जन साधारण में स्थान पर धवला मे निरोध के अर्थ को इस भांति स्पष्ट चिंता या चिंतन के अर्थ में प्रसिद्ध है-'ध्ये चितायाम्। किया गया है-को जोग णिरोहो? जोग विणासो।' उव. इसलिए लोग इस शब्द को विचार करने जैसे अर्थ में लगा यारेण जोगो चिता, तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि बैठते हैं। लोगों को समझना चाहिए कि यदि सर्वषा तं झाणमिदि।'
-वही पृ०६५-६६ विचार-चिन्तन ही ध्यान होता तो आचार्य शुक्ल ध्यान योग का निरोध क्या है ? योग का विनाश । उपचार की ऊपरी श्रेणियों में विचार का बहिष्कार न करते जैसा से चिता का नाम योग है। उस चिंता का एकाग्ररूप से कि उन्होंने किया है। वे कहते हैं-'अवीचारं द्वितीयं ।' जिसमे विनाश हो जाता है वह ध्यान है । किसी (एक की दूसरा एकत्ववितर्क नामा शुक्ल ध्यान वीचार रहित है भी) चिंता में लगे रहना, प्रसंग गत ध्यान नही और ना (तीसरा और चौथा शुक्ल ध्यान भी वीचार रहित है)। ही उस चिता में लगे रहने में, उससे संवर और निर्जरा विज्ञपुरुष इस बात को भली भांति जानते हैं किही है। यदि संवर निर्जरा है भी तो वह अन्य प्रवृत्ति से 'वीचारोऽर्थ व्यंजनयो संक्रान्तिः।' अर्थ और व्यंजन में निवृत्ति मात्र के कारण और उसी अनुपात में है-ध्यान विचारों की पलटती दशा संक्रान्ति कहलाती है और (क्रिया) से नहीं; वहां ध्यान नाम तो मात्र उपचार है। वीचार व विचार दोनों शब्द एकार्थक है यानी जब यह ऊपर के पूरे विवेचन से स्पष्ट होता है कि धवला निर्दिष्ट जीव अर्थ का विचार करते-करते कभी पर्याय पर चला दो ध्यानों के प्रकाश में ध्यान वही है जो संवर-निर्जरा का जाता है और कभी अर्थ पर चला जाता है तब उस पलहेतु हो? सि. च. नेमीचंद्राचार्य जी ने जो 'दुविहं पि टने की दशा को सक्रान्ति कहा जाता है। और वह ऊपरी मोक्खहे रूप में दो ध्यानों को प्ररूपित किया है उनमें अवस्थाओं में नहीं है। अब सोचिए ! कि जब मन का 'पणतीस सोलछप्पणचदुद्गमेग' तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, अर्थ चिन्तन है और चिंतन मे पलटना अवश्यंभावी है।