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________________ वर्णी-वाणी के रत्न १. किसी कार्य के करने का जो निश्चय कगे उसे सहस्रों बाधाएं आने पर भी न छोड़ो। यदि उस निश्चयसे बात्मधात होता हो और आत्मा साक्षीभूत होता है तब उसे छोड दो। परकी बात वहीं तक मानो जहाँ तक स्वार्थ में बाधा न आवे । यथार्थसे तात्पर्य निरीहवृत्ति से है। आत्माका स्वार्थ यही है कि परसे भिन्न है; एक परमाणुमात्र भी आत्मीय नहीं यही भावना दृढ होना । जब एक परमाणु भी अपना नही तब स्पर्शादि सुखोंके लिए परमेश्वर की उपासना करना विफल है। (३।०४७) २. मेरा निजी अनुभव है जो मनुष्य धीर नही वह मनुष्य किसी भी कार्यमे सफलीभूत नहीं हो सकता । मैं जन्मसे अधीर अत: मेरा कोई भी कार्य आज तक सफल नहीं हुआ। पर्याय बीत गई पर पर्यायबुद्धि नहीं गई। पर्याय नश्वर है यह प्रति दिन पाठ पढ़ते हैं परन्तु इसमें कोई तत्व नही निकलता । तत्व तो जहां है वही ही है । (२७४४८) ३. परको प्रसन्न करनेकी चेष्टा मत करो। जब यह अभ्रांत सिद्धान्त है कि एक द्रव्य अन्य द्रव्यका उत्पादक नहीं तब तुम्हारे प्रयत्नसे तो अन्य प्रसन्न न होगा। अपनी ही परिणति से प्रसन्न होगा। तुम व्यर्थ खिन्न मत होबो कि हमने परिणमाया । अन्य द्रव्यका चतुष्टय अन्य से भिन्न है। (३११७।४७) ४. कोई भी काम करो निर्भीकता से करो। (२०१६।४७) ५. संसारमें कर्तव्यनिष्ठ बनो, दूसरों की भलाई की चेष्टाके पहिले अपनी शक्तिका विकास करो। केवल गल्पवादसे मलाई नही हो सकती। कुछ कर्तव्यपथ पर आओ, यही ससार बन्धनसे छूटने का मार्ग है । जो मनुष्य कर्तव्यको जानते हैं वही शीघ्र ही अभीष्ट पद के पात्र होते हैं। (२०८।४७) ६. बहुत जल्पवाद दम्भमे परिणत हो जाता है । जितना जल्पवाद करोगे उतना ही कार्य करने में त्रुटि करोगे। १००बात कहनेकी अपेक्षा एक काम करना श्रेयस्कर है। उपदेश उतना दो जितना अमल में आ सके। पुण्य कार्यों का तिरस्कार मत करो। शुद्धोपयोग उत्तम वस्तु है परन्तु शुद्धोपगंगकी कथासे शुढोपयोग नहीं होता। (११९४७) . ७. कोई भी काम करो उतावली मत करो। (१२।९।४७) ६. जो काम करो शान्तिसे करो। प्रथम तो कार्य करनेके पहिले अच्छे प्रकारसे निर्णय कर लो कि हम यह कार्य करने की शक्ति रखते हैं अथवा नही? यदि योग्यता न हो तो उस कार्यके करनेका साहस न करो तथा जब उस कार्यके करनेके सम्मुख होओ तब अन्य कार्यकी व्यग्रता मत रक्खो । उनावली मत करो, चित्तको प्रसन्न विशुद्धता ही प्रत्येक कार्यमें सहायक होती है। (१५४६/४७) ९. शान्तिसे काम करो, आकुलता दूर करने के लिए अशान्त होना पागलपनकी चेष्टा है। ( १४ ) १०. स्वाध्यायमें उपयोग लगाना, किसीसे नही बोलना, यदि कोई गल्प करे तो उसे निषेध कर देना। केवल मागम की कथा करना, किसीका सकोच नहीं करना, कलिमल दोषको दूर करने के लिए अपने अन्त:करणसे विचारपूर्वक कार्य करो। परकी गुरुता लघुतासे हमको न लाभ है, न हानि है।। (१७१५४४८) ११. सरल व्यवहार करो, आभ्यन्तर कषाय मत करो, किसीके परिणामको देख हर्ष विषाद मत (२२१५४८) (शेष पृष्ठ ३४ पर)
SR No.538038
Book TitleAnekant 1985 Book 38 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1985
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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