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________________ पूर्व मध्यकालीन भारत में मैतिक वर्मका पतन बिल्कुल नही थे । परन्तु ऐसे प्रतीत होता है कि ये व्यक्ति करे। भारतीय दर्शन के अनुसार कर्तव्य-पालन करमा केवल अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील थे। प्रत्येक व्यकित का धर्म है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को उसके उन्होने समाज के नैतिक स्तर को ऊचा करने के लिए कर्मों का फल इस जन्म मे या आगामी जन्म में अवश्य कोई सक्रिय उपाय नही किए । इम काल में ऐसा कोई भोगना पडेगा। राजा का चरित्र बादर्श होना चाहिए। कोई सतया महापुरुष नही हुआ जिसने जन-साधारण को क्योकि प्रजा अधिकतर उसी का अनुसरण करती है। संमार्ग पर चलने की प्रेरणा दी हो। राजा भी धैर्य, क्षमा, सयम, चोरी न करता, पवित्रता, प्राचीन काल के भारतीयो का विश्वास था कि इस इन्द्रियो पर नियत्रण, सत्य पालन, विद्याभ्यास, क्रोध न ससार मे प्रत्येक मनुष्य धर्म, अर्थ और काम तीन पुरुषार्थी करना आदि साधारण धर्म का पालन करता था। प्रजा को करके अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर पालन और दुष्ट-निग्रह को राजा अपना विशेष धर्म सकता है। वे तीनो पुरुषार्थों को महत्व देत थे। किंतु समझते थे। समाज मे जो व्यक्ति साधारण धर्म और उनका विश्वास था कि जीवन के सूत्रो का उपभोग और वर्णाश्रम धर्म का पालन नही करते थे राजा उन्हें दण धन कमाना दोनो पुरुषार्थ धर्म की सीमा के अन्दर करके देता था। गुप्तकालीन सम्राटो के यही आदर्श और ही मनुष्य वास्तविक सुख प्राप्त कर सकता है। धर्म का वैदिक काल से गुप्तकाल तक समाज का नैतिक स्तर विवेचन तीन रूपों में किया गया है। साधारण धर्म, बहुत उच्च रहा किंतु गुप्तोतरकाल में अधिकतर राजा वर्णाश्रम धर्म और राज धर्म । प्राचीन भारत में नैतिकता भोग-विलाली होकर कर्तव्य विमुख हो गए और तांत्रिकों का विवेचन धर्म के अन्तर्गत ही किया गया है। नतिकता ने इन्द्रिय सुख को ही परम सुम्ब मानकर मांस, मदिरा का अर्थ था कि प्रत्येक व्यक्ति साधारण-धर्म के नियमो और स्त्री सभोग को परम लक्ष्य मान लिया । एसी दशा का अनुमरण । वर्णाश्रम श्रम का पालन करके आध्या- मे जन साधारण के नैनिक स्तर का पतन होना स्वाभात्मिक उन्नति करे और समाज के प्रति अपने की पूर्ति विक थी। सन्दर्भ-सूची १. कलचुरि नरेश युवराज का बिलहारी अभिलेख । १३. गृहस्थ रत्नाकर पृ० १६४ । उद्धत डायनास्टिक हिस्ट्री आफ नार्दन इण्डिया, १४. नैषधचरित सर्ग, १६,६६। जिल्द २ पृ० ७६० । १५. कथासरित्नागर कथा ५४, १७० आदि । २. मेरूतगे प्रबन्ध चितामणि अनु० टानी पृ० १८६ ।। १६. राजतरगिणी ८, १८६६-६७ । ३. वही पृ० १८३-१८५। १७. समयमातृका २, ८८। ४. वही पू० १५४ (सिंधी जेन प्रथमाला) पृ०६६। १८. चौरपज्वाशिका श्लोक, ६ । ५ राजतरगिणी ७:३०४.३०,५८४-८८६, १९४७-४८ १९. ए. के. मजूमदार, चोलुक्यराज आफ गुजरात . के. मजमदार ६. कथासरित्सागर अनुवाद आनी १:२८६ : २.४१० पृ०३४४-३५५ । ७. हम्मीर महाकाव्य (इण्डियन एटिक्वरी) ८:८७६ २०. कृत्यकल्पतरू, तीर्थ विवेचन पृ० २१,११८-१३६, पृ० ६२। १४२-४६, २००। ८. मानसोल्लास ४ : १० : ४२६.४४६ । २१. हेमचन्द, दयाश्रय काव्य ६:१००.२०७, इण्डियन है. वही ५, १०, ४८१ : तिलकम जरी १५, ६-६१, १२ एटिक्वरी ४,१११। १०.ति कमजरी ६,३:४१, ४:१६६, ५:२११. २२. एपिग्राफिका इंहिका १,१४॥ २.,२४५, १६, ३२४, २१ । २३. डायनास्टिक हिस्ट्री आफ नार्दर्म इण्डिया, जिल्द ११. द्रव्याश्रम काव्य १,१३। १. पृ.८७ । १२. कृत्यकल्पतरू नियतकालकठि पृ० ३३१ । २४. एपिग्राफिया इरिखका २, ४, १२, २११, २१,१४
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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