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________________ गायकुमारचरित की मुक्तियों और उनका अध्ययन समानता होने से सुभाषित मन्त्र है या मंत्र के समान है। पुण्य और पाप का माहात्म्य (२, ६, १८), भाग्य की मन्त्र कहे जाने से यह अर्थ भी ध्वनित होता है कि सुभाषित प्रबलता (४, ५३), जैन धर्म की महत्ता (१), कर्मानुसार भी मन्त्रों के स न कष्टहारी है। इनके प्रयोग से अर्थात् सुख-दुख (१३), काम की वैचित्र्यता (२८), निर्मल चिन्तन-मनन से कष्ट वैसे ही दूर हो जाते हैं जैसे मंत्रों से स्वभाव.की महत्ता (७२) गुरु-शिष्य के बादर्श सम्बन्ध सर्पदंशादि पनित कष्ट । (२६), संसार की निस्सारता (४३), देह और स्नेह की .. संस्कृत साहित्य जैसे सूक्तियों का वृहद् भण्डार है, सार्थकता (४५, ४५) गुणी के प्रति सद्भाव (३२) विनय पैसे ही अपनश साहित्य भी सूक्तियों का खजाना है। की महत्ता (१६) और गुणग्रहण (६०) जैसे विषय के कवि पुष्पदन्त अपभ्रंश भाषा साहित्य के कवियों में श्रेष्ठ सम्बन्ध में कवि के व्यक्त विचार ष्टव्य है। ' कवि स्वयम्भू के उत्तरवर्ती कवियों में श्रेष्ठ कवि है। चित्त शद्धि को कवि ने प्रधानता दी है। वैपित से आपकी चार रचनाएं उपलब्ध ई-महापुराण, जसहर- शुद्ध वेश्या को भी कुलपुत्री कहते है (२५) िनारि स्वभाव परिउ, गायकुमारचरिउ, और वीरवर्द्धमान चरित। के तो वे पारखी रहे ज्ञात होते हैं। उन्होंने एक बोर वही इनमें 'णायकुमारचरित' की सूक्तियों से ही यह सहज ही उन्हें रत्न कहा है, दूसरी ओर यह भी कहा है कि मारियां अनुमान लगाया जा सकता है कि सूक्ति साहित्य में अपना हित नहीं जानतीं, प्रिय के दोषों को भी गुण मानेती उनका कितना योगदान रहा है। है, स्वभाव से वे वक होती है (२४, २५, ५५)। __णायकुमारचरित की सूक्तियां न केवल कर्णप्रिय है जीव हितैषी भावनाओं को भी सूक्तियों में प्रस्तावित मपितु उनमे वैसा ही अर्थ गाम्भीर्य भरा है जैसा कि पुष्पित होने दिया है। सुख-दुख के कारणभूत संसार से संस्कृत भाषा के कवि भारवि की रचनाओं मे अर्थ-गौरव। छटने हेतु क्षणभंगुरता और नश्वरता का भी भली-बाति के शाश्वत् सत्य प्रकट करती हैं। उनमें ऐसे तथ्यों का बोध कराया गया है। यौवन नाशवान् है, मरण-सुचित समावेश है जो इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की ओर है, अच्छी वस्तुमों का योग वियोममयी है (८,१२,१, जीवों को प्रेरित करते हैं। सूक्तियों के अन्तर में कवि का ४६,५१) और मरण काल में कोई शरण नहीं है (४., गहन अध्ययन और चिन्तन है। किंकर्तव्य विमूढावस्था में ४७, ४८) आदि विषयों का निरूपण कर स्वहित करते अन्धे की लाठी है। के लिए सूक्तियों के माध्यम से कवि ने प्रेरणा प्रदान की कवि ने वृद्ध उसे नहीं माना जो जरा से जर्जरित, या है। जैनदर्शन में जैसे सप्त व्यसन मसेन्य बताये गये है। दन्तविहीन हैं अथवा जिनके केश श्वेत हो गये हैं। उनकी किञ्चित परिवर्तन के साथ सूक्तियों में भी सप्त संख्यक दृष्टि में तो वृद्ध वे हैं जो सज्जन और सुलक्षण होते हुये असेव्य कार्यों को त्याज्य बताकर उनके सेवन के फल को पास्त्र और कर्म संबंधी विषयों में प्रवीण है। इसी प्रकार भी दर्शाया है (२३, ३५) जिससे कि भयभीत होकर उन्होंने अधर्म और तीर्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में. गहस्थ मनुष्य उनका सेवन न करे। उनके परिणाम आज भी बुरे धर्म कैसे धारण हो? क्षुद्र कौन ? आदि विषयों के समा. ही देखे जाते हैं। .. धानों में भी नवीन दृष्टि से चिन्तन किया है। संबंधित चन विकारोत्पादक है, धन हो तो निर्धनों का द्रो सूक्तियाँ क्रमशः १५, १७, ७५,३४, ५४ उनके मनन और पालन-पोषण करे किन्तु पापियों का नहीं.1 पापियों को चिन्तन की परिचायक हैं। धन देना कोशं को सुखामा है।चन सम्बन्ध में कपिके अपने अनुभवों को भी कवि ने सक्तियों में उडेल विचारों में नवीनता है। पार्वती को प्रकट करने में दिया है। दूरदर्शिता है । संकेत है विसंगतियों से बचने का सफल हैं। दान संबंध में ये कपन बल्लेखनीय है (३०,११, एवं उनसे जूझने का पराजय प्राप्त होने पर धैर्य धारण ३८, ५६).. करने का। इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य हैं सूक्तियां क्रमशः संगति उन्नति के लिए आवश्यक है, कुसंगति नहीं "३,१०, ११, १२,४१ और ५७ । (१४, २२), शोभा किसकी किससे? विषयों की पोषक
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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