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३० वर्ष ३८, कि०४
अनेकान्त
जो मदिरा चखता है, मांस खाता है, कुगुरु-कुदेव मनुष्य राजमुकुट बांधकर सुख से वास करता है तो पूजता है वह मनुष्य नष्ट और पथभ्रष्ठ है, वह भीषण क्या उसका आयुबन्ध क्षीण नहीं होता। दुर्गति को प्राप्त होता है।
४६ रायत्तणु संझारउ जिह । १६ खलु णायण्णइ पिय जपियाई। ४,८,३ राज्यत्व संध्माराग के समान है। बल पुरुष प्रिय वाणी नहीं सुनता ।
५० णउ एंतु मिच्चु दुन्गे खलिउ । १७ बहें सहूं कि पिय जंपिएण,
आती हुयी मृत्यु को कोई दुर्ग नहीं रोक सकता। , सत्तचिहें कि पित्ते पिएण ॥ ४, ९, १० ५१ चिधैं खचिंधु ण ढंकियउ। ६,४,१.
मृद्ध मनुष्य के साथ प्रिय वचन बोलना उसी प्रकार ध्वजा-पताका से विनाश-चिह्न ढका नहीं जा सकता। भ्यर्थ है जैसे अग्नि में घृत डालना।
५२ भणु कि ण पाउ धम्में खविउ । ३८ कुत्थिय पर पोसणु कोससोसु,
कहो ! धर्म से किस पाप का क्षय नहीं होता? इहभवि परभवि तं करइ दोसु । ४,४,४ ५३ वर भवण जाण वाहण सयणासण णाण भोवणाणं च । पापियों का पोषण करना अपने धनकोश को सुखाना . वर जुबइ वत्थभूसण संपत्ति होइ धम्नेण ॥६,१०,१.२ है, वह इस भव में तथा परभव में दोष उत्पन्न उत्तम भवन, यान, वाहन, शयनासन, पान, भोजन, करता है।
सुन्दर युवती, तथा वस्त्र भूषणादि सम्पत्ति धर्म से ३६ को तं तरह अल हि बलु दुत्तरु। ५, ३, ३ होती है।
दुस्तर समुद्र के जल को कौन पार कर सकता है। ५४ अम्हारिस जे मणुय वराया। ४.को रक्खा बलवंतई सरणई।
५,३,४ किमि से जणणी सोणियय जाया ॥ ७,१५,१ बनवान के चंगुल में फंसे व्यक्ति की कौन रक्षा कर जो क्षुद्र हैं वे माता के रक्त से उत्पन्न कृमि मात्र हैं। सकता है।
५५ महिलउ पियदोसु वि गुण मुणति। ८, १, ११
५,६,७ महिलाएं अपने प्रिय के दोषों को भी गुण मानती हैं। जानकारी के अनुसार ही अनुष्ठान किया जाता है। ५६ विण सोहगों कि करइ वण्णु। ८, १, १२ ४२ हो कि सग्गे खव संसग्गें ।
५, ११,१ बिना सौभाग्य के वर्ण क्या कर सकता है। हाय ! उस स्वर्ग से क्या जिसका संसर्ग अयशाली है। ५७ गयणइं लग्गति ण विप्पिएण । ११ कि सोहगें पुणरवि भरें। ५, ११,६ अप्रिय से नेत्र नहीं मिलते ।
उस सौभाग्य से क्या जा फिर भग्न हो जाता है। ५८ दुक्खु वि चंगउ सुत कएण। ८, १३, ७ ४ किणेहें वढिय सिविणेहें। ५, ११, १० सुतप करने से दुख भी हो तो भी भला है। उस स्नेह से क्या जो स्वप्नेच्छाओं का बर्सक है।
५६ धणु खीणु वि विलिय पोसणेण, ४५ कि देहें जीविय संदेहें।
५, ११, १०
मरण वि चंगउ सण्यासणेण ॥ ८, १३, ८ उस देह से क्या जिसमें सदैव जीवन का सन्देह बना
निर्धनों के पालन-पोषण में धन-व्यय तथा सन्यासरहता है।
पूर्वक मरण होना अच्छा है। ४६ उन्माउं चत्तसारु संसार
५, ११, ११ ६ सयणत्तणू सज्जणगुणगहेण । - संसार सारहीन और तुच्छ है।
पोरिसु सरणाइय रक्खणेण ॥ ४७ कहिमि मरण दिण उम्वरह। ६,४,३
सज्जनों के गुणग्रहण से स्वजनत्व तथा शरणामतों मरण के दिन कहीं भी रक्षा नहीं हो सकती।
रक्षण से पौरुष सार्थक होता है। ४० सुह रायपट्टबंधे वसइ कि बाउणि बंधणु णउतछसइ। ६१ सोहइ गरवर सच्चए वायए ।
१४ मनुष्य सत्यवाणी से शोभता है।