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पं०शिरोमनिवास त धर्मसार सतसई
अब मूह प्रय देव कुदेव जु एकहू जान, सुगुरु कुगरु जो समकरि मान । शास्त्र कुशास्त्र जु एकहु लहै, मूढ़ तीन ए सद्गुरु कहै ॥१७॥
अब अष्ट मद जाति लाभ कुल रूप वय, विद्या तप अधिकत जानि । एक अष्टौ मद है दुखदाई, इनकी संगति दुर्गति जाई ॥१८॥
अथ शंकादिक बोष आशका अस्थिरता वाछा,
ममता दृष्टि सदा दुर गछा। वत्सल रहित दोष पर भाष,
चित्त प्रभावना माहि न राख ॥१९॥
अब अतिचार लोग हास भय भोग रुचि धरै,
अग्र सोच थिति निश्चय करें। मिथ्या आगम भक्ति प्रकास,
मृषा अदर्शनो सेवा भास ॥२०॥
___अप अष्ट गुण देह भोग ससार विनामी,
इनते जबनर होय उदासी। इनकी सगति दुर्गति लहिए,
सवेग भावना तासौं कहिए ॥२२॥ न कोऊ काहू को हितकारी,
न हम काहू के अतिभारी। आप आपुको आपहि बाधे,
यह निर्वेद भावना साध ॥२३॥ पर निन्दा कीन्हे सन्ताप,
पर को दु:ख दिये बहु पाप । अपनी निन्दा आपुहि कर,
__सो समकित को गुण ले तिरं ॥२४॥ व्रती साधु देखे साचारी, ताकी महिमा कीजै भारी। जो विषयी की महिमा कर,सोनर निश्चय दुर्गति भर ॥२५॥ दया दान सब ही को दीज,
क्षमा भाव सब ही सो कोज । दुख सुख निदान न कबहुं करे,
सो समकित पचम गुण धरै ॥२६॥
नवधा भक्ति कही गुरु जैसी,
की आप जिनिवर की तैसी। आपनु करहि और सो कई,
अष्टम गुण समकित को लहई ॥२७॥ ज्ञानी व्रती असहायी देखें,
यती साधु जो रोगी पेखें। ताको सहाय करै निज हेत,
यह वत्सल गण जानो चेत ॥२८॥ अस थावर जे कोई जान,
सूक्ष्म, वादर जिय में आने । दया जीव की पालह वीर,
अनुकम्पा गुण जानहु धीर ॥२६॥ ए आठहु गुण मावहिं जबही,
जियको ऊपजे समकित तवही । पुनि पाचहु मिथ्यात्व नसावं,
समकित निर्मल तव जीव पाये ॥३०॥ अथ पंचमिथ्यात्व के नाम कवित इकतीसा प्रथम एकात नाम मिथ्यात्व, अभिग्राहिक दूजो विपरीत,
आभिनिवशिक गोत है। तोजो विनय मिथ्यात्व, अनाविग्रह नाम जाकी, चौथो संशय
जहां चित भंवर कैसों पोत है। पांचमों अज्ञान अनभोगी, कगहल रूप जाके उदय चन
अचेतन सो होत है। यही पाचों मिथ्यात्व भ्रमावे जीव को, जगत में उनके
विनास समकित को उदोत हैं ॥३१॥
अथ एकान्त जो एकांत पक्ष मन आनं,
मय अनेक जो भेद न जाने । मृषावन्त हठ दक्ष कहावे,
सो एकांत मिथ्यात्व कहावै ॥३२॥
अब विपरीत आदि अन्त जे भेद बताए,
सुनि सब गुन घरके मन भाये । ताको उथपि जु नौतन धरै,
सोविपरीत मिथ्यात बर्च ॥३॥