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१०, वर्ष, कि०२
अनेकान्त
परम्परा अनुश्रुतियों में उनके नाम मात्र बच रहे । लगभग बावस्ती, साकेत, प्रयाग, कौशाम्बी, कम्पिल, सारनाथ एक-डेढ़ सहस्त्र वर्ष के इस अन्धान्तराल का परिणाम यह आदि बौद्ध अनुश्रुतियों के महत्वपूर्ण स्थानों की खोज एवं हुआ कि लोग उनकी ठीक स्थिति की पहिचान भी भूल पहिचान की गई। किन्तु स्वय भगवान बुद्ध के पिता की गये। उत्तरमध्य काल, अर्थात गत चार-पांच शताब्दियों राजधानी कपिलवस्तु की निश्चित पहिचान अभी नही हो मे ज। व्यापार व्यवसाय या अन्य ऐसे ही कारणों से अन्य पाई है । उनको जन्मस्थली लुम्बिनि की स्थिति भी सर्वथा प्रदेशों के जैन बिहार-बगाल के प्रमुख नगरो में जाकर सुनिश्चित नहीं है और उनके जीवन से सम्बन्धित मल्लों बमने लगे तो उन्होने अपने भगवान महावीर सम्बन्धी की पावा की पहिचान भी, जहाँ चुन्द लुहार ने उन्हें तीर्थस्थानों की खोज की। जहां कुछ ठोस आधार मिले "शूकर मद्दाव" का आहार दिया बताया जाता है, जिसे तथा राजगिर विषयक, अथवा अपेक्षाकृत कुछ पुरातन खाकर कुछ ही समय पश्चात् कुशीनगर मे उनका परिमान्यता प्राप्त हुई यथा पावापुर विषयक, उन्हे तो मान्य निर्माण हुआ । अभी विवादस्थ है-देवरिया जिले के कर ही लिया गया, और जहां यह सुविधा नही वहां अनु- पडरौना, पपउर और सठियावडीह-फाजिलनगर, तीन मान, कल्पना, अथवा किसी भट्टारक या यति की प्रेरणा विकल्प प्रस्तुत किये जाते हैं । अन्तिम स्थान को पावासे तीर्थ स्थापना कर ली गई । भगवान की जन्मभूमि के नगर नाम देकर अनेक जैन उसे ही महावीर को निर्वाण विषय में कुछ ऐसा ही हुआ लगता है । दिगम्बरो ने भूमि भी मानने लगे हैं। राजगिर के निकटस्थ नालन्दा के खण्डहरो के उस पार प्राचीन बौद्ध स्थानों की खोज के सिलसिले मे वज्जिस्थिति बडागाव के बाहर मन्दिर निर्माण करके जन्मभूमि गण सघ की केन्द्र विदेह देशस्थ महानगरी वैशाली का कृण्डलपुर की स्थापना कर ली और श्वेताम्बरो ने मुगेर अनुसन्धान भों चाल था । अन्ततः गगानदी के उत्तर में, जिले मे जमुई के निकट सिकन्दरा प्रखण्ड के एक गांव को उत्तरी बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ़ या जिस लछाडया लिछुआड़ भी कहते हैं, जन्म-स्थान बनियाबसाढ नामक गांव व आस-पास के क्षेत्र को प्राचीन की मान्यता दे दी। ये दोनों मान्यताएँ डेढ-दो सौ वर्ष वैशाली के रूप में चीन्हा गया । इस विषय मे देशी-विदेशी पुरानी प्रायः आधुनिक ही हैं । किन्तु जब एक मान्यता जैन व अजैन विद्वानो मे प्रायः मतभेद नहीं है। चल पाटनी है तो अनुयायी समुदाय उसे पकडकर बैठ जाता सयोग से. महावीर-बदकाल में जिस वजिजगणसघ है, उममे परिवर्तन करने से उसकी भावनाओं को ठेस की महानगरी वैशाली थी, उसके गणाध्यक्ष लिच्छविकुलोलगती है।
त्पन्न महाराज चेटक थे। उनकी सुपुत्री त्रिशता देवी, लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व भारत सरकार के तत्वाव
अपरनाथ प्रियकारिणी एवं विदेहदत्ता, कुण्डलपुर, वधान में देश के विभिन्न प्रांतो के पुरातात्विक सर्वेक्षण
प्राता के पुरातात्विक सवक्षण (कुण्डपुर, कुण्ड ग्राम, क्षत्रियकुण्ड, क्षत्रियकुण्ड ग्राम या का कार्य जोर शोर के साथ प्रारम्भ हुआ। जनरल बसकण्ड) के नरेश सिद्वार्थ के साथ विवाही थी, और इस कनिपम आदि ये सर्वेक्षण प्राय. तब ही विदेशी थे, और महाभाग दम्पति के मात्र ही तीर्थकर महावीर थे। उम ममय तक बौद्ध धर्म एवं बौद्ध अनुश्रुतियो से भली- पुज्यादीय निर्वाणक्ति (पाचवी शती ई०) जिनभांति परिचित हो चुके थे। अतः तत्सम्बन्धित प्राचीन सेनीय हरिवंश पुराण (७८३ ई०), गुणभद्रीय उत्तरपुराण स्थानों की खोज और पहिचान उनका प्राथमिक लक्ष्य (लगभग ८५०ई०) प्रभूति पुरातन दिगम्बर साहित्य मे रहा । फाहयान (चौथी शती ई०), युवान च्वाग (सातवी “विदेह देशस्थ कुण्डपुर" को भगवान महावीर को जन्म - शती ई०) प्रभृति कई चीनी बौद्ध यात्रियो के यात्रा- भूमि सूचित किया है। श्वेताम्बर परम्परा के आचारांग, विवरण भी उन्हें उपलब्ध थे। अतः उक्त बौद्ध स्थलों की कल्पसूत्र, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि पुराण ग्रयों में पहिचान मे इन वृत्तांतों को प्रायः मूलाधार बनाया उसका वर्णन "उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सनिवेश", क्षत्रियगया । फलस्वरूप राजगृह, पाटलिपुत्र, बोधिगया, नालंदा, ग्राम नगर, क्षत्रियकुण्डग्राम नामरूपो में हुआ है।