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हिन्दी जैन-काव्य के अज्ञात कवि
डा. गंगाराम गग
हिन्दी का मध्यकालीन जैन-काव्य अपनी 'रीति'- महात्म्य की ढाल । त्रिलोक पूजा की प्रशस्ति के अनुसार विरोधात्मक प्रकृति तथा समृद्धि दोनों ही कारणों से वडा रामकृष्ण जयपुर निवासी दीपचन्द के पुत्र थे। ये उम्मेद महत्वपूर्ण है। किसी लोभ-लालच अथवा दबाव के कारण सिंह के शासनकाल मे शाहपुर गए। वहां से रामकृष्ण न लिखे जाने के कारण उसमे सहजता भी है। शोध- मालव देश के भडलापुर नगर मे गए । भड़लापुर नगर में विद्वानो द्वारा अनेक काव्य-कृतियां प्रकाश मे ला देने के उन्होने उस समय जिन पूजा और उत्सवों को बहुतायत पश्चात् भो ऐसे कवि कम नही होगे जिनकी काव्य-कृतियां बतलाई है। ब्रह्मचारी होने के कारण ये इतना घूमे आज भी प्रकाश नहीं देख पाई है। राजस्थान के प्राचीन नौकार माहात्म्य की 'ढाल' मे लेखक ने ऋषभदेव के जन-स्थल कामां और दीवान जी मन्दिर भरतपुर में प्राप्त वेराग्य को कथा एवं उनके पूर्वमवों का वृत्तान्त कहा है। पूर्णतः अज्ञात कवियो एव रचनाओं का परिचय इस परमार्थ जखड़ी में जन्म-जन्मांतरो के कष्टों से दु.खी कवि प्रकार है
मोक्ष का अभिलाषी है(१) वर्धमान-वर्द्धमान कृत 'बाहुबलि 'गस' एक या विधि इन माही जानें, परिवर्तन पूरे कीने । सुन्दर खण्ड काव्य है। प्रथ का प्रारम्भ सरस्वती और तिनकी बहु कष्ट कहानी, सो जानें केवल शानी। गणधर की वन्दना से हुआ है। आदिनाथ के दोनों पुत्रों ज्ञानी बिन दुष कोन जाने जगत बन में जो लह्यो। भरत और बाहुबलि का जन्म, दिग्विजय के प्रसंग में भरत जर मरन जम्मन रूप तीखन, त्रिविध दावानल दह्यो । का चक नगर में प्रविष्ट न हो पाना अपयश और कुल
जिन मत सरोवर पालकी, बैठि ताप बुझायहो। मर्यादा को ध्यान में रखते हुए बाहालि द्वारा भरत की। जिय मोस पुर की बाट बूझो, अब न बार लगाय हो। आधीनता स्वीकार न करना आदि सभी प्रसग मनोरम राम-दर्णन के बीसियों दोहे जैन मन्दिर बयाना हैं । बाहुबलि के मुष्टि-प्रहार में उनकी अद्भुत वीरता के (भरतपुर) के गुटके मे सगृहीत हैं। दर्शन होते हैं
(३) सूरति-जैन कवि 'सूरति' रीतिकालीन कवि निहर्च जाणो काल भरत जब आगे आये। सरति मिश्र से भिन्न हैं । सूरति की बारह खड़ी प्रसिद्ध मुष्टिकाल ही उठाय, बहोत मन में दु:ख पायो। हैं । जो विभिन्न मन्दिरो के गुटकों में देखने को मिलती इन्द्र सुदामा आय कै; पकरी भूदज आय । है। बारह खड़ी के ४० दोहों और ३६ छन्दों में सप्त जीवदान बकसो बाहुवलि, देओ भरत को काय । व्यसन, गुरु महिमा तथा सदाचार की चर्चा है। काव्य में
सुणों अति भाव सौ. २०॥ उद्बोधन के तीव्र स्वर हैं:पारस्परिक युद्ध से विरक्त भरत और बाहुबलि दोनों नाना नाता जगत में अब स्वारथ सब कोय । भाई तथा ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों बहिनें आदिनाथ के सम
आनि गाढ़ जा दिन पर, कोइ न संगाती होय । वशरण में पहुंचते हैं। समवशरण की रचना देखकर दोनों कोइ न सघाती होइन साथी, जिस दिन काल सतावै। भाई आदिनाथ के चरण-कमलों का ध्यान धरते हैं। सब परिवार आपने सुष को, तेरे काम न आवै।
२) राम कृष्ण 'विरक्त --इनकी तीन रचनाएं अब तू समझि समझि इस विरियां फिरि पाछे पछितावै । मिलती हैं। परमार्थ जखड़ी, त्रिलोक पूजा एवं नौकार सूरति समझि होय मत बौरा, फिरि यह दाव न पावै।