Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003481/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित ANSAREEM संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि राजप्रश्नीयसत्रम (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पाटीटाभट युक्त Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत व्याख्यानवाचस्पति श्रीविजय मुनिजी महाराजः ............"जो आगम आपने प्रकाशित किए हैं, साधारण साधु-साध्वियों के लिए अतीव सुगम है। शास्त्रस्वाध्याय और उससे जो ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा करेंगे उसकी दलाली आपश्री को भी मिलेगी। आपको इस महान् यज्ञ के लिए शत-शत धन्यवाद हैं। डा. प्रेमसुमन जैन, सहआचार्य एवं अध्यक्ष जैनविद्या एवं प्राकृतविभाग, उदयपुर वि. वि. आगमों को सामान्य श्रावक/ पाठक तक पहुँचाने का यह स्तुत्य प्रयास है। विद्वानों के लिए भी तुलनात्मक अध्ययन के लिए इन ग्रन्थों से सामग्री प्राप्त होगी। ........"सम्पादकों ने इन आगमों को प्रस्तुत करने में जो श्रम किया है, वह सराहनीय है। मुनि श्री बुधमलजी म० डा. छगनलालजी शास्त्री द्वारा अनूदित एवं विवेचित 'उवासगदसायो' का परिशीलन किया / मन आह्लादित हुआ। प्रवाहमय भाषा में सरस अनुवाद वस्तुत: शास्त्रीजी की प्रौढ मनीषा का परिचायक है। आवश्यक स्थलों पर किया गया विवेचन भी महत्त्वपूर्ण और बोधदायी है। Jan Education International For Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 15 [ परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित ] द्वितीय-उपाङ्गम् राजप्रश्नीयसूत्रम् [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त ] सन्निधि / उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री व्रजलालजी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादक-विवेचक-अनुवादक 0 वाणीभूषण श्री रतन मुनि जी आश्री काममागर मृी ज्ञान मंदिर भी महनार न बचना कन्द्र, कोषा सा क.. प्रकाशक. श्री भागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम प्रन्यमाला : पन्थाङ्क 15 D सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री . श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' D सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' 0 प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाणसंवत् 2506 विक्रम सं. 2036 ई.सन 1982 0 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशनसमिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) न्यावर–३०५६०१ 0 मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ 0 मूल्य : 30) रुपये Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj SECOND UPANGA RAJAPRASHNIYA SUTRAM Original Text, Hindi Version. Notes, Annotations and Appendices etc.) Proximity Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Chief Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar Translator & Annotators Shri Ratap muni Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj, ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granth mala Publication No. 15 0 Board of Editors Anuyoga-pravartaka Munisri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharill O Mapagiog Editor Srichand Surana 'Saras' D Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2509 Vikram Samvat 2039, Nov. 1982 Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305901 O Printer Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer-305001 Price : Rs. 30/ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने अन्धकारपूर्ण युग में दिव्यज्योतिस्तम्भ का कार्य किया, जो सम्यग्ज्ञान और चारित्र के परमाराधक थे, जिनमार्ग के प्रचार-प्रसार के लिए जिन्होंने अपने जीवन की आहुति दी, उन परम पुनीत संयतात्मा आचार्य श्री लवजीऋषिजी महाराज के कर-कमलों में। --मधुकर मुनि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रोपपातिक नामक प्रथम उपांग के पश्चात् द्वितीय उपांग राजप्रश्नीय पाठकों के कर-कमलों में समर्पित किया जा रहा है। यह जिनागम ग्रन्थमाला का पन्द्रहवा ग्रन्थ है। प्रस्तुत सूत्र सूत्रकृतांग का उपांग माना गया है। अनेक दृष्टियों से यह एक महत्त्वपूर्ण प्रागम है, जिसमें सूर्याभदेव संबंधी विस्तृत विवेचन है। सूर्याभदेव, राजा प्रदेशी का जीव था जो विशिष्ट धर्माराधना करके देवरूप में उत्पन्न हुआ और देवलोक से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि प्राप्त करेगा। राजा प्रदेशी पहले अनात्मवादी नास्तिक था। वह भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के महामुनि केशी कुमारथमण द्वारा प्रतिबुद्ध हया। दोनों का प्रात्मा संबंधी संवाद अत्यन्त बोधप्रद है। आज के जिज्ञासूत्रों के लिए भी वह अतीव उपकारक है। भगवतीसूत्र का प्रथम भाग मुद्रित हो चुका है और द्वितीय भाग मुद्रित हो रहा है। प्रज्ञापना सूत्र का मुद्रण शीघ्र प्रारंभ होने वाला है। प्रस्तुत पागम का अनुवाद वाणीभूषण पं. र. मुनिश्री रतनमुनिजी म. ने किया है, जो ग्रन्थमाला के सम्पादकमण्डल में हैं। आपके इस उदार सहयोग के लिए समिति अत्यन्त आभारी है। श्री देवकुमारजी शास्त्री, साहित्यरत्न ने इसके सम्पादन-परिमार्जन आदि में जो मूल्यवान् योग दिया है, वह भी स्मरणीय है। श्रमणसंघ के युवाचार्य पं. प्र. श्री मधुकर मुनिजी म. सा. की प्रबल आगमभक्ति एवं उत्कट लगन तथा श्रम के फलस्वरूप ही समिति इस पुनीत कार्य में अग्रसर हो रही है। उनका आभार व्यक्त करने के लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। ___ समस्त अर्थसहयोगी महानुभावों के प्रति भी हम कृतज्ञ हैं, जिनकी उदारतापूर्ण सहायता से हम निश्चिन्त होकर इस प्रकाशन को आगे बढ़ा रहे हैं। प्राशा है मागमप्रेमी पाठक इससे लाभ उठाकर आत्मकल्याण के भागी बनेंगे। रतनचंद मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष जतनराज मेहता प्रधानमंत्री श्री प्रागम-प्रकाशन समिति, ब्यावर चांदमल विनायकिया मंत्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि वचन विश्व के जिन दार्शनिकों-दृष्टानों/चिन्तकों ने "आत्मसत्ता" पर चिन्तन किया है, या आत्म-साक्षात्कार किया है, उन्होंने पर-हितार्थ आत्म-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है। आत्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन अाज अागम/पिटक/वेद/उपनिषद् आदि विभिन्न नामों से विश्रुत है। जैनदर्शन की यह धारणा है कि आत्मा के विकारों-राग-द्वेष आदि को साधना के द्वारा दूर किया जासकता है, और विकार जब पूर्णत: निरस्त हो जाते हैं तो प्रात्मा की शक्तियां ज्ञान सुख वीर्य आदि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित-उद्भासित हो जाती हैं। शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ प्राप्त-पुरुष की वाणी, वचन/कथन/प्ररूपणा-"प्रागम" के नाम से अभिहित होती है / आगम अर्थात् तत्त्वज्ञान, आत्म-ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र प्राप्तवचन / सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पूरुष, जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन पद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्मप्रवर्तक/अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थकर देव की जनकल्याणकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशयसम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "अागम" या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिन-वचनरूप सुमनों की मुक्त वष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह "पागम' का रूप धारण करती है। वही पागम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए प्रात्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत है। "पागम" को प्राचीनतम भाषा में "गणिपिटक" कहा जाता था। अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्र शास्त्रद्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग आचारांग-सूत्रकृतांग आदि के अंग-उपांग आदि अनेक भेदोपभेद विकसित हुए हैं। इस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है। द्वादशांगी में भी बारहवां अंग विशाल एवं समग्र श्रुतज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे। इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हुअा तथा उसी पोर सबकी गति/मति रही। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब आगमों शास्त्रों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसलिए प्रागम ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया और इसीलिए श्रुति/स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक प्रागमों का ज्ञान स्मृति/श्रुति परम्परा पर ही आधारित रहा। पश्चात् स्मृतिदौर्बल्य, गुरुपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव आदि अनेक कारणों से धीरे-धीरे अागमज्ञान लुप्त होता चला गया / महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पदमात्र रह गया। मुमुक्षु श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी। वे तत्पर हुए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेतु / तभी महान तपारगामी देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने विद्वान् श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मृति-दोष से लुप्त होते पागम ज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्व-सम्मति से आगमों को लिपि-बद्ध किया गया। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी को पूस्तकारूत करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्तुतः आज की समग्र ज्ञान-पिपासु प्रजा के लिए एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हमा। संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा ग्रात्म-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रवहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् प्राचीन नगरी बलभी (सौराष्ट्र) में प्राचार्य श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हुग्रा / वैसे जैन आगमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था / आज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था। - पुस्तकारूढ होने के बाद आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु काल-दोष, श्रमण-संधों के आन्तरिक मतभेद, स्मृतिदुर्बलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी अाक्रमणों के कारण विपुल ज्ञान-भण्डारों का विध्वंस आदि अनेकानेक कारणों से आगमज्ञान की विपुल सम्पत्ति, अर्थबोध की सम्यक गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं विलुप्त होने से नहीं रुकी। पागमों के अनेक महत्त्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गढार्थ का ज्ञान, छिन्नविच्छिन्न होते चले गए। परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो आगम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ वाले नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते। इस प्रकार अनेक कारणों से आगम की पावन धारा संकुचित होती गयी। विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोकाशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। प्रागमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुअा। किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान उपस्थित हो गये। साम्प्रदायिक-विद्वष, सैद्धांतिक विग्रह तथा लिपिकारों का अत्यल्प ज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़ा विघ्न बन गया / आगम-अभ्यासियों को शुद्ध प्रतियां मिलना भी दुर्लभ हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब प्रागम-मुद्रण की परम्परा चली तो सुधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई। धीरे-धीरे विद्वत-प्रयासों से आगमों की प्राचीन चूर्णियां, नियुक्तियां, टीकायें ग्रादि प्रकाश में पाईं और उनके आधार पर प्रागमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हुआ। इससे प्रागम-स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासु जनों को सुविधा हुई। फलतः प्रागमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी है। मेरा अनुभव है, आज पहले से कहीं अधिक आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है, जनता में प्रागमों के प्रति आकर्षण व रुचि जागृत हो रही है। इस रुचि-जागरण में अनेक विदेशी आगमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जनेतर विद्वानों की प्रागम-श्रत-सेवा का भी प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। आगम-सम्पादन-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है। इस महनीयश्रत-सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों, पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है। उनकी सेवायें नींव की ईट की तरह प्राज भले ही अदृश्य हों, पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं, स्पष्ट व पर्याप्त उल्लेखों के अभाव में हम अधिक विस्तृत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही। फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के कुछ विशिष्ट-आगम श्रुत-सेवी मुनिवरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहेंगे / आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने जैन आगमों-३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था। उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों के अनुवाद का कार्य सिर्फ 3 वर्ष व 15 दिन में पूर्ण कर अद्भुत कार्य किया। उनकी दृढ लगनशीलता, साहस एवं आगमज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है। वे 32 ही आगम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये। इससे पागमपठन बहुत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासी-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हना। [9] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज का संकल्प मैं जब प्रातःस्मरणीय गुरुदेव स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. के सान्निध्य में प्रागमों का अध्ययनअनुशीलन करता था तब पागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित प्राचार्य अभयदेव व शीलांक की टीकानों से युक्त कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर मैं अध्ययन-वाचन करता था। गुरुदेवश्री ने कई बार अनुभव कियायद्यपि यह संस्करण काफी श्रमसाध्य व उपयोगी है, अब तक उपलब्ध संस्करणों में प्रायः शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूलपाठों में व वृत्ति में कहीं-कहीं अशुद्धता व अन्तर भी है। सामान्य जन के लिये दुरुह तो हैं ही / चूकि गुरुदेवश्री स्वयं आगमों के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्हें आगमों के अनेक गूढार्थ गुरु-गम से प्राप्त थे / उनकी मेधा भी व्युत्पन्न व तर्क-प्रवण थी, अत: वे इस कमी को अनुभव करते थे और चाहते थे कि आगमों का शुद्ध, सर्वोपयोगी ऐसा प्रकाशन हो, जिससे सामान्य ज्ञानवाले श्रमण-श्रमणी एवं जिज्ञासुजन लाभ उठा सकें / उनके मन की यह तड़प कई बार व्यक्त होती थी। पर कुछ परिस्थितियों के कारण उनका यह स्वप्न-संकल्प साकार नहीं हो सका, फिर भी मेरे मन में प्रेरणा बनकर अवश्य रह गया। इसी अन्तराल में प्राचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, श्रमणसंघ के प्रथम प्राचार्य जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्री आत्माराम जी म०, विद्वद्रत्न श्री घासीलालजी म० आदि मनीषी मुनिवरों ने आगमों की हिन्दी, संस्कृत, गुजराती आदि में सुन्दर विस्तृत टीकायें लिखकर या अपने तत्त्वावधान में लिखवा कर कमी को पूरा करने का महनीय प्रयत्न किया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक प्राम्नाय के विद्वान् श्रमण परमश्रुतसेवी स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगमसम्पादन की दिशा में बहुत व्यवस्थित व उच्चकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। विद्वानों ने उसे बहुत ही सराहा। किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् उस में व्यवधान उत्पन्न हो गया। तदपि आगमज्ञ मुनि श्री जम्बूविजयजी आदि के तत्त्वावधान में प्रागम-सम्पादन का सुन्दर व उच्चकोटि का कार्य प्राज भी चल रहा है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय में प्राचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी के नेतृत्व में प्रागम-सम्पादन का कार्य चल रहा है और जो पागम प्रकाशित हुए हैं उन्हें देखकर विद्वानों को प्रसन्नता है। यद्यपि उनके पाठनिर्णय में काफी मतभेद की गुंजाइश है। तथापि उनके श्रम का महत्त्व है। मुनि श्री कन्हैयालाल जी म० "कमल" प्रागमों की बक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करके प्रकाशित कराने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। उनके द्वारा सम्पादित कुछ प्रागमों में उनकी कार्यशैली की विशदता एवं मौलिकता स्पष्ट होती है। प्रागम साहित्य के वयोवद्ध विद्वान पं० श्री बेचरदासजी दोशी, विश्रत-मनीषी श्री दलसूखभाई मालवणिया जैसे चिन्तनशील प्रज्ञापुरुष आगमों के माधनिक सम्पादन की दिशा में स्वयं भी कार्य कर रहे हैं तथा अनेक विद्वानों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं। यह प्रसन्नता का विषय है। इस सब कार्य-शैली पर विहंगम अवलोकन करने के पश्चात मेरे मन में एक संकल्प उठा। अाज प्रायः सभी विद्वानों की कार्यशैली काफी भिन्नता लिये हए है। कहीं आगमों का मूल पाठ मात्र प्रकाशित किया जा रहा है तो कहीं विशाल व्याख्याएँ की जा रही हैं। एक पाठक के लिए दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / सामान्य पाठक को सरलतापूर्वक आगमज्ञान प्राप्त हो सके एतदर्थ मध्यमार्ग का अनुसरण आवश्यक है। आगमों का ऐसा संस्करण होना चाहिए जो सरल हो. सबोध हो. संक्षिप्त हो और प्रामाणिक हो। मेरे ही चाहते थे। इसी भावना को लक्ष्य में रख कर मैंने 5-6 वर्ष पूर्व इस विषय की चर्चा प्रारम्भ की [10] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी, सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला दशमी, भगवान महावीर कैवल्यदिवस को यह दृढं निश्चय घोषित कर दिया और आगमबत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ भी। इस साहसिक निर्णय में गुरुभ्राता शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलाल जी म. की प्रेरणा प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन मेरा प्रमुख सम्बल बना है। साथ ही अनेक मुनिवरों तथा सदगृहस्थों का भक्ति-भाव भरा सहयोग प्राप्त हुआ है, जिनका नामोल्लेख किये बिना मन सन्तुष्ट नहीं होगा। आगम अनुयोग शैली के सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी म० "कमल", प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्रमुनिजी म. शास्त्री, प्राचार्य श्री आत्मारामजी म. के प्रशिष्य भण्डारी श्री पदमचन्दजी म० एवं प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी, विद्वद्रत्न श्री ज्ञानमुनिजी म०, स्व० विदुषी महासती श्री उज्ज्वलकुवरजी म. की सुशिष्याएं महासती दिव्यप्रभाजी, एम. ए., पी-एच. डी.; महासती मुक्तिप्रभाजी एम. ए., पी-एच. डी. तथा विदुषी महासती श्री उमरावकुवरजी म० 'अर्चना', विश्रुत विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया, सुख्यात विद्वान् पं० श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल, स्व. पं. श्री हीरालालजी शास्त्री, डा० छगनलालजी शास्त्री एवं श्रीचन्दजी सुराणा “सरस" आदि मनीषियों का सहयोग प्रागमसम्पादन के इस दुरूह कार्य को सरल बना सका है। इन सभी के प्रति मन आदर कृतज्ञ भावना से अभिभूत है। इसी के साथ सेवा-सहयोग की दृष्टि से सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार एवं महेन्द्र मुनि का साहचर्य-सहयोग, महासती श्री कानकुंवरजी, महासती श्री झणकारकुवरजी का सेवाभाव सदा प्रेरणा देता रहा है। इस प्रसंग पर इस कार्य के प्रेरणा-स्रोत स्व० श्रावक चिमनसिंहजी लोढा, स्व० श्री पुखराजजी सिसोदिया का स्मरण भी सहजरूप में हो पाता है जिनके अथक प्रेरणा-प्रयत्नों से आगम समिति अपने कार्य में इतनी शीघ्र सफल हो रही है। दो वर्ष के अल्पकाल में ही तेरह पागम ग्रन्थों का मुद्रण तथा करीब 15-20 आगमों का अनुवाद-सम्पादन हो जाना हमारे सब सहयोगियों की गहरी लगन का द्योतक है। मुझे सुदृढ विश्वास है कि परम श्रद्धेय स्वर्गीय स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज आदि तपोपूत अात्मानों के शुभाशीर्वाद से तथा हमारे श्रमणसंघ के भाग्यशाली नेता राष्ट्र-संत प्राचार्य श्री प्रानन्दऋषिजी म. आदि मुनिजनों के सद्भाव-सहकार के बल पर यह संकल्पित जिनवाणी का सम्पादन-प्रकाशन कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा। इसी शुभाशा के साथ, - मुनि मिश्रीमल "मधुकर" (युवाचार्य) [11] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका शीर्षक प्रारम्भ चैत्य-वर्णन राजा सेय रानी धारिणी भगवान् का पदार्पण और राजा का दर्शनार्थ गमन सूर्याभदेव द्वारा जम्बूद्वीपदर्शन सूर्याभदेव द्वारा भगवान् की स्तुति सूर्याभदेव की प्राभियोगिक देवों को आज्ञा माभियोगिक देवों द्वारा प्राज्ञापालन संवर्तक वायु की विकुर्वणा अभ्र-बादलों की विकुर्वणा पुष्प-मेघों की रचना पाभियोगिक देवों का प्रत्यावर्तन सूर्याभदेव को उद्घोषणा एवं आदेश सूर्याभदेव की उद्घोषणा की प्रतिक्रिया सूर्याभदेव द्वारा विमाननिर्माण का आदेश पाभियोगिक देवों द्वारा विमान-रचना मणियों का वर्ण मणियों का गंध-वर्णन मणियों का स्पर्श प्रेक्षागह-निर्माण रंगमंच प्रादि को रचना सिंहासन की रचना सिंहासन की चदिग्वती भद्रासन-रचना समग्र यान-विमान का सौन्दर्य-वर्णन अाभियोगिक देव द्वारा आज्ञा-पूत्ति की सूचना सूर्याभदेव का पामलकल्पा नगरी की ओर प्रस्थान सूर्याभदेव का समवसरण में प्रागमन सूर्याभदेव की जिज्ञासा का समाधान सूर्याभदेव द्वारा मनोभावना का निवेदन वाद्यों और वाद्यवादकों की रचना सूर्याभदेव द्वारा नृत्य-गान-वादन का आदेश नत्य-गान आदि का रूपक [ 12 ] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95. 2222 ... नाट्याभिनयों का प्रदर्शन भगवान महावीर के जीवन-प्रसंगों का अभिनय नाट्याभिनय का उपसंहार गौतमस्वामी की जिज्ञासा : भगवान का समाधान सूर्याभदेव के विमान का अवस्थान और वर्णन सूर्याभविमान के द्वारों का वर्णन द्वारस्थित पुतलियां द्वारों के उभय पार्श्ववर्ती तोरण द्वारस्थ ध्वजामों का वर्णन द्वारवर्ती भौमों (विशिष्ट स्थानों) का वर्णन विमान के वनखण्डों का वर्णन मणियों और तृणों की ध्वनियां वनखंडवर्ती वापिकाओं आदि का वर्णन उत्पात पर्वतों आदि की शोभा वनखंडवर्ती ग्रहों का वर्णन वनखंडवर्ती मंडपों का वर्णन वनखण्डनवर्ती प्रासादावतंसक उपकारिकालयन का वर्णन पदमवरवेदिका का वर्णन मुख्य प्रासादावतंसक का वर्णन सुधर्मा सभा का वर्णन स्तूप-वर्णन चैत्यवृक्ष माहेन्द्र-ध्वज सुधर्मासभावर्ती मनोलिकायें, गोमानसिकायें माणवक चैत्य स्तम्भ देवशय्या प्रायुधगृह-शस्त्रागार सिद्धायतन उपपात आदि सभाएं पुस्तक रत्न एवं नन्दापुष्करिणी उपपातानन्तर सूर्याभदेव का चिन्तन सामानिक देवों द्वारा कृत्य-संकेत सूर्याभदेव का अभिषेक-महोत्सव अभिषेककालीन देवोल्लास अभिषेकानंतर सूर्याभदेव का अलंकरण 1MP" K 102 : 105 107 111 [13] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 118 119 125 126 127 128 131 131 132 133 136 KMw 141 145 सूर्याभदेव द्वारा कार्य निश्चय सिद्धायतन का प्रमार्जन अरिहंत-सिद्ध भगवन्तों की स्तुति सूर्याभदेव द्वारा सिद्धायतन के देवच्छन्दक प्रादि की प्रमार्जना पाभियोगिक देवों द्वारा प्राज्ञापालन सूर्याभदेव का सभा-वैभव सूर्याभदेव विषयक गौतम की जिज्ञासा केकय अर्ध जनपद और प्रदेशी राजा रानी सूर्यकान्ता और युवराज सूर्यकान्त चित्त सारथी कूणाला जनपद, श्रावस्ती नगरी, जितशत्र राजा चित्तसारथी का श्रावस्ती की अोर प्रयाण श्रावस्ती नगरी में केशी कुमारश्रमण का पदार्पण दर्शनार्थ परिषदा का गमन और चित्त की जिज्ञासा चित्त सारथी का दर्शनार्थ गमन केशी श्रमण की देशना चित्त की केशी कुमारश्रमण से सेयविया पधारने की प्रार्थना केशीकुमार श्रमण का उत्तर चित्त की उद्यानपालकों को प्राज्ञा केशी कुमारश्रमण का सेयविया में पदार्पण चित्त का प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने का निवेदन केशी कुमारश्रमण का उत्तर प्रदेशी राजा को लाने हेतु चित्त की मुक्ति केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन प्रदेशी की परंपरागत मान्यता का निराकरण प्रदेशी की प्रतिक्रिया एवं श्रावकधर्म-ग्रहण प्रदेशी द्वारा कृत राज्यव्यवस्था सूर्यकान्ता रानी का षड्यंत्र प्रदेशी का संलेखना-मरण सूर्याभदेव का भावी जन्म माता-पिता द्वारा कृत जन्मादि संस्कार दृढप्रतिज्ञ का लालन-पालन दृढप्रतिज्ञ का कलाशिक्षण कलाचार्य का सम्मान दृढप्रतिज्ञ की भोगसमर्थता दृढप्रतिज्ञ की अनासक्ति उपसंहार 147 149 151 152 158 167 197 201 202 204 205 207 209 209 211 213 [14] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना राजप्रश्नीयसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन धर्म : विश्लेषण भारतीय साहित्य में 'धर्म' शब्द व्यापक रूप से व्यवहृत हग्रा है। प्राध्यात्मिक हो या दार्शनिक साहित्य, आयुर्वेदिक हो या ज्योतिषशास्त्र हो, सर्वत्र 'धर्म' शब्द के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। उस सम्बन्ध में विशालकाय ग्रन्थ निर्मित हए हैं। विभिन्न व्याख्याएँ और परिभाषाएँ धर्म शब्द को लेकर लिखी गई हैं। वैदिक युग से लेकर प्राधुनिक युग तक लाखों चिन्तकों ने धर्म शब्द को अपना चिन्तन का विषय बनाया है और धर्म के नाम पर अनेक विवाद भी हुए हैं। पारस्परिक मतभेदों के कारण धर्म के विराट् सागर में विवाद के तूफान उठे हैं, तर्क-वितर्क के भंवरों ने जनमानस को विक्षब्ध किया है। तथापि धर्म के स्वरूप को जिज्ञासा प्रत्येक मानव में आज भी है। हम धर्म शब्द की विभिन्न परिभाषाओं पर चिन्तन न कर संक्षेप में ही जैन मनीषियों ने धर्म पर जो गहराई से अनुचिन्तन किया है, उसे यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। परमार्थतः धर्म वस्तु का स्वभाव है। व्यवहारतः क्षमा, निर्लोभता, सरलता आदि सदगुणों की अपेक्षा से वह दश प्रकार का है / सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय की दृष्टि से धर्म के तीन प्रकार हैं। जीवों की रक्षा करना भी धर्म है, इसलिए यह स्पष्ट है जो प्रात्मा के निज गुण हैं, वह धर्म है और जो पुद्गलों का स्वभाव है, वह आत्मा के लिए धर्म नहीं किन्तु परभाव है, विभाव है और वही अधर्म है / जो स्वभाव है, वह सदा बना रहता है और जो विभाव है वह सदा बना नहीं रहता है। पानी को गर्म करने पर भी पानी हमेशा गर्म नहीं रहता, क्योंकि पानी का स्वभाव शीतलता है / मात्र प्राग के कारण उसमें उष्णता पाती है। वैसे ही क्रोधादि भाव कर्म के कारण उत्पन्न होते हैं, वे आत्म-स्वभाव नहीं, किन्तु विभाव हैं। इसीलिए उन्हें अधर्म कहा गया है। गणधर गौतम ने भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की-आत्मा का स्वरूप क्या है ? कषाय प्रादि ग्रात्मा का स्वरूप है या समता आदि ? समाधान में भगवान् ने कहा-समता ही प्रात्मा का स्वभाव है, न कि कषाय / समत्व को प्राप्त कर लेना ही प्रात्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेना है। श्रमण भगवान महावीर का ही नहीं, आधुनिक युग के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक 'फ्रायड' का भी यह मन्तव्य है-"चेत्त-जीवन और स्नायु-जीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को नष्ट कर समत्व की संस्थापना करता है।" विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द्व से ऊपर उठ कर शान्त, निर्द्वन्द्व मनःस्थिति को प्राप्त करना ही वस्तुतः धर्म है। भगवान् महावीर 1. धम्मो वत्थसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो / 2. प्राया सामाइए। [15] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने भी आचारांग में स्पष्ट शब्दों में कहा-"समियाए धम्मे पारियेहि पवेइए"-पार्यों ने समत्व भाव को धर्म कहा है। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'ध' धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है-धारण करना / यात्मा का धर्म है सद्गुणों को धारण करना / ये सद्गुण बाहर से लाये नहीं जाते, वे विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में अग्नि के संयोग के हटते ही पानी स्वतः शीतल हो जाता है। धर्म के लिए अधर्म को छोड़ना होता है, विभाव को दूर करना होता है। जैसे-बादल के हटने पर सूर्य का चमचमाता हुया प्रकाश प्रकट हो जाता है, वैसे ही अधर्म के बादल छंटते ही धर्म का दिव्य आलोक जगममा पड़ता है। धर्म ऊपर से प्रारोपित नहीं होता और जो आरोपित है, वह अधर्म है / उस अधर्म ने ही मानव में धर्म के प्रति घृणा पैदा को / धर्म का दम्भ अधार्मिकता से भी अधिक भयावह है। क्योंकि इसमें अधर्म को छिपाने के लिए ढोंग किया जाता है। वञ्चना है / धर्म से प्राकुलता-व्याकुलता नष्ट होकर निर्मलता प्राप्त होती है। धर्म के दो प्रकार : श्रुतधर्म और चारित्रधर्म धर्म के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए स्थानांग में धर्म के दो भेद बताये हैं -श्रुतधर्म और चारित्रधर्म / ये दोनों धर्म मोक्ष रूपी रथ के चक्र हैं। श्रतधर्म से धर्म का सही स्वरूप समझा जाता है, सही स्वरूप समझा जाता है, इसलिए चारित्रधर्म से पूर्व उसका उल्लेख किया गया है / यहाँ हम चारित्रधर्म का विश्लेषण न कर श्रुतधर्म पर चिन्तन करेंगे। श्रुतधर्म पर चिन्तन करने से पूर्व श्रृत शब्द को जानना आवश्यक है। सामान्यतः श्रुत का अर्थ है-सुनना / क्योंकि: श्रु' धातु से श्रुत शब्द निष्पन्न हया है। पूज्यपाद ने लिखा है-श्रुत-ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर निरूप्यमान पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनना या सुनाना मात्र है, वह श्रुत है' / प्राचार्य अकलंक ने भी यही अर्थ 'तत्त्वार्थराजवातिक' में प्रस्तुत किया है। पूज्यपाद ने यह स्पष्ट किया है कि 'श्रुत शब्द' शब्द सुनने रूप अर्थ का मुख्य रूप से प्रतिपादक होने पर भी वह ज्ञान विशेष में ही रूढ है। केवलमात्र कानों से सुना गया शब्द ही श्रुत नहीं है। जैन दार्शनिकों को मुख्य रूप से श्रुत से ज्ञान अर्थ ही इष्ट है, पर उपचार से श्रुत का शब्दात्मक होना भी उन्हें ग्राह्य है। विस्तार में न जाकर संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर मन और इन्द्रिय की सहायता से अपने में नियत अर्थ को प्रतिपादन करने में 3. प्राचारांग-११८२ 4. दुविहे धम्मे पन्नत्ते, तंजहा---सूयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव / -स्थानांग. स्थान 2, उ. 1. 5. सदावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते अनेन श्रृणोति श्रवणमानं वा श्रुतम् / / -सर्वा. सि.(१९), पु-६६ 6. श्रुतशब्दः कर्मसाधनश्च / 2 / किंच पूर्वोक्तविषयसाधनश्चेति वर्तते / श्रुतावरणक्षयोपशमाद्यन्तरंग-बहिरंग हेतुसन्निधाने सति श्रूयतेस्मेति श्रुतम् / कर्तरि श्रुतपरिणत प्रात्मैव शृणोतीति श्रुतम् / भेदविवक्षायां श्रूयतेऽ नेनेति श्रुतम् , श्रवणमात्र वा। -(त. बा. [19 / 2]) 7. श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रूढिवशात् कस्मिश्चिज्ज्ञानविशेषे वर्तते / -सर्वा. सि. (1120), पृष्ठ-८३ 8. ................... - ज्ञानमित्यनुवर्तनात् / श्रवणं हि श्रुतज्ञानं न पुनः शब्दमात्रकम् ॥–त. श्लो. वा. क. (32 / 0 / 20), पृष्ठ-५९८ [16] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ ज्ञान श्रुतज्ञान है। प्राकृत 'सुय' शब्द के संस्कृत में चार रूप होते है---श्रत, सूत्र, सूक्त (सुत्त) और स्यूत / प्राचार्यों ने इन रूपों के अनुसार इनकी व्याख्या की है। प्राचार्य अभयदेव ने श्रत का अर्थ किया है-'द्वादश अंगशास्त्र अथवा जोवादि तत्त्वों का परिज्ञान'।१० __ जैसे सूत्र में माला के मनके पिरोये हए होते हैं उसी प्रकार जिसमें अनेक प्रकार के अर्थ प्रोत-प्रोत होते हैं, वह सूत्र है। जिसके द्वारा अर्थ सूचित होता है वह सूत्र है। जैसे—प्रसुप्त मानव के पास यदि कोई वार्तालाप करता है पर निद्राधीन होने के कारण वह वार्तालाप के भाव से अपरिचित रहता है, वैसे ही विना व्याख्या पड़े जिसका बोध न हो सके, वह सूत्र है। अपर शब्दों में यों कह सकते हैं जिसके द्वारा अर्थ जाना जाय अथवा जिसके प्राश्रय से अर्थ का स्मरण किया जाय या अर्थ जिसके साथ अनुस्यूत हो, वह सूत्र है।" इस प्रकार श्रुत या सूत्र का स्वाध्याय करना, श्रत के द्वारा जीवादि तत्त्वों और पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानना श्रुतधर्म है। श्रुतधर्म के भेद श्रुतधर्म के भी दो प्रकार हैं-सूत्ररूप श्रुतधर्म और अर्थरूप श्रुतधर्म / 12 अनुयोगद्वार सूत्र में श्रुत के द्रव्यश्रुत और भावश्रुत ये दो प्रकार बताये हैं / जो पत्र या पुस्तक पर लिखा हुआ है वह 'द्रव्यश्रुत' है और जिसे पढ़ने पर साधक उपयोगयुक्त होता है वह 'भाबश्रुत' है। श्रतज्ञान का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-जैसे सूत्र-धागा पिरोई हुई सुई गुम हो जाने पर भी पुनः मिल जाती है, क्योंकि धागा उसके साथ है; वैसे ही सूत्रज्ञान रूप धागे से जुड़ा हुआ व्यक्ति प्रात्मज्ञान से वंचित नहीं होता / प्रात्मज्ञान युक्त होने से वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता। नन्दीसूत्र में श्रुत के दो प्रकार बताये हैं-सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत / वहाँ पर सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत की सूची भी दी है और अन्त में स्पष्ट रूप से लिखा है--"सम्यक्श्रुत कहलाने वाले शास्त्र भी मिथ्यादष्टि के हाथों में पड़कर मिथ्यात्व बुद्धि से परिग्रहीत होने के कारण मिथ्याश्रुत बन जाते हैं। इसके विपरीत मिथ्याश्रुत कहलाने वाले शास्त्र सम्यग्दृष्टि के हाथों में पड़कर सम्यक्त्व से परिगृहीत होने के कारण सम्यक-श्रुत बन जाते है।"१३ 9. इंदियमणोणिमित्तं जं विण्णाणं सुताणुसारेणं / गिप्रयत्थुत्ति समत्थं तं भावसुतं मतो सेसं / -विशे प्रा. भा. (भा. 5), गा. 99 10. दुर्गतौ प्रपततो जीवान रुणद्धि, सूगतौ च तान धारयतीति धर्मः / श्रुतं द्वादशांगं तदेब धर्मः श्रुतधर्मः / ___ --स्थानांगवृत्ति 11. सूत्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम् / सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च सृष्ठूक्तत्वाद् वा सूक्त, सुप्तमिव वा सुस्तम् / सिंचति क्षरति यस्मादर्थं तस्मात् सूत्रं निरुक्तविधिना वा सूचयति श्रवति श्रूयते; स्मयते वा येनार्थः / -स्थानांगवृत्ति 12. सुयधम्मे दुविहे पण्णत्ते तंजहा—सुत्तसुयधम्मे चेव अत्थसुयधम्मे चेव / - स्थानांग, स्था. 2 13. एमाई मिच्छादिठिस्स मिच्छत्तपरिम्गहियाई मिच्छासुयं / एआई चेव सम्मदिस्सि सम्मत्तमरिग्गहियाई सम्मसुयं / / --नन्दीसूत्र-श्रुतज्ञान प्रकरण [17] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत के अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत, संज्ञीश्रुत और असंज्ञीश्रुत आदि चौदह भेद किये गये हैं। उनमें सम्यक्श्रुत वह है जो बीतरागप्ररूपित है। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थकर भगवान् ने अपने आपको देखा एवं समूचे लोक को भी हस्तामलकवत् देखा : भगवान ने सत्य का प्रतिपादन किया। उन्होंने बन्ध, बन्धहेतु, मोक्ष, और मोक्षहेतु का स्वरूप प्रकट किया। भगवान् की वह पावन वाणी पागम बन गई / इन्द्रभूति गौतम आदि प्रमुख शिष्यों ने उस वाणी को सूत्र रूप में ग्था, जिससे आगम के सूत्रागम और अर्थागम ये दो विभाग हए / भगवान के प्रकीर्ण उपदेश को 'प्रर्थागम' और उसके प्राधार पर की गई सूत्ररचना को 'सूत्रागम' कहा गया। यह पागमसाहित्य प्राचार्यों के लिए महान निधि थी। इसलिए वह 'गणिपिटक' कहलाया। उस गुम्फन के 1. आचार 2. सूत्रकृत 2. स्थान 4. समवाय 5. भगवती 6. ज्ञाताधर्मकथा 7. उपासकदशा 8. अन्तकृद्दशा 9. अनुत्तरोपपातिकदशा 10. प्रश्नव्याकरण 11. विपाक 12. दृष्टिवाद, ये मौलिक बारह भाग हुए, इसलिए उसका दूसरा नाम 'द्वादशांगी' है। इस तरह प्रणेता की दृष्टि से आगम-साहित्य 'अंगप्रविष्ट' और 'अनंगप्रविष्ट' इन दो भागों में विभक्त हुया / भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गणधरों ने जिस साहित्य की रचना की, वह 'अंगप्रविष्ट' है। स्थविरों ने भगवान महावीर की वाणी के आधार से जिस साहित्य की संरचना की वह 'अनंगप्रविष्ट' है। बारह अंगों के अतिरिक्त सारा पागमसाहित्य अनंगप्रविष्ट के अन्तर्गत पाता है। द्वादशांगी का आगम-साहित्य में प्रमुखतम स्थान रहा है। वह स्वतः प्रमाण है। द्वादशांगी के अतिरिक्त जो पागम हैं, वे परतःप्रमाण हैं , अर्थात् जो द्वादशांगी से अविरुद्ध हैं वे प्रमाण हैं, शेष अप्रमाण हैं / राजप्रश्नीय : नामकरण इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैनों का आधारभूत प्राचीनतम साहित्य प्रागम हैं और वह श्रुत भी है। राजप्रश्नीयसूत्र की परिगणना अंगबाह्य आगमों में की गई है। वह द्वितीय उपांग है। प्राचार्य देववाचक ने इसका नाम 'रायपसेणिय' दिया है।४ प्राचार्य मलय गिरि ने 'रायपसेणीअ' लिखा है। वे इसका संस्कृत रूप 'राजश्नीयम' करते है। सिद्धसेनगणी ने तत्वार्थवत्ति में 'राजप्रसेनकीय' लिखा है। तो मुनिचन्द्र सूरि ने 'राजप्रसेनजित' लिखा है। प्रक्रियाबाद : एक चिन्तन प्राचार्य मलयगिरि ने रायपसेणोय को सूत्रकृतांग का उपांग माना है। उनका मन्तव्य है कि सूत्रकृतांग में क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी प्रभति पाखण्डियों के तीन सौ तिरेसठ मत प्रतिपादित हैं, उनमें से अक्रियावादी मत को आधार बनाकर राजा प्रदेशी ने केशी श्रमण से प्रश्नोत्तर किये / सुत्रकृतांग१५ और भगवती में चार समवसरणों में एक प्रक्रियावादी बताया है। वहां पर प्रक्रियावादी का अर्थ अनात्मवादी-क्रिया के प्रभाव को मानने वाला, केवल चित्तशुद्धि को आवश्यक और क्रिया को अनावश्यक मानने वाला—किया है। स्थानांग सूत्र में१७ प्रक्रियावादी शब्द का प्रयोग अनात्मवादी और एकान्तवादी दोनों प्रथों में मिलता है / वहाँ प्रक्रियावादी के एकवादी, अनेकवादी, मितवादी, निमितवादी, सातवादी, समुच्छेदवादी, नित्यवादी, असत 14. नन्दीसूत्र, सूत्र-८३ 15. सूत्रकृतांग-१।१२।१ 16, भगवती-३०११ 17. अट अकिरियावाई पण्णत्ता तंजहा--एगावाई, अणेगावाई, मितवाई, णिम्मितवाई, सायवाई, समूच्छेदवाई, णित्तावाई, संतपरलोगवाई। स्थानांग-८।२२ [ 18 ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोकवादी ये माठ प्रकार बताये हैं। उनमें से छह वाद एकान्त दष्टि वाले हैं। समुच्छेदवाद और नास्ति-मोक्षपरलोकवाद ये दो अनात्मवाद हैं। नयोपदेश ग्रन्थ में उपाध्याय यशोविजय जी ने धम्यंश की दृष्टि से जैसे–चार्वाक को नास्तिक प्रक्रियावादी कहा है वैसे ही धर्माश की दृष्टि से सभी एकान्तवादियों को नास्तिक कहा है। सूत्रकृतांगनियुक्ति में प्रक्रियावादियों के चौरासी प्रकार बताये है। यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि उस समय जिन वादों का उल्लेख किया गया है उनकी कौनसी दार्शनिक धारायें थीं ? पर वर्तमान में उन धाराओं के संवाहक दार्शनिक इस प्रकार है१. एकवादी 1. ब्रह्मातवादी-बेदान्त / 2. विज्ञानाद्वैतवादी-बौद्ध / 3. शब्दाद्वैतवादी-वैयाकरण / ब्रह्मादतवादी की दष्टि से ब्रह्म, विज्ञानाद्वैतवादी की दष्टि से विज्ञान और शब्दाद्वैतवादी की दृष्टि से शब्द पारमार्थिक तत्त्व है। शेष तत्त्व अपारमार्थिक हैं। अतः ये सारे दर्शन एकवादी हैं / अनेकान्त दृष्टि के आलोक में सभी पदार्थ संग्रहनय की दृष्टि से एक हैं और व्यवहारनय की दृष्टि से अनेक है / अनेकवादी वैशेषिक दर्शन अनेकवादी है / उसके अभिमतानुसार धर्म-धर्मी, अवयव-अवयबी पृथक्-पृथक् हैं / 16 3. मितवादी 1. जीवों की संख्या परिमित मानने वाले–इनके मन्तव्य पर स्याद्वादमञ्जरी टीका में चिन्तन किया गया है।२० 2. प्रात्मा को अंगुष्ठपर्व या श्यामाक तंदुल जितना मानने वाले इस सम्बन्ध में बृहदारण्यक उपनिषद्,२१ छान्दोग्योपनिषद्,२२ कौषीतकी उपनिषद्,२३ मुण्डक उपनिषद्२४ प्रादि विविध उपनिषदों का मत है / लोक को केवल सात दीय समट का मानने वाले इस विचारधारा का उल्लेख भगवती प्रादि में हुआ है। 18. "धयं नास्तिको ह्य को, बार्हस्पत्यः प्रकीर्तितः / धर्माशे नास्तिका ज्ञेयाः, सर्वेऽपि परतीथिकाः // ' --नयोपदेश, श्लोक-१२६ 19. स्वतोनुवृत्ति-व्यतिभाजो, भावा न भावान्तरनेयरूपाः / परात्मतत्त्वादतथात्मतत्वाद, द्वयं बदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति // अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक-४ 20. मुक्तोपि वाभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योस्तु मितात्मवादे / षड़जीवकायं स्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोषः // -ग्रन्ययोग०, श्लोक-२९ 21. अस्थल मन एव ह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्वेहमच्छायमतमोऽवाय्वनाकाशमसङ्गमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्रमवाग: श्नोऽतेजस्कमप्राणभमुखमनन्तरमवाह्यम् / यथा ब्रीहिर्वा यवो वा ! -बृहदारण्यक उपनिषद-३।८।८; 56 / 1 22. प्रदेशमात्रम ! -छान्दोग्य उपनिषद्-५।१८।१ 23. एष प्रज्ञात्मा इदं--शरीरमनप्रविष्ट: / -कौषीतकी उपनिषद-...-३५४२० 24. सर्वगतः। -मुण्डक-उपनिषद्-११६ [19] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. निमितवादी नयायिक, वैशेषिक प्रादि-जो लोक को ईश्वरकृत मानते हैं / 25 5. सातवादी आचार्य अभयदेव के 26 अनुसार 'सातवाद' बौद्धों का मत है। सूत्रकृतांग से भी इस कथन की पुष्टि होती है / 27 चार्वाकदर्शन का साध्य सुख है। तथापि वह सातवादी नहीं है। क्योंकि "सात सातेण विज्जति" सुख का कारण सुख ही है। प्रस्तुत कार्य-कारण का सिद्धान्त चार्वाकदर्शन का नहीं है। बौद्धदर्शन पुनर्जन्म में निष्ठा रखता है। उसकी मध्यम प्रतिपदा भी कठिनाइयों से बचकर चलने की है, इसलिए वह सातवादी माना गया है। चणिकार ने भी सातवाद को बौद्ध माना है। "सात सातेण विज्जति"-- इस पर चिन्तन करते हुए चूणिकार ने लिखा है-..-'इदानीम् शाक्या: परामृश्यन्ते' अर्थात् अब बौद्धों के सम्बन्ध में हम चिन्तन कर रहे हैं / भगवान् महावीर ने कायक्लेश पर बल दिया। "अत्तहियं खु दुहेण लब्भई"..अात्महित कष्ट से सिद्ध होता है। जैनदर्शन ने बौद्धों के सामने यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया। बौद्धों का मन्तव्य है-शारीरिक कष्ट की अपेक्षा मानसिक समाधि का होना आवश्यक है। कार्य-कारण के सिद्धान्तानुसार दुःख, सुख का कारण नहीं हो सकता / इसलिए सुख, सुख से ही प्राप्त होता है। प्राचार्य शीलांक ने बौद्धों का सातवाद सिद्धान्त माना ही है साथ ही जो परिषह को सहन करने में असमर्थ हैं, ऐसे जैन मुनियों का भी अभिमत माना है।२८ 6. समुच्छेदवादी प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है। उत्पत्ति-अनन्तर दूसरे ही क्षण में उसका उच्छेद हो जाता है, ऐसा बौद्ध मन्तव्य हैं / इसलिए बौद्ध दर्शन समुच्छेदवादी माना गया है / 7. नित्यवादी सांख्यदर्शन के सत्कार्यवाद के अनुसार पदार्थ कूटस्थ नित्य है / कारण रूप में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व रहता है। कोई भी पदार्थ नुतन रूप से पैदा नहीं होता और न वह विनष्ट ही होता है। पदार्थ का आविर्भाव और तिरोभाव मात्र होता है / 26 8. असत् परलोकवादी चार्वाक दर्शन न मोक्ष को मानता है और न परलोक आदि को स्वीकार करता है। राजा प्रदेशी : एक परिचय-- राजा प्रदेशी प्रक्रियावादी था और उसी दृष्टि से उसने अपनी जिज्ञासायें के शीश्रमण के सामने प्रस्तुत की थीं। डा. विन्टरनीज का मन्तव्य है कि प्रस्तुत आगम में पहले राजा प्रसेनजित की कथा थी / उसके पश्चात 25. ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् / न पुरुषकर्माभावे फलानिष्पत्तेः / / तत्कारितत्वादहेतः / -न्यायसूत्र, 4 / 1 / 19-21 26. स्थानांगवत्ति, पत्र 404 / 27. सूत्रकृतांग-३१४१६ 28. सूत्रकृतांगवति, पत्र 96 : एके शाक्यादय : स्वयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ताः / 29. सांख्यकारिका--९. [20] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसेनजित के स्थान पा 'पएस' लगाकर प्रदेशी के साथ इस कथा का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास किया है। पर प्रबल प्रमाण नहीं दिया है, अतः हमारी दृष्टि से वह कल्पना ही है। प्रसेनजित महावीर और बुद्ध के समसामयिक राजाओं में एक राजा था / संयुक्तनिकाय के अनुसार उसने एक यज्ञ के लिए 500 बैल, 500 बछड़े, 500 बछड़ियां, 500 बकरियां, 500 भेड़ आदि एकत्रित किये थे। बुद्ध के उपदेश से बिना मारे ही उसने यज्ञ का विसर्जन किया / 31 उसने बुद्ध से छोटे-बड़े अनेक प्रश्न पूछे, उसका संकलन संयुक्तनिकाय के 'कौशलसंयुत्त' में हुअा है। दीघनिकाय के अनुसार 32 राजा प्रदेशी प्रसेनजित के अधीन था और राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार जितशत्र प्रदेशी राजा का प्राज्ञाकारी सामन्त था। क्योंकि जैन प्रागमसाहित्य में कहीं भी प्रसेनजित राजा का नाम प्राप्त नहीं है। श्रावस्ती के राजा का नाम उपासकदशांग3 3 तथा राजप्रश्नीय 34 सूत्र में 'जितशत्रु' है। यों वाणिज्यग्राम, चम्पा, वाराणसी, प्रालम्बिया आदि अनेक नगरियों के राजा का नाम जितशत्र मिलता है। हमारी दष्टि से यह ऐसा गुणवाचक शब्द है, जिसका प्रयोग प्रत्येक राजा के लिए प्रयुक्त हो सकता है। यह बहुत कुछ सम्भव है कि प्रसेनजित का ही अपरनाम 'जितशत्रु जैन साहित्य में पाया हो। प्रसेनजित पहले वैदिक परम्परा का अनुयायी था / उसके पश्चात् वह तथागत बुद्ध का अनुयायी बना। वह जैनधर्म का अनुयायी नहीं था, इसलिए उसका जैन साहित्य में वर्णन न पाया हो, यह भी सम्भव है। श्रावस्ती के अनुयायी निर्ग्रन्थ धर्म पर पूर्ण आस्थावान् थे। गणधर गौतम और केशीकुमार का मधुर संवाद भी वहीं पर हुआ था 6 तथा अन्य अनेक प्रसंग भी भगवान महावीर के जीवन के साथ जुड़े हुए हैं / 37 प्रस्तुत प्रागम प्रस्तुत आगम दो भागों में विभक्त है। इसमें प्रथम विभाग में 'सूर्याभ' नामक देव श्रमण भगवान् महावीर के समक्ष उपस्थित होता है और वह विविध प्रकार के नाटकों का प्रदर्शन करता है। द्वितीय विभाग में राजा प्रदेशी का केशी कुमारश्रमण से जीव के अस्तित्व और नास्तित्व को लेकर मधर संवाद है। प्रस्तुत प्रागम का प्रारम्भ 'चामलकप्पा' नगरी के वर्णन से होता है। यह नगरी पश्चिम विदेह में श्वेताम्बिका के समीप थी। बौद्ध साहित्य में वुल्लिय राज्य की राजधानी 'अल्लकप्पा' थी। सम्भव है, अल्लकप्पा ही ग्रामलकप्पा हो। यह स्थान शाहाबाद जिले में 'मसार' और 'वैशाली' के बीच अवस्थित था। आमलकप्पा के बाहर 'अम्बसाल' नामक चैत्य था। वह चैत्य वनखण्ड से वेष्टित था। वहां के राजा का नाम 'सेय' और रानी का नाम 'धारिणी' था। भगवान महावीर का वहाँ पर शुभागमन हुआ और वे अम्बसाल चैत्य में 30. संयुक्तनिकाय-कौशलसंयुत्त, यअसुत्त, 3 / 119. 31. धम्मपद-अट्ठकथा, 5-1: Buddhist Legends, Vol. II, P. 104 ff. 32. दीघनिकाय--२०१० 33. उपासकदशांग-प्रध्ययन-९/१० 34. राजप्रश्नीयसूत्र 35. उपासकदशांगसूत्र--अध्ययन 1/ अ. 2, अ. 3, अ. 5 36. उत्तराध्ययन, अध्ययन-२३. गाथा-३ 37. (क) भगवतीसूत्र, शतक-१५वां / (ख) भगवतीसूत्र-शतक-२, उद्देशक-१ [21] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराजे / राजा-रानी तथा अन्य नगर-निवासी प्रभु महाबीर के पावन प्रवचन को श्रवण करने के लिए पहुँचे। आगमसाहित्य में राजा 'सेय' का अन्यत्र कहीं भी विशेष परिचय नहीं पाया है। स्थानांगसूत्र के पाठवें स्थान में भगवान महावीर ने जिन पाठ राजाओं को दीक्षित किया, उन में एक राजा का नाम 'सेय' है। आचार्य अभयदेव के अनुसार यही सेय राजा था, जिसने भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या अंगीकार की थी।35 प्राचार्य गुणचन्द्र ने लिखा है-एक बार भगवान् महावीर पोतनपुर में पधारे, तब शंख, वीर, शिव, भद्र आदि राजामों ने एक साथ दीक्षा ग्रहण की थी। इससे विज्ञों का यह अभिमत है कि ये सभी राजा-गण एक ही दिन दीक्षित हुए थे।४० मलयगिरि ने 'सेय' का संस्कृत रूपान्तर श्वेत किया है। इसी तरह धारिणी नाम अन्य ग्राममों में अनेक स्थलों पर पाया है। प्रोपपातिक सूत्र में राजा कणिक की रानी का नाम भी धारिणी है तथा अन्यत्र भी इस नाम का प्रयोग हुया है / सम्भव है, गर्भ को धारण करने के कारण 'धारिणी' कहलाती हो / भले ही उसका व्यक्तिगत नाम अन्य कुछ भी रहा हो / वास्तुकला का उत्कृष्ट रूप : विमान सौधर्म स्वर्ग के 'सूर्याभ' नामक देव ने अपने दिव्य ज्ञान से निहारा-श्रमण भगवान् महावीर प्रामलकप्पा के प्रम्बसाल चैत्य में विराज रहे हैं। उसने वहीं से भगवान् को वन्दन किया और अपने प्राभियोगिक देवों को आदेश दिया कि वे शीघ्र ही प्रभु महावीर की सेवा में पहुँचे और वहाँ की आसपास की भूमि को साफ कर सुगन्धित द्रव्यों से महका दें। तदनुसार प्राज्ञा का पालन किया गया / सूर्याभ देव ने अपने सेनापति को बुलाकर अत्यन्त कलात्मक विमान की रचना करने की आज्ञा दी। विमान का वर्णन वास्तुकला की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अपूर्व एवं अदभत है। विमान के तीन प्रोर सोपान बनाये गये थे। तीनों सोपानों के सामने मणि-मुक्ताओं और तारिकाओं से रचित तोरण लगाये गये। उन तोरणों पर पाठमंगल स्थापित किये गये। रंग-बिरंगी ध्वजायें, छत्र, घण्टे और सुन्दर कमलों के गुच्छे लगाये गये। विमान का केवल बाह्य भाग ही सुन्दर नहीं था अपितु अन्दर के भाग में इस प्रकार कलात्मक मणियां जड़ी गई थी कि दर्शक देखते ही मंत्रमुग्ध हो जायें। तथा इस प्रकार के चित्र उकित किये गये थे कि अवलोकन करने वाला ठगा-सा रह जाय / विमान के मध्य में प्रेक्षाग्रह का निर्माण किया गया, जिसमें अनेक खम्भे बनाये गये। ऊँची वेदिकायें, तोरण, शाल-भंजिकायें स्थापित की गई / ईहामृग, वृषभ, हाथी, घोड़े, वनलता प्रभति के सुन्दर चित्र अंकित किये गये / स्वर्णमय और रत्नमय स्तूप स्थापित किये गये। सुगन्धित द्रव्यों से उसे महकाया गया। मण्डप के चारों ओर वाद्यों की सुरीली स्वर-लहरियां झनझनाने लगी। मण्डप के मध्यभाग में प्रेक्षकों के बैठने का स्थान निर्मित किया गया। उनमें एक पीठिका स्थापित की। उस पर सिंहासन रखा, जो कलात्मक था। सिंहासन के आगे मुलायम पादपीठ रखा / सिंहासन श्वेत वर्ण के विजयदूष्य से सुशोभित था। उसके मध्य में अंकुश के प्रकार की एक खूटी थी, जिस पर मोतियों की मालायें लटक रही थीं। अनेक प्रकार के रत्नों के हार दमक रहे थे / इस विमान में सूर्याभ देव की मुख्य देवियों तथा अन्य प्राभ्यन्तर परिषद्, सेनापति आदि के बैठने के लिए भद्रासन बिछे हुए थे। मूर्याभ देव अपने स्थान पर आसीन हया और अन्य देवगण भी अपनेअपने ग्रासनों पर अवस्थित हुए। विमान अत्यन्त द्रत गति से चला। असंख्यात द्वीप, समुद्रों को लांघता हा 38. स्थानाङ्ग वृत्ति, पत्र-४०८ 39. "पत्तो पोयणपुर, तहि च संखवीरसिवभद्दपमुहा नरिंदा दिक्खा गाहिया"। -श्री गुणचन्द महावीरचरित्त, प्रस्ताव 8, पत्र 337 40. ठाणं-जैन विश्वभारती, लाडनू, पृष्ठ-८३७ [22] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाँ भगवान महावीर विराज रहे थे, वहाँ उतरा। सूर्याभ देव अपने परिवार सहित भगवान् के श्री-चरणों में पहुंचा। भगवान महावीर के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को श्रवण कर आमलकप्पा के नागरिक यथास्थान लौट गये। सूर्याभ देव ने अपने अन्तर्हृदय की जिज्ञासाएं प्रस्तुत की। भगवान से समाधान पाकर वह परम संतुष्ट हुा / प्रेक्षामण्डप की संरचना को। विविध प्रकार के चमचमाते हुए वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एक सौ पाठ देवकुमार तथा एक सौ आठ देवकुमारियां प्राविर्भूत हुईं। वाद्यः विश्लेषण उसके पश्चात् सूर्याभ देव ने निम्न प्रकार के वाद्यों को विक्रियाशक्ति से रचना की-- शंख, शृग, शृगिका, खरमुही काहाला], पेया [महतीकाला], पिरिपिरिका [कोलिक मुखावनद्ध मुखवाद्य], पणव [लघुपटह], पटह, भंभा [ढक्का], होरंभा [महाढक्का], भेरी [ढक्काकृति वाद्य], झल्लरी४' [चर्मविनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा], दुन्दुभि भिर्याकारा संकटमुखी देवातोद्य४२], मुरज [महाप्रमाण मर्दल], मृदंग [लघु मर्दल], नंदीमृदंग [एकतः संकीर्णः अन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः], प्रालिंग [मुरज वाद्यविशेष 43] कुस्तुब [चविनद्धपुटो वाद्य विशेषः] गोमुखी, मर्दल [उभयतः सम४४], वीणा, विपंची [त्रितंत्री वीणा], वल्लकी [सामान्यतो वीणा], महती, कच्छभी [भारती वीणा], चित्रवीणा, बद्धीस, सुघोषा, नंदिघोषा, भ्रामरी, षड्भ्रामरी, वरवादनी [सप्ततंत्री वोणा], तूणा, तुम्बवीणा [तुबयुक्त वीणा], ग्रामोट, झंझा, नकुल, मुकुन्द [मुरज वाद्यविशेष], हुडुक्का 45, विचिक्की, करटा४६, डिडिम, किणित, कडंब, दर्दर, दर्दरिका [यस्य चतुर्भिश्चरणै खस्थानं भवि स गोधाचविनद्धो, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 101], कलशिका, महया, तल, ताल कांस्यताल, रिंगिसिका [रिगिसिगिका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति], लत्तिया, मगरिका, शिशुमारिका, वंश, वेण, वाली [तुणविशेषः, स हि मुखे दत्वा वाद्यते], परिलि और बद्धक [पिरलीबद्धकौ तणरूप. वाद्यविशेषौ, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, पृष्ठ-१०१]४७, (59) / वाद्यों की संख्या के सम्बन्ध में पाठभेद है / मूलपाठ में वाद्यों की संख्या 49 है और पाठानुसार इनकी संख्या 59 है। इस पर चिन्तन करते हुए टीकाकार ने इस भिन्नता का समन्वय किया है।४८ उन्होंने कुछ वाद्यों को एक दूसरे में मिलाकर उनकी संख्या का स्पष्टीकरण किया है। यों अागमसाहित्य में अनेक स्थलों पर वाद्यों का उल्लेख है। प्राचारांग में 'किरिकिरिया' वाद्य का वर्णन है, जो बांस आदि की लकड़ी से बना हमा 41. यह बायें हाथ में पकड़कर दायें हाथ से बजाई जाती है, -शांर्गधर, संगीतरत्नाकार--६, 1237 / 42. मंगल और विजय सूचक होती है तथा देवालयों में बजाई जाती है, ---शांर्गधर, संगीतरत्नाकर-६,११४६॥ 43. गोपुच्छाकृति मृदंग जो एक सिरे पर चौड़ा और दूसरे पर संकड़ा होता है-वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित, पृष्ठ 67 44. संगीत रत्नाकर, 1034 आदि / 45. इसे पावज अथवा स्कंधावज भी कहा जाता है, -संगीतरत्नाकर 1075 46. संगीतरत्नाकर 1076 आदि / 47. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-सूत्र, 64. '8. मुलभेदापेक्षया मातोद्यभेदा एकोनपञ्चाशत, शेषास्तु एतेष एव अन्तर्भवन्ति, यथा वंशातोद्यविधाने वालीवेणु पिरिलिबद्धगा: इति, राजप्रश्नीय सटीक, पृष्ठ 128 49. आचारांग-२, 11, 391, पृष्ठ 379 [23] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता था / सूत्रकृतांग में 'कुक्कयय' और 'वेणुपलाशिय' बांसुरियों का वर्णन है, जो दांतों में बांये हाथ से पकड़ कर वीणा की भांति दाहिने हाथ से बजाई जाती थी।५० भगवतीसूत्र की टीका में५१, जीवाभिगम५२, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति५३, निशीथसूत्र५४, आदि में भी अनेक वाद्यों का उल्लेख है। बृहत्कल्पभाष्य५५ में भंभा, मुकुन्द, मद्दल, कड़म्ब, झल्लरी, हुडुक्क, कांस्यताल, काहल, तलिमा, वंश, पणव, शंख इन बारह वाद्यों का उल्लेख है। रामायण५६ व महाभारत५७ में मड्डक, पटह, वंश, विपञ्ची, मृदंग, पणव, डिडिम, आडंबर और कलशी का उल्लेख है। भरत के नाट्यशास्त्र में, ततवाद्यों में, विपञ्ची और चित्रा को मुख्य और कच्छपी एवं घोषका को उनका अंगभूत माना है / 58 चित्रवीणा सात तंत्रियों वाली होती थी और वे तंत्रियां अंगुलियों से बजाई जाती थीं। विपञ्ची में नौ तंत्रियां होती थी, जिसका वादन 'कोण' अर्थात् वीणावादन के दण्ड के द्वारा किया जाता था! यद्यपि भरत ने कच्छपी और घोषका के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है, किन्तु संगीतरत्नाकर ग्रन्थ के अनुसार घोषका एकतंत्री वाली वीणा थी और कच्छपी सम्भव है, सात तंत्रियों से कम वाली वीणा हो। 'संगीतदामोदर' में तत के 29 प्रकार बताये हैं-अलावणी, ब्रह्मवीणा, किन्नरी, लघुकिन्नरी, विपञ्ची, वल्लकी, ज्येष्ठा, चित्रा, घोषवली, जपा, हस्तिका, कुनजिका, कर्मी, सारंगी, पटिवाविनी, त्रिशवी, शतचन्द्री, नकुलोष्ठी, ढंसवी, ऊदंबरी, पिनाकी, निःशंक, शुष्फल, गदावारणहस्त, रुद्र, स्वरमणमल, कपिलास, मधुस्वंदी और घोपा / ' आयारचला६२ और निशीथ६३ में तत के अन्तर्गत वीणा, विपञ्ची, वद्धिसग, तुणय, पवण, तुम्बबिणिया, ढ़कुण, और जोड़य ये आठ वाद्य लिये हैं। वितत-चम से आबद्ध वाद्य वितत है। गीत और वाद्य के साथ ताल एवं लय के प्रदर्शन करने हेतु इन वाद्यों का प्रयोग होता था। इनमें मृदंग, पवण [तन्त्रीयुक्त अवनद्य वाद्य], दर्दुर [कलश के आकार वाला चर्म 50. सूत्रकृतांग-४. 2. 7. 51. भगवतीसत्र टीका-५. 4. पृष्ठ-२१६ अ 52. जीवाभिगम-३, पृष्ठ-१४५-प्र 53. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-२, पृष्ठ-१००-अ आदि 54. निशीथसूत्र-१७. 135-138 55. बृहत्कल्पभाष्यपीठिका–२४ वृत्ति 56. रामायण-५.१०.३८ ग्रादि 57. महाभारत-७.८२.४ 58. विपंची चैव चित्रा च दारवीध्वंगसंज्ञिते / कच्छपीघोषकादीनि प्रत्यंगानि तथैव च / / -भरतनाट्य-३३ / 15 सप्ततन्त्री भवेत चित्रा विबंची नवतन्त्रका। विपंची कोणवाद्या स्याच्चित्रा चांगलिवादना / / -भरतनाट्य-२९ / 114 60. घोषकाचकतन्त्रिका / —संगीतरत्नाकर, वाद्याध्याय, पृष्ठ 248 61. प्राचीन भारत के वाद्ययन्त्र--कल्याण (हिन्दुसंस्कृति अङ्क) पृष्ठ-७२१-७२२ से उद्धत 62. आयारचूला–११ / 2 / 63. निसोहझयणं-१७ / 138 - - - ---- [24] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मढ़ा हुया वाद्य, भेरी, डिडिम, मृदंग आदि हैं। ये वाद्य मानव की कोमल भावनाओं को उद्दीपित करते हैं और वीरोचित उत्साह बढ़ाते हैं / इसलिए धार्मिक उत्सव और युद्ध के प्रसंगों पर इनका उपयोग होता था। विज्ञों का यह भी मानना है कि मुरज, पटह, डक्का, विश्वक, दर्पवाद्य, घण, पणव, सरुहा, लाव, जाहब, त्रिवली, करट, कमठ, भेरी, कुडुक्का, हुडुक्का, झनसमुरली, झल्ली, ढुक्कली, दौंडी, शान, डमरू, ढमुकी, मड्डू, कुडली, स्तुंग, दुंदुभी, अंग, मर्छल, अणीकस्थ ग्रादि वाद्य भी वितत के अन्तर्गत आते हैं।६४ घन-कांस्य आदि धातुओं से बने हुए वाद्य 'धन' कहलाते हैं। करताल, कांस्यवन, नयभटा शुक्तिका, कण्ठिका, पटवाद्य, पट्टाघोष, धर्घर, झंझताल, मंजिर, कर्तरी, उष्णकक, प्रादि धन के अनेक प्रकार हैं / निशीथ मे 5 घन शब्द के अन्तर्गत ताल, कंसताल, लत्तिय, गोहिय, मक्करीय, कच्छभी, महत्ती, सणालिया और वालिया प्रादि वाद्य धन में सम्मिलित किए गये हैं। मुधिर—फक से बजाये जाने वाले वाद्य 'शुषिर' हैं। भरतमुनि ने शूषिर के अन्तर्गत वंश को अंगभूत तथा शंख, डिविकणी प्रादि वाद्यों को प्रत्यंग माना है। इस प्रकार प्राचीन साहित्य में वाद्यों के सम्बन्ध में विविध रूप से चर्चायें हैं / हमने संक्षेप में ही यहाँ कुछ उल्लेख किया है। नाटक : एक चिन्तन : सूर्याभ देव ने देव कुमारों और देव कुमारियों को आदेश दिया कि वे नाट्यविधि का प्रदर्शन करें / वे सभी एक साथ नीचे झुके और एक साथ मस्तक ऊपर उठाकर उन्होंने अपना नृत्य और गीत प्रारम्भ किया। उसके पश्चात् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियां प्रदशित की -- 1. स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण के दिव्य अभिनय-- ग्राचार्य मलय गिरि६६ के अनुसार इन नाट्यविधियों का उल्लेख चतुर्दश पूर्वो के अन्तर्गत नाट्यविधि नामक प्राभत में था, पर वह प्राभत वर्तमान में विच्छिन्न हो गया है। महाभारत में स्वस्तिक, वर्धमान और नन्द्यावर्त का उल्लेख है। अंगुत्तरनिकाय में नन्द्यावर्त का अर्थ मछली किया है।६८ भरत के नाट्यशास्त्र में स्वस्तिक को चतुर्थ और वर्धमानक को तेरहवां नाट्य बताया है। प्रस्तुत अभिनय में भरत के नाट्यशास्त्र में उल्लखित प्रांगिक अभिनय के द्वारा नाटक करने वाले, स्वस्तिक प्रादि अाठ मंगलों का प्राकार बनाकर खड़े हो जाते और फिर हाथ आदि के द्वारा उस आकार का प्रदर्शन करते तथा वाचिक अभिनय के द्वारा मंगल शब्द का उच्चारण करते। जिससे दर्शकों के अन्तर्हृदय में उस मंगल के प्रति रतिभाव समुत्पन्न होता।६६ 2. आवर्त,७° प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमानव, वर्धमानक, [कंधे पर बैठे 64. प्राचीन भारत के वाद्ययन्त्र-कल्याण (हिन्दुसंस्कृति अंक) पृष्ठ–७२१-७२२ .65. निसीहझयणं-१७ / 139. 66. राजप्रश्नीय टीका, पृष्ठ-१३६ 67. महाभारत-७, 82, 20 68. डिक्शनरी प्रॉफ पालि प्रॉपर नेम्स, भाग-२, पृष्ठ-२९ - मलालसेकर 69. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका 5, पृष्ठ-४१४ / 70. भ्रमभ्रमरिकादानैर्नर्तनम् आवर्तः, तद्विपरीतः प्रत्यावर्तः। -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका 5, पृष्ठ-४१४ [25] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए पुरुष का अभिनय] मत्स्याण्डक, मकराण्डक 71 जार, मार, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागरतरंग, वसन्तलता, पद्मलता७३, के चित्रों का अभिनय / 3. ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, नर, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु, शरभ, चमर, कुजर,७४ वनलता, पद्मलता के चित्रों का अभिनय। 4. एकतोवऋ७५, द्विधावक्र, एकतश्चक्रवाल, द्विधाचक्रवाल, चक्रार्ध, चक्रवाल का अभिनय। 5. चन्द्रावलिका-प्रविभक्ति७६, सूर्यावलिका-प्रविभक्ति, वलयावलिका-प्रविभक्ति, हंसावलिकाप्रविभक्ति७७, एकावलिका-प्रविभक्ति, तारावलिका-प्रविभक्ति, मुक्तावलिका-प्रविभक्ति, कनकावलिका-प्रविभक्ति, और रत्नावलिका-प्रविभक्ति का अभिनय / 6. चन्द्रोद्गमनदर्शन और सूर्योद्गमनदर्शन का अभिनय / 7. चन्द्रागमदर्शन, सूर्यागमदर्शन का अभिनय / 8. चन्द्रावरणदर्शन, सूर्यावरणदर्शन का अभिनय / 9. चन्द्रास्तदर्शन, सूर्यास्तदर्शन का अभिनय / 10. चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नागमण्डल, यक्षमण्डल, भूतमण्डल, राक्षसमण्डल, गन्धर्व मण्डल के भावों का अभिनय / 11. द्रुतविलम्बित अभिनय-इसमें वृषभ और सिंह तथा घोड़े और हाथी की ललित गतियों का अभिनय / 12. सागर और नागर के प्राकारों का अभिनय / 13. नन्दा और चम्पा का अभिनय। 14. मत्स्यांड, मकरांड, जार और मार की प्राकृतियों का अभिनय / 15. क, ख, ग, घ, ङ की प्राकृतियों का अभिनय / 16. च-वर्ग की प्राकृतियों का अभिनय / 17. ट-वर्ग की प्राकृतियों का अभिनय / 71. भरत के नाट्यशास्त्र में मकर का वर्णन है। 72. सम्यग्मणिलक्षणवेदिनी लोकाद्वेदितव्यौ ! —जीवाजीवाभिगम टीका, पृष्ठ-१८९ 73. भरत के नाट्यशास्त्र में पद्म। 74. भरत के नाट्यशास्त्र में गजदंत / 75. एकतो वक्त्रं-नटानां एकस्यां दिशि धनुराकारश्रेण्या नर्तनं / द्विधातो वक्र-द्वयोः परस्पराभिमुख दिशो: धनराकारश्रेण्या नर्तनं / एकतश्चक्रवाल एकस्यां दिशि नटानां मण्डलाकारेण नर्तनं / -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका 5, पृष्ठ-४१४ 76. चन्द्राणां प्रावलिः श्रेणि: तस्याः प्रविभक्तिः-विच्छित्तिरचनाविशेषस्तदभिनयात्मकं / -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका 5. पृष्ठ-४१४ 77. भरत के नाट्यशास्त्र में हंसवत्र और हंसपक्ष / 78. नाट्यशास्त्र में 20 प्रकार के मण्डल बताये गये हैं। यहाँ गन्धर्वनाट्य का उल्लेख है। [ 26 ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. त-वर्ग की प्राकृतियों का अभिनय / 19. प-वर्ग को प्राकृतियों का अभिनय / 20. अशोक, आम्र, जंबू, कोशम्ब के पल्लवों का अभिनय / 21. पद्म, नाग, अशोक, चम्पक, आम्र, वन, वासन्ती, कुन्द, प्रतिमुक्तक और श्याम लता का अभिनय / 22. द्रुतनाट्य / 23. विलंबित नाट्य / 24. द्रुतविलंबित नाट्य / 25. अंचित.। 26. रिभित। 27. अंचितरिभित / 25. प्रारभट / 29. भसोल (अथवा भसल)८२ | 30. प्रारभटभसोल / 31. उत्पात, निपात, संकुचित, प्रसारित, रयारइय८३, भ्रांत और संभ्रांत क्रियाओं से सम्बन्धित अभिनय / 32. महावीर के च्यवन, गर्भसंहरण, जन्म, अभिषेक, बालक्रीडा, यौवनदशा, कामभोगलीला,८४ निष्क्रमण, तपश्चरण, ज्ञानप्राप्ति, तीर्थप्रवर्तन और परिनिर्वाण सम्बन्धी घटनाओं का अभिनय [66-84] / अन्य प्रागमों में अनेक स्थलों पर नाट्यविधियों का उल्लेख हुआ है / उत्तराध्ययन की वृत्ति के अनुसार जब ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पद पर आसीन हुआ तो उसके सामने एक नट ‘मधुकरीगीत' नामक नाट्यविधि प्रदर्शित करता है। 5 सौधर्म इन्द्र के सामने सुधर्मा सभा में 'सौदामिनी' नाटक करने का भी उल्लेख है।८६ स्थानांगसूत्र में चार प्रकार के नाट्यों का वर्णन है--अंचित, रिभित, प्रारभट, भसोल / भरतनाट्यशास्त्र में एक सौ पाठ कर्ण माने हैं। कर्म का अर्थ है- अंग और प्रत्यंग की क्रियाओं को एक साथ करना / 79. नाट्यशास्त्र में द्रुत नामक लय का वर्णन है। 80. नाट्यशास्त्र में उल्लेख है। 51. नाट्यशास्त्र में 'पारभटी' एक वत्ति का नाम बताया गया है। 52. नाट्यशास्त्र में भ्रमर / 83. नाट्यशास्त्र में रेचित / जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में रेचकरेचित पाठ है। प्रारभटी शैली से नाचने वाले नट मंडलाकार रूप में रेचक अर्थात् कमर, हाथ, ग्रीवा को मटकाते हुए रास नृत्य करते थे। ---वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित, पृष्ठ-३३ 84. इससे महावीर की गृहस्थावस्था का सूचन होता है / 85. उत्तराध्ययन टीका-१३, पृष्ठ-१९६ 86. उत्तराध्ययन टीका-१८, पृष्ठ-२४० अ. 87. चउन्विहे पट्ट पण्णते, तं जहा-अंचिए, रिभिए, पारभडे, भसोले - स्थानाङ्ग 4 / 633 [ 27 ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंचित को तेईसवां कर्ण माना है। प्रस्तुत अभिनय में पैरों को स्वस्तिक के आकार में रखा जाता है। दाहिने हाथ को कटिहस्त नित हस्त की एक मुद्रा] और बायें हाथ को व्यावत तथा परिवत कर नाक के पास अंचित करने से यह मुद्रा बनती है।८८ चिन्तातुर व्यक्ति हाथ पर ठोडी टिका कर सिर को नीचा रखता है, वह मुद्रा 'अंचित है। राजप्रश्नीय में यह पच्चीसवां नाट्यभेद माना गया है। "रिभित" के सम्बन्ध में विशेष जानकारी ग्रन्थों में नहीं है। "पारभट"-माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध, उद्भ्रान्त प्रभृति चेष्टाओं से युक्त तथा वध, बन्धन आदि से उद्धत नाटक 'आरभटी' है:१६ 'साहित्यदर्पण' deg में इसके चार प्रकार बताये गये हैं / प्रारभट को राजप्रश्नीय में नाट्यभेद का अठारहवां प्रकार माना है। "भसोल"--स्थानांग वृत्ति में इस सम्बन्ध में कोई विशेष विवरण नहीं दिया है।६१ राजप्रश्नीय में इसे उनतीसवाँ प्रकार माना है। सूर्याभदेव विविध प्रकार के गीत और नाट्य प्रदर्शित करने के पश्चात् भगवान् महावीर को नमस्कार कर स्वस्थान को प्रस्थित हो गया। गणधर गौतम ने सूर्याभदेव के विमान के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की। भगवान ने विस्तार से विमान का वर्णन सुनाया। साथ ही गौतम ने पुनः यह जिज्ञासा प्रस्तुत की कि यह दिव्य देवऋद्धि सूर्याभदेव को किन शुभ कर्मों के कारण प्राप्त हुई है ? प्रभु महावीर ने समाधान करते हुए उसका पूर्वभव सुनाया, जो प्रस्तुत आगम का द्वितीय विभाग है। केकया जनपद 'केकय अर्ध' जनपद था। जैन साहित्य में साढ़े पच्चोस ार्य क्षेत्रों की परिगणना की गई है। उन देशों और राजधानियों का उल्लेख बहत्कल्पभाष्यवत्ति 2 प्रज्ञापना और प्रवचनसारोद्धार 4 में हुआ है। इन देशों में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव पैदा हुए / इसलिए इन्हें आर्य जनपद कहा है। जिन देशों में तीर्थकर, प्रभति महापुरुष पैदा होते हैं, वह पार्य हैं।६६ आर्य और अनार्य जनपदों की व्यवस्था के सम्बन्ध में आवश्यकचणि, तत्त्वार्थभाष्य, तत्वार्थराजवातिक आदि में चर्चाएं हैं। हम यहाँ विस्तार से चर्चा में न जाकर यह बताना चाहेंगे कि केकयार्ध' की परिगणना अर्धजनपद में की गई थी। यो केकय नाम के दो प्रदेश थे। एक की 88. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ-४२५ 89. आप्टे डिक्शनरी में प्रारभट शब्द के अन्तर्गत उद्ध त मायेन्द्रजालसंग्रामक्रोधोभ्रान्तादिचेष्टितैः / संयुक्ता वधबन्धाद्यैरुद्ध तारभटी मता // 90. साहित्यदर्पण-४२० / 91. नाट्यगेयाभिनयसूत्राणि सम्प्रदायाभावान्न विवृतानि / ---स्थानांगवृत्ति, पत्र-२७२ 92. बहत्कल्पभाष्यवृत्ति--१. 3263; 93. प्रज्ञापनासूत्र--१.६६ पृष्ठ 173; 94. प्रवचनसारोद्धार, पृष्ठ 446 95. 'इत्युप्पत्ति जिणाणं, चक्कोणं रामकण्हाणं / ' -प्रज्ञापना-१ 96. 'यत्र तीर्थकरादीनामुत्पतिस्तदाय, शेषमनार्यम् !' --प्रवचनसारोद्धार, पृष्ठ-४४६ 97. आवश्यकचूणि 98. तत्त्वार्थभाष्य--३११५ 99. तत्त्वार्थराजवार्तिक-३१३६, पृष्ठ-२०० [28] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्थिति खिवाड़ा-नमक की पहाड़ी अथवा शाहपुर झेलम-गुजरात में थी। दूसरे की अवस्थिति श्रावस्ती के उत्तरपूर्व में नेपाल को तराई में थी / सम्भवतः यही केकय साढ़े पच्चीस देशों में अभिहित है। उसकी राजधानी श्वेताम्बिका थी। यह श्रावस्ती और कपिलवस्तु के मध्य में नेपालगंज के पास में होनी चाहिए। इस देश के आधे भाग को आर्य देश स्वीकार किया है और प्राधे भाग को अनार्य देश। प्राधे भाग में प्रादिमवासी जाति निवास करती होगी। बौद्ध साहित्य में सेविया [श्वेताम्बिका] को 'सेतव्या' लिखा है। भगवान् महावीर का भी वहाँ पर विचरण हुआ था। यह स्थान श्रावस्ती [सहेट-महेट] से 17 मील और बलरामपुर से 6 मील की दूरी पर अवस्थित था। इसके उत्तरपूर्व में 'मगवन' नामक उद्यान था। इस नगरी का अधिपति राजा प्रदेशी था / दीघनिकाय में राजा का नाम 'पायासि' दिया गया है। वह राजा अत्यन्त अधार्मिक, प्रचण्ड क्रोधी और महान् तार्किक था / गुरुजनों का सन्मान करना उसने सीखा ही नहीं था और न वह श्रमणों और ब्राह्मणों पर निष्ठा ही रखता था। उसकी पत्नी का नाम 'सूर्यकान्ता' था और पुत्र का नाम 'सूर्यकान्त' था, जो राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार और अन्तःपुर की पूर्ण निगरानी रखता था। राजा प्रदेशो के चित्त नामक एक सारथी था। दीघनिकाय में चित्त के स्थान पर 'खत्त' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'खत्ते' का पर्यायवाची संस्कृत में क्षत-क्षता है, जिसका अर्थ सारथी है। वह सारथी साम, दाम, दण्ड, भेद, प्रभृति नीतियों में बहुत ही कुशल था। प्रबल प्रतिभा का धनी होने के कारण समय-समय पर राजा प्रदेशी उससे परामर्श किया करता था। कुणाला जनपद में श्रावस्ती नगरी का अधिपति 'जितशत्रु' था। जितशत्रु के सम्बन्ध में हम पूर्व में लिख चुके हैं-वह राजा प्रदेशी का प्राज्ञाकारी सामन्त था। राजा प्रदेशी के आदेश को स्वीकार कर चित्त सारथी उपहार लेकर श्रावस्ती पहँचता है और वहाँ रहकर शासन की देखभाल भी करता है। केशी श्रमण : एक चर्चा उस समय चतुर्दशपूर्वधारी पाश्र्वापत्य केशी कुमारश्रमण वहाँ पधारते हैं / ऐतिहासिक विज्ञों का अभिमत है कि सम्राट् प्रदेशीप्रति बोधक केशी कुमारश्रमण भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के चतुर्थ पट्टधर थे। प्रथम पट्टधर प्राचार्य शुभदत्त थे, जो प्रथम गणधर थे। उनकी जन्मस्थली 'क्षेमपुरी' थी। उन्होंने 'सम्भूत' मुनि के पास श्रावकधर्म ग्रहण किया था। माता-पिता के परलोकवासी होने पर उन्हें संसार से विरक्ति हुई। भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम उपदेश को सुनकर दीक्षा ली और पहले गणधर बने / उनके उत्तराधिकारी प्राचार्य हरिदत्तसूरि हुए, जिन्होंने वेदान्त दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य 'लोहिय' को शास्त्रार्थ में पराजित कर प्रतिबोध दिया और लोहिय को 500 शिष्यों के साथ दीक्षित किया। उन नवदीक्षित श्रमणों ने सौराष्ट्र, तैलंग, प्रभति प्रान्तों में विचरण कर जैन शासन की प्रबल प्रभावना की। ततीय पट्टधर प्राचार्य 'समुद्रमरि' थे। उन्हीं के समय 'विदेशी' नामक महान प्रभावशाली प्राचार्य ने उज्जयिनी नगरी के अधिपति महाराज 'जयसेन', महारानी 'अनंगसुन्दरी' और राजकुमार केशी' को दीक्षित किया। 100 आगमसाहित्य में केशीश्रमण का राजप्रश्नीय और उत्तराध्ययन, इन दो आगमों में उल्लेख हना। राजप्रश्नीय और उत्तराध्ययन में उल्लिखित केशी एक ही व्यक्ति रहे हैं या पृथक-पृथक ? प्रज्ञाचक्ष पं. सुखलाल 100. केशिनामा तद्विनेयः यः प्रदेशीनरेश्वरम् / प्रबोध्य नास्तिकाद् धर्माद् जैनधर्मेऽध्यरोपयत् / / -~-नाभिनन्दोद्धार प्रबंध-१३६ [29] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी संघवी१०१, डा. जगदीशचन्द्र जैन 02, डा० मोहनलाल मेहता 103, पं. मुनि नथमल जी१०४ [युवाचार्य महाप्रज्ञ] आदि अनेक विज्ञों ने राजा प्रदेशी के प्रतिबोधक केशी कुमारश्रमण को और गणधर गौतम के साथ संवाद करने वाले केशी कुमारश्रमण को एक माना है, पर हमारी दृष्टि से दोनों पृथक-पृथक व्यक्ति हैं। क्योंकि सम्राट् प्रदेशी को प्रतिबोध देने वाले चतुर्दशपूर्वी और चार ज्ञान के धारक थे।१०५ गणधर गौतम के साथ चर्चा करने वाले केशीकुमार तीन ज्ञान के धारक थे। 06 यदि हम यह मान लें कि जिस समय केशीकुमार ने गणधर गौतम के साथ चर्चा की थी, उस समय वे तीन ज्ञान के धारक थे और बाद में चार ज्ञान के धारक हो गये होंगे / पर यह तर्क भी उचित नहीं है, क्योंकि यदि वे चार ज्ञान के धारक वाद में बने तो श्रावस्ती में चित्त सारथी को चातुर्याम का उपदेश किस प्रकार देते ? उनके नाम के साथ 'पार्वापत्यीय' विशेषण किस प्रकार लगता? इसलिए स्पष्ट है कि दोनों पृथक-पृथक व्यक्ति हैं। किन्तू नामसाम्य होने से अनेक मनीषियों को भ्रम हो गया है और उन्होंने दोनों को एक माना है। विविध, उत्सव केशीकुमार के प्रागमन के समाचारों ने जन-जन के अन्तर्मानस में एक अपूर्व उल्लास का संचार किया। वे नदी के प्रवाह की तरह धर्मदेशना श्रवण करने के लिए प्रस्थित हुए। उनके तीव्र कोलाहल को सुनकर चित्त सारथी सोचने लगा-क्या प्राज इस नगर में कोई इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, मुकुन्द, शिव, वैश्रमण, नाग, यक्ष, भूत, स्तूप, चैत्य, वृक्ष, गिरि, गुफा, कप, नदी, सागर, और सरोवर का उत्सव मनाया जा रहा है ? जिससे सभी लोग उत्साह के साथ जा रहे हैं / यहाँ पर जिन इन्द्र, स्कन्द आदि के उत्सवों का वर्णन है, उसका उल्लेख ज्ञाताधर्म कथा१०७ व्याख्याप्रज्ञप्ति 08 भगवती१०६ निशीथ 1* आदि अन्य आगमों में भी आया है। इन्द्र वैदिक साहित्य का बहुत ही लब्धप्रतिष्ठ देव रहा है। वह समस्त देवों में अग्रणी था। प्राचीन युग में 'इन्द्रमह' उत्सव सभी -- --... 101. 'दर्शन और चिन्तन' -भ० पार्श्वनाथ का विरासत लेख, पृ. 5 102. जैन साहित्य का बहद् इतिहास-भाग-२, पृष्ठ-५४-५५. 103. जैन साहित्य का वहद इतिहास--भाग-२, पृष्ठ-५४-५५. डा० मोहनलाल मेहता 104. उत्तरज्झयणाणि-भाग-१, पृष्ठ-२०१ 105. 'पासावच्चिज्जे केसीणाम कुमारसमणे जाइसंपण्णे"....."च उद्दसपुव्वी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसएहिं सद्धि संपरिडे / ' --रायपसेणइय, पृष्ठ-२८३. पं. बेचरदास जी संपादित 106. 'तस्स लोगपईवस्स पासि सीसे महायसे / केशी कुमारसमणे विज्जाचरणपारगे / प्रोहिनाणसुए बुद्ध, सीससंघसमाउले / गामाणुगाम रीयन्ते, सावत्थि नगरिमागए॥ --उत्तराध्ययन-२३३२-३ 107. ज्ञातावमकथा 8, पृष्ठ-१०० / 108. व्याख्याप्रज्ञप्ति-३.१ / 109. भगवती-३.१ / 110. निशीथसूत्र-८.१४ / [30] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सवों में श्रेष्ठ उत्सव माना जाता था और सभी लोग बड़े उत्साह से इसे मनाते थे।१११ निशीथसूत्र में इन्द्र, स्कन्द, यक्ष, और भूत नामक महामहों का वर्णन है। जो क्रमशः आषाढ़, पासौज, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमानों को मनाया जाता था। इन्द्रमह आदि उत्सवों में लोग मनपसन्द खाते-पीते, नाचते,गाते हुए आमोद-प्रमोद में तल्लीन रहते थे। 12 इन उत्सवों में अत्यधिक शोरगुल होता था, जिससे श्रमणों को स्वाध्याय की मनाई की गई थी। जो खाद्य पदार्थ उत्सव के दिन तैयार किया जाता था, यदि वह अवशेष रह जाता तो प्रतिपदा के दिन उसका उपयोग करते / अपने सम्बन्धियों को भी उस अवसर पर बुलाते / / 13 'इन्द्रमह' के दिन धोबी से धले हए स्वच्छ वस्त्र लोग पहनते थे।१४ दूसरा उत्सव 'स्कन्दमह' का था। ब्राह्मण पौराणिक अनुश्रुतियों से अनुसार स्कन्द अथवा कार्तिकेय महादेव के पुत्र और युद्ध के देवता माने गये हैं। तारक, राक्षस और देवताओं के युद्ध में 'स्कन्द' देवताओं के सेनापति के रूप में नियुक्त हुए थे। उनका वाहन 'मयूर' था / 'स्कन्दमह' उत्सव प्रासौज की पूर्णिमा को मनाया जाता था।१५ _ 'रुद्रमह' तृतीय उत्सव था। वैदिक दृष्टि से रुद्र ग्यारह थे / वे इन्द्र के साथी शिव और उसके पुत्रों के अनुचर तथा यम के रक्षक थे। व्यवहारभाष्य के अनुसार रुद्र-पायतनों के नीचे ताजी हडिड्या गाड़ी जाती थीं।१६ _ 'मुकुन्दमह' चतुर्थ उत्सव था। महाभारत में मुकुन्द यानि बलदेव को लांगुली-हलधर कहा है।११७ हल उसका अस्त्र है। भगवान महावीर छद्मस्थ अवस्था में गोशालक के साथ 'पावत' ग्राम में पधारे थे। वहाँ पर वे बलदेवगह में विराजे१८, जहाँ पर बलदेव की अर्चना होती थी। 'शिवमह' पांचवां उत्सव था। हिन्दू साहित्य के अनुसार शिब भूतों के अधिपति, कामदेव के दहनकर्ता और स्कन्द के पिता थे। उन्होंने विष का पान किया तथा आकाश से गिरती हुई गंगा को धारण किया। उनके 111. (क) आवश्यकचूणि-पृष्ठ-२१३ (ख) इपिक माइथोलॉजी, स्ट्रासबर्ग 1915 / -डा. हॉपकिन्स ई., पृ. 125 (ग) भास --ए स्टडी, लाहौर-१९४०-पुलासकर ए. डी., पृ. 440 (घ) कथासरित्सागर, जिल्द-८, पृष्ठ-१४४-१५३ (ङ) महाभारत-१.६४.३३ (च) रंगस्वामी ऐयंगर कमैमोरेशन वॉल्युम, पृष्ठ-४८० 112. (क) निशीथ-१९।६०३५ (ख) रामायण-४।१६।३६ (ग) डा० हॉपकिन्स ई० डब्ल्यू०, पृ. 125 113. निशीथचूणि-१६. 6068 ! 114. आवश्यकचूर्णि-२, पृष्ठ-१८१ 115. आवश्यकचूणि, पृष्ठ-३१५ / / 116. व्यवहारभाष्य-७।३१३, पृष्ठ-५५. अ. / 117. महाभारत-देखिए, वैष्णविज्म, शैविज्म एण्ड माइनर रिलिजियस सिस्टम, पृष्ठ-१०२. आदि। 118. (क) आवश्यकनियुक्ति-४८१; (ख) आवश्यकचूणि, पृष्ठ-२९४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मान में वैशाख मास में उत्सव मनाया जाता है। भगवान महावीर के समय शिव की अर्चा प्रचलित थी। ढोंढसिवा अचितशिव माना जाता था, उसकी भी उपासना शिव के रूप में ही होती थी।११६ 'वैश्रमणमह' छठा उत्सव था। वैश्रमण उत्तर दिशा का लोकपाल और समस्त निधियों का अधिपति था। जीवाजीवाभिगम में वैश्रमण को यक्षों का अधिपति और उत्तर दिशा का लोकपाल कहा है। 120 हॉपकिन्स ने वैश्रमण को राक्षस और गुह्यकों का अधिपति कहा है। 121 'नागमह' सातवां उत्सव था। वैदिक पुराणों के अनुसार सर्पदेवता सामान्य रूप से पृथ्वी के अधःस्थल में निवास करते हैं, जहाँ पर शेषनाग अपने सहन फन से पृथ्वी के अपार भार को सम्हाले हुए है। 22 जैन दृष्टि से सगर चक्रवर्ती के जण्हकुमार आदि साठ हजार पुत्र थे। उन्होंने दण्डरत्न से अष्टापद पर्वत के चारों ओर एक खाई खोदी और गंगा के नौर से उस खाई को भरने लगे। पर खाई का पानी नागभवनों में जाने से नागराज क्रुद्ध हुप्रा / उसने नयन-विष महासर्प प्रेषित किये, जिन्हें देखते ही सगरपुत्र भस्म हो गये / महाभारत में नाग तक्षक का उल्लेख है, जिसने अपने भयंकर विष से वटवृक्ष को और राजा परीक्षित के भव्य भवन को जलाकर नष्ट कर दिया था / कालियनाग ने यमुना नदी के नीर को विषयुक्त कर दिया था।१२3 साकेत में एक महान् नागगृह था / 124 ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार रानी पद्मावती ने नागदेव की अर्चा की थी। 125 नागकुमार धरणेन्द्र ने भगवान पार्श्व की जल से छत्र बनाकर रक्षा की थी / 126 'मुचिलिद' नाम के सर्पराज ने तथागत बुद्ध की हवा और पानी से रक्षा की थी।२७ इस तरह नाग की चर्चा अनेक स्थलों पर है और उसके भय से लोग उसकी उपासना करते थे / अाज भी भारत में लोग 'नागपंचमी का पर्व मनाते हैं, जो एक प्रकार से नागमह का ही रूप है। 'यक्षमह' पाठबां उत्सब था। नगरों और गांवों के बाहर यक्षायतन होते थे। लोगों की यह धारणा थी कि यक्ष की पूजा करने से कोई भी संक्रामक रोग हमारे ऊपर आक्रमण नहीं कर सकेगा। यक्ष इन रोगों से हमारी रक्षा करेगा।१२८ अभिधान-राजेन्द्रकोष में पूर्णभद्र, मणिभद्र प्रादि तेरह यक्षों का उल्लेख हुमा है।१२६ जो ब्रह्मचारी हैं, उनको यक्ष, देव, दानव और गन्धर्व नमन करते हैं / 130 119. (क) बृहत्कल्पभाष्य-५. 5928. (ख) अावश्यक चूणि, पृष्ठ-३१२. 120. जीवाजीवाभिगम, 3. पृष्ठ-२८१ 121. डा. हॉपकिन्स ई. डब्ल्यू.इपिक माइथॉलौजी, स्ट्रासबर्ग 1915 122. इपिक माइथॉलोजी, स्ट्रासबर्ग 1915 --डा. हॉपकिन्स ई. डबल्यू. 123. इण्डियन सर्पेण्ट लोर, लंदन-१९२६, फोगल जे. 124. (क) अर्थशास्त्र-५.२.९०.४९. पृष्ठ-१७६ (ख) इण्डियन सर्पेण्ट लोर, लंदन-१९२६, फोगल जे. 125. ज्ञाताधर्मकथा-८, पृष्ठ-९५ 126. प्राचारांगनियुक्ति-३३५. टीका, पृष्ठ-३८५. 127. इण्डियन सर्पेण्ट लोर, लंदन, पृष्ठ-४१,–फोगेल जे० 128. डिस्ट्रिक्ट गजेटियर आव मुगेर, पृष्ठ-५५ 129. अभिधान राजेन्द्र कोष---'जक्ख शब्द' 130. 'देव-दाणव-गंधव्वा, जक्ख-रक्खस-किन्नरा / बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेंति तं // -उत्तराध्ययन-अध्ययन-१६, गा.१६ [32] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत'3' में और संयुक्तनिकाय 32 में मणिभद्र यक्ष का उल्लेख है। मत्स्यपुराण में पूर्णभद्र के पुत्र का नाम हरिकेश यक्ष बताया है। 33 ग्रोपपातिक में चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य का उल्लेख है। 134 यावश्यकनियुक्ति के अनुसार भगवान् महावीर जब छद्मस्थ अवस्था में ध्यानमुद्रा में खड़े थे तब 'बिभेलक' यक्ष ने उपद्रव से उनकी रक्षा की थी। 135 ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार शैलक यक्ष चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन लोगों की सहायता के लिए तत्पर रहता था। उसने चम्पानगरी के जिनपाल और जिनरक्षित की रत्नादेवी से रक्षा की थी। 36 सन्तानोत्पति के लिए हरिणगमैषी देव की उपासना की जाती थी।१३७ वैदिक ग्रन्थों में 'हरिणगमैषी' हरिण के सिर वाला और इन्द्र का सेनापति था। महाभारत में उसको अजामुख बताया है / ' 38 जैन साहित्य की दृष्टि से 'हरिण गमैषी' सौधर्म देवलोक का देव था, न कि यक्ष / आगम के व्याख्यासाहित्य में अनेक स्थलों पर यक्ष के उपद्रवों का उल्लेख है। यक्षों से अपने आपको सुरक्षित रखने के लिए यह उत्सव होता था।१36 'भूतमह' नवम उत्सव था / हिन्दू पुराणों में भूतों को भयंकर प्रकृति के धनी और मांस-भक्षी कहा है। भूतों को बलि देकर प्रसन्न किया जाता था। 'भूतमह' चैत्री पर्णिमा को मनाया जाता था। महाभारत में तीन प्रकार के भूतों का उल्लेख है-उदासी, प्रतिकूल और दयालु / 140 रात्रि में परिभ्रमण करने वाले भूत 'प्रतिकूल' माने गये हैं / 141 भूतगृह से पीड़ित मानवों की चिकित्सा भूतविद्या के द्वारा की जाती थी। कहा जाता है'कुत्तियावण' में सभी वस्तुएँ मिलती थीं। वहाँ पर भूत भी मिलते थे। राजा प्रद्योत के समय उज्जयिनी में इस प्रकार की दुकानें थी, जहाँ पर मनोवाञ्छित वस्तुएँ मिलती थीं। भगकच्छ का एक व्यापारी उज्जयिनी में भूत को खरीदने के लिए आया था। दुकानदार ने उसे बताया-आपको भूत तो मिल जायेगा पर आपने यदि उस भूत को कोई काम न बताया तो वह अापको समाप्त कर देगा। व्यापारी भूत को लेकर वहाँ से प्रस्थित हुप्रा / वह उसे जो भी कार्य बताता चुटकियों में सम्पन्न कर देता था। अन्त में भूत से तंग आकर उस व्यापारी ने एक खम्भा 131. (क) 'द ज्योग्रफिकल कन्टेन्ट्स ऑव महाभारत' लेखक--डा. सिल्वन लेवी (ख) महाभारत-२।१०।१० 132. संयुक्तनिकाय--१.१०, पृष्ठ-२०९ 133. मत्स्यपुराण, अध्याय-१८० 134. ग्रोपपातिक, चम्पावर्णन, पूर्णभद्र चैत्य--पृष्ठ 4 युवाचार्य मधुकर मुनि 135. अावश्यकनियुत्ति-४८७ 136. (क) ज्ञातृधर्मकथा 9, पृष्ठ 127 (ख) तुलना कीजिए-वलाहस्स जातक (196), 2, पृष्ठ 292 137. अन्तगडदशा-२, पृष्ठ-१५ 138. द. यक्षाज, वाशिंगटन, 1928, 1939. ले. कुमारस्वामी ए. के. 139. (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 24, पृष्ठ-१२० (ख) बृहत्कल्पसूत्र-६.१२ तथा भाष्य / 140. (क) देखिए–इपिक माइथोलोजी, स्ट्रासबर्ग 1915 -डा. हॉपकिन्स ई. डबल्यू. (ख) कथासरित्सागर, सोमदेव, सम्पादक-पेंजर, भाग. 1, परि.१.१४२४-२८ प्रका. लन्दन 141. इपिक माइथॉलोजी, स्ट्रासबर्ग 1915, पृष्ठ-३६ -डा. हॉपकिन्स ई. डबल्यू. [ 33 ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाड़ दिया और भूत से कहा-मैं जब तक तुम्हें नया काम नहीं बताऊँ जब तक तुम इस खम्भे पर चढ़ते-उतरते रहो। 42 सारांश यह है कि इन उत्सवों को बहुत अधिक धूमधाम होती थी, जिससे कोई भी धूमधाम को देख कर प्रायः यही समझा जाता था कि आज कोई इसी तरह का उत्सव होगा / चित्त सारथी के अन्तर्मानस में भी यही जिज्ञासा हुई थी-जनमेदिनी को जाते हुए देखकर / वस्तुतः ये उत्सव किसी धर्म और सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित न होकर लोकजीवन से सम्बन्धित थे / इन उत्सवों के पीछे लौकिक कामनायें थीं / जनमानस में समाया भय भी इन उत्सवों को मनाने के लिए बाध्य करता था। श्वेताम्बिका में केशी श्रमण चित्त सारथी को जब यह परिज्ञात हुआ कि केशी कुमारश्रमण पधारे हैं तो वह दर्शन और प्रवचन-श्रवण करने के लिए पहुँचा / प्रवचन को श्रवण कर वह इतना भावविभोर हो गया कि उसने श्रमणोपासक के द्वादश व्रत ग्रहण कर अपनी अनन्त श्रद्धा उनके चरणों में समर्पित की। जब चित्त सारथी श्वेताम्बिका लौटने लगा तो उसने केशी कुमारश्रमण से अभ्यर्थना की-याप श्वेताम्बिका अवश्य पधारें। पूनः-पुनः निवेदन करने पर के शीश्रमण ने कहा कि वहाँ का राजा प्रदेशी अधार्मिक है, इसलिए मैं वहाँ कैसे पा सकता हूँ? चित्त ने निवेदन किया--भगवन् ! प्रदेशी के अतिरिक्त वहाँ पर अनेक भावुक आत्माएँ रहती हैं, जो अपने बीच आपको पाकर धन्यता अनुभव करेंगी। सम्भव है, अापके पावन प्रवचनों से प्रदेशी के जीवन का भी काया-कल्प हो जाये / केशी कुमारश्रमण को लगा कि चित्त सारथी के तर्क में वजन है। वहाँ जाने से धर्म की प्रभावना हो सकती है। चित्त सारथी ने केशीकुमार की मुद्रा से समझ लिया कि मेरी प्रार्थना अवश्य ही मूर्त रूप लेगी। उसने श्वेताम्बिका पहुँच कर सर्वप्रथम उद्यानपाल को सूचित किया कि केशीश्रमण अपने 500 शिष्यों के साथ यहाँ पर पधारेंगे, अतः उनके ठहरने के लिए योग्य व्यवस्था का ध्यान रखना। कुछ दिनों के पश्चात केशीश्रमण श्वेताम्बिका नगरी में पधारे। उद्यानपालक ने उनके ठहरने की समुचित व्यवस्था की और चित्त सारथी को उनके प्रागमन को सूचना दी। चित्त सारथी समाचार पाक से झम उठा / वह दर्शन के लिए पहुँचा। उसने निवेदन किया-मैं किसी बहाने से राजा प्रदेशी को यहाँ लाऊँमा। आप डटकर उसका पथ-प्रदर्शन करना। दूसरे दिन चित्त सारथी अभिनव शिक्षित घोड़ों की परीक्षा के बहाने राजा प्रदेशी को उद्यान में ले गया, जहाँ केशी कुमारश्रमण विराज रहे थे। चित्त सारथी ने राजा को बताया—ये चार ज्ञान के धारक कुमारश्रमण केशी हैं / हम यह पूर्व में ही बता चुके हैं कि राजा प्रदेशी प्रक्रियावादी था। उसे प्रात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व पर विश्वास नहीं था / वह अात्मा और शरीर को एक ही मानता था। प्रात्मा : एक अनुचिन्तन भारतीय दर्शन का विकास और विस्तार अात्मतत्त्व को केन्द्र मानकर ही हुआ है। आत्मवादी दर्शन हों या अनात्मवादी, सभी में प्रात्मा के विषय में चिन्तन किया है। किन्तु उस चिन्तन में एकरूपता नहीं है। प्रात्मा विश्व के समस्त पदार्थों से विलक्षण है। प्रत्येक व्यक्ति प्रात्मा का अनुभव तो करता है, किन्तु उसे अभिव्यक्त नहीं कर 142. बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति--३. 4214-22. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाता। यही कारण है कि किसी ने प्रात्मा को शरीर माना, किसी ने बुद्धि कहा, किसी ने इन्द्रिय और मन को ही प्रात्मा समझा तो कितनों ने इन सबसे पृथक पात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया। ग्रात्मा के अस्तित्व की संसिद्धि स्वसंवेदन से होती है। इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे अपने आपको सुखी-दुःखी, धनवान्-निर्धन अनुभव करते हैं / यह अनुभूति चेतन प्रात्मा को ही होती है, जड़ को नहीं। आत्मा अमूर्त है। किन्तु अनात्मवादियों की धारणा है कि घट-पट आदि पदार्थ जैसे प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसी तरह आत्मा प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता और जो प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है, उसकी सिद्धि अनुमान प्रमाण से भी नहीं हो सकती, क्योंकि अनुमान का हेतु प्रत्यक्षगम्य होना चाहिए, जैसे अग्नि का अविनाभावी हेतु धूम प्रत्यक्षगम्य है। हम भोजनशाला में उसे प्रत्यक्ष देखते हैं, इसलिए दूसरे स्थान पर भी धुएँ को देखकर स्मरण के बल पर परोक्ष अग्नि को अनुमान से जान लेते हैं। किन्तु प्रात्मा का इस प्रकार का कोई अविनाभावी पदार्थ पहले नहीं देखा / इसीलिए प्रात्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष और अनुमान से सिद्ध नहीं है। प्रत्यक्ष से सिद्ध न होने के कारण चार्वाक दर्शन ने आत्मा को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना। भूतसमुदाय से विज्ञानघन उत्पन्न होता है और भूतों के नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है / परलोक या पुनर्जन्म नहीं है / किसी-किसी का यह मन्तव्य था कि शरीर ही प्रात्मा है। शरीर से भिन्न कोई आत्मा नामक तत्त्व नहीं है। यदि शरीर से भिन्न प्रात्मा हो तो मृत्यु के पश्चात् स्वजन और परिजनों के स्नेह से पुनः लौटकर क्यों नहीं पाता ? इसलिए इन्द्रियातीत कोई आत्मा नहीं है, शरीर ही आत्मा है। इसके उत्तर में प्रात्मवादियों का कथन है कि प्रात्मा है या नहीं, यह संशय जड़ को नहीं होता। यह चेतन तत्त्व को ही हो सकता है। यह मेरा शरीर है, इसमें जो 'मेरा' शब्द है वह सिद्ध करता है कि 'मैं' शरीर से पृथक है / जो शरीर से पृथक् है, वह आत्मा है। जड पदार्थ में किसी का विधान या निषेध करने का सामर्थ्य नहीं होता। यदि जड़ शरीर से भिन्न का अस्तित्व न हो तो प्रात्मा का निषेध कौन करता है ? स्पष्ट है कि प्रात्मा का निषेध करने वाला स्वयं आत्मा ही है। प्राचार्य देवसेन ने प्रात्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व, अमूर्तत्व ये छह गुण बताये हैं।१४३ आचार्य नेमिचन्द्र ने जीव को उपयोगमय, अमूत्तिक, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, ऊर्ध्वगमनशील कहा है / 144 जहाँ पर उपयोग है, वहाँ पर जीवत्व है। उपयोग के अभाव में जीवत्व रह नहीं सकता। उपयोग या ज्ञान जीव का ऐसा लक्षण है जो सांसारिक और मुक्त सभी में पाया जाता है। छान्दोग्योपनिषद् में एक सुन्दर प्रसंग है२४५...-असुरों में से 'विरोचन' और देवों में से 'इन्द्र' ये दोनों आत्म-स्वरूप को जानने के लिए प्रजापति के पास पहुँचे / प्रजापति ने एक शान्त सरोवर में उन्हें देखने को कहा और पूछा-क्या देख रहे हो? विरोचन और इन्द्र ने कहा-हम अपना प्रतिबिम्ब देख रहे हैं / प्रजापति ने बताया-बस वही प्रात्मा है। विरोचन को समाधान हो गया और वह चल दिया। पर इन्द्र चिन्तन के महासागर में गहराई से डुबकी लगाने लगे। इन्द्रिय और शरीर का संचालक मन है, अतः उन्होंने पहले मन को प्रात्मा माना, उसके बाद सोचा-मन भी जब तक प्राण हैं तभी तक रहता है। प्राण पखेरू उड़ने पर मन का 143. पालापपद्धति, प्रथम गुच्छक, पृष्ठ-१६५-६१ 144. द्रव्यसंग्रह-१२ 145. छान्दोग्योपनिषद-८-८ [ 35] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन बन्द हो जाता है, अतः मन नहीं, प्राण प्रात्मा है। चिन्तन आगे बढ़ा और उन्हें यह भी मालूम हुआ कि प्राण नाशवान् है, परन्तु प्रात्मा तो शाश्वत है। शरीर, इन्द्रिय, मन और प्राण ये भौतिक है, किन्तु अात्मा प्रभौतिक है। चार्वाकदर्शन को छोड़कर भारत के सभी दर्शन प्रात्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं / न्याय और वैशेषिक दर्शन का मन्तव्य है-पात्मा अविनश्वर और नित्य है। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान उसके विशेष गुण हैं। प्रात्मा ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है / ज्ञान, अनुभूति और संकल्प प्रात्मा के धर्म हैं। चैतन्य प्रात्मा वरूप है। मीमांसा दर्शन का भी यही अभिमत हैं। वह प्रात्मा को नित्य और विभ मानता है / चैतन्य को आत्मा का निजगुण नहीं किन्तु आगन्तुक गुण मानता है। स्वप्नरहित गाढ निद्रा में तथा मोक्ष की अवस्था में प्रात्मा चैतन्य गुणों से रहित होता है। सांख्य दर्शन ने पुरुष को नित्य, विभु तथा चैतन्य स्वरूप माना है / सांख्य दृष्टि से चैतन्य प्रात्मा का आगन्तुक गुण नहीं है, वह निजगुण है। पुरुष अकर्ता है / वह स्वयं सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित है। बुद्धि कर्ता है और वही सुख-दुःख का अनुभव करती है। बुद्धि का उपादान कारण प्रकृति है / प्रकृति प्रतिपल-प्रतिक्षण क्रियाशील है / इसके विपरीत पुरुष विशुद्ध चैतन्य स्वरूप है / अद्वैत वेदान्त आत्मा को विशुद्ध सत् , चित् और ग्रानन्द स्वरूप मानता है। सांख्य दर्शन ने अनेक पुरुषों (आत्माओं) को माना है, पर ईश्वर को नहीं माना। जबकि वेदान्त दर्शन केवल एक ही प्रात्मा को सत्य मानता है। बौद्ध दर्शन की दृष्टि से प्रात्मा ज्ञान, अनुभूति और संकल्पों की प्रतिक्षण परिवर्तन होने वाली सन्तति है। इसके विपरीत जैन दर्शन का वज्राघोप है-आत्मा नित्य, अजर और अमर है। ज्ञान प्रात्मा का मुख्य गुण है। आत्मा स्वभाव से अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति से सम्पन्न है। राजा प्रदेशी जीव और शरीर को एक मानता था। उसकी मान्यता के पीछे अपना अनुभव था। उसने अनेकों बार परीक्षण कर देखा तस्करों और अपराधियों को सन्दूक में बन्द कर या उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर जीव को देखने का प्रयत्न किया कि कहीं प्रात्मा का दर्शन हो, पर आत्मा अरूपी होने के कारण उसे दिखाई कैसे दे सकता था ? जब आत्मा दिखाई नहीं दिया तो उसे अपना मत सही ज्ञात हुआ कि जीव और शरीर अभिन्न हैं। किन्तु उसके सभी तर्कों का केशी कूमारश्रमण ने इस प्रकार रूपकों के माध्यम से निरसन किया कि राजा प्रदेशी को प्रात्मा और शरीर पृथक्-पृथक स्वीकार करने पड़े। - स्वर्ग और नरक से जीव क्यों नहीं पाकर कहते हैं कि हमने प्रबल पुण्य की प्राराधना की जिसके फलस्वरूप में देव बना हूँ, मैंने पापकृत्य किया जिसके कारण मैं नरक में दारुण वेदनामों को भोग रहा हूँ, इसलिए मैं तुम्हें कहता है कि तुम पाप से बचो और पुण्य उपार्जन की ओर लगो। यदि स्वर्ग और नरक होता तो मेरे पिता, प्रपितामह वहाँ गये होंगे, वे अवश्य ही पाकर मुझे चेतावनी देते। प्रत्युत्तर में केशी श्रमण ने कहाकामुक व्यक्ति हो, जिसने तुम्हारी पत्नी के साथ दुराचार किया हो, और तुमने उसे प्राणदण्ड की सजा दी हो, वह अपने पारिवारिक जनों को सूचना देने के लिए जाना चाहे तो क्या तुम उसे मुक्त करोगे? नहीं, वैसे ही नरक से जीब मुक्त नहीं हो पाते, जो पाकर तुम्हें सूचना दें और स्वर्ग के जीव इसलिए नहीं पाते कि यहाँ पर गन्दगी है। कल्पना करो अपने शरीर को स्वच्छ बनाकर और सुगन्धित द्रव्यों को लेकर तुम देवालय की ओर जा रहे हो, उस समय शौचालय में बैठा हुअा कोई व्यक्ति तुम्हें वहाँ बुलाए तो क्या तुम उस गन्दे स्थान में जाना पसन्द करोगे? नहीं। वैसे ही देव भी यहाँ आना पसन्द नहीं करते हैं। - राजा प्रदेशी और केशी का यह संवाद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। केशी श्रमण की युक्तियाँ इतनी गजब की हैं कि आज भी पाठकों के लिए प्रेरणादायी ही नहीं अपितु प्रात्म-स्वरूप को समझने के लिए सर्चलाइट की तरह [ 36 ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगी हैं / वास्तविक रूप से देखा जाय तो यही संवाद राजप्रश्नीय की आत्मा है। जिस तरह से राजप्रश्नीय में प्रश्नोत्तर हैं, उसी तरह दीध-निकाय के 'पायासिसुत्त' में राजा 'पायासि' के प्रश्नोत्तर हैं। जो इन प्रश्नों से यह भी सम्भव है कि जनमानस में आत्मा और शरीर की अभिन्नता को लेकर जो चिन्तन चल रहा था, उसका प्रतिनिधित्व राजा प्रदेशी ने किया हो और जैन दृष्टि से उसका समाधान केशी श्रमण ने किया हो। राजा प्रदेशी का जीवन अत्यन्त उग्र रहा है। उसके हाथ रक्त से सने हुए रहते थे पर केशी श्रमण के सान्निध्य ने उसके जीवन में मामूल-चूल परिवर्तन कर दिया। महारानी के द्वारा जहर .देने पर भी उसके मन में किंचित् मात्र भी रोष पैदा नहीं हुआ। जिस जीवन में पहले क्रोध की ज्वाला धधक रही थी, वही जीवन क्षमासागर के रूप में परिवर्तित हो गया / इसलिए सत्संग की महिमा और गरिमा का यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है। व्याख्या-साहित्य राजप्रश्नीय कथाप्रधान पागम होने से इस पर न नियुक्ति लिखी गई, न भाष्य की रचना हई और न चणि का निर्माण ही हा। इस पर सर्वप्रथम आचार्य मलयगिरि ने संस्कृत भाषा में टीकानिर्माण किया / संस्कृत टीकाकारों में प्राचार्य मलयगिरि का स्थान विशिष्ट है / जिस प्रकार वैदिक पम्परा में वाचस्पति मिश्र ने षट्दर्शनों पर महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखकर एक भव्य आदर्श उपस्थित किया, वैसे हो जैन साहित्य पर प्राचार्य मलयगिरि ने प्रांजल भाषा और प्रवाहपूर्ण शैली में भावपूर्ण टोकाएँ लिखकर एक पादर्श उपस्थित किया। वे दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनमें ग्रागमों के गम्भीर रहस्यों को तर्कपूर्ण शैली से व्यक्त करने की अदभत कला और क्षमता थो। आगमप्रभावक मुनि पुण्य विजय जी महाराज के शब्दों में कहा जाय तो 'व्याख्याकारों में उनका स्थान सर्वोत्कृष्ट है।' ___ मलयगिरि अपनी वृत्तियों में सर्वप्रथम मूलसूत्र, गाथा या श्लोक के शब्दार्थ की व्याख्या कर उसके अर्थ का स्पष्ट निर्देश करते हैं और उसकी विस्तृत विवेचना करते हैं, जिससे उसका अभीष्टार्थ पूर्णरूप से स्पष्ट हो जाता है। विषय से सम्बन्धित अन्य प्रासंगिक विषयों पर विचार करना तथा प्राचीन ग्रन्थों के प्रमाण प्रस्तुत करना आचार्यश्री की अपनी विशेषता है। टीकाकार ने सर्वप्रथम श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार किया है। उसके पश्चात राजप्रश्नीय पर विवरण लिखने की प्रतिज्ञा की।१४६ साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि प्रस्तुत प्रागम का नाम राजप्रश्नीय क्यों रखा गया है। इस सम्बन्ध में लिखा है-यह पागम राजा के प्रश्नों से सम्बन्धित है, इसीलिए इसका नाम 'राजप्रश्नीय' है / टीकाकार ने यह भी बताया है कि यह पागम सूत्रकृतांग का उपांग है। टोका में, आगम में पाये हुए विशिष्ट शब्दों की मीमांसा भी की है। मीमांसा में टीकाकार का गम्भीर पाण्डित्य उजागर हुआ है। टीका का ग्रन्य-प्रमाण तीन हजार सात सौ श्लोक प्रमाण है। टोका में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम के उद्धरण दिये हैं। कहीं-कहीं पर पाठभेद का भी निर्देश किया है। देशोनाममाला के उद्धरण भी दिये गये हैं।१४७ 146. प्रणमत वीरजिनेश्वरचरणयुगं परमपाटलच्छायम् / अधरीकृतनतवासवमुकुट स्थितरत्नरुचिचक्रम् // 1 // राजप्रश्नीयमहं विवृणोमि यथाऽऽगमं गुरुनियोगात् / तत्र च शक्तिमशक्ति गुरवो जानन्ति का चिन्ता // 2 // 147. पहकराः संघाता:-पहकर-योरोह-संघाया इति देशीनाममालावचनात् / –राजप्रश्नीयवृत्ति, गृष्ठ 3 [ 37 ] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजा प्रस्तुत प्रागम और उसकी टोका में जड़याद और प्रात्मवाद का सुन्दर विश्लेषण हा है। स्थापत्य, संगीत और नाट्यकला के अनेक तथ्यों का इसमें समावेश है / लेखन सम्बन्धी सामग्री का भी इसमें निर्देश है। साम, दाम, दण्ड, नीति के अनेक सिद्धान्त इसमें समाविष्ट हैं। बहत्तर कलायें, चार परिषद् कलाचार्य, शिल्पाचार्य का भी इसमें निरूपण हया है। भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित अनेक तथ्य इसमें पाये हैं। राजा प्रदेशी और केशी श्रमण का जो संवाद है, साहित्यिक दष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह संवाद कथा के विकास के लिए एक प्रादर्श लिए हुए है। इस संवाद में जो रूपक दिये गये हैं, वे प्रात्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए परम उपयोगी हैं। इनका उपयोग बाद में अन्य साहित्यकारों ने भी किया है। जैसे-प्राचार्य हरिभद्र ने समराइच्चकहा में "पिंगल' और 'विजयसिंह' के संबाद में बन्द कमरे में से भो स्वरलहरियां बाहर आती हैं, इस रूपक को प्रस्तुत किया है। राजप्रश्नीय सूत्र का सर्वप्रथम सन् 1880 में बाबू धनपतसिंहजी ने मलयगिरि वृत्ति के साथ प्रकाशन किया। उसके बाद सन 1925 में प्रागमोदय समिति बम्बई और वि० सं० 1994 में मुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय - अहमदाबाद से सटीक प्रकाशित हुया / वी०सं० 2445 में पूज्य अमोलकऋषि जी म० के द्वारा हिन्दी अनुवाद सहित संस्करण निकला / सन् 1965 में पूज्य श्री घासीलाल जी म. ने स्वनिर्मित संस्कृत व्याख्या व हिन्दीगुजराती अनुवाद के साथ जैन शास्त्रोद्धार समिति-राजकोट से प्रकाशित किया। सन् 1935 में पं० बेचरदास जीवराज दोशी ने इसका गुजराती अनुवाद लाधाजो स्वामी पुस्तकालय-लीमड़ी से और वि० सं० 1994 में गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय-अहमदाबाद से प्रकाशित करवाया। इस प्रकार प्राज दिन तक राजप्रश्नीय के विविध संस्करण अनेक स्थलों से प्रकाशित हुए हैं। प्रस्तुत सम्पादन राजप्रश्नीय का यह अभिनव संस्करण अागम प्रकाशन समिति ब्यावर [राज०] द्वारा प्रकाशित हो रहा है। इस के संयोजक और प्रधान सम्पादक हैं-युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म० / वे श्रमणसंघ के भावी प्राचार्य हैं। आगमों को अधुनातन भाषा में प्रकाशित करने का उनका दृढ संकल्प प्रशंसनीय है। उन्होंने प्रागमों का कार्य हाथ में लिया पर इतने स्वल्प समय में प्रश्नव्याकरण को छोड़कर शेष दश अंग प्रायः प्रकाशित हो गये हैं। भगवती का भी प्रथम भाग प्रकाशित हो चुका है। अन्य भाग भी प्रकाशन के पथ पर द्रत गति से कदम बढ़ा रहे हैं। औपपातिक और नन्दीसूत्र के बाद राजप्रश्नीय का प्रकाशन हो रहा है। अन्य आगम भी प्रेस के चक्के पर चढ़ चुके हैं। प्रागम प्रकाशन का यह कार्य राकेट की गति से हो रहा है। यदि यही गति रही तो एक-डेढ़ वर्ष में बत्तीस भागमों का प्रकाशन समिति के द्वारा पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जायेगा / वस्तुतः यह भगीरथ कार्य युवाचार्य श्री की कीर्ति को अमर बनाने वाला है। राजप्रश्नीय के इस संस्करण को अपनी मौलिक विशेषता है-शुद्ध मूलपाठ, भावार्थ और संक्षिप्त विवेचन / विषय गम्भीर होने पर भी प्रस्तुतीकरण सरल है। पूर्व के अन्य संस्करणों को अपेक्षा यह संस्करण अधिक आकर्षक है। इसके सम्पादक है-वाणीभूषण पं० श्री रतनमुनिजो म०, जिन्होंने निष्ठा के साथ इसका सम्पादन किया है। साथ ही पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल का अथक श्रम भी इसमें जुड़ा हुआ है। वृद्धावस्था होने पर भी वे जो श्रम कर रहे हैं, वह श्रम नींव की ईंट के रूप में प्रागममाला के साथ जडा हसा है। यदि वे तन, मन के साथ श्रुतसेवा के इस महायज्ञ में जुड़े नहीं होते तो यह कार्य इस रूप में सम्पन्न शायद ही हो पाता। राजप्रश्नीय पर मैं बहुत विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था। आत्मवाद के गम्भीर विषय को विभिन्न दर्शनों के आलोक में प्रस्तुत करना चाहता था पर मेरा स्वास्थ्य लम्बे समय से अस्वस्थ-सा रहा, जिसके [38] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण चाहते हुए भी लिख नहीं पाया। तथापि संक्षेप में मैंने आगमगत विषयों पर चिन्तन किया है। तुलनात्मक और समन्वयात्मक चिन्तन करने की दृष्टि मुझे अपने श्रद्धय सद्गुरुवर्य, राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोगी, उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म० से प्राप्त हुई, जो युवाचार्य श्री के स्नेही साथी हैं। उनकी अपार कृपा से ही मैं प्रस्तावना लिखने में सक्षम हो सका हूँ। वर्तमान युग में मानव भौतिकता की ओर अपने कदम बढ़ा रहा है, जिससे उसे शान्ति के स्थान पर अशान्ति प्राप्त हो रही है। ऐसी विषम स्थिति में यह आगम अध्यात्मवाद की पवित्र प्रेरणा देगा, उसे शान्ति की सच्ची रह बतायेगा। उसकी तनावपूर्ण स्थिति को समाप्त कर जीवन में धर्म की सुरीली स्वर-लहरियाँ झंकृत करेगा, इसी प्राशा के साथ विरमामि / धन तेरस —देवेन्द्रमुनि शास्त्री दि०१३ नवम्बर, '82 जैन स्थानक, सिंहपोल-जोधपुर (राज.) [ 39] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्रास ब्यावर गोहाटी जोधपुर मद्रास ब्यावर मेड़ता सिटी ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर मद्रास খ্রীসাঠা সাছা সমিন ওয়ান (कार्यकारिणी समिति) 1. श्रीमान् सेठ मोहनमलजी चोरड़िया अध्यक्ष 2. श्रीमान् सेठ रतनचन्दजी मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष 3. श्रीमान् कँवरलालजी बैताला उपाध्यक्ष 4. श्रीमान् दौलतराजजी पारख उपाध्यक्ष 5. श्रीमान रतनचन्दजी चोरड़िया उपाध्यक्ष 6. श्रीमान् खूबचन्दजी गादिया उपाध्यक्ष 7 श्रीमान् जतनराजजी मेहता महामन्त्री 8. श्रीमान् चाँदमलजी विनायकिया मन्त्री 9. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा मन्त्री 10. श्रीमान् चाँदमलजी चौपड़ा समन्त्री 11. थीमान् जौहरीलालजी शीशोदिया कोषाध्यक्ष 12. श्रीमान् गुमानमलजी चोरडिया कोषाध्यक्ष 13. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा सदस्य 14. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया सदस्य 15. श्रीमान् जेठमलजी चोरड़िया सदस्य 16. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा सदस्य 17. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता सदस्य 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा सदस्य 19. श्रीमान् माणकचन्दजी बैताला सदस्य 20. श्रीमान् भंवरलालजी गोठी सदस्य 21. श्रीमान् भंवरलाल जी श्रीश्रीमाल सदस्य 22. श्रीमान् सुगनचन्दजी चोरडिया सदस्य 23. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरड़िया सदस्य 24. श्रीमान् खींवराजजी चोरड़िया सदस्य 25. श्रीमान प्रकाशचन्दजी जैन सदस्य 26. श्रीमान् भंवरलालजी मूथा सदस्य 27. श्रीमान् जालमसिंहजी मेड़तवाल (परामर्शदाता) नागौर मद्रास बैंगलौर ब्यावर इन्दौर सिकन्दराबाद बागलकोट मद्रास मद्रास मद्रास मद्रास भरतपुर जयपुर ब्यावर [ 40 ] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रम् Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रम् प्रारम्भ (1) तेणं कालेणं तेणं समएणं श्रामलकप्पा नाम नयरी होत्था-रिद्ध-स्थिमिय-समिद्धा जाव [पमुइयजण-जावणया प्राइण्णजणमणूसा हलसयसहस्ससंकिढविगिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमा कुक्कुडसंडेयगामपउरा उच्छु-जव-सालिकलिया गो-महिस-गवेलगप्पभूया पायारवंत-चेइय-जुवइविसिटसग्निविट्ठबहुला उक्कोडिय-गाय-गठिभेद-तक्कर-खंडरक्खरहिया खेमा निरुवदवा सुभिक्खा वीसत्थसुहावासा प्रणेगकोडिकोडुबियाइण्णणिवृत्तसुहा नड-नट्ट-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलबग-कहग- पग-लासग-प्राइक्खग-लंख-मंख तूणइल्ल-तुबवीणिय-प्रणेगतालाचराणुचरिया प्राराम-उज्जाण-अगड-तलाग-दोहिय-वाप्पिणगुणोववेया उन्विद्धविउलगंभोरखात-फलिहा चक्क-गय-भुसुढि-श्रोरोह-सयग्धि-जमलकवाडघणदुष्पवेसा धणुकुडिलवंक-पागारपरिक्खित्ता कविसीसयवट्टरइय-संठियविरायमाणा अट्टालय-चरिय-दार-गोपुरतोरण-उन्नयसुविभत्तरायमग्गा छेयायरियरइयदढलिहइंदकीला विवणि-वणिच्छित्त-सिप्पि-प्राइण्णनिन्वयसुहा सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-पणियापणविविहवसुपरिमंडिया सुरम्मा नरवइ-पविइण्णमहिवइपहा अणेग-बरतुरग-मत्तकुजर-रहपहकर-सीय-संदमाणीग्राइण्णजाणजोग्गा विमउलनबनलिणसोभियजला पंडरवर-भवणपंतिमाहिया उत्ताणयनयणपिच्छणिज्जा] पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। उस काल और उस समय में अर्थात् वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के उत्तरवर्ती समय में प्रामलकप्पा [ग्रामलकल्पा] नाम की नगरी थी। वह आमलकल्पा नगरी भवनादि वैभव-विलास से संपन्न थी, स्वचक्र और परचक्र के भय से मुक्त-रहित थी। धन-धान्य आदि की समृद्धि से परिपूर्ण थी यावत् (इसके मूल निवासी और जानपद-दूसरे देशवासी जन-यहां अानन्द से रहते थे। जन-समूहों से सदा पाकीर्ण-भरी रहती थी। सैकड़ों-हजारों अथवा लाखों हलों से बार-बार जुतने, अच्छी तरह से जुतने के कारण वहाँ के खेतों की मिट्टी भुरभुरी-नरम और मनोज्ञ दिखती थी। उनमें प्राज्ञ-कृषि-विद्या में निपुण व्यक्तियों द्वारा जलसिंचन के लिए नालियां एवं क्यारियां और सीमाबंदी के लिये मेड़ें बनी हुई थीं। नगरी के चारों ओर गांव इतने पास-पास बसे हुए थे कि एक गांव के मुर्गों और सांडों की आवाज दूसरे गांव में सुनाई देती थी। वहां के खलिहानों में गन्ने, जौ और धान के ढेर लगे रहते थे, अथवा खेतों में गन्ने जौ और धान की फसलें सदा लहलहाती रहती थीं। गायों भैसों और भेड़ों के टोले के टोले वहां पलते थे। आकर्षक आकार-प्रकार वाले कलात्मक चैत्यों और पण्यतरुणियों (गणिकाओं) के बहत से सुन्दर सन्निवेशों से नगरी शोभायमान थी। लांच-रिश्वत लेने वालों-घूसखोरों, धातकों, गुडों, गांठ काटने वालों-जेबकतरों, डाकुओं, चोरों और जबरन जकात (राजकर, चुगी, टैक्स) वसूल करने वालों के न होने से नगरी क्षेम रूप Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र थी, अनिष्ट-उपद्रवों से रहित थी, सुभिक्ष होने से भिक्षुओं को सरलता से भिक्षा मिल जाती थी। लोग यहाँ विश्वासपूर्वक सरलता से रहते थे और दूसरे-दूसरे अनेक सैकड़ों प्रकार के' कुटुम्ब परिवारों के भी बसने से नगरी साताकारी समझी जाती थी। __ नट-नाटक करने वालों, नर्तक-नृत्य-नाच करने वालों, जल्ल-रस्सी पर चढ़कर कलाबाजियां दिखाने वालों, मल्ल-पहलवानों, मौष्टिक-पंजा लड़ाने वालों, विदूषकों, बहुरूपियों, कथक-कथा कहानी कहने वालों, प्लवक-पानी में तैरने वालों, उछल-कूद करने वालों, लासक - रास रचने वालों, स्वांग धरने वालों, आख्यायिक- शुभ-अशुभ शकुन बताने वालों, लंख-ऊंचे बांस पर चढ़कर कलाबाजी, खेल करने वालों, मंख-चित्र दिखाकर भीख मांगने वालों, शहनाई बजाने वालों, तम्बूरा बजाने वालों और खड़ताल बजाने वालों से नगरी अनुचरित - व्याप्त थी। आरामों लताकुजों, उद्यानों-बाग बगीचों, कूपों, जलाशयों, दीधिकारों-लंबे आकार की बाड़ियों और सामान्य बावड़ियों प्रादि से युक्त होने के कारण वह नगरी रमणीय थी। __ सुरक्षा के लिये नगरी को चारों ओर से घेरती हुई गोलाकार खात (खाई) थी, जो विस्तृत, तल न दिखे ऐसी गहरी और ऊपर चौड़ी एवं नीचे संकड़ी थी और खात के बाहर ऊपर नीचे समान रूप से खुदी हुई परिखा थी। खाई के बाद नगरी को चारों ओर से घेरता हुआ धनुष जैसा वक्राकार परकोटा था / जो चक्र, गदा, भुसुडि (शस्त्र विशेष) अवरोध, शतघ्नी और मजबूत, सम-युगल किवाड़ों सहित था / जिससे नगरी में शत्रुओं का प्रवेश करना कठिन था। इस परकोटे का ऊपरी भाग गोल-गोल कंगूरों से शोभायमान था और वहां पहरेदारों के लिये ऊंची-ऊंची अटारियां-मीनारें बनी हुई थीं। किले और नगरी के बीच आने-जाने का रास्ता पाठ-हाथ चौड़ा था। प्रवेश-द्वार पर तोरण बंध हुए थे। ___ नगरी के राजमार्ग सम, सुन्दर और आकर्षक थे और द्वारों में निपुण शिल्पियों द्वारा बनायी गई अर्गलाओं एवं इन्द्रकीलियों वाले किवाड़ लगे हुए थे। नगरी के बाजार भांति-भांति की क्रय-विक्रय करने योग्य वस्तुओं और व्यापारियों से व्याप्त रहते थे और व्यापार के केन्द्र--मंडी थे। जिससे अलग-अलग कामों के जानकार शिल्पियों, कारीगरों, मजदूरों का वहां सुखपूर्वक निर्वाह होता था। नगरी में कितने ही मार्ग सिंघाड़े जैसे त्रिकोण और कितने ही त्रिकों (तिराहों), चतुष्कों (चौराहों) और चत्वरों (चार से भी अधिक मार्ग) आदि वाले थे और दुकानें बिक्री करने योग्य अनेक प्रकार की रमणीय वस्तुओं से भरी रहती थी। नगरी के राजमार्ग देश-देश के राजा-महाराजाओं आदि के आवागमन से और साधारण मुल में इसके लिये 'अणेगकोडि' शब्द है। आचार्य मलयगिरि सूरि ने इसका अर्थ अनेककोटिभिः अनेक कोटिसंख्याकै: अर्थात अनेक कोटि यानि अनेक करोड़ संख्या किया है। परन्तु इस अर्थ की बजाय अनेक कोटि-अनेक प्रकार ऐसा अर्थ करना यहां विशेष उचित लगता है। क्योंकि कोटि शब्द का प्रकार अर्थ जैन प्रागमों में सुप्रतीत है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ मार्ग अनेक सुन्दर अश्वों, मदोन्मत्त हाथियों, रथों, पालखियों, और म्यानों के आने-जाने से व्याप्त रहते थे। वहां के जलाशय, तालाब आदि विकसित कमल-कमलिनियों से सुशोभित थे और मकान, भवन आदि सफेद मिट्री-चने आदि से पूते हए होने से बड़े सुन्दर दिखते थे। जिससे नगरी की शोभा अनिमेष दृष्टि से देखने लायक थी। वह मन को प्रसन्न करने वाली थी, बार-बार देखने योग्य थी, मनोहर रूप वाली थी और असाधारण सौन्दर्य वाली थी। ___ विवेचन-यहां औपपातिक सूत्र का प्राधार लेकर आमलकप्पा नगरी की समृद्धि का वर्णन किया है। प्रामलकप्पा-भगवान् महावीर ने जिन नगरों में चातुर्मास किये हैं, उनमें तथा सूत्रों में बताई गई आर्य देश की राजधानियों में इसका उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार भगवान् के विहार स्थानों में भी आमलकप्पा के नाम का संकेत नहीं है। किन्तु इस राजप्रश्नीय सूत्र के उल्लेख से इतना कहा जा सकता है कि केवलज्ञानी होने के अनन्तर भगवान् ने जिन स्थानों पर विहार किया, संभवतः उनमें इसका नाम हो / किन्तु वर्तमान में वह नगरी कहां है और उसका क्या नाम है ? यह अभी भी अज्ञात है। __हलसय-सहस्स-संकिट्ठ-विशेषण से यह स्पष्ट किया है कि हमारा देश कृषिप्रधान है और कृषि अहिंसक संस्कृति की आधार है / प्राचीन समय में अन्यान्य विषयों की तरह कृषि-विद्या से सम्बन्धित प्रभूत साहित्य था। जिसमें कृषि से साक्षात सम्बन्ध रखने वाले-भूमिपरीक्षा, भूमिसुधारविधि, बीजरक्षणविधि, वृक्षों के रोग और उनके निरोध के लिये औषधोपचार आदि अनेक विषयों को विस्तृत चर्चा रहती थी। आज के कृषक को चाहे कोई मूढ-अज्ञ कह दे, परन्तु उस समय का कृषक मूढ नहीं किन्तु प्राज्ञ माना जाता था / जो 'पण्णत्तसेउसीमा' पद के उल्लेख से स्पष्ट है। कुक्कुडसंडेयगामपउरा–व्याकरण महाभाष्य में ग्रामों की समीपता सूचित करने के लिये ग्रामों के विशेषण के रूप में 'कुक्कुटसंपात्याः ग्रामा:' उदाहरण रखा है। उपर्युक्त वर्णन से यह निश्चित ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल के ग्राम अवश्य ही कुक्कुटसंपात्य ही थे अर्थात् एक ग्राम का मुर्गा दूसरे ग्राम में पहुँच सके ऐसा निकटवर्ती गांव / आज भी सूदुर क्षेत्र में कृषिप्रधान गांव इसी प्रकार के कुक्कुट-संपात्य हैं। जुवइ-अर्थात् पण्य तरुणी / यद्यपि आज इस शब्द का प्रयोग वेश्या के लिये रूढ हो गया है और उसे समाज बहिष्कृत मानकर तिरस्कार, घृणा और हेय दृष्टि से देखता है / लेकिन यह शब्द तत्कालीन समाज की एक संस्थाविशेष का बोध कराता है। जो अपने कला, गुण और रूपसौन्दर्य के कारण राजा द्वारा सम्मानित की जाती थी। गूणी-जन प्रशंसा करते थे। कला के अर्थी कला सीखने के लिये उससे प्रार्थना करते थे और उसका आदर करते थे / सम्भवत: इसी कारण उसका यहां उल्लेख किया हो। नगरी में रिश्वतखोर आदि कोई नहीं था इत्यादि कथन में उसके उज्ज्वल पक्ष का ही उल्लेख किया गया है / यह साहित्यकारों की प्रणाली प्राचीनकाल से चली आ रही है। परन्तु Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र मानवस्वभाव को देखते यह पूर्णतः सम्भव जैसा प्रतीत नहीं होता है। तथापि नगरी के इस वर्णन से यह विदित होता है कि इसमें रहने वाले अपेक्षाकृत सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत एवं प्रामाणिक थे। खायफलिहा-खात और परिखा। वैसे तो ये दोनों शब्द प्रायः समानार्थक माने जाते हैं। लेकिन प्राचार्य मलयगिरि ने इनका अन्तर स्पष्ट किया है कि खात तो ऊपर चौड़ी और नीचे-नीचे संकडी होती जाती है। जबकि परिखा (खाई) ऊपर से लेकर नीचे तक एक जैसी सम-सीधी खदी हुई होती है। प्राचीनकाल में नगर की रक्षा के लिये परकोटे से पहले खाई होती थी, जिसमें पानी भरा रहता था और खाई से पहले खात / खात में अंगारे अथवा अलसी आदि चिकना धानविशेष भर देते थे कि जिस पर पैर रखते ही मनुष्य तल में चला जाता है। इस प्रकार खात भी नगररक्षा का एक साधन था। चैत्य-वर्णन २-तीसे णं प्रामलकप्पाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अंबसालवणे नामं चेइए होत्था-[चिरातीते पुन्चपुरिसपण्णत्ते पोराणे सहिए कित्तिए नाए सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपडागे पडागाइपडागमंडिए सलोमहत्थे कयवेड्डिए लाइय-उल्लोइयमहिए गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितले उचियचंदणकलसे चंदणघडसुकय-तोरणपडिदुवारदेसभाए प्रासित्तोसित्तविउलवट्टबग्घारियमल्लदामकलावे पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुजोवयारकलिए कालागुरु-पवरकुदुरुक्कतुरुक्क-धूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए णड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्टिय. वेलंबग-पग-कहग-लासग-प्राइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणिय-भुयग-मागहपरिगए बहुजणजाणवयस्स विस्सुय कित्तिए बहुजणस्स आहुस्स प्राणिज्जे पाहुणिज्जे अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे पूणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे दिवे सच्चे सच्चोवाए जागसहस्सभागपडिच्छए, बहुजणो अच्चेइ पागम्म अंबसालवणचेइयं अंबसालवणचेइयं / ] उस आमलकप्पा नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिक्कोण अर्थात् ईशान दिशा में पाम्रशालवन नामक चैत्य था / वह चैत्य बहुत प्राचीन था / पूर्व पुरुष-पूर्वज, बड़े-बूढ़े भी उसको इसी प्रकार का कहते पा रहे थे। पूराना था। प्रसिद्ध था। अथवा अनेक परिवारों की आजीविका का साधन था / विख्यात था। दूर-दूर तक उसकी कीति फैली हुई थी, उसके नाम से सभी परिचित थे। छत्र, ध्वजा, घंटा, पताकाओं से मंडित था। उसके शिखर पर अनेक छोटी बड़ी पताकायें लहराती रहती थीं। मोर पंखों की पीछियों से युक्त था। उसके बीच वेदिका बनी हुई थी। आंगन गोबर से लिपा रहता था और दीवालें सफेद मिट्टी से पुती हुई थी। दीवालों पर गोरोचन और सरस रक्त चंदन के थापे - हाथे लगे हुए थे। जगह-जगह चंदन चर्चित कलश रखे थे। द्वार-द्वार पर चंदन के बने घट रखे थे और अच्छी तरह से बनाये हुए तोरणों के द्वारा दरवाजों के ऊपरी भाग सुशोभित थे। ऊपर से लेकर नीचे तक लटकती हुई गोलाकार में गुथी हुई मालाओं से दीवालें मंडित थी / स्थान-स्थान पर रंग बिरंगे सरस, सुगंधित पुष्प-पुञ्जों से अनेक प्रकार के मांडने मड़े हुए थे। धूपदानों में कृष्णागुरुसुगंधित काष्ठ-विशेष, श्रेष्ठ कुदरू, तुरुष्क-लोबान और धूप आदि के जलने से महकता रहता था और उस महक के उड़ने से बड़ा सुहावना लगता था / श्रेष्ठ सुगंध से सुवासित होने के कारण गंध Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य वर्णन ] [7 वर्तिका जैसा मालूम होता था। नट, नृत्यकार, रस्सी पर खेल दिखाने वालों, मल्ल, पंजा लड़ाने वालों, बहुरूपिया, तैरने वालों, कथा कहानी कहने वालों, रास रचने वालों, शुभ-अशुभ शकुन बताने वालों, ऊंचे बांस पर खेल दिखाने वालों, चित्र दिखाकर भीख मांगने वालों, शहनाई बजाने वालों, तंबूरा बजाने वालों, भोजक—गाने वालों, मागध-चारण, भाट आदि से वह चैत्य सदा व्याप्त--घिरा रहता था। नगरवासियों और दूर-देशवासियों में इसकी प्रसिद्धि-कीति फैली हुई थी जिससे बहुत से लोग वहाँ पाहुति-जात देने आते रहते थे। वे उसे दक्षिणा-पात्र दान देने योग्य स्थान, अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय मानते थे तथा कल्याणरूप मंगलरूप, देवरूप और चैत्यरूप मानकर विनयपूर्वक उपासना--सेवा करने योग्य मानते थे / दिव्य, सत्य और कामना सफल करने वाला समझते थे। यज्ञ में इसके नाम पर हजारों लोग दान देते थे और बहुत से लोग आ आकर इस पाम्रशालवन चैत्य की जय जयकार करते हुए अर्चना भक्ति करते थे। विवेचन—ाम्रशालवन चैत्य के उपर्युक्त वर्णन से हमें तत्कालीन लोक-संस्कृति एवं जन मानस का ठीक-ठीक परिचय मिलता है कि चैत्य जन सामान्य के लिये मनोरंजन, क्रीड़ा आदि के स्थान होने के साथ साथ अपनी कामनाओं की पूत्ति हेतु आहुति-जात देने आदि के भी केन्द्र थे / ३-असोगवर पायवे, पुढवी सिलापट्टए, बत्तव्यया उववाइयगमेणं णेयां। ३–उस चैत्यवर्ती श्रेष्ठ अशोकवृक्ष और पृथ्वीशिलापट्टक का वर्णन उववाईसूत्र के अनुसार जानना चाहिये। विवेचन----अशोक वृक्ष के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि वृक्षपूजा की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है / इसके पीछे वृक्षों की उपयोगिता, अथवा किसी पुण्य पुरुष का स्मरण अथवा वहम कारण है, यह विचारणीय और शोध का विषय है। उववाई सूत्र में अशोक वृक्ष, पृथ्वीशिलापट्टक का विस्तार से वर्णन किया है। वही सब वर्णन यहाँ समझ लेने की सूत्र में सूचना की है। उसका सारांश इस प्रकार है चैत्य को चारों ओर से घेरे हुए वन खण्ड के बीचोंबीच एक विशाल, ऊंचा दर्शनीय और असाधारण रूपसौन्दर्य सम्पन्न अशोक वृक्ष था। वह अशोकवृक्ष भी और दूसरे लकुच, शिरीष, धव, चन्दन, अर्जुन, कदम्ब, अनार, शाल, आदि वृक्षों से घिरा हुआ था / ये सभी वृक्ष मूल, कंद, स्कन्ध, छाल, शाखा, प्रवाल-पत्र, पुष्प, फल और बीज से युक्त थे / इनकी शाखा-प्रशाखायें चारों ओर फैली हुई थीं और पत्र, पल्लव, फल-फूलों आदि से सुशोभित थीं। इन वृक्षों पर मोर, मैना, कोयल, कलहंस, सारस आदि पक्षी इधर उधर उड़ते और मधुर कलरव करते रहते थे। भ्रमर-समूह के गुजारव से व्याप्त थे। इस वृक्षघटा की शोभा में विशेष वृद्धि करने के लिये कहीं जाली झरोखों वाली चौकोर बावड़ियाँ, कहीं गोल बावड़ियाँ, कहीं पुष्करणियां, प्रादि बनी हुई थीं। पद्मवेल, नागरवेल, अशोकवेल, चंपावेल, माधवीवेल, आदि वेलें इस वृक्षराजि से लिपटी हुई थी और ये सभी वेलें फूलों के भार से नमी रहती थीं। उक्त वनराजि से विराजित उस उत्तम अशोकवृक्ष पर रत्नों से बने हुए, देदीप्यमान, दर्शनीय Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य-युगल और दर्पण--ये पाठ मंगल एवं वज्र रत्न, की डांडी वाले, कमल जैसे सुगंधित, काले, नीले, लाल, पीले और सफेद चामर लटके हुए थे। इस अशोक वृक्ष के नीचे एक चौकोर शिलापट्ट था, जो जामुन, नेत्रगोलक, अंजन वृक्ष, सघन मेघमाला, भ्रमरसमह, काजल, तोल गटिका, भैंसे के सींग आदि से भी अधिक कृष्ण वर्ण का था / दर्पण की तरह इसमें देखने वालों के प्रतिबिम्ब पड़ते थे। पाट की मोटाई में चारों ओर हीरा, पन्ना, मणि, माणक, मोती आदि से चित्र बने हुए थे और उस का स्पर्श रुई, मक्खन, आक की रुई प्रादि से भी अधिक सुकोमल था। इस प्रकार का रत्नमय रम्य शिला पाट उस अशोकवृक्ष के नीचे रखा था। राजा सेय ४-तित्थ णं पामलकप्पाए नयरीए / ] सेमो राया [होत्था, महया-हिमवंत-महंतमलयमंदरमहिंदसारे अच्चंतविसुद्धरायकुलवंसप्पसूए निरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपूइए सव्वगुणसमिद्ध खत्तिए मुद्धाभिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मस्सिदे जणवयपिया जणवयपाले जणवय-पुरोहिए सेउकरे के उकरे नरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्धे पुरिसप्रासोविसे पुरिसवरपोंडरोए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते त्रिस्थित विपुल भवण-सयण-पासण-जाण-वाहणाइण्णे बहुधणबहुजायरूव-रजए प्रारोग-पप्रोगसंपउत्ते विच्छड्डिययउर भत्तपाणे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूए पडिपुग्नजत-कोस-कोट्ठागारपाउहधरे बलवं दुबलपच्चामित्ते, प्रोहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अप्पडिकंटयं ओहयसत्तु मलियसत्तु उद्धियसत्तु निज्जयसत्तु पराइयसत्तु ववगयमिक्खदोसमारि-भयविष्पमुक्कं खेमं सिवं सुभिक्खं पसंतडिबडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरई।] उस आमलकप्पा नगरी में सेय नामक राजा राज्य करता था / वह मनुष्यों में महा हिमवंत पर्वत, महामलय पर्वत, मंदर (मेरु) पर्वत और महेन्द्र नामक पर्वत आदि के समान श्रेष्ठ-प्रधान था। अत्यन्त विशुद्ध राजकुल एवं वंश में उत्पन्न हुआ था। उसके समस्त अंगोपांग राजचिह्नों और लक्षणों से सुशोभित थे। अनेक लोगों द्वारा वह बहुमान-संमान और सत्कार प्राप्त करता था अथवा अनेक लोगों द्वारा सम्मानपूर्वक पूजा जाता था। शौर्य आदि सर्वगुणों से समृद्ध था / क्षत्रिय था / मूर्धा· भिषिक्त राजा था। माता-पिता के सुसंस्कारों से सम्पन्न था। स्वभाव से दयालु था / कुलमर्यादा का करने वाला और पालक था। क्षेम-कुशल का कर्ता और रक्षक होने से मनुष्यों में इन्द्र के समान, जनपद का पिता, जनपद-देश का पालक, जनपद का पुरोहित-मार्गदर्शक, अद्भुत कार्यों को करने वाला और मनुष्यों में श्रेष्ठ था। पुरुषार्थों का साधक होने से पुरुषों में प्रधान, निर्भय एवं बलिष्ठ होने से पुरुषों में सिंह, शूरवीर होने से पुरुषों में ज्याघ्र, सफल कोप वाला होने से पुरुषों में प्राशीविष सर्प, दयालु, कोमल हृदय होने से पुरुषों में कमल, शत्रुओं का नाश करने से पुरुषों में उत्तम गंधहस्ती के समान था। समृद्ध, प्रभावशाली अथवा अभिमानियों का मानमर्दक, विख्यात-प्रख्यात था। विस्तीर्ण और विपुल भवन, शैया, प्रासन, यान, वाहन का स्वामी था। उसके कोष और कोठार सदा धन, स्वर्ण, चाँदी, धान्य से भरे रहते थे। अर्थोपार्जन के उपायों का जानकार था। उसके Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानी धारिणी यहाँ भोजन करने के बाद शेष रहा भोजन भिखारियों, याचकों में बाँट दिया जाता था। सेवा के लिये बहुत से दास-दासी उसके पास रहते थे। उसकी गोशाला में गायों, भैसों एवं बकरियों की प्रचुरता थी। उसके यंत्रागार, कोश, कोठार और शस्त्रागार पूरी तरह से भरे रहते थे। वह शारीरिक और मानसिक बल से बलवान् था अथवा उसकी सेना बल-विक्रमशाली थी। दुर्बलों का मित्रहितैषी था। प्रजा को पीड़ित करने वाले कांटे रूप चोर और डाकू आदि न होने से उसका राज्य प्रजाकंटकों से रहित था। देश में उपद्रव, दंगाफिसाद करने वालों को दंड देकर शांत कर दिये जाने से मदितकंटक था। गुडों बदमाशों को देश-निकाला दे देने से उद्धृतकंटक था। विरोधियों का विनाश कर देने से अपहृतकंटक था। इसी प्रकार उसका राज्य अपहतशत्रु था, निहतशत्रु था, मथितशत्रु था, उद्धृतशत्रु था, निजितशत्रु था, पराजितशत्रु था एवं दुभिक्ष दुर्गुण दुर्व्यसन, महामारी से रहित था। शत्रुभय से मुक्त था। जिससे वह क्षेम-कुशल, सुभिक्ष युक्त तथा विघ्नों एवं राजकुमार आदि राजपुरुषों द्वारा कृत विडम्बनाओं-राज्यविरुद्ध कार्यों से रहित था। ऐसे राज्य का प्रशासन करते हुए राजा अपना समय बिताता था। विवेचन-राजा सेय का विशेष वृत्तान्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। स्थानांगसूत्र के पाठवें ठाणा में श्रमण भगवान् महावीर के पास दीक्षित आठ राजारों में एक नाम 'सेय' भी है किन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि यह 'सेय' राजप्रश्नीयमूत्र गत राजा है अथवा अन्य कोई / टीकाकार अभयदेवसूरि ने इसी सेय को आठ दीक्षित राजाओं में माना है। सेय के संस्कृत रूपान्तर श्वेत और श्रेय दोनों होते हैं। प्राचार्य मलयगिरिसूरि ने अपनी टीका में 'श्वेत का प्रयोग किया है। रानी धारिणी ४-[तस्स णं सेयरण्णो] धारिणी [नामं] देवी [होत्था सुकुमालपाणिपादा अहोण-पडिपुण्णपंचिदियसरीरा लक्खण-बंजण-गुणोववेया माण-उम्माण-पमाणपडिपुण्णसुजायसन्बंग-सुदरंगी ससिसोमागार-कंतपियदसणा सुरुवा, करयलपरिमियपसस्थतिबलिवलियमझा, कुडंलुल्लिहियगंडलेहा कोमुइरयणियर-विमलपडिपुण्णसोमवयणा सिंगारागारचारुवेसा संगयगय-हसिय-भणिय-चिट्ठियविलास-ललिय-संलावनिउणजुत्तोवयारकुसला सुदर-थण-जघण-वयण-कर-चरण-नयण-लायण्णविलासकलिया सेएण रण्णा सद्धि अणुरत्ता अविरत्ता इ8 सद्द-फरिस-रस-रूव-गधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरइ] (उस सेय राजा को) धारिणी (नाम की) देवी-पटरानी (थी)। (वह सुकुमाल-अतिकोमल हाथ पैर वाली थी। शरीर और पांचों इन्द्रियां अहीन शुभ लक्षणों से संपन्न एवं प्रमाणयुक्त थीं। वह शंख, चक्र आदि शुभ लक्षणों तथा तिल, मसा आदि व्यंजनों और सौभाग्य आदि स्त्रियोचित गुणों से युक्त थी, मान-माप उन्मान-तोल और प्रमाण-नाप से परिपूर्ण-बराबर थी, सभी अंग परिपूर्ण और सुगठित होने से सर्वांग सुन्दरी थी, चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाली, कमनीय, प्रियदर्शना और सुरूपवती थी। उसका मध्य भाग---कटि भाग मुट्ठी में प्रा जाये, इतना पतला और प्रशस्त था, त्रिवली से युक्त था और उसमें बल पड़े हुए थे। उसको गंडलेखा-कपोलों पर बनाई हुए पत्रलेखा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [ राजप्रश्नीयसूत्र कुडलों से घर्षित होती रहती थी। उसका मुखमंडल चंद्रिका के समान निर्मल और सौम्य था, अथवा कार्तिकी पूर्णिमा के चन्द्र के समान विमल परिपूर्ण और सौम्य था। उसका सुन्दर वेष मानो शंगार रस का स्थान था। उसकी चाल, हासपरिहास, संलाप-बोलचाल, भाषण, शारीरिक और नेत्रों की चेष्टायें आदि सभी संगत थीं। वह पारस्परिक वार्तालाप करने में निपुण थी, कुशल थी, उचित प्रादर, सेवा शुश्रूषा आदि करने में कुशल थी। उसके सुन्दर जघन-कमर से नीचे का भाग, स्तन मुख, हाथ, पैर, लावण्य-विलास से युक्त थे। और दर्शकों के चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय रूपवती और अतीव रूपवती थी। और बह सेय राजा में अनुरक्ता, अविरिक्ता होकर पाँचों इन्द्रियों के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, वर्ण, एवं गंध रूप मनुष्योचित काम-भोगों का अनुभव करती हुई समय व्यतीत करती थी। विवेचन-पानी से लबालब भरे हुए कुड में पुरुष या स्त्री के बिठाने पर एक द्रोण (प्राचीन नाप) प्रमाण पानी छलककर बाहर निकले तो वह बैठने वाली स्त्री अथवा पुरुष मान-संगत कहलाता है / तराजू पर तोलने पर यदि अर्धभार प्रमाण तुले तो वह उन्मान-संगत और अपने अंगुल से एक सौ आठ अंगुल ऊंचाई हो तो वह प्रमाण-संगत कहलाता है। __ जैन परिभाषा के अनुसार शब्द और रूप ये दो काम में और गंध, रस एवं स्पर्श भोग में ग्रहण किये जाते हैं। दोनों का समावेश करने के लिये 'काम भोग' शब्द का उपयोग किया जाता है / भगवान का पदार्पण और राजा का दर्शनार्थ गमन : ६-सामी समोसढे। परिसा निग्गया। राया जाव [नयणमालासहस्सेहि पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे हिययमाला-सहस्सेहि अमिणदिज्जमाणे-अभिणंदिज्जमाणे, मणोरहमालासहस्सेहि विच्छिष्पमाणे विच्छिष्पमाणे, क्यणमालासहस्सेहि अभिथुव्वमाणे अभिब्वमाणे, कंति-दिव्य-सोहग्गगुणेहि पथिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे बहूणं नरनारोसहस्साणं दाहिणहत्येण अंर्जालमालासहस्साई. पहिच्छमाणे-पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे-पडिबुज्झमाणे, भवणपतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे प्रामलकप्पाए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छिता जेणेव अंबसालवणचेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिना समणस्स भगवनो महावीरस्स अदूर-सामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासइ, पासित्ता आभिसेक्कं हथिरयणं ठवेइ, ठवित्ता प्राभिसेक्कामो हस्थिरयणाप्रो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता अवहटु पंच रायकउहाई तंजहा-खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाप्रो वालवीयणं; जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उबागच्छिता समणं भगवं महावीर पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तंजहा (1) सचित्ताणं दवाणं विओसरणयाए, (2) अचित्ताणं दव्वाणं प्रवियोसरणयाए, (3) एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं, (4) चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, (5) मणसो एगत्तभावकरणेणं / समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणयाए] पज्जुवासइ / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव द्वारा जम्बूद्वीप दर्शन ] [ 11 ६-आमलकल्पा के बाहर स्थित ग्राम्रशालवन चैत्य में स्वामी-श्रमण भगवान महावीर पधारे / वंदना करने परिषद् निकली। राजा भी यावत् (हजारों दर्शकों की सहस्रों नेत्रमालाओं द्वारा बार-बार निरीक्षित होता हुआ, हजारों मनुष्यों के हृदयसहस्रों द्वारा पुनः पुनः अभिनंदित होता हमा, हजारों जनों की मनोरथों रूपी मालासहस्रों द्वारा स्पर्शित-स्पृष्ट होता हआ, सुन्दर और उदार वचनावली-सहस्रों द्वारा बारंबार स्तुत-स्तुतिगान किया जाता हुअा, शारीरिक ओज-सौन्दर्य, लावण्य दिव्य सौभाग्य और गुणों के कारण जनपद के द्वारा प्रार्थित होता हुआ, हजारों नर-नारियों की अंजलि रूप मालासहस्रों को दाहिने हाथ से स्वीकार करता हुआ, मंजुल मधुर स्वरों द्वारा किये गये जय-जय घोषों से प्रतिबोधित-संबोधित होता हुअा एवं हजारों भवन-पंक्तियों को पार करता हुआ आमलकल्पा नगरी के बीचोंबीच से होकर निकला, निकल कर पाम्रशालवन चैत्य की ओर चला और श्रमण भगवान् महावीर से न अतिदूर और न अति समीप किन्तु यथायोग्य स्थान से तीर्थंकरों के अतिशय रूप छत्र-पर-छत्र और पताकाओं-पर-पताका आदि को देखा, देखकर प्राभिषेक्य हस्तिरत्न को रुकवाया / रोक कर प्राभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा। उतर कर (1) खड्ग-तलवार, (2) छत्र, (3) मुकूट, (4) उपानह-जूता और (5) चामर इन पांच राजचिह्नों का परित्याग किया परित्याग करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पाया। आकर पाँच अभिगम करके श्रमण भगवान् महावीर के सन्मुख पहुँचा / वे पाँच अभिगम इस प्रकार हैं (1) पुष्प माला आदि सचित्त द्रव्यों का त्याग, (1) वस्त्र आदि अचित्त द्रव्यों का अत्याग-त्याग नहीं करना, (3) एक शाटिका (अखंड वस्त्र-दुपट्टा) का उत्तरासंग, (4) भगवान् पर दृष्टि पड़ते ही अंजलि करना—दोनों हाथ जोड़ना, (5) मन को एकाग्र करना। इन पाँचों अभिगमपूर्वक सम्मुख पाकर श्रमण भगवान् महावीर की प्रादक्षिण-दक्षिण दिशा से प्रारंभ करके तीन वार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन नमस्कार किया। वन्दन, नमस्कार करके त्रिविध-तीन प्रकार की पर्युपासना से प्रभु की उपासना करने लगा।) विवेचन--'तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ' तीन प्रकार को पर्युपासना से उपासना करने लगा / सेवा, भक्ति करने को पर्युपासना करते हैं / सेवाभक्ति श्रद्धा प्रधान है और श्रद्धा की अभिव्यक्ति के तीन साधन हैं-मन, वचन और काय / अतएव श्रद्धा की परम स्थिति को प्राप्त के लिए इन तीनों में तादात्म्य-एकरूपता होना आवश्यक है। इसी दृष्टि से सूत्र में 'तिविहाए' तीनों प्रकार से उपासना करने का उल्लेख किया है। कायिक अंग प्रत्यंगों को सम्मान प्रगट करने वाली चेष्टा कायिक उपासना, वक्ता के कथन का समर्थन करना वाचिक उपासना तथा मन को केन्द्रित करके कथन को सुनना और अनुमोदन करते हुए स्वीकार करना मानसिक उपासना कहलाती है / सूर्याभदेव द्वारा जम्बूद्वीप दर्शन : ७-तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियामे देवे सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्माए सूरियाभंसि सिंहासणंसि चहिं सामाणियसाहस्सीहि, चहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहि, तिहि परिसाहि, सहि प्रणिहि, सहि प्रणियाहिवईहिं, सोलसहि प्रायरक्खदेवसाहस्सोहिं, अन्नेहि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [ राजप्रश्नीयसूत्र बहि सरियाभविमाणवासोहि वेमाणिएहि देहि य देवीहि य सद्धि संपरिवड़े महयाहय नट्टगोय-वाइय-तंतो-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्पवादियरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरति / इमं च णं केवलकप्पं जम्बुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा प्राभोएमाणे-प्राभोएमाणे पासति / उस काल में अर्थात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी के विहरण काल में और उस समय में अर्थात् भगवान् के आमल कल्पा नगरी के आम्रशालवन चैत्य में विराजने के समय में सूर्याभ नामक देव सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक विमान की सुधर्मा सभा में सूर्याभ सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों-सेनाओं, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा और दूसरे बहुत से सूर्याभ विमानवासी वैमानिक देवदेवियों सहित अव्याहत निरन्तर नाटय एवं निपुण पुरुषों द्वारा वादित-बजाये जा रहे तंत्री-वीणा हस्तताल, कांस्यताल और अन्यान्य वादित्रों-वाधों तथा घनमृदंग-मेघ के समान ध्वनि करने वाले मृदंगों की ध्वनि (आवाज) के साथ दिव्य भोगने योग्य भोगों को भोगता हुमा विचर रहा था / उस समय उसने अपने विपुल अवधिज्ञानोपयोग द्वारा निरखते हुए इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीपनामक द्वीप को देखा। विवेचन-सूत्र में सूर्याभदेव के सभावैभव का वर्णन है। सभा में उपस्थित देव-देवियों का निर्देश इन शब्दों में किया है--- सामानिक देव -आज्ञा और ऐश्वर्य के अतिरिक्त ये सभी देव विमानाधिपति देव के समान द्युति, वैभव आदि से संपन्न होते हैं और इनको भाई आदि के तुल्य पादर-संमान योग्य माना जाता है। अग्रमहिषी कृताभिषेका राजा की पत्नी महिषी और शेष अकृताभिषेका अन्य स्त्रियां भोगिनी कहलाती हैं (या कृताभिषेका नपस्त्री सा महिषी, अन्या अकृताभिषका नृपस्त्रियो भोगिन्य इत्युच्यन्ते-अमरकोश द्वितीय कांड, मनुष्यवर्ग, श्लोक 5) / अपनी परिवारभूत अन्य सभी पत्नियों में उसकी अग्रता—प्रधानता, मुख्यता-बताने के लिये महिषी के साथ अग्र विशेषण का प्रयोग किया जाता है। तीन परिषदा-सभी विमानाधिपति देवों की--१. अभ्यन्तर, 2. मध्यम और 3. बाह्य ये तीन परिषदायें होती हैं। जिनसे अपने अंतरंग, गुप्त गूढ़ रहस्यों के लिये विचार किया जाता है, ऐसे परमविश्वसनीय समवयस्क मित्र समुदाय को अभ्यन्तर परिषद, अभ्यन्तर परिषद में चचित एवं निर्णीत विचारों के लिये जिससे सम्मति, राय ली जाती है, उसे मध्यमपरिषद और अभ्यन्तर तथा मध्यम परिषद द्वारा विचारित, निर्णीत एवं सम्मत कार्य को क्रियान्वित करने का दायित्व जिसे दिया जाता है, उसे बाह्यपरिषद कहते हैं। सात सेनायें-अश्व, गज, रथ, पदाति, वृषभ (बैल), गंधर्व और नाटय ये सेनाओं के सात प्रकार हैं। इनमें से आदि की पांच का युद्धार्थ और अंतिम दो का आमोद-प्रमोद के लिये उपयोग किया जाता है और ये अपने अपने अधिपति के नेतृत्व में कार्य संपादित करने में सक्षम होने से इनके सात सेनापति होते हैं। प्रात्मरक्षक देव-शिरस्त्राण जैसे प्राणरक्षक होता है, उसी प्रकार ये देव भी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने अधिपतिदेव की रक्षा करने में तत्पर रहने से प्रात्मरक्षक कहलाते हैं / यद्यपि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव द्वारा भगवान की स्तुति ] [ 13 इन्द्र प्रादि देवों को किसो का भय नहीं होता कि आत्मरक्षकों की आवश्यकता हो, मगर यह भी इन्द्र का एक वैभव है। सूर्याभ देव द्वारा भगवान की स्तुति : ८-तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे भारहे वासे प्रामलकप्पाए नगरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासति, पासित्ता हट्ठतुट्ठ चित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस विसप्पमाणहियए विकसियवरकमलणयणे पलियवरक डग-तुडिय-के ऊर-मउड-कुडलहारविरायंतरइयवच्छे, पालंबपलबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं सुरवरे सोहासणाश्रो अन्भुट्ठ इ, अब्भुद्वित्ता पायपीढानो पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता पाउयाग्रो प्रोमुयइ, प्रोमयइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेति, करित्ता तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छिता वाम जाणु अंचेइ, दाहिणं जाणु धरणि-तलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निमेइ, निमित्ता ईसि पच्चुन्नमइ पच्चुन्नमित्ता कडय-तुडियथंभिभुयानो साहरइ साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंर्जाल कटु एवं वयासी-- उस समय अर्थात् विपुल अवधि ज्ञानोपयोग द्वारा जम्बूद्वीप के दर्शन में प्रवर्तमान होने के समय उसने जम्बद्रीप के भरत क्षेत्र में आमलकल्पा नगरी के बाहर अाम्रशालवन चैत्य में यथा प्रतिरूप अवग्रह ग्रहण कर-साधु के लिये उचित स्थान की याचना करके संयम और तर से प्रात्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देखा। देखकर वह हर्षित और अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ, उसका चित्त आनंदित हो उठा / मन में प्रीति उत्पन्न हुई, अतीव सौमनस्य को प्राप्त हुना, हर्षातिरेक से उसका हृदय-वक्षस्थल फूल गया, नेत्र और मुख विकसित श्रेष्ठ कमल जैसे हो गये / अपार हर्ष के कारण पहने हुए श्रेष्ठ कटक, त्रुटित, केयूर, मुकुट और कुण्डल चंचल हो उठे, वक्षस्थल हार से चमचमाने लगा, पैरों तक लटकते प्रालंब-आभूषण विशेष-झूमके विशेष चंचल हो उठे और उत्सुकता, तीव्र अभिलाषा से प्रेरित हो वह देवश्रेष्ठ मूर्याभ देव शीघ्र ही सिंहासन से उठा / उठकर पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरा। नीचे उतर कर पादुकायें उतारी। पादुकायें उतार कर एकशाटिक उत्तरासंग किया। उत्तरासंग करके तीर्थकर के अभिमुख सात-पाठ डग चला, अभिमुख चलकर बांया घुटना ऊँचा रखा और दाहिने घटने को नीचे भूमि पर टेक कर तीन बार मस्तक को पृथ्वी पर नमाया-झुकाया, फिर मस्तक कुछ ऊँचा उठाया। तत्पश्चात् कटक त्रुटित-बाजूवंद से स्तंभित दोनों भुजाओं को मिलाया। मिला कर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उसने इस प्रकार कहा विवेचन-आन्तरिक हर्ष का उद्रेक होने पर शरीर पर उसका जो असर-प्रभाव दिखता है, उसका इस सूत्र में सुन्दर वर्णन किया है / -नमोऽत्थ णं अरिहंताणं भगवंताणं प्रादिगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसबरपुण्डरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिसाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गवयाणं जीवदयाणं सरणदयाणं दोवो ताणं (सरणं गई पइट्ठा) बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कपट्टीणं अप्पडिहयवरनाण दंसणधराणं वियदृछ उमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बद्धाणं Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [ राजप्रश्नीयसूत्र बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सवन्नणं सव्वदरिसीणं सिवं अयलं प्रख्यं प्रणतं अक्खयं अव्वाबाह अपुणरावत्तियं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताण / नमोऽथु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स प्रादिगरस्स तित्थयरस्स जाव' संपाविउकामस्स, वंदामि गं भगवंतं तत्यगयं इहगते. पासइ मे भगवं तत्थगते इहगतं ति कट्ट बंदति णमंसति, वंदित्ता णमंसित्ता सोहासणवरगए पुयाभिमुहं सणिसण्णे / ९-अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो, श्रुत-चारित्र धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, अन्य के उपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रुओं का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, सौम्य होने से पुरुषों में श्रेष्ठ कमल के समान, पुरुषों में उत्तम गंधहस्ती के समान (जैसे गंधहस्ती की गंध से अन्य हाथी भाग जाते हैं उसी प्रकार जिनके पुण्य प्रभाव से ही ईति भीति आदि का विनाश हो जाता है, ऐसे) लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले अथवा लोक स्वरूप को प्रकाशित करने वाले बताने वाले, अभय देने वाले, श्रद्धा-ज्ञान-रूप नेत्र के दाता, धर्म (चारित्र) मार्ग के दाता, जीवों पर दया रखने का उपदेश देने वाले, शरणदाता, बोधिदाता देशविरति, सर्वविरति रूप धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथी, चतुर्गति रूप संसार का अंत करने वाले धर्म के चक्रवर्ती, अव्याघात (प्रतिहत न होने वाले) केवल-ज्ञान-दर्शन के धारक, घाति कर्म रूपी छद्म के नाशक, रागादि आत्मशत्रुओं को जीतने वाले, कर्मशत्रुओं को जीतने के लिये अन्य जीवों को प्रेरित करने वाले, संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तिरने का उपदेश देने वाले, बोध (केवल-ज्ञान) को प्राप्त करने वाले और उपदेश द्वारा दूसरों को बोध प्राप्त कराने वाले, स्वयं कर्म-बंधन से मुक्त और उपदेश द्वारा दूसरों को मुक्त करनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी शिव-उपद्रव रहित, कल्याण रूप, अचल-अचल स्थान (सिद्धिस्थान) को प्राप्त हुए, अरुज-शारीरिक व्याधि वेदना से रहित, अनन्त, अक्षय, अव्यावाध, अपुनरावृत्ति-जिसको प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में जन्म नहीं होता, ऐसे पुनरागमन से रहित-सिद्धि गति नामक स्थान में स्थित सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो। धर्म की आदि करने वाले, तीर्थंकर-(साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप) चतुर्विध संघ-तीर्थ को स्थापना करने वाले, यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने की ओर अग्रसर श्रमण भगवान् महावीर को मेरा नमस्कार हो:। तत्रस्थ अर्थात् जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नगरी के प्राभ्रशालवन चैत्य में विराजमान भगवान् को अवस्थ---यहाँ रहा हुअा मैं वंदना करता हूँ। वहाँ पर रहे हुए वे भगवान यहाँ रहे हुए मुझे देखते हैं / इस प्रकार स्तुति करके वन्दन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके फिर पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। सूर्याभदेव की प्राभियोगिक देवों को प्राज्ञा--- १०–तए णं तस्स सूरियाभस्स इमे एतारूवे अज्झस्थिते चितिते पत्थिते मणोगते संकप्पे स्था / 1. देखें सूत्र संख्या 9 (सयं संबुद्धाणं.....'ठाणं पद तक) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव की आभियोगिक देवों को आज्ञा ] [15 १०-तत्पश्चात् उस सूर्याभ देव के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक अर्थात् आन्तरिक, चिन्तित, प्रार्थित प्राप्त करने योग्य, इष्ट और मनोगत-मन में रहा हुअा (मानसिक) संकल्प उत्पन्न हुआ। ११--सेयं खलु मे समणे भगवं महावीरे जम्बुद्दोवे दोवे भारहे वासे पामलकप्पाए णयरीए बहिया अम्बसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तं महाफलं खलु तहारूवाणं भगवन्ताणं णाम-गोयस्स वि सवणयाए किमङ्ग पुण अभिगमणवन्दण णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्सवि पारियस्स धम्मियस्स सुक्यणस्स सवणयाए किमङ्ग पुण विउलस्स अट्टस्स गहणयाए ? तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि मंसामि सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेतियं पज्जुवासामि, एयं मे पेच्चा हियाए सुहाए खमाए हिस्सेयसाए प्राणुगामियत्ताए भविस्सति त्ति कटु एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता प्राभिप्रोगे देवे सद्दावेह सद्दावित्ता एवं वयासी ११-जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में स्थित प्रामलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में यथाप्रतिरूप-साधु के योग्य-अवग्रह को लेकर सयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर विराजमान हैं। मेरे लिये श्रेय रूप हैं / जब तथारूप भगवन्तों के मात्र नाम और गोत्र के श्रवण करने का ही महाफल होता है तो फिर उनके समक्ष जाने का, उनको बंदन करने का, नमस्कार करने का, उनसे प्रश्न पूछने का और उनकी उपासना करने का प्रसंग मिले तो उसके विषय में कहना ही क्या है ? आर्य पुरुष के एक भी धार्मिक सुवचन सुनने का ही जब महाफल प्राप्त होता है तब उनके पास से विपुल अर्थ-उपदेश ग्रहण करने के महान् फल की तो बात ही क्या है ! इसलिए मैं जाऊँ और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करू, नमस्कार करू, उनका सत्कार-सम्मान करूँ और कल्याणकारी होने से कल्याण रूप, सब अनिष्टों का उपशमन करने वाले होने से मंगलरूप, त्रैलोक्याधिपति होने से देवरूप और सुप्रशस्त ज्ञान-केवलज्ञान वाले होने से चैत्य स्वरूप उन भगवान् की पर्युपासना करूं। ये (श्रमण भगवान महावीर की पर्युपासना) मेरे लिये अनुगामी रूप से परलोक में हितकर, सुखकर, क्षेमकर-शांतिकर, निश्रेयस्कर-कल्याणकर-मोक्ष प्राप्त कराने वाली होगी, ऐसा उसने (सूर्याभदेव ने) विचार किया। विचार करके अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा / विवेचन--टीकाकार खम-क्षम का अर्थ संगति बताते हैं क्षमाय संगतत्वाय (रायपसेणइय पृ. 102 आगमोदय समिति)। क्रोध की उपशांति को क्षमा कहते हैं और क्रोध की उपशांति सुखशांति-कल्याण करने वाली होने से यहाँ खमाए का क्षेमकर, शान्तिकर यह अर्थ लिया है। प्राभियोगिक देव-जैसे हमारे यहाँ घरेल काम करने के लिये वेतनभोगी भृत्य-नौकर होते हैं, उसी प्रकार की स्थिति देवलोक में आभियोगिक देवों की है / वे अपने स्वामी देव की आज्ञा का पालन करने के लिये नियुक्त रहते हैं / अर्थात् अपने स्वामी देव की आज्ञा का पालन करने वाले भृत्य-सेवक स्थानीय देवों को आभियोगिक देव कहा जाता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] [ বালসহনীযঙ্গ १२--एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे आमलकप्पाए नगरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उम्गहं उम्मिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवं दीवं मारहं वासं प्रामलकप्पं गरि अंबसालवणं चेइयं समणं भगवं महावोरं तिक्खुत्तो पायाहिण पयाहिणं करेह, करेत्ता बंदह णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता साइं साई नामगोयाई साहेह, साहित्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स सवओ समंता जोयणपरिमंडलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा कटुवा सक्करं वा असुई वा अचोक्खं वा पूइयं दुग्भिगन्धं तं सव्वं प्राणिय प्राणिय एगते एडेह, एडेत्ता–णच्चोदगंणाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदयवासं वासह, वासिता णिहयरयं णटरयं भट्टरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेह, करित्ता कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं प्रोहि वासं वासह, वासित्ता जलयथलय भासुरप्पभूयस्स विट्ठाइस्स दसद्धवष्णस्स कालागुरु-पवरकुन्दुरुषक-तुरुक्क-धूव-मघमघंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्वं सुरवराभिगमणजोगं करेह, कारवेह, करित्ता य कारवेत्ता य खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। १२–हे देवानुप्रियो ! बात यह है कि यथाप्रतिरूप अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्रवर्ती आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में विराजमान हैं। _अतएव हे देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान महावीर की दक्षिण दिशा से प्रारंभ करके तीन बार प्रदक्षिणा करो। प्रदिक्षणा करके वंदना, नमस्कार करो। वंदना, नमस्कार करके तुम अपने-अपने नाम और गोत्र उन्हें कह सुनायो। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के विराजने के ग्रासपास चारों ओर एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में घास, पत्ते, काष्ठ, कंकड़-पत्थर, अपवित्र, मलिन, सड़ी-गली दुर्गन्धित वस्तुओं को अच्छी तरह से साफ कर दूर एकान्त स्थान में ले जाकर फेंक दो। इसके अनन्तर उस भूमि को पूरी तरह से साफ स्वच्छ करके इस प्रकार से दिव्य सरभि-सगंधित गंधोदक की वर्षा करो कि जिसमें जल अधिक न बरसे, कीचड़ न हो। रि रिमझिम विरल रूप में नन्हीं-नहीं बूदें बरसें और धूल मिट्टी नष्ट हो जाये / इस प्रकार की वर्षा करके उस स्थान को निहितरज, नष्टरज, भ्रष्टरज, उपशांतरज, प्रशांतरज वाला बना दो। जलवर्षा करने के अनन्तर उस स्थान पर सर्वत्र एक हाथ उत्सेध---ऊँचाई प्रमाण भास्वर चमकीले जलज और स्थलज पंचरंगे रंग-बिरंगे सुगंधित पुष्पों की प्रचुर परिमाण में इस प्रकार से बरसा करो कि उनके वृन्त (उड़ियाँ) नीचे की ओर और पंखुड़ियाँ चित्त--ऊपर की ओर रहें / पुष्पवर्षा करने के बाद उस स्थान पर अपनी सुगंध से मन को आकृष्ट करने वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क तुरुष्क (लोभान) और धूप को जलाप्रो कि जिसकी सुगंध से सारा वातावरण मघमघा जाये—महक जाये, श्रेष्ठ सुगंध-समूह के कारण वह स्थान गंधवट्टिका-गंध की गोली के समान बन जाये, दिव्य सुरवरों-उत्तम देवों के अभिगमन योग्य हो जाये, ऐसा तुम स्वयं करो और दूसरों से करवाओ। यह करके और करवा कर शीघ्र मेरी आज्ञा वापस मुझे लौटायो अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की मुझे सूचना दो। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभियोगिक देवों द्वारा आज्ञा-पालन ] [17 विवेचन–प्राचीन काल में भृत्यवर्ग का समाज में सम्मानपूर्ण स्थान था, यह बात जैन शास्त्रों के वर्णन से स्पष्ट है। उन्हें कौटुम्बिक पुरुष–परिवार का सदस्य समझा जाता था और सम्राट से लेकर सामान्य जन तक उन्हें 'देवानुप्रिय' जैसे शिष्टजनोचित शब्दों से संबोधित करते थे। ऐसे शब्दप्रयोगों से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय अपने स्तर से भी कम स्तर वाले व्यक्तियों के प्रति शिष्ट सभ्य, सुसंस्कृतजनोचित वचन व्यवहार की परंपरा थी। पाभियोगिक देवों द्वारा आज्ञापालन : १३--तए णं ते प्राभियोगिका देवा सूरियाभेणं दे वेणं एवं वृत्ता समाणा हद्वतु जाव [चित्तमाणंदिया, पोइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसम्पमाण] हियया करयलपरिम्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए प्रजलि कट्ट 'एवं देवो ! तहति' प्राणाए विणएणं बयणं पडिसुणंति, एवं द वो तहत्ति' प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणेत्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं प्रवक्कमति, उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमित्ता उब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दण्डं निस्सिरंति, तं जहा–रयणाणं वयराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगन्माणं पुलगाणं सोगंधियाणं जोईरसाणं अंजणाणं अंजणपुलगाणं रययाणं जायरूवाणं अङ्काणं फलिहाणं रिद्वाणं महाबायरे पुग्गले परिसाडंति, परिसाडित्ता प्रहासुहमे पुग्गले परियायंति, परियाइत्ता दोच्चं पि वेब्धिय-समुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता उत्तरवेउब्बियाई रूवाई विउध्वंति, विउवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जवणाए सिग्याए उधूयाए दिवाए देवगईए तिरियं असंखेज्जाणं दोवसमुद्दाणं मज्झमझेणं वीईवयमाणे जेणेव जंबुद्दोवे दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव प्रामलकप्पा गयरी, जेणेव अंबसालवणे चेतिए, जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेंति, वंदति नमसंति, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासि'अम्हे णं भंते ! सूरियाभस्स दे वस्स प्राभियोगा देवा देवाणुप्पियाणं वदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेओ कल्लाणं मगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो। १३-तत्पश्चात् वे आभियोगिक देव सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुन कर हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए, यावत् (आनंदित चित्त बाले हुए, उनके मन में प्रीति उत्पन्न हुई, परम प्रसन्न हुए और हर्षातिरेक से उनका) हदय विकसित हो गया। उन्होंने दोनों हाथों को जोड मूकलित दस नखों के द्वारा किये गये सिरसावर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके 'हे देव-स्वामिन् ! आपकी आज्ञा प्रमाण' कहकर विनयपूर्वक आज्ञा स्वीकार की। 'हे देव ! ऐसा ही करेंगे' इस प्रकार से सविनय आज्ञा स्वीकार करके उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशान कोण) में गये। ईशान कोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात किया। वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का रत्नमय दंड बनाया / रत्नों के नाम इस प्रकार हैं--(१) कर्केतन रत्न (2) वज्र-रत्न (3) वैडूर्य रत्न (4) लोहिताक्ष रत्न (5) मसारगल्ल रत्न (6) हंसगर्भ रत्न (7) पुलक रत्न (8) सौगन्धिक रत्न (6) ज्योति रत्न (10) अंजनरत्न (11) अंजनपुलक रत्न (12) रजत रत्न (13) जातरूप रत्न (14) अंक रत्न (15) स्फटिक रत्न (16) रिष्ट रत्न / इन रत्नों के यथा बादर (असार-अयोग्य) पुद्गलों को अलग किया और फिर यथासूक्ष्म (सारभूत) पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके पुनः दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात करके उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा करके अर्थात् अपना-अपना वैक्रियलब्धिजन्य उत्तर वैक्रिय शरीर बनाकर वे उत्कृष्ट त्वरा वाली, चपल, अत्यन्त तीन होने के कारण चंड, जवन-वेगशील, आँधी जैसी तेज दिव्य गति से तिरछे-तिरछे स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करते हुए जहाँ जम्बूद्वीपवर्ती भारतवर्ष की आमलकल्पा नगरी थी, आम्रशालवन चैत्य था और उसमें भी जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आये। वहाँ आकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण-दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की, उनको वंदन-नमस्कार किया और वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा हे भदन्त / हम सूर्याभदेव के अभियोगिक देव आप देवानुप्रिय को वंदन करते हैं, नमस्कार करते हैं, आप का सत्कार-संमान करते हैं एवं कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और चैत्यरूप प्राप देवानुप्रिय को पर्युपासना करते हैं / विवेचन-मूल शरीर को न छोड़कर अर्थात् मूल शरीर में रहते हुए जीवप्रदेशों को शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। वेदना आदि सात कारणों से जीव-प्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने के कारण समुद्धात के सात भेद हैं। उनमें से यहाँ वैक्रिय समुद्घात का उल्लेख है / यह वैक्रियशरीरनामकर्म के आश्रित है। वैक्रियलब्धि वाला जीव विक्रिया करते समय अपने आत्मप्रदेशों को विष्कंभ और मोटाई में शरीर परिमाण और ऊँचाई में संख्यात योजन प्रमाण दंडाकार रूप में शरीर से बाहर निकालता है। वैक्रियलब्धि से पृथक् विक्रिया भी होती है और अपृथक भी। पाभियोगिक देवों ने पहले पृथक् विक्रिया द्वारा दंड और उसके पश्चात् दूसरी बार अपने-अपने उत्तर रूप की विकुर्वणा की। इसीलिए यहाँ दो बार वैक्रिय समुद्घात करने का उल्लेख किया है। गति की तीव्रता बताने के लिए यहाँ उक्किट्राए आदि समान भाव वाले अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार की वाक्यपद्धति प्राचीन वैदिक व बौद्ध ग्रंथों में भी देखने को मिलती है। समानार्थक विभिन्न शब्दों का प्रयोग विवक्षित भाव पर विशेष भार डालने के लिये किया जाता है। आज भी इस पद्धति के प्रयोग देखने में आते हैं। १४.-'देवा' इ समणे भगवं महावीरे ते देवे एवं वदासी-पोराणमेयं देवा! जीयमेयं देवा / किच्चमेयं देवा! करणिज्जमेयं देवा ! प्राचिन्नमेयं देवा! प्रभणुण्णायमेयं देवा ! जंण भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया देवा अरहते भगवते वंदति नमसंति, व दित्ता नमंसित्ता तो साइं साई णाम-गोयाइं साहिति, तं पोराणमेयं देवा ! जाव प्रभणुण्णायमेयं देवा! हे देवो!' इस प्रकार से सूर्याभदेव के पाभियोगिक देवों को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने उन देवों से कहा-हे देवो! यह पुरातन है अर्थात् प्राचीनकाल से देवों में परम्परा से चला आ रहा है / हे देवो! यह देवों का जीतकल्प है अर्थात् देवों की प्राचारपरम्परा है। हे देवो! यह देवों के लिये कृत्य-करने योग्य कार्य है / हे देवो! यह करणीय है अर्थात् देवों को करना ही चाहिये / हे देवो ! यह आचीर्ण है अर्थात् देवों द्वारा पहले भी इसी प्रकार से आचरण किया जाता रहा है / हे देवो ! यह अनुज्ञात है अर्थात् पूर्व के सब देवेन्द्रों ने संगत माना है कि भवनवासी, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर्तक वायु की विकुर्वणा ] [ 16 वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अरिहंत भगवन्तों को वन्दन-नमस्कार करते हैं / और वन्दन-नमस्कार करके अपने-अपने नाम-गोत्र कहते हैं, यह पुरातन है यावत् हे देवो! यह अभ्यनुज्ञात है। संवर्तक वायु की विकुर्वणा १५-तए णं ते आभिनोगिया देवा समणेणं भगक्या महावीरेणं एवं वत्ता समाणा हट्ट जाव' हियया समणं भगव महावीरं वंदति णमंसंति, वदित्ता णमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसोभागं अबक्कमंति, प्रवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणिता संखेज्जाइं जोयणाई दडं निस्सिरंति / तं जहा-रययाणं जावर रिद्वाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाइंति, अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्ता दोच्चं पि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संवट्टयवाए विउध्वंति / से जहा नामए भइयदारए सिया तरुणे बलव जुगवं जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपिटुतरोरुपरिणए, घणनिचियवट्टवलियखंधे, चम्मेदुगदुघणमुट्ठिसमाहयगत्ते, उरस्स बलसमन्नागए, तलजमलजुयलबाहू लवण-पवण-जवण-पमद्दणसमत्थे छए दक्खे पट्ठ कुसले मेधावी णिउणसिम्पोवगए एगं महं सलागाहत्यगं वा दंडसंपुच्छणि वा वेणुसलागिगं वा गहाय रायङ्गणं वा रायंतेपुरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा पारामं वा उज्जाणं वा अतुरियं अचवलं असंभंतं निरंतरं सुनिउणं सन्धतो समंता संपमज्जेज्जा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स प्राभिनोगिया देवा संवट्टयवाए विउव्वंति, विउम्वित्ता समणस्स भगवश्री महावीरस्स सव्वतो समंता जोयणपरिमंडलं जे किचि तणं वा पत्तं वा तहेव सव्व प्राणिय प्राणिय एगते एडेति, एडित्ता खिप्पामेव उवसमंति। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर उन अाभियोगिक देवों ने हर्षित यावत् विकसितहृदय होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके वे उत्तर-पूर्व दिग्भाग में गये। वहाँ जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया और वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दंड बनाया जो कर्केतन यावत् रिष्टरत्नमय था और उन रत्नों के यथाबादर (असारभूत) पुद्गलों को अलग किया / यथाबादर पुद्गलों को हटाकर दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके, जैसे ___ कोई तरुण, बलवान, युगवान्-कालकृत उपद्रवों से रहित, युवा-युवावस्था वाला, जवान, रोग रहित-नीरोग, स्थिर पंजे वाला-जिसके हाथ का अग्रभाग कांपता न हो, पूर्णरूप से दृढ पुष्ट हाथ पैर पृष्ठान्तर-पीठ एवं पसलियों और जंघाओं बाला, अतिशय निचित परिपुष्ट मांसल गोल कंधोंवाला, चर्मेष्टक (चमड़े से वेष्टित पत्थर से बना अस्त्र विशेष), मुद्गर और मुक्कों की मार से सघन, पुष्ट सुगठित शरीर वाला, आत्मशक्ति सम्पन्न, युगपत् उत्पन्न तालवृक्षयुगल के समान सीधी लम्बी और पुष्ट भुजाओं वाला, लांघने-कूदने-वेगपूर्वक गमन एवं मर्दन करने में समर्थ, कलाविज्ञ, दक्ष, पटु, कुशल, मेधावी एवं कार्यनिपुण भृत्यदारक सीकों से बनी अथवा मूठ वाली अथवा बांस की सीकों से बनी बुहारी को लेकर राजप्रांगण, अन्तःपुर, देवकुल, सभा, प्याऊ, पाराम अथवा उद्यान को बिना किसी घबराहट चपलता सम्भ्रम और पाकुलता के निपुणतापूर्वक चारों तरफ से प्रमाणित 1. सूत्र संख्या 13 2. सूत्र संख्या 13 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] [ राजप्रश्नोयसूत्र करता है–बुहारता है, वैसे ही सूर्याभदेव के उन आभियोगिक देवों ने भी संवर्तक वायु की विकूर्वणा की। विकर्वणा करके श्रमण भगवान महावीर के आस-पास चारों ओर एक योजन इर्द गिर्द भूभाग में जो कुछ भी घरस पत्ते आदि थे उन सभी को चुन-चुनकर एकान्त स्थान में ले जाकर फेंक दिया और फैक कर शीघ्र ही अपने कार्य से निवृत्त हुए। अभ्र-बादलों की विकुर्वणा १६-दोच्च पि बेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणति, समोहणित्ता अभवद्दलए विउव्वंति / से जहाणामए भइगदारगे सिया तरुणे जाव' सिप्पोवगए एगं महं दगवारगं वा, दगकुम्भगं वा, दगथालगं वा, दगकलसगं वा, गहाय पारामं वा जाव पवं वा प्रतुरियं जाव सन्धतो समंता प्रावरिसेज्जा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स आभियोगिया देवा अभवद्दलए विउध्वंति, विउवित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव विज्जुयायंति, विज्जुयाइत्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स सम्वनो समंता जोयणपरिमंडलं गच्चोदगं जातिमट्टियं तं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदगं वासं वासंति, वासेत्ता णियरयं, गट्ठरयं, भट्टरयं, उवसंतरयं, पसंतरयं, करेंति, करित्ता खिप्पामेव उवसामंति / इसके पश्चात् उन आभियोगिक देवों ने दुबारा वैक्रिय समुद्घात किया। वैक्रिय समुद्धात करके जैसे कोई तरुण यावत् कार्यकुशल भृत्यदारक-सींचने वाला नौकर जल से भरे एक बड़े घड़े, वारक (मिट्टी से बने पात्र विशेष--चाड़े) अथवा जलकुभ (मिट्टी के घड़े) अथवा जल-स्थालक (कांसे के घड़े) अथवा जल-कलश को लेकर आराम-फुलवारी यावत् परव (प्याऊ) को बिना किसी उतावली के यावत् सब तरफ से सींचता है, इसी प्रकार से सूर्याभदेव के उन आभियोगिक देवों ने आकाश में घुमड़-घुमड़कर गरजने वाले और बिजलियों की चमचमाहट से युक्त मेघों को विक्रिया की और विक्रिया करके श्रमण भगवान् महावीर के विराजने के स्थान के आस-पास चारों ओर एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में इस प्रकार से सुगन्धित गंधोदक बरसाया कि जिस मि जलबहुल हुई, न कीचड़ हुआ किन्तु रिमझिम-रिमझिम विरल रूप से बूंदाबांदी होने से उड़ते हुए रजकण दब गये। इस प्रकार की मेघ वर्षा करके उस स्थान को निहितरज, नष्टरज,भ्रष्टरज, उपशांत रज, प्रशांत रज वाला बना दिया। ऐसा करके वे अपने कार्य से विरत हुए। विवेचन-देवों द्वारा की गई उक्त मेघबादलों की विकुर्वणा से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में जल वर्षा के लिये कृत्रिम मेघों की रचना होती होगी / आज के वैज्ञानिकों द्वारा भी इस प्रकार के प्रयोग किये जा रहे हैं और उनमें कुछ सफलता भी मिली है। पुष्प-मेघों की रचना १७–तच्चं पि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहगंति पुष्फवद्दलए विउव्वंति, से जहाणामए मालागारदारए सिया तरुणे जाव सिप्पोवगए एगं महं पुरफछज्जियं वा पुप्फपडलग वा पुष्फचंगेरियं वा गहाय रायङ्गणं वा जाव: सव्वतो समंता कयग्गहगहियकरयलपन्म?विप्पमुक्केणं 1. सूत्र संख्या 15 2. सूत्र संख्या 15 3. देखें सूत्र संख्या 15 4. देखें सूत्र संख्या 15 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभियोगिक देवों का प्रत्यावर्तन] [21 दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फयुजोक्यारकलितं करेजा, एवामेव ते सूरियाभस्स देवस्स आभिमोगिया देवा पुष्फवद्दलए विउध्वंति खिप्पामेव पतणतणायंति जाव' जोयणपरिमंडलं जलयथलयभासुरप्पभूयस्स बिट्ठाइस्स दसद्धवन्नकुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमेत्ति प्रोहिं वासंति वासिता कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्ध याभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधट्टिभूतं दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति य कारवेति य, करेता य कारवेत्ता य खिप्पामेव उवसामंति। १७--तदनन्तर उन आभियोगिक देवों ने तीसरी बार वैक्रिय समुद्धात करके जैसे कोई तरुण यावत् कार्यकुशल मालाकारपुत्र एक बड़ी पुष्पछादिका (फूलों से भरी टोकरी) पुष्पपटलक (फूलों की पोटली) अथवा पुष्पचंगेरिका (फूलों से भरी डलिया) से कचग्रहवत् (कामुकता से हाथों में ली गई कामिनी की केश-राशि के तुल्य) फूलों को हाथ में लेकर छोड़े गये पंचरंगे पुष्पपुजों को बिखेर कर राज-प्रांगण यावत् परव (प्याऊ) को सब तरफ से समलंकृत कर देता है, उसी प्रकार से पुष्पवर्षक बादलों की विकूणा की / वे अभ्र-बादलो की तरह गरजने लगे, यावत योजन प्रमाण गोलाकार भुभाग में दीप्तिमान जलज और स्थलज पंचरंगे पृष्यों को प्रभूत मात्रा में इस तरह बरस सर्वत्र उनकी ऊँचाई एक हाथ प्रमाण हो गई एवं डंडियां नीचे और पंखुड़ियाँ ऊपर रहीं। पुष्पवर्षा करने के पश्चात् मनमोहक सुगन्ध वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क, तुरुष्क-लोभान और धूप को जलाया। उनकी मनमोहक सुगन्ध से सारा प्रदेश महकने लगा, श्रेष्ठ सुगन्ध के कारण सुगन्ध की गुटिका जैसा बन गया। दिव्य एवं श्रेष्ठ देवों के अभिगमन योग्य हो गया / इस प्रकार से स्वयं करके और दूसरों से करवा करके उन्होंने अपने कार्य को पूर्ण किया / आभियोगिक देवों का प्रत्यावर्तन १८-जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव' वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवत्रो महावीरस्स अंतियातो अंबसालवणातो चेइयातो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता ताए उक्किट्टाए जाव' वीइवयमाणा वीइवयमाणा जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सरियाभे विमाणे जेणेव समा सुहम्मा जेणेव सरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति सरियाभ द वं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अलि कट जएणं विजएणं बद्धाति बद्धावेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / १८-इसके पश्चात् वे आभियोगिक देव श्रमण भगवान महावीर के पास आये। वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार यावत वंदन नमस्कार करके श्रमण भगवान महावीर के पास से. आम्रशालवन चैत्य से निकले, निकलकर उत्कृष्ट गति से यावत् चलते-चलते जहाँ सौधर्म स्वर्ग था, जहाँ सूर्याभ विमान था, जहाँ सुधर्मा सभा थी और उसमें भी जहाँ सूर्याभदेव था वहाँ आये और दोनों हाथ जोड़ आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय विजय घोष से सूर्याभदेव का अभिनन्दन करके आज्ञा को वापस लौटाया अर्थात् आज्ञानुसार कार्य पूरा करने की सूचना दी। 1. देखें सूत्र संख्या 16 2. देखें सूत्र संख्या 13, 3. देखें सूत्र संख्या 13, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [ राजश्नीयसूत्र सूर्याभदेव को उद्घोषणा एवं प्रादेश १६-तए णं सरियाभे दवे तेसि प्राभियोगियाणं देवाणं अंतिए एयम सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव' हियए पायत्ताणियाहिवई देव सद्दावेति, सहावेता एवं वदासी-- खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया! सूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्माए मेघोघरसियगंभीरमहुरसदं जोयणपरिमंडलं सुसरं घंटे तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे उल्लालेमाणे महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वयाहि-प्राणवेति णं भो! सूरियाभे देवे, गच्छति णं भो! सूरियाभे देवे जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे प्रामलकप्पाए णयरीए अंबसालवणे चेतिते समणं भगवौं महावीरं अभिवदए, तुब्भेऽवि णं भो ! देवाणुप्पिया! सविड्ढोए जाव [सव्वज्जुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सम्वविभूईए सम्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सन्च-पुप्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सव्व-तुडिय-सह-सण्णिणाएणं महया इड्डीए, महया जुईए, महया बलेणं महया समुदएणं महया वर-तुडिय-जमगसमग-पवाइएणं संख-पणव-पडहभेरि-झल्लरि-खरमहि-हक्क-मरय-मअंग-दहि-णिग्घोस] नाइतरवेण णियगपरिवालसद्धि संपरिवडा साति सातिं जाणविमाणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहोणं चेव सूरियाभस्स द वस्स अंतिए पाउब्भवह / १९-पाभियोगिक देवों से इस अर्थ को सुनने के पश्चात् सूर्याभ देव ने हर्षित, सन्तुष्ट यावत् हर्षातिरेक से प्रफुल्ल-हृदय हो पदाति-अनीकाधिपति (स्थलसेनापति) को बुलाया और बुलाकर उससे कहा हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही सूर्याभ विमान को सुधर्मा सभा में स्थित मेघसमूह जैसी गंभीर मधुर शब्द करने वाली एक योजन प्रमाण गोलाकार सुस्वर घंटा को तीन बार बजा-बजाकर उच्चातिउच्च स्वर में घोषणा-उद्घोषणा करते हुए यह कहो कि-- हे सूर्याभ विमान में रहने वाले देवो और देवियो ! सूर्याभविमानाधिपति के हितकर और सुखप्रद वचनों को सुनो-सूर्याभ देव आज्ञा देता है कि देवो! जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नगरी के आम्रशालवन चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान् महावीर की वंदना करने के लिए सूर्याभ देव जा रहा है। अतएव हे देवानुप्रियो ! आप लोग समस्त ऋद्धि यावत् (आभूषण) आदि की कांति, बल (सेना) समुदय-अभ्युदय दिखावे अथवा अपने अपने आभियोगिक देवों के समुदाय, आदर-सम्मान, विभूति, विभूषा, एवं भक्तिजन्य उत्सुकतापूर्वक सर्व प्रकार के पुष्पों, वेश-भूषाओं, सुगन्धित पदार्थों, एक साथ बजाये जा रहे समस्त दिव्य बाद्यों--शंख, प्रणव, (ढोलक) पटह (नगाड़ा) भेरी, झालर खरमुखी, हडक्क, मुरज (तबला), मृदंग एवं दुन्दुभि ग्रादि के निर्घोष के साथ) अपनेअपने परिवार सहित अपने-अपने यान-विमानों में बैठकर बिना विलंब के-अविलंब, तत्काल सूर्याभ देव के समक्ष उपस्थित हो जाओ। २०-तए णं से पायत्ताणियाहिवती देवे सरियामेणं देवेणं एवं वृत्ते समाणे हद्वतु जाव' हियए एवं देवो! तहत्ति प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव सूरियाभे विमाणे जेणेव समा सुहम्मा, जेणेव मेघोघरसियगम्भीरमहरसदा जोयणपरिमंडला सुस्सरा घंटा तेणेव 1. देखें सूत्र संख्या 13 2. देखें सूत्र संख्या 8 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव की उदघोषणा एवं आदेश [ 23 उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसितगंभीरमहरसई जोयणपरिमंडलं सुस्सरं घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेति / तए णं तोसे मेधोधरसितगंभीरमहरसदाए जोयणपरिमंडलाए सुस्सराए घंटाए तिक्खुत्तो उल्लालियाए समाणीए से सूरियाभे विमाणे पासायविमाणिक्खुडावडियसद्दघंटापडिसुयासयसहस्ससंकुले जाए याऽवि होत्था। २०–तदनन्तर सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार से आज्ञापित हुआ वह पदात्यनीकाधिपति देव सूर्याभदेव की इस प्राज्ञा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्ल-हृदय हुआ और 'हे देव ! ऐसा ही होगा' कहकर विनयपूर्वक आज्ञावचनों को स्वीकार करके सूर्याभ विमान में जहाँ सुधर्मा सभा थी और उसमें भी जहाँ मेघमालावत् गम्भीर मधुर ध्वनि करने वाली योजन प्रमाण गोल सुस्वर घंटा थी, वहाँ आकर मेघमाला जैसी गम्भीर और मधुरध्वनि करने वाली उस एक योजन प्रमाण गोल सुस्वर घंटा को तीन बार बजाया। तब उस मेघमालासदृश गम्भीर मधुर ध्वनि करने वालो योजन प्रमाण गोल सुस्वर घंटा के तीन बार बजाये जाने पर उसकी ध्वनि से सूर्याभ विमान के प्रासादविमान आदि से लेकर कोने-कोने तक के एकान्तशांत स्थान लाखों प्रतिध्वनियों से गूंज उठे। विवेचन अधिक से अधिक बारह योजन की दूरी से आया हुआ शब्द ही श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। मगर सूर्याभ विमान तो एक लाख योजन विस्तार वाला है / ऐसी स्थिति में घण्टा का शब्द सर्वत्र कैसे सुनाई दिया? इस प्रश्न का समाधान मूलपाठ के अनुसार ही यह है कि घंटा के ताड़न करने पर उत्पन्न हुए शब्द-पुद्गलों के इधर-उधर टकराने से तथा दैवी प्रभाव से, लाखों प्रतिध्वनियाँ उत्पन्न हो गई। उनसे समग्र सूर्याभ विमान व्याप्त हो गया और विमानवासी सब देवों-देवियों ने शब्द श्रवण कर लिया। २१–तए णं तेसि सरियाभविमाणवासिणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य दवीण य एगंतरइपसत्तनिच्चप्पमत्तविसयसुहमुच्छियाणं सुसरघंटारवविउलबोलतुरियचवलपडिबोहणे कए समाणे घोसणकोउहल-दिनकन्नएगग्गचित्त-उवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीयाहिवई देवे तंसि घंटारवंसि णिसंतपसंतंसि महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वदासी-- हंद ! सुणंतु भवंतो सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीमो य सरियाभभविमाणवइणो वयणं हियसुहत्थं प्राणवेइ णं भो ! सरियाभे देवे, गच्छइ णं भो ! सरियामे देवे जंबुद्दीव दीव भारहं वासं प्रामलकप्यं नर अंबसालवणं चेइयं समणं भगव महावीरं अभिव दए; तं तुम्भेऽवि णं देवाणुपिया! सविड्ढीए अकालपरिहीणा चेव सूरियामस्स देवस्स अंतियं पाउम्भवह / २१–तब उस सुस्वर घंटा की गम्भीर प्रतिध्वनि से एकान्त रूप से अर्थात् सदा सर्वदा रति-क्रिया (काम भोगों) में आसक्त, नित्य प्रमत्त, एवं विषयसुख में मूच्छित सूर्याभविमानवासी देवों और देवियों ने घंटानाद से शीघ्रातिशीघ्र प्रतिबोधित-सावधान-जाग्रत होकर घोषणा के विषय में उत्पन्न कौतूहल की शांति के लिए कान और मन को केन्द्रित किया तथा घंटारव के शांत Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [ राजश्नीयसूत्र प्रशांत (बिल्कुल शांत) हो जाने पर उस पदात्यानीकाधिपति देव ने जोर-जोर से उच्च शब्दों में उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहा आप सभी सूर्याभविमानवासी वैमानिक देव और देवियां सूर्याभ विमानाधिपति की इस हितकारी सुखप्रद घोषणा को हर्षपूर्वक सुनिये हे देवानुप्रियो ! सूर्याभ देव ने पाप सबको आज्ञा दी है कि सूर्याभ देव जम्बूद्वीप नामक द्वीप में वर्तमान भरतक्षेत्र में स्थित प्रामलकल्पा नगरी के ग्राम्रशालवन चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान् महावीर की वन्दना करने के लिए जा रहे हैं / अतएव हे देवानुप्रियो ! आप सभी समस्त ऋद्धि से युक्त होकर अविलम्ब-तत्काल सूर्याभ देव के समक्ष उपस्थित हो जायें। सूर्याभ देव की घोषणा को प्रतिक्रिया २२-तए णं ते सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा देवीग्रो य पायत्ताणिया. हिवइस्स देवस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हद्वतुट्ठ जाव' हियया अप्पेगइया वदणवत्तियाए, अप्पेगइया पूयणवत्तियाए, अप्पेगइया सरकारवत्तियाए अप्पेगइया संमाणवत्तियाए, अप्पेगइया कोऊहलजिणभत्तिरागणं, अपेगइया सरियाभस्स देवस्स वयणमणयत्तमाणा, अप्पेगहया अस्सयाडं सणेस्सामो, अप्पेगइया सुयाइं निस्संकियाई करिस्सामो, अप्पेगतिया अनमन्नमणुयत्तमाणा, अप्पेगइया जिणभत्तिरागणं, अप्पेगइया 'धम्मो' त्ति, अप्पेगइया 'जीयमेयं' ति कटु सविड्ढोए जाव' अकालपरिहोणा चेव सरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउभवंति / २२--तदनन्तर पदात्यनीकाधिपति देव से इस बात (सूर्याभदेव की आज्ञा) को सुनकर सर्याभविमानवासी सभी वैमानिक देव और देवियां हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय हो, कितने ही वन्दना करने के विचार से, कितने ही पर्युपासना करने की आकांक्षा से, कितने ही सत्कार करने की भावना से, कितने ही सम्मान करने की इच्छा से, कितने ही जिनेन्द्र भगवान् के प्रति कुतुहलजनित भक्ति-अनुराग से, कितने ही सूर्याभ देव की आज्ञा पालन करने के लिए, कितने ही अश्रुतपूर्व (जिसको पहले नहीं सूना) को सुनने की उत्सुकता से, कितने ही सुने हुए अर्थविषयक शंकाओं का समाधान करके निःशंक होने के अभिप्राय से, कितने ही एक दूसरे का अनुसरण करते हुए, कितने ही जिनभक्ति के अनुराग से, कितने ही अपना धर्म (कर्त्तव्य) मानकर और कितने ही अपना परम्परागत व्यवहार समझकर सर्व ऋद्धि के साथ यावत् बिना किसी विलम्ब के तत्काल सूर्याभदेव के समक्ष उपस्थित हो गये। विवेचन--यहाँ मानवीय रुचि की विविधरूपता का चित्रण किया गया है कि कार्य के एक समान होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार उसमें प्रवृत्त होता है / इसीलिए लोक को विभिन्न रुचि वाला बताया गया है / जैनसिद्धान्त के अनुसार इस प्रकृति-स्वभावजन्य विविधता का कारण कर्म है-'कर्मजं लोकवैचित्यं तत्स्तभावानुकारणम् / ' सूर्याभदेव द्वारा विमान निर्माण का आदेश २३--तए णं से सूरियाभे देवे ते सूरिया भविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीग्रो य 1. देखें सूत्र संख्या 19 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [25 सूर्याभदेव की घोषणा की प्रतिक्रिया ] अकालपरिहोणा चेव अन्तियं पाउम्भवमाणे पासति, पासित्ता हद्वतु जाव' हियए आभिनोगियं देवं सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया। अणेगखम्भसयसंनिविटु लोलट्ठियसालभंजियागं, ईहामियउसभ-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग-किनर-हरु-सरभ-चमर-कुञ्जर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं खंभुग. यवइरवेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तंपिव प्रच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिभिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरोयरूवं घण्टावलिचलियमहरमणहरसरं सुहं कन्तं दरिसणिज्जं णिउणउचियभिसिभिसितमणिरयणघण्टियाजालपरिक्खित्तं जोयणसयसहस्सवित्थिष्णं दिव्वं गमणसज्ज सिग्घगमणं णाम जाणविमाणं विउवाहि, विउवित्ता खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि। २३-इसके पश्चात् विलम्ब किये बिना उन सभी सूर्याभविमानवासी देवों और देवियों को अपने सामने उपस्थित देखकर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हो सूर्याभ देव ने अपने प्राभियोगिक देव को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट–बने हुए एक यान-विमान की विकुर्वणा-रचना करो। जिसमें स्थान-स्थान पर हाव-भाव-विलास लीलायुक्त अनेक पुतलियां स्थापित हों / ईहामृग, वृषभ, तुरग, नर (मनुष्य), मगर, विहग (पक्षी), सर्प, किन्नर, रुरु (मृगों की एक जाति विशेष-बारह सिंगा अथवा कस्तूरीमृग), सरभ (अष्टापद) चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित हों। जो स्तम्भों पर बनी वज्र रत्नों की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखलाई दे / समश्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यंत्रचालित-जैसे दिखलाई दें। हजारों किरणों से व्याप्त एवं हजारों रूपकों-चित्रों से युक्त होने से जो देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान जैसा प्रतीत हो। देखते ही दर्शकों के नयन जिसमें चिपक जायें। जिसका स्पर्श सुखप्रद और रूप शोभासम्पन्न हो / हिलने डुलने पर जिसमें लगी हुई घंटावलि से मधुर और मनोहर शब्द-ध्वनि हो रही हो / जो वास्तुकला से युक्त होने के कारण शुभ कान्त-कमनीय और दर्शनीय हो। निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित, देदीप्यमान मणियों और रत्नों के घुघरुषों से व्याप्त हो, एक लाख योजन विस्तार वाला हो / दिव्य तीव्रगति से चलने की शक्ति-सामर्थ्य सम्पन्न एवं शीघ्रगामी हो। इस प्रकार के यान-विमान को विकुर्वणा-रचना करके हमें शीघ्र ही इसकी सूचना दो। 24 –तए णं से प्राभिप्रोगिए देवे सरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे हट जाव हियए करयलपरिग्गाहियं जाव पडिसुणेइ जाव पडिसुणेत्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीमागं प्रवक्कमति, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई जाव' अहाबायरे पोग्गले परिसाडति परिसाडित्ता प्रहासुहुमे पोग्गले परियाएइ परियाइत्ता दोच्चं पि वेउब्विय समुग्घाएणं समोहणित्ता अणेगखम्भसयमन्निविट्ठ जाव' दिव्वं जाणविमाणं विउविउं पत्ते यावि होत्था / 1. देखें सूत्र संख्या 8 2. देखें सूत्र संख्या 13 3. देखें सूत्र संख्या 13 4. देखें सूत्र संख्या 13 5. देखें सूत्र संख्या 13 6. देखें सूत्र संख्या 23 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र १४-तदनन्तर वह आभियोगिक देव सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार का आदेश दिये जाने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ यावत् प्रफुल्ल हृदय हो दोनों हाथ जोड़ यावत् आज्ञा को सुना यावत् उसे स्वीकार करके वह उत्तर-पूर्व दिशा-ईशानकोण में पाया / वहाँ आकर वैक्रिय समुद्घात किया और समुद्घात करके संख्यात योजन ऊपर-नीचे लंबा दण्ड बनाया यावत् यथाबादर (स्थूल-असार) पुद्गलों को अलग हटाकर सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके दूसरी बार पुनः वैक्रिय समुद्धात करके अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर सन्निविष्ट यावत् दिव्ययान-विमान की विकुर्वणा (रचना) करने में प्रवृत्त हो गया। प्राभियोगिक देवों द्वारा विमानरचना २५-तए णं से आभियोगिए देवे तस्स दिश्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसि तिसोवाणपडिरूवए विउव्यति, तंजहा-पुरस्थिमेणं, दाहिणेणं, उत्तरेणं, तेसि तिसोवाणपडिरूवगाणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा वइरामया णिम्मा, रिट्ठामया पतिढाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्ण-रुप्पमया फलगा, लोहितक्खमइयाप्रो सईओ, वयरामया संधी, गाणामणिमया अवलंबणा, अवलंबणबाहाम्रो य, पासादीया जाव पडिरूवा। २५---इसके अनन्तर (विमान रचना के लिए प्रवृत्त होने के अनन्तर) सर्व प्रथम पाभियोगिक देवों ने उस दिव्ययान-विमान की तीन दिशाओं—पूर्व, दक्षिण और उत्तर में विशिष्ट रूप-शोभासंपन्न तीन सोपानों (सीढ़ियों) वाली तीन सोपान पंक्तियों की रचना की। बे रूपशोभा संपन्न सोपान पंक्तियां इस प्रकार की थी __ इनकी नेम (भूमि से ऊपर निकला प्रदेश, वेदिका) वज्ररत्नों से बनी हुई थी। रिष्ट रत्नमय इनके प्रतिष्ठान (पैर रखने को स्थान) और वैडूर्य रत्नमय स्तम्भ थे / स्वर्ण-रजत मय फलक (पाटिये) थे। लोहिताक्ष रत्नमयी इनमें सूचियां कीलें लगी थीं / वज्ररत्नों से इनकी संधियां (सांधे) भरी हुई थीं, चढ़ने-उतरने में अवलंबन के लिये अनेक प्रकार के मणिरत्नों से बनी इनकी अवलंबनवाहा थीं तथा ये त्रिसोपान पंक्तियां मन को प्रसन्न करने वाली यावत असाधारण सुन्दर थी। २६-तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरनो पत्तेयं पत्तेयं तोरणं पण्णत्तं, तेसि गं तोरणाणं इमे एयारवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-तोरणा पाणामणिमया णाणामणिमएसु थम्भेसु उवनिविटुसंनिविट्ठा विविहमुत्तन्तरारूवोवचिया विविहतारारूवोचिया जाव पासाइया दरिसणिज्जा, अभिरूवा पडिरूवा। २६-इन दर्शनीय मनमोहक प्रत्येक त्रिसोपान-पंक्तियों के आगे तोरण बंधे हुए थे। उन तोरणों का वर्णन इस प्रकार का है _वे तोरण मणियों से बने हुए थे। गिर न सकें, इस विचार से विविध प्रकार के मणिमय स्तंभों के ऊपर भली-भांति निश्चल रूप से बांधे गये थे। बीच के अन्तराल विविध प्रकार के मोतियों से निर्मित रूपकों से उपशोभित थे और सलमा सितारों आदि से बने हुए तारा-रूपकों-बेल कूटों से व्याप्त यावत् (मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप-मनाकर्षक और) अतीव मनोहर थे। 1. देखें सूत्र संख्या 1 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभियोगिक देवों द्वारा विमानरचना] [ 27 २७-तेसि णं तोरणाणं उप्पि अदृट्ठ मङ्गलगा पण्णता, तंजहा–सोस्थिय-सिरिवच्छ-णन्दियावत्त-वद्धमाणग-मदासण-कलस-मच्छ-दप्यणा जाव (सव्वरयणमया अच्छा, सण्हा, लोहा, घट्टा, मट्ठा, णोरया निम्मला, निप्पंका, निक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा) पडिरूवा। २७--उन तोरणों के ऊपरी भाग में स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दिकावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्ययुगल और दर्पण, इन आठ-आठ मांगलिकों को रचना की। जो (सर्वात्मना रत्नों से निर्मित अतीव स्वच्छ, चिकने, घर्षित, मृष्ट, नीरज, निर्मल निष्कलंक, दीप्त प्रकाशमान चम की ले शीतल प्रभायुक्त मनालादक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप थे। २८-तेसि च णं तोरणाणं उपि बहवे किण्हचामरज्झया जाव (नीलचामरज्झया, लोहियचामरज्झया, हालिचामरज्झया) सुकिल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा रुप्पपट्टा वइरदण्डा जलयामलगन्धिया सुरम्मा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा विउव्वति / २८–उन तोरणों के ऊपर स्वच्छ, निर्मल, सलौनी, रजतमय पट्ट से शोभित वज्रनिर्मित डंडियों वाली, कमलों जैसी सुरभि गंध से सुगंधित, रमणोय, आह्लादकारी, दर्शनीय मनोहर अतीव मनोहर बहुत सी कृष्ण चामर ध्वजाओं यावत् (नील चामर ध्वजाओं, लाल चामर ध्वजाओं, पीली चामर ध्वजाओं और) श्वेत चामर ध्वजाओं की रचना की। २६-तेसि णं तोरणाणं उपि बहवे छत्तातिछत्ते, पडागाइपड़ागे, घंटाजुगले, उप्पलहत्थए, कुमद-णलिण-सुभग-सोगंधिय-पोंडरीय-महापोंडरीय-सतपत्त-सहस्सपत्तहत्यए, सबरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे विउव्वति / २६--उन तोरणों के शिरोभाग में निर्मल यावत् अत्यन्त शोभनीय रत्नों से बने हुए अनेक छत्रातिछत्रों (एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र) पताकातिपताकानों घंटायुगल, उत्पल (श्वेतकमल) कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुंडरीक, महापुडरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों के झूमकों को लटकाया। ३०–तए णं से प्राभिओगिए देवे तस्स दिव्यस्स जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्ज भूमिभागं विउब्वति / से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरे ति वा, मुइंगपुक्खरे इ वा, परिपुण्णे सरतले इ वा, करतले इ वा, चंदमंडले इ वा, सूरमण्डले इ वा, प्रायंसमंडले इ वा, उरम्मचम्मे इ वा, वसहचम्मे इ वा, बराहम्मे इ वा, वग्घचम्मे इ वा, छगलचम्मे इ बा, दीवियचम्मे इ वा, अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते, णाणाविहपंचवन्नेहि मणोहि उवसोभिते प्रावड-पच्चावड-सेढि-पसे ढिसोस्थिय-सोवत्थिय-पूसमाणव-वद्धमाणग-मच्छंडग-मगरंडग-जार-मार-फुल्लावलि-पउमपत्त-सागर-तरंगवसंतलय-पउमलय-मत्तिचिहि सच्छाएहि सप्पमेहि समरोइएहिं सउज्जोएहि णाणाविह-पंचवणेहि मणीहि उवसोभिए तं जहा-किण्हेहिं णोलेहिं लोहिएहिं हालिद्देहि सुक्किल्लेहि / ३०--सोपानों आदि की रचना करने के अनन्तर उस पाभियोगिक देव ने उस दिव्ययानविमान के अन्दर एकदम समतल भूमिभाग-स्थान की विक्रिया की। वह भूभाग प्रालिंगपुष्कर Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र (मुरज का ऊपरी भाग) मृदंग पुष्कर, पूर्ण रूप से भरे हुए सरोवर के ऊपरी भाग, करतल (हथेली), चन्द्रमंडल, सूर्यमंडल, दर्पण मंडल अथवा शंकु जैसे बड़े-बड़े खीलों को ठोक और खींचकर चारों ओर से सम किये गये भेड़, बैल, सुअर, सिंह, व्याघ्र, बकरो और भेड़िये के चमड़े के समान अत्यन्त रमणीय एवं सम था। वह सम भूमिभाग अनेक प्रकार के प्रावर्त, प्रत्यावर्त्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, पुष्यमाणव, शराबसंपुट, मत्स्यांड, मकराण्ड जार, मार आदि शुभलक्षणों और कृष्ण, नील, लाल, पीले और श्वेत इन पांच वर्षों की मणियों से उपशोभित था और उनमें कितनी ही मणियों में पुष्पलताओं, कमलपत्रों, समुद्रतरंगों, वसंतलताओं, पद्मलताओं आदि के चित्राम बने हुए थे तथा वे सभी मणियां निर्मल, चमकदार किरणों वाली उद्योत-शीतल प्रकाश वाली थी। मणियों का वर्ण 31 तत्थ णं जे ते किण्हा मणी तेसि णं मणोणं इमे एतारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानाम नए जीमूतए इ वा, खंजणे इ वा, अंजणे इ वा, कज्जले इवा, मसी इबा, मसीलिया इ बा, गवले इ वा, गवलगुलिया इ वा, भमरे इ वा, भमरावलिया इ वा, भमरपतंगसारे ति वा, जंबूफले ति वा, प्रद्दारि? इ वा, परपुढे इ वा, गए इवा, गयकलमे इ वा, किण्हसप्पे इ वा, किण्हकेसरे इ वा, मागासथिग्गले इ वा, किण्हासोए इ वा, किण्हकणवीरे इ वा, किण्हबंधुजीवे इ वा, एयारूवे सिया ? ३१-उन मणियों में की कृष्ण वर्ण वाली मणियां क्या सचमुच में सघन मेघ घटाओं, अंजनसुरमा, खंजन (गाड़ी के पहिये की कीच) काजल, काली स्याही, काली स्याही की गोली, भैंसे के सींग की गोली, भ्रमर, भ्रमर पंक्ति, भ्रमर पंख, जामुन, कच्चे अरीठे के बीज अथवा कौए के बच्चे, कोयल, हाथी, हाथी के बच्चे, कृष्ण सर्प, कृष्ण बकुल शरद ऋतु के मेघरहित आकाश, कृष्ण अशोक वृक्ष, कृष्ण कनेर, कृष्ण बंधुजीवक (दोपहर में फूलने वाला वृक्ष-विशेष) जैसी काली थीं ? ३२–णो इण8 सम8, प्रोवम्म समणाउप्रो ! ते णं किण्हा मणी इत्तो इद्वतराए चेव कंततराए चेव, मणुण्णतराए चेव, मणामतराए चेव वणेणं पण्णत्ता। ३२-हे आयुष्मन् श्रमणो ! यह अर्थ समर्थ नहीं है-ऐसा नहीं है। ये सभी तो उपमायें हैं / वे काली मणियां तो इन सभी उपमाओं से भी अधिक इष्टतर कांततर (कांति-प्रभाववाली) मनोज्ञतर और अतीव मनोहर कृष्ण वर्ण वाली थीं। ३३–तत्थ णं जे ते नीला मणी तेसि णं मणोणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए भिगे इ बा, भिंगपत्ते इ वा, सुए इ वा, सुपिच्छे इ वा, चासे इ वा, चासपिच्छे इ वा, णोली इवा, पीलीभेदे इ वा, णोलीगुलिया इ वा, सामाए इ वा, उच्चन्तगे इ वा, वणराती इ वा, हलधरवसणे इ वा, मोरगीवा इ बा, पारेवयग्गीवा इ वा, अयसिकुसुमे इ वा, बाणकुसुमे इ वा, अंजणकेसियाकुसुमे इ वा, नीलुपले इ वा, नोलासोगे इ वा, णोलकणवीरे इ वा, णीलबंधुजीवे इ वा, भवे एयारूवे सिया? ३३-उनमें की नील वर्ण की मणियाँ क्या भंगकीट, भृग के पंख, शुक (तोता), शुकपंख, चाष पक्षी (चातक), चाष पंख, नील, नील के अंदर का भाग, नील गुटिका, सांवा (धान्य),उच्चन्तक Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणियों का वर्ण [ 29 (दांतों को नीला रंगने का चूर्ण), वनराजि, बलदेव के पहनने के वस्त्र, मोर की गर्दन, कबूतर की गर्दन, अलसी के फल, बाणपुष्प, अंजनकेशी के फूल, नीलकमल, नीले अशोक, नीले कनेर, और नीले बंधुजीवक जैसी नीली थीं ? / ३४—णो इण? सम?, ते णं णीला मणी एतो इट्टतराए चेव जाव' वण्णेणं पण्णता / ३४—यह अर्थ समर्थ नहीं है-यह ऐसा नहीं है। वे नीली मणियां तो इन उपमेय पदार्थों से भी अधिक इष्टतर यावत् अतीव मनोहर नील वर्ण वाली थीं। ३५--तत्थ णं जे ते लोहियगा मणी तेसि णं मणीण इमेयारवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहाणामए ससरुहिरे इ वा, उरभरुहिरे इ वा, वराहरुहिरे इ वा, मणुस्सरुहिरे इ वा, महिसरुहिरे इ वा, बालिदगोवे इ वा, बालदिवाकरे इ वा, संझन्भरागे इबा, गुजद्धरागे इ वा, जासुअणकुसुमे इ वा, किंसुयकुसुमे इ वा, पालियायकुसुमे इ वा, जाइहिंगुलए ति वा, सिलप्पवाले ति बा, पवालअंकुरे इ वा, लोहियक्खमणी इ वा, लक्खारसगे ति वा, किमिरागकंबले ति वा, चीणपिट्ठरासी ति वा, रत्तुप्पले इ वा, रत्तासोगे ति वा, रत्तकणवीरे ति वा, रत्तबंधुजोवे ति वा, भवे एयारूवे सिया? ३५-उन मणियों में की लोहित (लाल) रंग की मणियों का रंग सचमुच में क्या शशक (खरगोश) के खून, भेड़ के रक्त, सुअर के रक्त, मनुष्य के रक्त, भैंस के रक्त, बाल इन्द्रगोप, प्रात:कालीन सूर्य, संध्या राग (संध्या के समय होने वाली लालिमा), गुजाफल (धुघची) के आधे भाग, जपापुष्प, किंशुक पुष्प (केसूडा के फूल), परिजातकुसुम, शुद्ध हिंगलुक (खनिजपदार्थ-विशेष), प्रबाल (मगा) प्रबाल के अंकुर, लोहिताक्ष मणि, लाख के रंग, कृमिराम (अत्यन्त गहरे लाल रंग) से रंगे कंबल, चीणा (धान्य-विशेष) के आटे, लाल कमल, लाल अशोक, लाल कनेर अथवा रक्त बंधुजीवक जैसा लाल था ? ३६-णो इण? सम8, ते णं लोहिया मणी इत्तो इट्टतराए चेव जाव' वणेणं पण्णत्ता। ३६-ये पदार्थ उनकी लालिमा का बोध कराने में समर्थ नहीं हैं। वे मणियां तो इनसे भी अधिक इष्ट यावत अत्यन्त मनोहर रक्त (लाल) वर्ण की थीं। ३७–तस्थ गं जे ते हालिद्दा मणी तेसि गं मणोणं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते--से जहाणामए चंपए ति वा, चंपछल्लो ति वा, चंपगभेए इ वा, हलिहा इ वा, हलिहाभेदे ति वा, हलिद्दागुलिया ति वा, हरियालिया वा, हरियालभेदे ति वा, हरियालगुलिया ति वा, चिउरे इ वा, चिउरंगराते ति वा, वरकणगनिधसे इ वा, वरपुरिसवसणे ति वा, अल्लकीकुसुमे ति वा, चंपाकुसुमे इ वा, कुहंडियाकुसुमे इ वा, कोरंटकमल्लदामे ति बा, तडवडाकुसुमे इ वा, घोसेडियाकुसुमे इ बा, सुवण्णजूहियाकुसुमे इ वा, सुहिरण्णकुसुमे ति वा, बीययकुसुमे इ वा, पीयासोगे ति वा, पोयकणवीरे ति वा, पीयबंधुजीवे ति वा, भवे एयारूवे सिया ? 1. देखें सुत्र संख्या 32 2. देखें सूत्र संख्या 32 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र ३७-उन मणियों में की पीले रंग की मणियों का पोतरंग क्या सचमुच में स्वर्ण चंपा, स्वर्ण चंपा की छाल, स्वर्ण चंपा के अंदर का भाग, हल्दी-हल्दी के अंदर का भाग, हल्दी की गोली, हरताल (खनिज-विशेष), हरताल के अंदर का भाग, हरताल को गोली, चिकुर (गंधद्रव्य-विशेष), चिकुर के रंग से रंगे वस्त्र, शुद्ध स्वर्ण की कसौटी पर खींची गई रेखा, वासुदेव के वस्त्रों, अल्लकी (वृक्ष-विशेष) के फूल, चंपाकुसुम, कूष्मांड (कद्द, -कोला) के फूल, कोरंटक पुष्प की माला, तडवडा (आंवला) के फूल, घोषातिकी पुष्प, सुवर्ण यूथिका-जूही के फूल, सुहिरण्य के फूल, बीजक के फूल, पीले अशोक, पीली कनेर अथवा पीले बंधुजीवक जैसा पीला था ? ३८–णो इण? सम, ते णं हालिद्दा मणी एत्तो इट्टतराए चेव जाव' वणेणं पण्णत्ता। ३८-आयुष्मन् श्रमणो! ये पदार्थ उनकी उपमा के लिये समर्थ नहीं हैं / वे पीली मणियां तो इन से भी इष्टतर यावत् पीले वर्ण वाली थीं। _३६-तत्थं णं जे ते सुक्किल्ला मणी तेसि गं मणोणं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहानामए अंकेति वा, संखे ति वा, चंदेति वा, कुमुद-उदक-दयरय-दहि-घणक्खीर-क्खीरपूरे ति वा, कोंचावली ति वा, हारावली ति वा, हंसावली इ वा, बलागावली ति वा, सारतियबलाहए ति वा, धंतधोयरुप्पपट्ट इ वा, सालीपिटरासी ति वा, कुदपुप्फरासी ति वा, कुमदरासी ति वा, सुक्कच्छिवाडी ति वा, पिहुणमिजिया ति वा, भिसे ति वा, मुणालिया ति वा, गयदंते ति वा, लवङ्गदलए ति वा, पोंडरियदलए ति वा, सेयासोगे ति वा, सेयकणवीरे ति वा, सेयबंधुजीवे ति वा, भवे एयारूवे सिया? 39 हे भगवन् ! उन मणियों में जो श्वेत वर्ण की मणियाँ थीं क्या वे अंक रत्न, शंख, चन्द्रमा, कुमुद, शुद्ध जल, ओस बिन्दु, दही, दूध, दूध के फेन, कोंच पक्षी की पक्ति, मोतियों के हार, हंस पंक्ति, बलाका पंक्ति, चन्द्रमा की पंक्ति (जाल के मध्य में प्रतिविम्बित चन्द्रपंक्ति), शरद ऋतु के मेघ, अग्नि में तपाकर धोये गये चांदी के पतरे, चावल के आटे, कुन्दपुष्प-समूह, कुमुद पुष्प के समूह, सूखी सिम्बा फली (सेम की फली), मयूरपिच्छ का सफेद मध्य भाग, विस-मृणाल, मृणालिका, हाथी के दाँत, लोंग के फूल, पुंडरीककमल (श्वेत कमल), श्वेत अशोक, श्वेत कनेर अथवा श्वेत बंधुजीवक जैसी श्वेत वर्ण की थीं ? ४०-णो इण? सम?, ते णं सुक्किला मणी एत्तो इट्टतराए चेव जाव' वन्नेणं पण्णत्ता। ४०-आयुष्मन् श्रमणो! ऐसा नहीं है। वे श्वेत माणियां तो इनसे भी अधिक इष्टतर, यावत् सरस, मनोहर आदि मनोज्ञ श्वेत वर्ण वाली थीं। मरिणयों का गन्ध-वर्णन ४१-तेसि णं मणीणं इमेयारूवे गंधे पण्णत्ते, से जहानामए कोटपुडाण वा, तगरपुडाण वा, एलापुडाण वा, चोयपुडाण वा, चंपापुडाण वा, दमणापुडाण वा, कुकुमपुडाण वा, चंदणपुडाण वा, 1. देखें सूत्र संख्या 32 2. देखें सूत्र संख्या 32 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणियों का स्पर्श [31 उसीरपुडाण वा, मरुमापुडाण वा, जातियुडाण वा, जहियायुडाण वा, मल्लियापुडाण वा, पहाणमल्लियापुडाण वा, केतगिपुडाण वा, पाडलिपुडाण वा, णोमालियापुडाण वा, अगुरुपुडाण वा, लवंगपुडाण वा, वासपुडाण वा, कप्पूरपुडाण वा, अणुवायंसि वा, प्रोभिज्जमाणाण वा, कुट्टिज्जमाणाण वा, भंजिज्जमाणाण वा, उक्किरिज्जमाणाण वा, विक्किरिज्जमाणाण वा, परिभुज्जमाणाण वा, परिभाइज्जमाणाण बा, भण्डाओ वा भंडं साहरिज्जमाणाण वा, पोराला मणुण्णा मणहरा धाणमणनियुतिकरा सवतो समंता गंधा अभिनिस्सरंति, भवे एयारूवे सिया? ४१-उस दिव्य यान विमान के अन्तर्वर्ती सम भूभाग में खचित मणियां क्या वैसी ही सुरभिगंध वाली थी जैसी कोष्ठ (गन्धद्रव्य-विशेष) तगर, इलाइची, चोया, चंपा, दमनक, कुकुम, चंदन, उशीर (खश), मरुपा (सुगंधित पौधा विशेष) जाई पुष्प, जुही, मल्लिका, स्नान-मल्लिका, केतकी, पाटल, नवमल्लिका, अगर, लवंग, वास. कपूर और कपूर के पुड़ों को अनुक्ल वायु में खोलने पर, कूटने पर, तोड़ने पर, उत्कीर्ण करने पर, बिखेरने पर, उपभोग करने पर, दूसरों को देने पर, एक पात्र से दूसरे पात्र में रखने पर, (उडेलने पर) उदार, आकर्षक, मनोज्ञ, मनहर घ्राण और मन को शांतिदायक गंध सभी दिशाओं में मघमघाती हुई फैलती है, महकती है ? / विवेचन हीरा, पन्ना, माणिक आदि मणिरत्नों में प्रकाश, चमचमाहट और अमुक प्रकार का रंग आदि तो दिखता है परन्तु इनके पार्थिव होने और पृथ्वी के गंधवती होने पर भी मणियों में अमुक प्रकार की उत्कट गंध नहीं होती है। किन्तु देव-विक्रियाजन्य होने की विशेषता बतलाने के लिए मणियों की गंध का वर्णन किया गया है। ४२–णो इण? सम?, तेणं मणी एतो इट्टतराए चेव, [कंततराए चेव, मणुण्णतराए चेव, मणामतराए चेव] गंधेणं पन्नत्ता / ४२-हे आयुष्मन् श्रमणो! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं / ये तो मात्र उपमायें हैं / वे मणियां तो इनसे भी अधिक इष्टतर यावत् मनमोहक, मनहर, मनोज्ञ-सुरभि गंध वाली थी। मरिणयों का स्पर्श ४३–तेसि णं मणोणं इमेयारवे फासे पण्णत्ते, से जहानामए प्राइणे ति वा, रूए ति वा बूरे इवा णवणीए इ वा हंसगम्भतूलिया इ वा सिरीसकुसुमनिचये इ वा बालकुमुदपत्तरासी ति वा भवे एयारूवे सिया? __ ४३-उन मणियों का स्पर्श क्या अजिनक (चर्म का वस्त्र अथवा मृगछाला) रुई, बूर (वनस्पति विशेष), मक्खन, हंसगर्भ नामक रुई विशेष, शिरीष पुष्पों के समूह अथवा नवजात कमलपत्रों की राशि जैसा कोमल था ? ४४-णो इण? सम?, तेणं मणी एत्तो इट्टतराए चेव जाव' फासेणं पन्नत्ता। ४४-आयुष्मन् श्रमणो ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / वे मणियां तो इनसे भी अधिक इष्टतर यावत् (सरस, मनोहर और मनोज्ञ कोमल) स्पर्शवाली थीं। 1. देखें सूत्र संख्या 43 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] [राजप्रश्नीयसूत्र प्रेक्षागृह-निर्माण ४५-तए णं से प्राभियोगिए देवे तस्स दिन्वस्स जाणविमाणस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं पिच्छाघरमंडवं विउव्वइ, अणेगखंभसय-संनिविट्ठ अभुग्गयसुकयवरवेइयातोरणवररइयसालभंजियागं सुसिलिट्टविसिटुलसंठियपसत्थवेरुलियविमलखम्भं जाणामणिखचिय-उज्जलबहुसमसुविभत्तभूमि भार्ग, ईहामिय-उसम-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग-किनर-रुरु-सरभ-चमर-कुञ्जर-वणलयपउमलय-भत्तिचित्त, खंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालणीयं, रूवगसहस्सकलियं, भिसमाणं भिभिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफास सस्सिरीयरूवं कंचणमणि रयणथभियागं णाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरं चवलं मरीइकवयं विणिम्मयंत, लाइय-उल्लोइयमहियं, गोसीस-सरसरत्तचंदण-ददरदिन्नयंचंगुलितल, उचियचंदणकलसं, चंदणघड-सुकयतोरणपडिदुवारदेसभाग, पासत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावं, पंचवण्णसरससुरभिमुक्कयुप्फपुजोवयारकलियं, कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुदधुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधट्टिभूतं प्रच्छरगणसंघसंविकिण्णं दिव्वतुड़ियसहसंपणाइयं अच्छं जाव [सहं अभिरूवं पडिरूवं / तस्स णं पिच्छाघरमण्डवस्स अंतो बहसमरमणिज्जभूमिभाग विउब्वति जाव' मणीणं फासो। तस्स णं पेच्छाघरमण्डवस्स उल्लोयं विउच्वति पउमलयभत्ति-चित्तं जाव [अच्छे सण्ठं लण्ठं घट्ठणोरयं निम्मलं निप्पं निक्कंकडच्छायं सप्पभं समिरोयं सउज्जोयं पासादीयं दरिसणिज्ज, अभिरूवं] पडिरूवं / ४५---तदनन्तर आभियोगिक देवों ने उस दिव्य यान विमान के अंदर बीचों-बीच एक विशाल प्रेक्षागृह मंडप की रचना की। वह प्रेक्षागृह मंडप अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट (स्थित) था। अभ्युन्नतऊंचो एवं सुरचित वेदिकाओं, तोरणों तथा सुन्दर पुतलियों से सजाया गया था। सुन्दर विशिष्ट रमणीय संस्थान-प्राकार-वाली प्रशस्त और विमल वैडूर्य मणियों से निर्मित स्तम्भों से उपशोभित था। उसका भूमिभाग विविध प्रकार की उज्ज्वल मणियों से खचित, सुविभक्त एवं अत्यन्त सम था। उसमें ईहामृग (भेड़िया) वृषभ, तुरंग-घोड़ा, नर, मगर, विहग-पक्षी, सर्प, किनर, रुरु (कस्तूरी मृग), सरभ (अष्टापद), चमरी गाय, कुजर (हाथी), वनलता पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित थे। स्तम्भों के शिरोभाग में बज्र रत्नों से बनी हुई वेदिकाओं से मनोहर दिखता था / यत्रचालित-जैसे विद्याधर युगलों से शोभित था / सूर्य के सदश हजारों किरणों से सुशोभित एवं हजारों सुन्दर घंटाओं से युक्त था। देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान होने से दर्शकों के नेत्रों को प्राकृष्ट करने वाला, सुखप्रद स्पर्श और रूप-शोभा से सम्पन्न था। उस पर स्वर्ण, मणि एवं रत्नमय स्तूप बने हुए थे। उसके शिखर का अग्र भाग नाना प्रकार की घंटियों और पंचरंगी पताकाओं से परिमंडित-सुशोभित था / और अपनी चमचमाहट एवं सभी ओर फैल रही किरणों के कारण चंचल-सा दिखता था / उसका प्रांगण गोबर से लिपा था और दिवारें सफेद मिट्टी से पुती थीं / स्थान-स्थान पर सरस गोशीर्ष रक्तचंदन के हाथे लगे हुए थे और चंदनचित कलश रखे थे / प्रत्येक द्वार तोरणों और चन्दन-कलशों से शोभित थे / दीवालों पर ऊपर से लेकर नीचे तक सुगंधित 1. देखें सूत्र संख्या 31, 33, 35, 37, 39, 41, 43 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणियों का स्पर्श ] गोल मालायें लटक रही थीं। सरस सुगन्धित पंचरंगे पुष्पों के मांडने बने हुए थे / उत्तम कृष्ण अगर, कुन्दरुष्क, तुरुष्क और धूप की मोहक सुगंध से महक रहा था और उस उत्तम सुरभि गंध से गंध की वर्तिका (अगरबत्ती, धूपबत्ती) प्रतीत होता था। अप्सराओं के समुदायों के गमनागमन से व्याप्त था / दिव्य वाद्यों के निनाद गंज रहा था। वह स्वच्छ यावत् (सलौना, अभिरूप) था। उस प्रेक्षागृह मंडप के अंदर अतीव सम रमणीय भू-भाग की रचना की / उस भूमि-भाग में खचित मणियों के रूप-रंग, गंध आदि की समस्त वक्तव्यता पूर्ववत् समझना चाहिये। उस सम और रमणीय प्रेक्षागृह मंडप की छत में पद्मलता आदि के चित्रामों से युक्त यावत् (स्वच्छ, सलौना, चिकना, घृष्ट, नीरज, निर्मल, निष्पंक, अप्रतिहतदीप्ति, प्रभा, किरणों वाला, उद्योत वाला, मन को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप) अतीव मनोहर चंदेवा बांधा। रंगमंच प्रादि की रचना 46- तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एग महं वइरामयं अक्खाडगं विउविति। ४६-उस सम रमणीय भूमिभाग के भी मध्यभाग में वज्ररत्नों से निर्मित एक विशाल अक्षपाट (अखाड़े-क्रीडामंच) की रचना की। 47 - तस्स णं अक्खाइयस्स बहुमझदेसभागे एत्थ णं महेगं मणिपेढियं विउव्वति-अट्ट जोयणाई प्रायाम-विक्खम्भेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमयं अच्छं सोहं जाव' पडिरूवं / ४७-उस क्रीडामंच के ठीक बीचोंबीच पाठ योजन लंबी-चौड़ी और चार योजन मोटी पूर्णतया वज्ररत्नों से बनी हुई निर्मल, चिकनी यावत् प्रतिरूप एक विशाल मणिपीठिका की विकुर्वणा की। सिंहासन की रचना 48 -तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्य णं महेगं सोहासणं विउच्चइ, तस्स णं सीहासणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते--- तवणिज्जमया चककला, रययामया सीहा, सोवणिया पाया, णाणामणिमयाइं पायसोसगाई, जंबूणयमयाइं गत्ताई, वइरामया संधी, गाणामणिमये वेच्चे, से णं सोहासणे ईहामिय-उसम-तुरग-नरमगर-विहग-वालग किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुञ्जर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्तं, ससारसारोचियमणिरयणपायपीढे, प्रत्थरगमि उमसूरगणवतयकुसंतलिबकेसर-पच्चत्थुयाभिरामे, आईणग-रुष-बूरतुलफासमउए सुविरइय-रयत्ताणे, उचियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे रत्तंसुअसंवुडे सुरम्मे पासाइए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे / 48-- उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान् सिंहासन बनाया। उस सिंहासन के चक्कला (पायों के नीचे के गोल भाग) सोने के, सिंहाकृति वाले हत्थे रत्नों के, पाये सोने के, पादशीर्षक अनेक प्रकार को मणियों के और बीच के गाते जाम्बूनद (विशिष्ट स्वर्ण) के थे / उसकी संधियां (सांधे) वज्ररत्नों से भरी हुई थी और मध्य भाग को बुनाई का वेंत बाण (निवार) मणिमय था / 1. देखें सूत्र संख्या 45 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] राजप्रश्नीयसूत्र उस सिंहासन पर ईहामृग, वृषभ, तुरग-अश्व, नर, मगर, विहग-पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु सरभ (अष्टापद), चमर अथवा चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र बने हुए थे / सिंहासन के सामने स्थापित पाद-पीठ सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान् मणियों और रत्नों का बना हुआ था / उस पादपीठ पर पैर रखने के लिए बिछा हुअा मसूरक (गोल आसन) नवतृण कुशाग्र और केसर तंतुओं जैसे अत्यन्त सुकोमल सुन्दर प्रास्तारक से ढका हुअा था / उसका स्पर्श आजिनक (चर्म का वस्त्र) (मृग छाला) रुई, बूर, मक्खन और आक की रुई जैसा मृदु-कोमल था / वह सुन्दर सुरचित रजस्त्राण से आच्छादित था / उसपर कसीदा काढ़े क्षौम दुकल (रुई से बने वस्त्र) का चद्दर बिछा हुआ था और अत्यन्त रमणीय लाल वस्त्र से आच्छादित था। जिससे वह सिंहासन अत्यन्त रमणीय, मन को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप-अतीव मनोहर दिखता था। ४९-तस्स णं सोहासणस्स उवरि एस्थ णं महेगं विजयदुसं विउव्वति, संख-कुद-दगरय-अमयमहियफेणपुंज-संनिगासं सव्वरयणामयं अच्छे सण्हं पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं / ४१-उस सिंहासन के ऊपरी भाग में शंख, कुदपुष्प, जलकण, मथे हुए क्षीरोदधि के फेनपुज के सदृश प्रभावाले रत्नों से बने हुए, स्वच्छ, निर्मल, स्निग्ध प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप एक विजयदृष्य (वस्त्र विशेष, छत्राकार जैसे चंदेवे) को बांधा। ५०–तस्स णं सीहासणस्स उरि विजयदूसस्स य बहुमज्झदेस भागे एत्थ णं महं एगं वयरामयं अंकुसं विउब्वति / ५०-उस सिंहासन के ऊपरी भाग में बंधे हुए विजयदूष्य के बीचों-बीच वज्ररत्नमय एक अंकुश (अंकुडिया) लगाया ! ५१-तस्ति च णं वयरामयंसि अंकुसंमि कुभिक्कं मुत्तादामं विउव्वति / से णं कुभिक्के मुत्तादामे अन्नेहि चउहि अद्धकुभिक्केहि मुत्तादामेहि तदछुच्चपमाणेहि सम्वनो समता संपरिक्खित्ते / ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा णाणामगिरयणविविह-हारहारउवसोभियसमुदाया ईसि अण्णमण्णमसंपत्ता वाएहि पुम्वावरदाहिणुत्तरागएहि मंदायं मंदायं एज्जमाणाणि एज्जमाणाणि पलंबमाणाणि पलंबमाणाणि वदमाणाणि वदमाणाणि उरालेणं मन्नेणं मणहरेणं कण्ण-मण-णिन्युति-करेणं सद्देणं ते पएसे सन्चो संमता प्रापूरेमाणा प्रापूरमाणा सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवलोभेमाणा चिट्ठति / ५१-उस वज्र रत्नमयी अंकुश में (मगध देश में प्रसिद्ध) कुभ परिणाम जैसे एक बड़े मुक्तादाम (मोतियों के झूमर-फानूस) को लटकाया और वह कुभपरिमाण वाला मुक्तादाम भी चारों दिशाओं में उसके परिमाण से आधे अर्थात् अर्धकुभ परिमाण वाले और दूसरे चार मुक्तादामों से परिवेष्टित था। वे सभी दाम (अमर) सोने के लंबूसकों (गेंद जैसे आकार वाले आभूषणों), विविध प्रकार की मणियों, रत्नों अथवा विविध प्रकार के मणिरत्नों से बने हुए हारों, अर्ध हारों के समुदायों से शोभित हो रहे थे और पास-पास टंगे होने से लटकने से जब पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर की Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समग्र यान-विमान का सौन्दर्य वर्णन मन्द-मन्द हवा के झोकों से हिलते-डुलते तो एक दूसरे से टकराने पर विशिष्ट, मनोज्ञ, मनहर, कर्ण एवं मन को शांति प्रदान करने वाली रुनझुन रुनझुन शब्द-ध्वनि से समीपवर्ती समस्त प्रदेश को व्याप्त करते हुए अपनी श्री-शोभा से अतीव-अतीव शोभित होते थे। सिंहासन की चतुदिग्वर्ती भद्रासन-रचना ५२–तए णं से प्राभिप्रोगिए देवे तस्स सोहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेण उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सीनो विउव्वइ / / तस्स णं सीहासणस्स पुरथिमेणं एत्थ णं सूरियामस्स देवस्स चउण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सोमो विउव्यइ। तस्स णं सोहासणस्स दाहिणपुरथिमेणं एत्थ गं सूरियाभस्स देवस्स अभितरपरिसाए अटुण्हं द वसाहस्सोणं अट्ठ भदासणसाहस्सोमो विउब्वइ, एवं दाहिणणं मज्झिमपरिसाए दसण्हं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसाहस्सीयो विउव्वति, दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरपरिसाए बारसण्हं देवसाहस्सोणं वारस भद्दासणसाहस्सीयो विउव्वति / पच्चस्थिमेणं सतण्हं अणियाहिवतीणं सत्त भद्दासणे विउव्वति / तस्स णं सोहासणस्स चउदिसि एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सोणं सोलस भद्दासणसाहस्सोमो विउव्वति, तं जहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, दाहिणणं चत्तारि साहस्सीयो, पच्चत्थिमेणं चत्तारि साहस्सोश्रो, उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीयो। ५२-तदनन्तर (प्रेक्षागृह मंडप आदि की रचना करने के अनन्तर) आभियोगिक देव ने उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर (वायव्य कोण), उत्तर और उत्तर पूर्व दिग्भाग (ईशान कोण) में सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देवों के बैठने के लिए चार हजार भद्रासनों की रचना की। पूर्व दिशा में सूर्याभ देव की परिवार सहित चार अग्र महिषियों के लिए चार हजार भद्रासनों की रचना की। दक्षिणपूर्व दिशा में सूर्याभ देव की प्राभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देवों के लिये पाठ हजार भद्रासनों की रचना की / दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद् के देवों के लिए दस हजार भद्रासनों की, दक्षिण-पश्चिम दिग्भाग में बाह्य परिषदा के बारह हजार देवों के लिए बारह हजार भद्रासनों की और पश्चिम दिशा में सप्त अनीकाधिपतियों के लिए सात भद्रासनों की रचना की। तत्पश्चात् सूर्याभदेव के सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों के लिए क्रमशः पूर्व दिशा में चार हजार, दक्षिण दिशा में चार हजार, पश्चिम दिशा में चार हजार और उत्तर दिशा में चार हजार, इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह हजार भद्रासनों को स्थापित किया / समग्र यान-विमान का सौन्दर्य-वर्णन ५३-तस्स दिव्वस्स जाणविमाणस्स इमेयारूवे बण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए अइग्गयस्स वा, हेमंतिय-बालियसरियस्स वा, खरिंगालाण वा रत्ति पज्जलियाण बा, जवाकुसुमवणस्स वा, किसुयवणस्स वा, पारियायवणस्स वा, सव्वतो समंता संकुसुमियस्स भवे एयारूवे सिया ? Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [राजप्रश्नीयसूत्र ५३-उस दिव्य यान-विमान का रूप-सौन्दर्य क्या तत्काल उदित हेमन्त ऋतु के बाल सूर्य अथवा रात्रि में प्रज्वलित खदिर (खैर की लकड़ी) के अंगारों अथवा पूरी तरह से कुसुमित-फूले हुए जपापुष्पवन अथवा पलाशवन अथवा परिजातवन जैसा लाल था ? ५४---णो इण? सम?, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स एत्तो इद्वतराए चेव जाव' वण्णेणं पण्णत्ते / गंधो य फासो य जहा मणोणं' / ५४–यह अर्थ समर्थ नहीं है / हे आयुष्मन् श्रमणो ! वह यान-विमान तो इन सभी उपमानों से भी अधिक इष्टतर यावत् रक्तवर्ण वाला था। इसी प्रकार उसका गंध और स्पर्श भी पूर्व में किये गये मणियों के वर्णन से भी अधिक इष्टतर यावत् रमणीय था। आभियोगिक देव द्वारा आज्ञा-पूत्ति की सूचना ५५---तए णं से प्राभियोगिए देवे दिव्वं जाणविमाणं विउच्चइ विउव्वित्ता जेणेव सरियाभे देवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं जाव' पच्चप्पिणति / ५५-दिव्य यान-विमान की रचना करने के अनन्तर पाभियोगिक देव सूर्याभदेव के पास पाया / पाकर सूर्याभदेव को दोनों हाथ जोड़ कर यावत् आज्ञा वापस लौटाई अर्थात् यान-विमान बन जाने की सूचना दी। ५६-तए णं से सरियामे देवे आभियोगस्स देवस्स अंतिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियए दिव्वं जिणिदाभिगमणजोग्गं उत्तरवेउवियरूवं विउन्नति, विउवित्ता चहि अगमहिसोहि सपरिवाराहि, दोहि प्रणीएहि, तं जहा-गंधवाणीएण य गट्टाणीएण य सद्धि संपरिवडे, तं दिव्वं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवएणं दुरूहति दुरूहित्ता जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसणे / ५६-ग्राभियोगिक देव से दिव्य यान विमान के निर्माण होने के समाचार सुनने के पश्चात् उस सूर्याभ देव ने हर्षित, संतुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हो, जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख गमन करने योग्य दिव्य उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा की। विकुर्वणा करके उनके अपने परिवार सहित चार अग्र महिषियों एवं गंधर्व तथा नाट्य इन दो अनीकों को साथ लेकर उस दिव्य यान-विमान की अनप्रदक्षिणा करके पूर्व दिशावर्ती अतीव मनोहर त्रिसोपानों से दिव्य यान-विमान पर प्रारूढ हुआ और सिंहासन के समीप आकर पूर्व की ओर मुख करके उस पर बैठ गया / ५७-तए णं तस्स सरिनाभस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीनो तं दिव्वं जाणविमाणं अणपयाहिणीकरेमाणा उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुल्हति दुरूहिता पत्तेयं पत्तेयं पुटवण्णत्थेहि देखें सूत्र संख्या 31, 33, 35, 37, 39 2. देखें सूत्र संख्या 41, 43 3. देखें सूत्र संख्या 18 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभियोगिक देव द्वारा आज्ञा-पूत्ति को रचना] भद्दासहि णिसीयंति / अक्सेसा देवा य देवीयो य तं दिव्वं जाणविमाणं जाव (अणपयाहिणी करेमाणा) दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहंति, दूरूहित्ता पत्तेयं पत्तेयं पुव्वण्णत्थेहि भद्दासणेहि निसीयंति। ५७-तत्पश्चात् सूर्याभ देव के चार हजार सामानिक देव उस यान विमान की प्रदक्षिणा करते हुए उत्तर दिग्वर्ती त्रिसोपान प्रतिरूपक द्वारा उस पर चढ़े और अपने लिये पहले से हो स्थापित भद्रासनों पर बैठे तथा इनसे शेष रहे और दूसरे देव एवं देवियां भी प्रदक्षिणापूर्वक दक्षिण दिशा के सोपानों द्वारा उस दिव्य-यान विमान पर चढ़कर प्रत्येक अपने-अपने लिये पहले से ही निश्चित भद्रासनों पर बैठे। ५८-तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स तं दिव्वं जाणविमाणं दुरूढस्स समाणस्स अट्ठमङ्गलगा पुरतो अहाणुपुवीए संपस्थिता, तं जहा–सोस्थिय-सिरिवच्छ-जाव (नन्दियावत्त-वद्धमाणगभद्दासन-कलस-मच्छ) दप्पणा / ५८-उस दिव्य यान विमान पर सूर्याभ देव आदि देव-देवियों के प्रारूढ हो जाने के पश्चात् अनुक्रम से आठ मंगल-द्रव्य उसके सामने चले। वे पाठ मंगल-द्रव्य इस प्रकार हैं-१. स्वस्तिक 2. श्रीवत्स यावत् (3. नन्दावर्त 4. वर्धमानक-शरावसम्पुट----सिकोरे का संपुट 5. भद्रासन, 6. कलश, 7. मत्स्ययुगल और) 8. दर्पण / ५६-तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिगार दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा सणरतिया-पालोयदरिसणिज्जा वाउछुयविजयवेजयंतीपडागा ऊसिया गगण-तलमणुलिहंती पुरतो अहाणुपुव्वीए संयत्थिया। 59- आठ मंगल द्रव्यों के अनन्तर पूर्ण कलश, भृगार-झारी, चामर सहित दिव्य छत्र, पताका तथा इनके साथ गगन तल का स्पर्श करती हुई अतिशय सुन्दर, आलोकदर्शनीय (प्रस्थान करते समय मांगलिक होने के कारण दर्शनीय) और वायु से फरफराती हुई एक बहुत ऊंची विजय वैजयंती पताका अनुक्रम से उसके आगे चली। ६०-तयणंतरं च णं वेरुलियभिसंतविमलदण्डं पलम्बकोरंटमल्लदामोवसोभितं चंदमंडल निभं समुस्सियं विमलमायवत्तं पवरसीहासणं च मणिरयणभत्तिचित्तं सपायपीढं सपाउयाजोयसमाउत्तं बहुकिकरामरपरिग्गहियं पुरतो अहाणुपुव्वीए संपत्थियं / ६०-विजय वैजयंती पताका के अनन्तर वैडूर्यरत्नों से निर्मित दीप्यमान, निर्मल दंडवाले लटकती हुई कोरंट पुष्पों की मालानों से सुशोभित, चंद्रमंडल के समान निर्मल, श्वेत-धवल ऊंचा आतपत्र-छत्र और अनेक किंकर देवों द्वारा वहन किया जा रहा, मणिरत्नों से बने हुए वेलबूटों से उपशोभित, पादुकाद्वय युक्त पादपीठ सहित प्रवर–उत्तम सिंहासन अनुक्रम से उसके आगे चला / ६१--तयणंतरं च णं वइरामयबट्टलटुसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमटुसुपतिलुए विसि? अणेगवरपंचवण्ण-कुडभीसहस्सुस्सिए परिमंडियाभिरामे वाउ विजय-वेजयंती पडागच्छत्तात्तिच्छत्तकलिते तुगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जो अणसहस्समूसिए महतिमहालए महिंद-ज्झए अहाणुपुव्वोए संपत्थिए / Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] राजप्रश्नीयसूत्र 61- तत्पश्चात् वज्ररत्नों से निर्मित गोलाकार कमनीय-मनोज्ञ, (गोल) दांडे वाला, शेष ध्वजारों में विशिष्ट एवं और दूसरी बहुत सी मनोरम छोटी बड़ी अनेक प्रकार की रंगबिरंगी पचरंगी ध्वजाओं से परिमंडित, वायु वेग से फहराती हुई विजयवैजयंती पताका, छत्रातिछत्र से युक्त, आकाशमंडल को स्पर्श करने वाला हजार योजन ऊंचा एक बहुत बड़ा इन्द्रध्वज नामक ध्वज अनुक्रम से उसके आगे चला। ६२–तयणंतरं च णं सुरूवणेवस्थपरिकच्छिया सुसज्जा सव्वालंकारभूसिया महया भडचडगरपहकारेणं पंच अणीयाहिबईप्रो पुरतो अहाणुपुवीए संपत्थिया / ६२–इन्द्र ध्वज के अनन्तर सुन्दर वेष भूषा से सुसज्जित, समस्त प्राभूषण-अलंकारों से विभूषित और अत्यन्त प्रभावशाली सुमटों के समुदायों को साथ लेकर पांच सेनापति' अनुक्रम से आगे चले। ६३-तयणंतरं च णं बहवे आभिप्रोगिया देवा देवीप्रो य सएहि सरहिं स्वेहि, सहि सहि विसेसेहि सएहि सएहि विदेहि, सरहिं सएहिं गेज्जाएहि, सरहिं सहि गेवत्थेहि पुरतो अहाणुपुवीए संपत्थिया। ६३-तदनन्तर बहुत से आभियोगिक देव और देवियाँ अपनी-अपनी योग्य-विशिष्ट वेशभूषाओं और विशेषतादर्शक अपने-अपने प्रतीक चिह्नों से सजधजकर अपने-अपने परिकर, अपनेअपने नेजा और अपने-अपने कार्यों के लिये कार्योपयोगी उपकरणों-साधनों को साथ लेकर अनुक्रम से आगे चले। 64 तयणंतरं च णं सूरियाभविमाणवासिणो बहवे बेमाणिया देवा य देवोश्रो य सम्बड्डीए जाव (सव्वजुईए, सम्वबलेणं, सबसमुदएणं सम्वादरेणं सम्वविभूईए सम्वविभूसाए सवसंभमेणं सब्वपुष्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सव्व-तुडिय-सह-सणिणाएणं महया इड्ढोए, महया जुईए, महया बलेणं, महया समुदएणं महया वर-तुडिय-जमगसमग-प्पवाइएणं संख-पणव-पटह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि हुडुक्कमुरय-मुइंग-दुन्दुभिनिग्घोसनाइय) रवेणं सूरियानं देवं पुरतो पासतो य मग्मतो य समणुगच्छंति / ६४-तत्पश्चात् सबसे अंत में उस सूर्याभ विमान में रहने वाले बहुत से वैमानिक देव और देवियां अपनी अपनी समस्त ऋद्धि से, यावत् (सर्व द्युति, बल-सेना, परिवार रूप समुदाय, प्रादरसंमान, शृंगार-विभूषा, विभूति-ऐश्वर्य, संभ्रम (भक्तिजन्य उत्सुकता) सर्वप्रकार के पुष्पों, गंध, माला, अलंकारों, सर्व प्रकार के वाद्यों की मधुर ध्वनि, तथा अपनी विशिष्ट ऋद्धि, महान् द्युति, महान सेना, महान् समूदाय तथा एक साथ बजते हुए अनेक वाद्यों की मधुर ध्व 7 तथा एक साथ बजते हए अनेक वाद्यों की मधर ध्वनि एवं शंख, पणव. पटह-ढोल, भेरी, झल्लरी, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज-मृदंग और दुन्दुभिनिनाद की) प्रतिध्वनि से शोभित होते हुए उस सूर्याभदेव के आगे-पीछे, आजू-बाजू में साथ-साथ चले। सूर्याभ देव का आमलकल्पा नगरी की ओर प्रस्थान ६५–तए णं से सूरियाभे देवे तेणं पंचाणीयपरिक्खित्तेणं वइरामयवट्टलटुसंठिएण जाव जोयण१. अश्व, गज, रथ, पदाति और वृषभ सेनानों के अधिपति / 2. देखें सूत्र संख्या 61 / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव का आमलकल्पा नगरी को ओर प्रस्थान] सहस्समूसिएणं महतिमहालतेणं महिंदज्झएणं पुरतो कडिज्जमाणेणं चउहि सामाणियसहस्सेहिं जाव' सोलसहि प्रायरक्खदेव साहस्सोहि अन्नेहि य बहूहि सूरियाभविमाणवासिहि वेमाणिएहि देवेहिं देवीहि यसद्धि संपरिकुडे सबिड्डीए जाव रवेणं सोधम्मस्स कप्पस्स मज्झमझेणं तं दिव्वं देविद दिवं देवजुति दिव्वं देवाणुभावं उवलालेमाणे उवलालेमाणे उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे पडिजागरेमाणे पडिजागरेमाणे जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छति, जोयणसयसाहस्सितेहि विगहेहि प्रोवयमाणे वीईवयमाणे ताए उक्किट्ठाए जाव तिरियं असंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमज्झेणं वीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव नंदीसरवरे दीवे, जेणेव दाहिणपुरथिमिल्ले रतिकरपब्बते, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं दिव्वं देविदि जाव दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरेमाणे पडिसाहरेमाणे पडिसंखेवेमाणे पडिसंखेवेमाणे जेणेव जंबुद्दीवे दोवे जेणेव मारहे वासे जेणेव प्रामलकप्पा नयरी जेणेव अंबसालवणे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तेणं दिवेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स उत्तरपुरित्थिमे दिसिभागे तं दिव्वं जाणविमाणं ईसि चउरंगुलमसंपत्तं धरणितलंसि ठवेइ, ठवित्ता चउहि अग्गमहिसोहि सपरिवाराहि, दोहि अशीयाहि, तं जहा-गंधवागिएण य णट्टागिएण य-सद्धि संपरिबुडे ताओ दिवाओ, जाणविमाणाप्रो पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूबएणं पच्चोरुहति / तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सोमो तानो दिवानो जाणविमाणाम्रो उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति अवसेसा देवा य देवीप्रो य तापो दिन्यानो जाणबिमाणाम्रो दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति / ६५-तत्पश्चात् पांच अनीकाधिपतियों द्वारा परिरक्षित वज्ररत्नमयी गोल मनोज्ञ संस्थानआकारवाले यावत् एक हजार योजन लम्बे अत्यंत ऊंचे महेन्द्रध्वज को आगे करके वह सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों एवं सूर्याभविमानवासी और दूसरे वैमानिक देव-देवियों के साथ समस्त ऋद्धि यावत् वाद्यनिनादों सहित दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव-प्रभाव का अनुभव, प्रदर्शन और अवलोकन करते हुए सौधर्मकल्प के मध्य भाग में से निकलकर सौधर्मकल्प के उत्तरदिग्वर्ती निर्याण मार्ग-निकलने के मार्ग के पास आया और एक लाख योजन प्रमाण वेग वाली यावत् उत्कृष्ट दिव्य देवगति से नीचे उतर कर गमन करते हुए तिर्छ, असंख्यातद्वीप समुद्रों के बीचोंबीच से होता हुआ नन्दीश्वरद्वीप और उसकी दक्षिणपूर्व दिशा (आग्नेय कोण) में स्थित रतिकर पर्वत पर पाया। वहां आकर उस दिव्य देव ऋद्धि यावत् दिव्य देवानुभाव को धीरे धीरे संकुचित और संक्षिप्त करके जहां जम्बूद्वीप नामक द्वीप और उसका भरत क्षेत्र था एवं उस भरत क्षेत्र में भी जहां आमलकल्पा नगरी तथा पाम्रशालवन चैत्य था और उस चैत्य में भी जहां श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहां आया, वहां आकर उस दिव्य-यानविमान के साथ श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके श्रमण भगवान महावीर की अपेक्षा उत्तरपूर्व-दिग्भाग-ईशानकोण-में ले जाकर भूमि से चार अंगुल ऊपर अधर रखकर उस दिव्य-यान विमान को खड़ा किया। 2. देखें सूत्र संख्या 64 1. देखें सूत्र संख्या 7 / 3. देखें सूत्र संख्या 13 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] [राजप्रश्नीयसूत्र उस दिव्य यानविमान को खड़ा करके वह सपरिवार चारों अग्रमहिषियों, गंधर्व और नाट्य इन दोनों अनीकों सेनाओं को साथ लेकर पूर्व दिशावर्ती विसोपान-प्रतिरूपक द्वारा उस दिव्ययान विमान से नीचे उतरा। तत्पश्चात् सूर्याभ देव के चार सामानिक देव उत्तरदिग्वर्ती त्रिसोपान प्रतिरूपक द्वारा उस दिव्य-यान---विमान से नीचे उतरे / तथा इनके अतिरिक्त शेष दूसरे देव और देवियाँ दक्षिण दिशा के त्रिसोपान प्रतिरूपक द्वारा उस दिव्य-यान-विमान से उतरे। सूर्याभदेव का समवसरण में प्रागमन ६६-तए णं से सूरियाभे देवे चउहि अगमहिसीहि जाव' सोलसहि प्रायरक्ख देवसाहस्सोहि अण्णेहि य बहूहि सूरियाभविमाणवासीहि वेमाणिएहि देवेहि देवीहि य सद्धि संपरिबुडे सविड्ढोए जावर णादितरवेणं जेणेव. समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेति, करित्ता वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी 'अहं णं भंते ! सरियाभे देवे देवाणप्पियाणं बंदामि नमसामि जाव (सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं) पज्जुबासामि'। 66- तदनन्तर वह सूर्याभदेव सपरिवार चार अग्रमहिषियों यावत् सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा अन्यान्य बहुत से सूर्याभविमानवासी देव-देवियों के साथ समस्त ऋद्धि-वैभव यावत् वाद्य निनादों सहित चलता हुआ श्रमण भगवान् महावीर के समीप पाया / पाकर श्रमण भगवान् की दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की / प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके-सविनय नम्र होकर बोला _ 'हे भदन्त ! मैं सूर्याभदेव आप देवानुप्रिय को वन्दन करता हूं, नमन करता हूं यावत् अापका (सत्कार-सन्मान करता हूं और कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एवं चैत्यरूप आपकी) पर्युपासना करता हूं। 67-- 'सरियाभा' इ समणे भगवं महावीरे सरियाभं देवं एवं वयासो पोराणमेयं सूरियाभा! जीयमेयं सूरियामा ! किच्चमेयं सरियामा ! करणिज्जमेयं सूरियामा! प्राइण्णमेयं सूरियामा ! अन्भणण्णायमेयं सरियाभा! जंणं भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा अरहते भगवते बंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता तो पच्छा साई साई नाम-गोत्ताई साहिति, तं पोराणमेयं सूरियामा ! जाव अब्भणुण्णायमेयं सूरियामा !' 67 --'हे सूर्याभ !' इस प्रकार से सूर्याभदेव को संबोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने उस सूर्याभदेव से इस प्रकार कहा-'हे सूर्याभ ! यह पुरातन है / हे सूर्याभ ! यह जीत-परम्परागत व्यवहार है / हे सूर्याभ ! यह कृत्य है / , हे सूर्याभ! यह करणीय है / , हे सूर्याभ ! यह पूर्व परम्परा से 2. देखें सूत्र संख्या 19 1. देखें सूत्र संख्या 7 3. देखें सूत्र संख्या 14 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव का समोवसरण में आगमन] [41 आचरित है / हे सूर्याभ ! यह अभ्यनुज्ञात-सम्मत है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अरिहंत भगवन्तों को वन्दन करते हैं, नमन करते हैं और वन्दन-नमस्कार करने के पश्चात् वे अपने-अपने नाम और गोत्र का उच्चारण करते हैं / अतएव हे सूर्याभ ! तुम्हारी यह सारी प्रवृत्ति पुरातन है यावत् हे सूर्याभ ! संमत है। ६८–तए णं से सरियामे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ जाव तुट्ठचित्तमाणदिए पोइमणे परमसोमणस्सिए हरिस-वस-विसप्पमाणहियए समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासण्णे नातिदूरे सुस्ससमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासति / ६८-तब वह सूर्याभ देव श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को सुनकर अतीव हर्षित हुआ यावत् (संतुष्ट हुआ, मन में अति आनंदित हुना, मन में प्रीति हुई, अत्यन्त अनुरागपूर्ण मनवाला हुआ, हर्षातिरेक से विकसित हृदयवाला हुआ) और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके न तो उनसे अधिक निकट और न अधिक दूर किन्तु यथोचित स्थान पर स्थित होकर शुश्रूषा करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, अभिमुख विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर अंजलि करके पर्युपासना करने लगा। ६६-तए णं समणे भगवं महावीरे सरियाभस्स देवस्स तोसे य महतिमहालिताए परिसाए जाव (इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए प्रणेगसयवंदाए अणेगसयवंदपरिवाराए) धम्म परिकहेइ / परिसा जामेव दिसि पाउन्भूता तामेव दिसि पडिगया। 69 तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने सूर्याभदेव को, और उस उपस्थित विशाल परिषद को यावत् (ऋषियों की सभा को, मुनियों की सभा को, यतियों की सभा को, देवों की सभा को, अनेक सौ संख्यावाली अनेक शत (सैकड़ों के) समूह वाली अनेकशतसमूह युक्त परिवार वाली सभा को) धर्मदेशना सुनाई / देशना सुनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी वापस उसी ओर लौट गई। विवेचन–'महतिमहालिताए' यह परिषद् का विशेषण है जिसका अर्थ यह है कि भगवान् की देशना सुनने के लिये सूर्याभदेव, सेयराजा, धारिणी आदि रानियों के सिवाय ऋषिपरिषदा, मुनिपरिषदा, यतिपरिषदा देवपरिषदा, के साथ हजारों नर नारी, उनके समूह और उन समूहों में भी बहुत से अपने-अपने सभी पारिवारिक जनों सहित उपस्थित थे। भगवान के समवसरण में उपस्थित विशाल परिषदा और धर्मदेशना अादि का प्रोपपातिक सूत्र में विस्तार से वर्णन किया गया है / संक्षेप में जिसका सारांश इस प्रकार है अप्रतिबद्ध बलशाली, अतिशय बलवान, प्रशस्त, अपरिमित बल, वीर्य, तेज, माहात्म्य एवं कांतियुक्त श्रमण भगवान् महावीर ने शरदकालीन नूतन मेघ की गर्जना जैसी गंभीर, कोंच पक्षी के निर्घोष तथा दुन्दुभिनाद के समान मधुर, वक्षस्थल में विस्तृत होती हई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मर्धा में व्याप्त होती हई, सुव्यक्त स्पष्ट, वर्ण-पद की विकलता-हकलाहट आदि से रहित, सर्वअक्षर सन्निपात-समस्त वर्षों के सुव्यवस्थित संयोग से युक्त, पूर्ण तथा माधुर्य गुणयुक्त स्वर से समन्वित, श्रोताओं की अपनी-अपनी भाषा में परिणत होने के स्वभाव वाली वाणी द्वारा राजा, रानी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [राजप्रश्नीयसूत्र तथा सैकड़ों हजारों ऋषियों, मुनियों, यतिनों देवों आदि श्रोताओं के समूह वाली उस महती परिषदा को एक योजन तक पहुचने वाले स्वर से अर्धमागधी भाषा में धर्मदेशना दी / भगवान द्वारा उद्गीर्ण वह अर्धमागधी भाषा उन सभी आर्य-अनार्य श्रोताओं की भाषाओं में परिणत हो गई। भगवान द्वारा दी गई धर्मदेशना इस प्रकार है 'लोक' का अस्तित्व है अलोक का अस्तित्व है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, प्रारब, संवर, वेदना, निर्जरा, अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नारक, तिर्यंचयोनि, तिर्यंचयोनिज जीव, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण-कर्मजनित आवरण से रहित जीवों का अस्तित्व है। प्राणातिपात-हिसा, मृषावाद-असत्य, अदत्तादान–चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह, अभ्याख्यान पैशून्य परपरिवाद-निन्दा, रति, अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य आदि वैभाविक भावों का अस्तित्व है। प्राणातिपातविरमण-हिंसाविरति, मृषवादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहविरमण, मिथ्यादर्शनशल्यविरमण आदि आत्मा की विशुद्धि करने वाले भावों का अस्तित्व है / सभी अस्तिभाव स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा अस्तिरूप हैं और सभी नास्तिभाव परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा नास्तिरूप है। ___ सुप्राचरित-शुद्धभावों से आचरण किये गये दान शील आदि कर्म-कार्य उत्तम फल देनेवाले हैं और दुराचरित-पापकारी कार्य दुखकारी फल देने वाले हैं। श्रेष्ठ उत्तम कार्यों से जीव पुण्य का और पाप कार्यों से पाप का उपार्जन करता है / संसारी जीव जन्म-मरण करते रहते हैं / शुभ और अशुभ कर्म-कार्य फल युक्त हैं-निष्फल नहीं हैं / यह निर्ग्रन्थ प्रवचन-वीतराग भगवन्तों द्वारा उपदिष्ट धर्म, सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, सर्वात्मना शुद्ध, परिपूर्ण है, प्रमाण से अबाधित है, माया, मिथ्यात्व आदि शल्यों का निवारक है / सिद्धिमार्गसिद्धावस्था प्राप्त करने का उपाय है,मुक्तिमार्ग-कर्मरहित अवस्था प्राप्त करने का कारण है, निर्वाणमार्ग -सकल संताप रहित आत्मदशा प्राप्त करने का हेतु है, निर्याणमार्ग-पुनः जन्म-मरण रूप संसार से पार होने का मार्ग है, अवितथ-यथार्थ, अविसन्धि-विच्छेदरहित-समस्त दुखों को सर्वथा क्षय करनेवाला है / इसमें स्थित जीव सिद्धि प्राप्त करते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण दशा को प्राप्त करते हैं, और समस्त सांसारिक दुःखों का अन्त करते हैं। एका-जिनके एक ही मनुष्यभव धारण करना शेष रह गया है, ऐसे एक भवावतारी पूर्वकर्मों के शेष रहने से किन्हीं महद्धिक देवलोकों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं और वहां महान ऋद्धिसम्पन्न दीर्घ आयु स्थिति वाले होते हैं। उनके वक्षःस्थल हार-मालाओं से सुशोभित होते हैं, और अपनी दिव्य प्रभा से सभी दिशाओं को प्रभासित करते हैं / वे कल्पोपपन्न या कल्पातीत देवों में उत्पन्न होते हैं। वे वर्तमान में भी उत्तमगति, स्थिति को प्राप्त करते हैं और भविष्य में कल्याणप्रद स्थान को प्राप्त करनेवाले और असाधारण रूप से सम्पन्न होते हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव का समवसरण में आगमन] जीव महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रय जीवों का वध और मांसाहार इन चार कारणों से नरकयोग्य कर्मों का उपार्जन करता है और नारक रूप में उत्पन्न होता है। इन चार कारणों से जीव तिर्यंचगति को प्राप्त करता है और तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होता है-१ मायाचार, 2 असत्यभाषण, 3 उत्कंचनता-खुशामद या धूर्तता, 4 वंचनता-धोखा देना, ठगना। इन कारणों से जीव मनुष्ययोनि में उत्पन्न होते हैं-१. प्रकृतिभद्रता 2. प्रकृतिविनीतता 3. सानुक्रोशता-दयावृत्ति 4. अमत्सरता- ईर्ष्या का अभाव / इन कारणों से जीव देवों में उत्पन्न होते हैं--१. सरागसंयम, 2. संयमासंयम, 3. अकामनिर्जरा, 4 बालतप-अज्ञान अवस्था में तप करना। ___धर्म दो प्रकार का है-१. अगारधर्म 2. अनगारधर्म / अनगार धर्म का पालन वह जीव करता है जो सर्व प्रकार से मुडित होकर गृहस्थ अवस्था-घर का त्याग कर श्रमण-प्रव्रज्या को अंगीकार कर अनगार बनता है। सर्वप्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहविरमण और रात्रिभोजनविरमण व्रत को स्वीकार करता है / इस धर्म के पालन करने में जो निम्रन्थ अथवा निर्गन्थी (साधु, साध्वी) प्रयत्नशील हो अथवा पालन करता हो बह अाज्ञा का आराधक होता है / अगारधर्म बारह प्रकार का बताया है-पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत / पांच अणुव्रत इस प्रकार हैं-स्थूल प्राणातिपातविरमण, स्थूल मृषावादविरमण, स्थूल अदत्तादानविरमण, स्वदारसंतोष, इच्छा-परिग्रह की मर्यादा बांधना। तीन गुणव्रत इस प्रकार हैं---अनर्थदंडविरमण, दिग्वत, उपभोग-परिभोगपरिमाणवत / चार शिक्षाबत इस प्रकार हैं-- सामायिक, देशावकाशिक पौषधोपवास, अतिथि-संविभागवत और जीवनान्त के समय जो धारण किया जाता है एवं मरण निकट हो तब कषाय और काया को कृश करके प्रीतिपूर्वक जिसकी आराधना की जाती है ऐसा संलेखनाव्रत / यह बारह प्रकार का अगारसामायिक धर्म है। इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित श्रावक या श्राविका आज्ञा के आराधक होते हैं / भगवान की इस देशना को सुनकर उस महती सभा में उपस्थित मनुष्यों में से अनेकों ने श्रमण दीक्षा ली, अनेकों ने पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहीधर्म अंगीकार किया। शेष परिषदा ने अपने प्रमोदभाव को प्रकट करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वंदननमस्कार किया, और फिर कहा-हे भदन्त ! आप द्वारा सुप्राख्यात, सुप्रज्ञप्त, सुभाषित, सुविनीत, सुभावित निर्ग्रन्थप्रवचन अनुत्तर है। धर्म की व्याख्या करते हुए आपने उपशम-क्रोधादि की शांति का उपदेश दिया है, उपशम के उपदेश के प्रसंग में आपने विवेक का व्याख्यान किया है, विवेक की व्याख्या करते हुए आपने प्राणातिपात आदि से विरत होने का निरूपण किया है, विरमण का उपदेश Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] [राजप्रश्नीयसूत्र देने के प्रसंग में आपने पापकर्म नहीं करने का विवेचन किया है। आपसे भिन्न दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण इस प्रकार का उपदेश नहीं कर सकता है, तो फिर इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की बात कहाँ ? इस प्रकार से कह कर वह परिषदा जिस दिशा से आई थी, वापस उसी ओर लौट गई। सूर्याभ देव को जिज्ञासा का समाधान ७०–तए णं से सूरियाभे देवे समणस्स भगवश्री महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हतुट्ट जाव हयहियए उट्टाए उट्ठति उद्वित्ता समणं भगवंतं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी 'अहं गं भंते ! सूरियाभे देवे कि भवसिद्धिते, अभवसिद्धिते ? सम्मदिट्टी, मिच्छादिट्टी? परित्तसंसारिते, अणंतसंसारिते ? सुलभबोहिए, दुल्लभबोहिए ? पाराहए, विराहए ? चरिमे, प्रचरिमे? ७०-तदनन्तर वह सूर्याभदेव श्रमण भगवान् महावीर प्रभु से धर्मश्रवण कर और हृदय में अवधारित कर हर्षित एवं संतुष्ट यावत् आह्लादितहृदय हुआ। अपने आसन से खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर को बंदन-नमस्कार किया और इस प्रकार प्रश्न किया ___'भगवन् ! मैं सर्याभदेव क्या भवसिद्धिक-भव्य हैं अथवा अभवसिद्धिक-अभव्य हूँ ? सम्यगदृष्टि हूँ या मिथ्यादृष्टि हूँ ? परित्त संसारी-परमित काल तक संसार में भ्रमण करने वाला हूँ अथवा अनन्त संसारी-अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करने वाला हूँ ? सुलभबोधि-सरलता से सम्यगज्ञानदर्शन की प्राप्ति करने वाला हूँ अथवा दुर्लभबोधि हूँ ? आराधक-बोधि की आराधना करने वाला हूँ अथवा विराधक हूँ ? चरम शरीरी हूँ अथवा अचरम शरीरी हूँ ? विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में संसारी जीवों की चरम लक्ष्य प्राप्त करने की भावना का दिग्दर्शन कराया है। यद्यपि संसारी जीव अनादि काल से इस जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण करते आ रहे हैं, परन्तु चाहते यही हैं कि उस आत्मरमणता स्थिति को प्राप्त कर लू कि जिसके पश्चात् न पुनर्जन्म है और न पुनःमरण है तथा न बार-बार के जन्म-मरण के कारण सांसारिक आधि-व्याधियाँ कांक्षा तभी सफल हो पाती है जब उस जीव में मक्त होने की योग्यता पाई जाती है। ऐसी योग्यता उसी में पाई जाती है जो भव्य हो अर्थात् अभी न सही किन्तु कालान्तर में कभी-नकभी जिसे मुक्ति अवश्य प्राप्त होगी। इसीलिये सूर्याभदेव ने सर्वप्रथम भगवान् के समक्ष यही जिज्ञासा व्यक्त की कि-हे भगवन् ! मैं मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता वाला-भव्य हूँ अथवा नहीं हूँ ? ___ योग्यता होने पर मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब सम्यक् श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति, दृष्टि हो। सम्यक् श्रद्धा के न होने पर जीव चाहे भव्य (मुक्ति योग्य) हो किन्तु वह प्राप्त नहीं की जा सकती। इस तथ्य को समझने के लिए सूर्याभदेव ने दूसरा प्रश्न पूछा- मैं सम्यग्दृष्टि हूँ अथवा नहीं हूँ? सम्यगदृष्टि हो जाने पर भी यह निश्चित नहीं है कि सभी जीव शीघ्र मुक्ति प्राप्त करें। ऐसे जीव भी अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करने वाले हो सकते हैं और यह भी संभव है कि सीमित समय में मुक्ति प्राप्त कर लें। इसी बात को जानने के लिए पूछा-~-भगवन् ! मैं परिमितकाल तक संसारभ्रमण करने वाला हूँ अथवा अनन्त काल तक मुझे संसार में भ्रमण करना पड़ेगा ? है। यह Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याम देव द्वारा मनोभावना का निवेदन] [45 संसारभ्रमण का परिमित काल होने पर भी जीव तभी मुक्त हो सकता है जब तदनुकूल और तदनुरूप सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र का सुयोग-संयोग मिले। इसीलिये सूर्याभदेव ने भ से यह जानना चाहा कि मैं सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्र की साधना करने में तत्पर हो सकगा? उनकी साधना करने का अवसर सुलभता से प्राप्त होगा अथवा नहीं ? सुलभबोधि होने पर भी सभी जीव सम्यग्ज्ञान आदि की यथाविधि आराधना करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। लोकषणाओं, परीषह, उपसर्गों आदि के कारण आराधना से विचलित होकर लक्ष्य के निकट पहुँचने पर भी संसार में भटक जाते हैं / इसी स्थिति को समझने के लिए सूर्याभ देव ने भगवान से पूछा-मैं आराधक ही रहूँगा अथवा भटक जाऊँगा? और सबसे अन्त में अपनी समस्त जिज्ञासाओं का निष्कर्ष जानने के लिये उत्सुकता से पूछा कि भव्य सूलभबोधि, अाराधक आदि होने पर भी मुझे क्या मुक्ति प्राप्ति की काल-लब्धि प्राप्त हो चुकी है ? संसार में रहने का मेरा इसके बाद का भव अंतिम है अथवा और दूसरे भी भवान्तर शेष हैं ? उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि योग्यता, निमित्त और उन निमित्तों का सदुपयोग करने के लिये तदनुकूल प्रवृत्ति करने पर ही जीव मुक्ति प्राप्त करता है / अत एव सर्वदा पुरुषार्थ के प्रति समर्पित होकर जीव को प्रयत्नशील रहना चाहिए। ७१–'सरियामा' इ समण भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वदासी—सूरियामा ! तुमं गं भवसिद्धिए नो प्रभवसिद्धिते जाव' चरिमे णो अचरिमे / 71- 'सूर्याभ !' इस प्रकार से सूर्याभदेव को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने सूर्याभदेव को उत्तर दिया हे सूर्याभ ! तुम भवसिद्धिक-भव्य हो, अभवसिद्धिक-अभव्य नहीं हो, यावत् चरम शरीरी हो अर्थात् इस भव के पश्चात् का तुम्हारा मनुष्यभव अन्तिम होगा, अचरम शरीरी नहीं हो अर्थात् हे सूर्याभ ! तुम भव्य हो, सम्यग् दृष्टि हो, परमित संसार वाले हो, तुम्हें बोधि की प्राप्ति सुलभ है, तुम आराधक हो और चरम शरीरी हो। सूर्याभदेव द्वारा मनोभावना का निवेदन ७२-तए णं से सरिग्राभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ट चित्तमाणंदिए परमसोमणस्सिए समणं भगवंतं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी तुम्भे णं भंते ! सव्वं जाणह, सव्यं पासह, सव्वं कालं जाणह सव्वं कालं पासह, सव्वे भावे जाणह सव्वे भावे पासह / जाणंति णं देवाणुप्पिया! मम पुट्विं वा पच्छा वा मम एयारूवं दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं लद्ध पत्तं अभिसमण्णागयं ति / तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वगं गोयमाइयाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं विड्ढि दिव्वं देवजुई दिन्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसतिबद्ध नट्टविहं उवदंसित्तए। 1. देखें सूत्र संख्या 70 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [राजप्रश्नीयसूत्र ७२-तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर उस सूर्याभदेव ने हर्षित सन्तुष्ट चित्त से आनन्दित और परम प्रसन्न होते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया हे भदन्त ! आप सब जानते हैं और सब देखते हैं, सर्वत्र दिशा-विदिशा, लोक-अलोक में विद्यमान समस्त पदार्थों को जानते हैं और देखते हैं। सर्व काल-प्रतीत-अनागत-वर्तमान काल को आप जानते और देखते हैं; सर्व भावों को आप जानते और देखते हैं। अतएव हे देवानुप्रिय ! पहले अथवा पश्चात् लब्ध, प्राप्त एवं अधिगत इस प्रकार की मेरी दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवधुति तथा दिव्य देवप्रभाव को भी जानते और देखते हैं। इसलिये आप देवानुप्रिय की भक्तिवश होकर में चाहता हूँ कि गौतम आदि निर्ग्रन्थों के समक्ष इस दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवद्युति-कांति, दिव्य देवानुभाव-प्रभाव तथा बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि-नाट्यकला को प्रदर्शित करूं। ७३–तए णं समणे भगवं महावीरे सुरियाभेणं देवेणं एवं वृत्ते समाणे सूरियाभस्स देवस्स एयमट्ठ णो प्राढाति, णो पारियाणति, तुसिणीए संचिट्ठति / ७३-तब सूर्याभदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर श्रमण भगवान् महावीर ने सूर्याभदेव के इस कथन का आदर नहीं किया, उसकी अनुमोदना नहीं की, किन्तु वे मौन रहे / विवेचन–अात्मविज्ञानी भगवान् की स्थितप्रज्ञ दशा को देखते हुए यह स्वाभाविक है कि . वे सूर्याभदेव के निवेदन को आदर न दें, उदासीन-मौन रहें, परन्तु सूर्याभदेव की मनोभूमिका को देखते हए वह उनके सामने नाटक दिखाने के सिवाय और कर भी क्या सकता था ? भक्तों की दो कोटियाँ हैं-पहली मन, वचन, काय से अपने भजनीय का अनुसरण करने वालों अथवा अनुसरण करने के लिये प्रयत्नशील रहने वालों की ये बाह्म प्रदर्शनों के बजाय भजनीय के शुद्ध अनुसरण को ही भक्ति समझते हैं। दूसरी कोटि है प्रशंसकों की, जो भजनीय का अनुसरण करने योग्य पुरुषार्थशाली नहीं होने से उनके प्रशंसक होकर संतोष मानते हैं / ऐसे प्रशंसक बाह्य-प्रदर्शन के सिवाय आंतरिक भक्ति तक पहुँच नहीं सकते हैं / ये प्रशंसक बाह्य-प्रदर्शन के प्रति भजनीय की उदासीनता को समझते हुए भी अपनी प्रसन्नता के लिये बाह्य-प्रदर्शन के अतिरिक्त और कुछ कर सकें, वैसे नहीं होते हैं / यही औपचारिक भक्ति के आविर्भाव होने का कारण प्रतीत होता है जो सूर्याभदेव के निवेदन से स्पष्ट है / इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि भगवान् के मौन रहने में 'यद् यदाचरति शिष्ट: तत् तदेवेतरो जनः' इस उक्ति का तत्त्व भी गर्भित है। टीकाकार ने सूर्याभदेव की इस नाटकविधि को स्वाध्याय आदि कर्त्तव्य का विघातक बताया है-'गौतमादीनां च नाट्यविधेः स्वाध्यायादिविघातकारित्वात् / ' ७४–तए णं से सरियाभे देवे समणं भगवन्तं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं क्यासीतुम्भे गं भंते ! सव्वं जाणह जाव उवदंसित्तए त्ति कट्ट समणं भगवन्तं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमति, प्रवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणति, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई दण्डं निस्सिरति, अहाबायरे० Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभ देव द्वारा मनोभावना का निवेदन प्रहासुहुमे० / दोच्चं पि विउव्वियसमुग्घाएणं जाव बहुसमरमणिज्जं भूमिभाग विउव्वति / से जहानामए प्रालिंगपुषखरे इ वा जाव मणोणं फासो / ' तस्स णं बहुसमरमणिग्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे पिच्छाघरमण्डवं विउध्वति अणेगखंभसयसंनिविटुं वणो-अन्तो बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं उल्लोयं अक्खाडगं च मणिपेढियं च विउव्वति / तोसे णं मणिपेढियाए उवरि सोहासणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठन्ति / ७४-तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने दूसरी और तीसरी बार भी पुन: इसी प्रकार से श्रमण भगवान् महावीर से निवेदन किया हे भगवन् ! आप सब जानते हैं आदि, यावत् नाटयविधि प्रदर्शित करना चाहता हूँ / इस प्रकार कहकर उसने दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके उत्तर पूर्व दिशा में गया। वहाँ जाकर वैक्रियसमुद्घात करके संख्यात योजन लम्बा दण्ड निकाला / यथाबादर (असार) पुद्गलों को दूर करके यथासूक्ष्म (सारभूत) पुद्गलों का संचय किया। इसके बाद पुन: दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके यावत् बहुसमरमणीय भूमि भाग की रचना की / जो पूर्ववणित आलिंग पुष्कर आदि के समान सर्वप्रकार से समतल यावत् रूप, रस गंध और स्पर्श वाले मणियों से सुशोभित था। उस अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग के मध्यातिमध्य भाग में एक प्रेक्षागृहमंडपनाटकशाला की रचना की / वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट था इत्यादि वर्णन पूर्व के समान यहाँ कर लेना चाहिए। उस प्रेक्षागृह मंडप के अन्दर अतीव समतल, रमणीय भूमिभाग, चन्देवा, रंगमंच और मणिपीठिका की विकुर्वणा की और उस मणिपीठिका के ऊपर फिर उसने पादपीठ, छत्र आदि से युक्त सिंहासन की रचना यावत् उसका ऊपरी भाग मुक्तादामों से शोभित हो रहा था। ७५---तए णं से सरिया देवे समणस्स भगवतो महावीरस्स पालोए पणामं करेति, करिता 'अणुजाणउ में भगवं, ति कट्ट, सीहासणवरगए तित्थयराभिमुहे संणिसण्णे। तए णं से सूरिया देवे तप्पढमयाए नानामणिकणगरयविमलमहरिहनिउणओवियमिसिमिसितविरइयमहाभरणकडग-तुडियवरभूसणुज्जलं पीवरं पलम्बं दाहिणं भुयं पसारेति / तमो णं सरिसयाणं सरित्तयाणं सरिव्वयाण सरिसलावण्ण-रूवजोवणगुणोवधेयाणं एगाभरण-वसणगहिअणिज्जोयाणं दुहतो संवेल्लियग्गणियत्थाणं उप्पीलियचित्तपट्टपरियरसफेणकावत्तर इयसंगयपलंबवत्थंतचित्तचिल्ललगनियंसणाणं एगावलिकण्ठरइयसोभंतवच्छपरिहत्थभूसणाणं प्रसयं णट्टसज्जाणं देवकुमाराणं णिग्गच्छति। ७५–तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने श्रमण भगवान महावीर की ओर देखकर प्रणाम किया और प्रणाम करके 'हे भगवन् ! मुझे आज्ञा दीजिये' कहकर तीर्थंकर की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन--पर सुखपूर्वक बैठ गया। 1. देखें सूत्र संख्या 13 / 2. देखें सूत्र संख्या 30.44 / 3. देखे सूत्र संख्या 45-51 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {राजप्रश्नीयसूत्र / इसके पश्चात् नाट्यविधि प्रारम्भ करने के लिये सबसे पहले उस सूर्याभदेव ने निपुण शिल्पियों द्वारा बनाये गये अनेक प्रकार की विमल मणियों, स्वर्ण और रत्नों से निर्मित भाग्यशालियों के योग्य, देदीप्यमान, कटक त्रुटित आदि श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित उज्ज्वल पुष्ट दीर्घ दाहिनी भुजा को फैलाया-लम्बा किया। उस दाहिनी भुजा से एक सौ आठ देवकुमार निकले / वे समान शरीर-ग्राकार, समान रंग-रूप, समान वय, समान लावण्य, युवोचित गुणों वाले, एक जैसे प्राभरणों, वस्त्रों और नाट्योपकरणों से सुसज्जित, कन्धों के दोनों ओर लटकते पल्लों वाले उत्तरीय वस्त्र (दुपट्ट) धारण किये हुए, शरीर पर रंग-विरंगे कंचुक वस्त्रों को पहने हुए, हवा का झोंका लगने पर विनिर्गत फेन जैसी प्रतीत होने वाली झालर युक्त चित्र-विचित्र देदीप्यमान, लटकते अधोवस्त्रों (चोगा) को धारण किये हुए, एकावली अदि आभूषणों से शोभायमान कण्ठ एवं वक्षस्थल वाले और नृत्य करने के लिए तत्पर थे। ७६--तयणंतरं च ण नानामणि जाव' पीवरं पलंबं वाम भुयं पसारेति, तमो गं सरिसयाणं, सरित्तयाणं, सरिव्वयाणं, सरिसलावण्ण-रूव-जोवणगुणोववेयाणं, एगाभरण-वसणगहिअणिज्जोप्राणं दहतो संवेल्लियग्गणियत्थाणं प्राविद्धतिलयामेलाणं पिणद्धगेवेज्जकंचईणं नानामणि-रयणभसण विराइयंगमंगाणं चंदाणणाणं चंदद्धसमनिलाडाणं चंदाहियसोमदंसगाणं उक्का इव उज्जोवेमाणीणं सिंगारागारचारवेसाणं संगयगय-हसियभणिय-चिट्टिय विलास-ललिय-संलावनिउणजुत्तोवयारकुसलाणं, सुंदर-थण-जधण-वयण-कर-चरण-नयण-लायण्णविलासकलियाणं गहियाउज्जाणं अट्ठसयं नट्टसज्जाणं देवकुमारियाणं णिग्गच्छइ। ७६-तदनन्तर सूर्याभदेव ने अनेक प्रकार की मणियों आदि से निर्मित आभूषणों से विभूषित यावत् पीवर-पुष्ट एवं लम्बी बांयीं भुजा को फैलाया। उस भुजा से समान शरीराकृति, समान रंग, समान वय, समान लावण्य-रूप-यौवन गुणोंवाली, एक जैसे आभूषणों, दोनों ओर लटकते पल्ले वाले उत्तरीय वस्त्रों और नाट्योपकरणों से सुसज्जित, ललाट पर तिलक, मस्तक पर आमेल (फूलों से बने मुकुट जैसे शिरोभूषण) गले में वेयक और कंचुकी धारण किये हुए अनेक प्रकार के मणि-रत्नों के आभूषणों से विराजित अंग-प्रत्यंगों-वाली चन्द्रमुखी, चन्द्रार्ध समान ललाट वाली चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य दिखाई देने वाली, उल्का के समान चमकती, शृगार गृह के तुल्य चारु-सुन्दर वेष से शोभित, हंसने-बोलने, आदि में पटु, नृत्य करने के लिए तत्पर एक सौ आठ देवकुमारियाँ निकलीं। वाद्यों और वाद्यवादकों की रचना ७७-तए णं से सूरियाभे देवे अनुसयं संखाणं विउवति, अनुसयं संखवायाणं विउव्यइ अ०२ सिंगाणं वि० अ० सिंगवायाणं वि०, प्र० संखियाणं वि०, प्र० सखियवायाणं वि०, प्र० खरमुहोणं वि०, प्र० खरमुहिवायाणं वि०, अ०, पेयाणं वि०, अ० पेयावायगाणं वि०, अ० पोरिपीरियाणं वि० म. पीरिपोरियावायगाणं विउच्वति, एवमाइयाइं एगूणपण्णं प्राउज्जविहाणाई विउन्वइ / 1. सूत्र संख्या 75 2. अ. पद से 'अट्ठसयं शब्द का संकेत किया है। 3. वि० पद 'विउन्वति' शब्द का बोधक है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव द्वारा नत्य-गान-वादन का आदेश] [49 ७७–तत्पश्चात् अर्थात् एक सौ आठ देव कुमारों और देवकुमारियों की विकुर्वणा करने के पश्चात् उस सूर्याभदेव ने एक सौ आठ शंखों की और एक सौ पाठ शंखवादकों को विकुर्वणा की / इसी प्रकार से एक सौ पाठ-एक सौ पाठ शृगों-रणसिंगों और उनके वादकों-बजाने वालों की, शंखिकाओं (छोटे शंखों) और उनके वादकों की, खरमुखियों और उनके वादकों की, पेयों और उनके वादकों की पिरिपिरिकाओं और उनके वादकों की विकुर्वणा की। इस तरह कुल मिलाकर उनपचास प्रकार के वाद्यों और उनके बजाने वालों की विकुर्वणा की। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में पिरिपिरिका पर्यन्त वाद्यों के नामों का उल्लेख है। शेष के नाम यथास्थान आगे के सूत्र में आये हैं वे इस प्रकार हैं 1. शंख 2. शृंग (रणसिंगा) 3. शंखिका (छोटे शंख), 4. खरमुखी 5. पेया 6. पिरिपिरिका 7. पणव-ढोल, 8 पटह-नगाड़ा, 9. भंभा, 10. होरम्भ, 11. भेरी, 12. झालर, 13. दुन्दुभि, 14. मुरज, 15. मृदंग, 16. नन्दीमृदंग, 17, प्रालिंग, 18 कुस्तुबा, 16. गोमुखी, 20. मादला 21. वीणा, 22. विपंची, 23. वल्लकी, 24. षड्भ्रामरी वीणा, 25. भ्रामरी वीणा, 26. बध्वीसा, 27. परिवादिनी वीणा, 28. सुघोषाघंटा, 26. नन्दीघोष घंटा, 30. सौतार की वीणा, 31 काछवी वीणा, 32, चित्र वीणा, 33. आमोट, 34. झंझा, 35. नकुल 36. तूण, 37. तुबवीणा-तम्बूरा, 38. मुकुन्द-मुरज सरीखा एक वाद्य विशेष, 36 हडक्क 40 विचिक्की 41. करटी 42. डिडिम, 43. किणिक, 44. कडंब, 45 दर्दर, 46. दर्दरिका, 47. कलशिका 48. मडक्क, 49 तल, 50. ताल 51. कांस्य ताल, 52. रिंगरिसिका 53. लत्तिका, 54. मकरिका 55. शिशुमारिका, 56. वाली, 57. वेणु, 58. परिली 59. बद्धक / यद्यपि मूल सूत्रपाठ में वाद्यों की संख्या उनपचास बताई है, परन्तु गणना करने पर उनकी या उनसठ होती है। टीकाकार ने इसका समाधान इस प्रकार किया है-मुलभेदापेक्षया प्रातोद्यभेदा एकोनपञ्चाशत्, शेषास्तु एतेषु एव अन्तर्भवन्ति यथा वंशातोद्यविधाने वाली-वेणु-परिली-बद्धगा इति-अर्थात् वाद्यों के मूल भेद तो उनपचास ही हैं। शेष उनके अवान्तरभेद हैं, जैसे कि वंशवाद्यों में वाली, वेणु, परिली, बद्धग आदि का अन्तर्भाव हो जाता है। ___ ऊपर दिये गये वाद्य नामों में से कुछ एक के नाम स्पष्ट ज्ञात नहीं होते हैं कि वर्तमान में उनकी क्या संज्ञा है? टीकाकार प्राचार्य ने भी लोकगम्य कहकर इनकी व्याख्या नहीं की है'अव्याख्यातास्तु भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः।' सूर्याभदेव द्वारा नृत्य-गान-वादन का आदेश: ७८-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य सद्दावेति / तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयो य सरियाभेणं देवेणं सदाविया सवाणा हट्ट जाव (तुद चित्तमाणंदिया) जेणेव सूरियामे देवे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सरियाभ देवं करयलपरिगहियं जाव (सिरसावत्तं मत्थए अलि कट्ट, जएणं विजएणं बद्धाति) वद्धावित्ता एवं वयासी-'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेंहि कायव्वं / ' ७८-तत्पश्चात् सूर्याभ देव ने उन देवकुमारों तथा देवकुमारियों को बुलाया / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [राजप्रश्नीयसूत्र सूर्याभदेव द्वारा बुलाये जाने पर वे देवकुमार और देवकुमारियाँ हर्षित होकर यावत् (संतुष्ट और चित्त में आनंदित होकर) सूर्याभदेव के पास आये और दोनों हाथ जोड़कर यावत् (आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से बधाया और) अभिनन्दन कर सूर्याभदेव से विनयपूर्वक बोले हे देवानुप्रिय ! हमें जो करना है, उसकी प्राज्ञा दीजिये। ७६-तए णं से सूरियाभे देवे ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयो य एवं बयासी गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! समणं भगवंत महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह, करित्ता वंदह नमसह, वंदित्ता नमंसित्ता गोयमाइयाणं समणाण निग्गंथाणं तं दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुक्ति दिव्वं देवाणुभावं, दिव्वं बत्तीसइबद्ध णट्टविहि उवदंसेह, उवदंसित्ता खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ७६-तब सूर्याभदेव ने उन देवकुमारों और देवकुमारियों से कहा हे देवानुप्रियो ! तुम सभी श्रमण भगवान महावीर के पास जाओ और दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके तीन बार श्रमण भगवान् महावीर की प्रदक्षिणा करो / प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार करो / वन्दन-नमस्कार करके गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव वाली बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि करके दिखलायो। दिखलाकर शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा को वापस मुझे लौटाओ / ८०-तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारीयो य सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव करयल जाव पडिसुगंति, पडिसुणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवंतं महावीरं जाव नर्मसित्ता जेणेव गोयमादिया समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छति। ८०-तदनन्तर वे सभी देवकुमार और देवकुमारियां सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित हुए यावत् दोनों हाथ जोड़कर यावत् प्राज्ञा को स्वीकार किया। स्वीकार करके श्रमण भगवान् के पास पाये / पाकर श्रमण भगवान महावीर को यावत् नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ विराजमान थे, वहाँ आये। ___८१--तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति, करित्ता' समामेव अवणमंति अवणमित्ता समामेव उन्नमंति, एवं सहितामेव प्रोनमंति एवं सहितामेव उनमंति सहियामेव उण्णमित्ता संगयामेव प्रोनमंति संगयामेव उन्नमंति उन्नमित्ता थिमियामेव श्रोणमंति थिमियामेव उन्नमंति, समामेव पसरंति पसरित्ता, समामेव प्राउज्जविहाणाइं गेण्हति समामेव पवाएंसु पगाइंसु पच्चिसु। ------- 1. 'समामेव पंतिग्रो बंधति बंधित्ता समामेव पंतिम्रो नमसति नमंसित्ता" यह पाठ किन्ही-किन्ही प्रतियों में विशेष मिलता है कि एक साथ पंक्ति बनाई, पंक्तिबद्ध होकर एक साथ नमस्कार किया और नमस्कार करके"............" | Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्य-गान आदि का रूपक ] [ 51 ८१-इसके बाद वे सभी देवकुमार और देवकुमारियाँ पंक्तिबद्ध होकर एक साथ मिले। मिलकर सब एक साथ नीचे नमे और एक साथ ही अपना मस्तक ऊपर कर सीधे खड़े हुए / इसी क्रम से पुनः सभी एक साथ मिलकर नीचे नमे और फिर मस्तक ऊँचा कर सीधे खड़े हुए। इसी प्रकार सीधे खड़े होकर नीचे नमे और फिर सीधे खड़े हुए / खड़े होकर धीमे से कुछ नमे और फिर सीधे खडे हुए / खड़े होकर एक साथ अलग-अलग फैल गये और फिर यथायोग्य नृत्य-गान आदि के उपकरणोंवाद्यों को लेकर एक साथ ही बजाने लगे, एक साथ ही गाने लगे और एक साथ नृत्य करने लगे। विवेचन-मूल पाठ में 'समामेव, सहितामेव तथा संगयामेव' ये तीन शब्द प्रयुक्त किए गए हैं / इनका संस्कृतरूप 'समकमेव, सहितमेव और संगतमेव' होता है। सामान्यतया तीनों शब्द समानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु इनके अर्थ में भिन्नता है। टीकाकार ने किसी नाट्यकुशल उपाध्याय से इनका अर्थभेद समझ लेने की सूचना की है। नृत्य गान आदि का रूपक ८२-कि ते ? उरेणं मंदं सिरेण तारं कंठेण वितारं तिविहं तिसमयरेयगर इयं गुजाऽवंककुहरोवगूढं रत्तं तिठाणकरणसुद्ध सकुहरगुजंतवंस-तंती-तल-ताल-लय-गहसुसंपउत्तं महुरं समं सललियं मणोहरं मिउरिभियपयसंचारं सुरइ सुणइ वरचाररूवं दिवं पट्टसज्जं गेयं पगीया वि होत्था। ८२-उनका संगीत इस प्रकार का था कि उर-हृदयस्थल से उद्गत होने पर आदि में मन्द मन्द-धीमा, मर्छा में आने पर तार-उच्च स्वर वाला और कंठ स्थान में विशेष तार स्वर (उच्चतर ध्वनि) वाला था। इस तरह त्रिस्थान-समुद्गत वह संगीत त्रिसमय रेचक से रचित होने पर विविध रूप था। संगीत की मधुर प्रतिध्वनि-गुजारव से समस्त प्रेक्षागृह मण्डप गूजने लगता था / गेय रागरागनी के अनुरूप था। त्रिस्थान त्रिकरण से शुद्ध था, अर्थात् उर, शिर एवं कण्ठ में स्वर संचार रूप क्रिया से शुद्ध था। गूंजती हुई बांसुरी और वीणा के स्वरों से एक रूप मिला हुआ था / एक-दूसरे की बजती हथेली के स्वर का अनुसरण करता था / मुरज और कंशिका आदि वाद्यों की झंकारों तथा नर्तकों के पादक्षेप-ठुमक से बराबर मेल खाता था। वीणा के लय के अनुरूप था / वीणा आदि वाद्य धुनों का अनुकरण करने वाला था। कोयल की कुहू-कुहू जैसा मधुर तथा सर्व प्रकार से सम, सललित, मनोहर, मृदु, रिभित पदसंचार युक्त, श्रोताओं को रतिकर, सुखान्त ऐसा उन नर्तकों का नृत्यसज्ज विशिष्ट प्रकार का उत्तमोत्तम संगीत था। ८३-कि ते ? उद्ध मताणं संखाणं सिंगाणं संखियाणं खरमुहीणं पेयाणं पिरिपिरियाणं, प्राहम्मंताणं पणवाणं पडहाणं, अप्फालिज्जमाणाणं भंभाणं होरंभाणं, तालिज्जताणं भेरीणं झल्लरीणं दुदुहीणं, पालवंताणं मुरयाणं मुइगाणं नंदीमुइंगाणं, उत्तालिज्जताणं आलिंगाणं कुतुबाणं गोमहीणं महलाणं, मुच्छिज्जताणं वीणाणं विपंचोणं वल्लकीणं, कुट्टिज्जताणं महतोणं कच्छमीणं चित्तवीणाणं, सारिज्जंताणं बद्धीसाणं सुघोसाणं नंदिघोसाणं, फुटिज्जंतीणं भामरीणं छ भामरीणं परिवायणीणं, छिप्पतीणं तूणाणं तुंबवीणाणं, पामोडिज्जंताणं प्रामोताणं झंझाणं नउलाणं, अच्छिज्जंतीणं मगुदाणं हडक्कीणं विचिक्कीणं, वाइज्जंताणं करडाणं डिडिमाणं किणियाणं कडम्बाणं, ताडिज्जताणं दहरिगाणं ददरगाणं कुतुबाणं कलसियाणं मड्डयाणं, प्राताडिताणं तलाणं तालाणं कसतालाणं, घट्टिज्जंताणं रिगिरिसियाणं लत्तियाणं मगरियाणं सुसुमारियाणं, फूमिज्जंताणं वंसाणं वेलूणं वालीणं परिल्लीणं बद्धगाणं / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [ राजप्रश्नीयसूत्र ८३--मधुर संगीत-गान के साथ-साथ नृत्य करने वाले देवकुमार और कुमारिकाओं में से शंख, शृग, शंखिका, खरमुखी, पेया पिरिपिरका के वादक उन्हें उद्धमानित करते-फूकते, पणव और पटह पर आघात करते, भंभा और होरंभ पर टंकार मारते, भेरी झल्लरी और दुन्दुभि को ताड़ित करते, मुरज, मृदंग और नन्दीमृदंग का पालाप लेते, प्रालिंग कुस्तुम्ब, गोमुखी और मादल पर उत्ताडन करते, वीणा विपंची और वल्लकी को मूच्छित करते, महती वीणा (सौ तार की वीणा), कच्छपीवीणा और चित्रवीणा को कटते, बद्धीस, सुघोषा, नन्दीघोष का सारण करते, भ्रामरी-षड् भ्रामरी और परिवादनी वीणा का स्फोटन करते, तूण, तुम्बवीणा का स्पर्श करते, आमोट झांझ कुम्भ और नकुल को आमोटते-परस्पर टकराते-खनखनाते, मृदंग-हुडुक्क-विचिक्की को धीमे से छूते, करड़ डिडिम किणित और कडम्ब को बजाते, दर्दरक, दर्दरिका कुस्तुबुरु, कलशिका मड्ड को जोरजोर से ताडित करते, तल, ताल कांस्यताल को धीरे से ताडित करते, रिंगिरिसिका लत्तिका, मकरिका और शिशुमारिका का घट्टन करते तथा वंशी, वेणु, वाली परिल्ली तथा बद्धकों को फूकते थे। इस प्रकार वे सभी अपने-अपने वाद्यों को बजा रहे थे। ८४-तए णं से दिम्बे गीए, दिव्वे बाइए, दिब्वे नट्ट एवं अन्भुए सिंगारे उराले मणुन्ने मणहरे गीते मणहरे न? मणहरे वातिए उप्पिजलभूते कहकहभूते दिवे देवरमणे पवत्ते या वि होत्था / ८४-इस प्रकार का वह वाद्य सहचरित दिव्य संगीत दिव्य वादन और दिव्य नृत्य प्राश्चर्यकारी होने से अद्भुत, शृंगाररसोपेत होने से शृंगाररूप, परिपूर्ण गुण-युक्त होने से उदार, दर्शकों के मनोनुकूल होने से मनोज्ञ था कि जिससे वह मनमोहक गीत, मनोहर नृत्य और मनोहर वाद्यवादन सभी के चित का आक्षेपक (ईर्ष्या-स्पर्धा जनक) था। दर्शकों के कहकहीं-वाह-वाह के कोलाहल से नाट्यशाला को गूजा रहा था। इस प्रकार से वे देवकुमार और कुमारिकायें दिव्य देवक्रीड़ा में प्रवृत्त हो रहे थे। नाट्याभिनयों का प्रदर्शन ८५---तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयो य समणस्स भगवो महावीरस्स सोस्थियसिरिवच्छ-नंदियावत्त-वद्धमाणग-भद्दासण-कलस-मच्छ दप्पणमंगल्लभत्तिचित्तं णामं दिव्वं नट्टविधि उवदंसेंति। ८५-तत्पश्चात् उस दिव्य नृत्य क्रीड़ा में प्रवृत्त उन देवकुमारों और कुमारिकारों ने श्रमण भगवान् महावीर एवं गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष 1. स्वस्तिक 2. श्रीवत्स 3. नन्दावर्त 4. वर्धमानक 5. भद्रासन 6. कलश 7. मत्स्य और 8. दर्पण, इन आठ मंगल द्रव्यों का आकार रूप दिव्य नाट्य-अभिनय करके दिखलाया। ८६-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारोओ य सममेव समोसरणं करेंति करित्ता तं चेव भाणियन्वं जाव दिब्वे देवरमणे पवत्ते या वि होत्था / 86-- तत्पश्चात् अर्थात् मंगलद्रव्याकार नाट्य-अभिनय सम्पन्न करने के पश्चात् दूसरी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाट्याभिनयों का प्रदर्शन ] [13 नाट्यविधि दिखाने के लिये वे देवकुमार और देवकुमारियां एकत्रित हुई और एकत्रित होने से लेकर दिव्य देवरमण में प्रवृत्त होने पर्यन्त की पूर्वोक्त समस्त वक्तव्यता का यहाँ वर्णन करना चाहिये / विवेचन–'तं चेव भाणियन्वं' पद से यहाँ पूर्व में किये गये वर्णन की पुनरावृत्ति करने का संकेत किया है / उस वर्णन का सारांश इस प्रकार है सूर्याभदेव द्वारा आज्ञापित वे देवकुमार और कुमारियाँ श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करके गौतम आदि श्रमण निर्गन्थों के समक्ष आये, उनके सामने एक साथ नीचे नमे फिर मस्तक ऊँचा कर सीधे खड़े हुए। इसी प्रकार सामूहिक रूप में नमन आदि किया। तत्पश्चात् अपने अपने नृत्य गान के उपकरण और वाद्यों को लेकर वे सभी गाने, नाच एवं नाट्य-अभिनय करने में प्रवृत्त हो गये। ८७-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयो य समणस्स भगवश्री महावीरस्स आवडपच्चावड-से ढिपसेढि-सोत्थिय-पूसमाणव-वद्धमाणग-मच्छण्डमगरंड-जार-मार-फुल्लावलि-पउमपत्त-सागरतरंग वसंतलता-पउमलयभत्तिचित्तं णाम दिन्वं णट्टविहिं उवदंसेंति। ८७-तदनन्तर उन देवकुमारों और देवकुमारियों ने श्रमण भगवान् महावीर एवं गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों के सामने प्रावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रॲणि, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्य, माणवक, वर्धमानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार, पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता और पद्मलता के आकार की रचनारूप दिव्य नाट्यविधि का अभिनय करके बतलाया। ८८–एवं च एक्किक्कियाए पट्टविहीए समोसरणादिया एसा वत्तव्यया जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते या वि होत्था। ८८-इसी प्रकार से प्रत्येक नाट्यविधि को दिखलाने के पश्चात् दूसरी प्रारम्भ करने के अन्तराल में उन देवकुमारों और कुमारियों के एक साथ मिलने से लेकर दिव्य देवक्रीड़ा में प्रवृत्त होने तक की समस्त वक्तव्यता [कथन पूर्ववत् सर्वत्र कह लेना चाहिये। ८९-तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियायो य समणस्स भगवतो महावीरस्स ईहामिनउसभ-तुरग नर-मगर-विहग-बालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्तं णाम दिव्ध गट्टविहिं उवदर्सेति / ८९-तदनन्तर उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने श्रमण भगवान के समक्ष ईहामृग, वृषभ, तुरग-अश्व, नर-मानव, मगर, विहग-पक्षी, व्याल-सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चमर, कुजर, वनलता और पद्मलता की आकृति-रचना रूप दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। &.... 'एगतो वंक एगो चक्कवालं दुहओ चक्कवालं चक्कद्धचक्कवालं णामं दिव्वं णट्टविहि उवदंसंति। 1. किसी किसी प्रति के निम्नलिखित पाठ है-- एगतो वक्कं दुहनो वकं एगतो खहं दुहनोखहं एगो चक्कबालं दुहनो चक्कवालं चक्क द्धचक्कवालं णाम दिव्वं णाविहिं उवदंसंति / अर्थात् तत्पश्चात् एकतोवक्र, द्विधातोवक्र, एक अोर गगनमंडलाकृति, दोनों ओर गगनमंडलाकृति, एकतश्चक्रवाल द्विघातश्चक्रवाल ऐसी चक्रार्ध और चक्रवाल नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नोयसूत्र ९०--इसके बाद उन देवकुमारों और देवकुमारियों ने एकतोवक्र (जिस नाटक में एक ही दिशा में धनुषाकार श्रेणि बनाई जाती है), एकतश्चक्रवाल (एक ही दिशा में चक्राकार श्रेणि बने), द्विघातश्चक्रवाल (परस्पर सम्मुख दो दिशाओं में चक्र बने) ऐसी चक्रार्ध-चक्रवाल नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। ६१-चंदावलिपविभत्ति च सूरावलिपविति च वलयावलिपविभत्ति च हंसावलिप०' च एगावलिप० च तारावलिप० मुत्तालिप० च कणगावलिप० च रयणावलिप० च णाम दिव्वं गट्टविहिं उवदर्सेति / 91-- इसी प्रकार अनुक्रम से उन्होंने चन्द्रावलि, सूर्यावलि, वलयावलि, हंसावलि, एकावलि, तारावलि, मुक्तावलि, कनकावलि और रत्नावलि की प्रकृष्ट-विशिष्ट रचनाओं से युक्त दिव्य नाट्यविधि का अभिनय प्रदर्शित किया। ६२-चंदुग्गमणप. च सूरुग्गमणप० च उग्गमणुगमणप० च णामं दिव्वं गट्टविहिं उवदंसेंति / ६२–तत्पश्चात् उन देवकुमारों और कुमारियों ने उक्त क्रम से चन्द्रोद्गमप्रविभक्ति, सूर्योद्गम प्रविभक्ति युक्त अर्थात् चन्द्रमा और सूर्य के उदय होने की रचना वाले उद्गमनोद्गमन नामक दिव्य नाट्यविधि को दिखाया। ६३-चंदागमणप० च सूरागमणप० च भागमणागमणप० च णामं२..."उवदंसेति / ६३-इसके अनन्तर उन्होंने चन्द्रागमन, सूर्यागमन की रचना वाली चन्द्र सूर्य आगमन नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय किया। ९४—चंदावरणप० सूरावरणप० च प्रावरणावरणप० णाम उवदंसेंति / ९४-तत्पश्चात् चन्द्रावरण सूर्यावरण अर्थात् चन्द्रग्रहण और सूर्य ग्रहण होने पर जगत् और गगन मण्डल में होने वाले वातावरण की दर्शक आवरणावरण नामक दिव्य नाट्यविधि को प्रदर्शित किया। ६५-चंदत्थमणप० च सूरस्थमणप० अस्थमणऽत्थमणप० णामं उवदंसेंति / ६५-इसके बाद चन्द्र के अस्त होने, सूर्य के अस्त होने की रचना से युक्त अर्थात् चन्द्र और सूर्य के अस्त होने के समय के दृश्य से युक्त अस्तमयनप्रविभक्ति नामक नाट्यविधि का अभिनय किया। ___९६--चंदमंडलप० च सूरमंडलप० च नागमंडलप० च जक्खमंडलप० च भूतमंडलप० च रक्खस-महोरग-गन्धव्वमंडलप० च मंडलमंडलप० नाम उवदंसेंति / 1. 'प०' अक्षर सर्वत्र 'पवित्ति ' शब्द का सूचक है। 2. 'णाम' शब्द से सर्वत्र ‘णामं दिव्वं णदृविहं' यह पद ग्रहण करना चाहिये / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाटयाभिनयों का प्रदर्शन ] ६६-तदनन्तर चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नागमण्डल, यक्षमण्डल, भूतमण्डल, राक्षसमण्डल, महोरगमण्डल और गन्धर्वमण्डल की रचना से युक्त अर्थात् इन इनके मण्डलों के भावों का दर्शक मण्डलप्रविभक्ति नामक नाट्य अभिनय प्रदर्शित किया / ६७-'उसभमंडलप० च सीहमंडलप० च हयविलंबियं गयवि० हयविलसियं गयविलसियं मत्तहयविलसियं मत्तगजविलसियं मत्सहयविलंबियं मत्तगयविलंबियं दुतविलम्बियं णामं पट्टविहं जवदंसेंति / ९७-तत्पश्चात् वृषभमण्डल, सिंहमण्डल की ललित गति अश्व गति, और गज की विलम्बित गति, अश्व और हस्ती की विलसित गति. मत्त अश्व और मत्त गज की विलसित गति, मत्त अश्व की विलम्बित गति, मत्त हस्ती की विलम्बित गति की दर्शक रचना से युक्त द्रुतविलम्बित प्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। १८-सागरपविभत्ति च नागरप० च सागर-नागर प० च णामं उवदंसेंति / ६८-इसके बाद सागर प्रविभक्ति, नगर प्रविभक्ति अर्थात् समुद्र और नगर सम्बन्धी रचना से युक्त सागर-नागर-प्रविभक्ति नामक अपूर्व नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। 88-गंदाप० च चंपाप० च नन्दा-चंपाप० च णामं उवदंसेति / ९९–तत्पश्चात् नन्दाप्रविभक्ति–नन्दा पुष्करिणी को सुरचना से युक्त, चम्पा प्रविभक्ति --- चम्पक वृक्ष की रचना से युक्त नन्दा-चम्पाप्रविभक्ति नामक दिव्यनाट्य का अभिनय दिखाया। १००-मच्छंडाप० च मयरंडाप० च जारप० च मारप० च मच्छडा-मयरंडा-जारा-माराप० च णाम उवदंसेति / १००-तत्पश्चात् मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार की आकृतियों की सुरचना से युक्त मत्स्याण्ड-मकराण्ड-जार-मार प्रविभक्ति नामक दिव्यनाट्यविधि दिखलाई / १०१--'क' त्ति ककारप० च, 'ख' ति खकारप० च, 'ग' त्ति गकारप० च, 'घ'त्ति घकारप० च, '' तिङकारप० च, ककार-खकार-गकार-घकार-कारप० च णाम उवदंसेंति, एवं चकारवग्गो पि टकारवग्गो बि तकारवग्गो वि पकारवग्गो वि। 1. किसी-किसी प्रति में निम्न प्रकार का पाठ है - उसभल लियविक्कंतं सीहल लियविक्कतं हय विलंबियं गयवि० हयविलसियं गयविलसियं मत्तय विलसियं मत्तगजबिलसियं मत्तहयवि. मत्तगयवि. दुयविलम्बियं णामं पट्टविहं उवदंसेंति / इसके बाद वृषभ-बैल को ठुमकती हुई ललित गति, सिंह की ठुमकती हुई ललित गति, अश्व की विलंबित गति, गज की विलंबित गति, मत्त अश्व की विलसित गति, मत्त गज की विलसित गति, मत्त अश्व की विलंबित गति, मत्त गज की विलंबित गति की दर्शक रचनावाली द्रतविलंबित नामक नाटयविधि को दिखाया। 2. "वि.' पद से 'विलंबित' पद ग्रहण करना चाहिये। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र १०१-तदनन्तर उन देवकुमारों और देवकुमारियों ने क्रमश: 'क' अक्षर की प्राकृतिरचना करके ककारप्रविभक्ति, 'ख' की आकार-रचना करके खकार प्रविभक्ति. 'ग' की: द्वारा गकार प्रविभक्ति, 'घ' अक्षर के आकार की रचना घप्रविभक्ति, और 'ड' के आकार की रचना द्वारा डकारप्रविभक्ति, इस प्रकार ककार-खकार-गकार-घकार-ड-कारप्रविभक्ति नाम की दिव्य नाट्यविधियों का प्रदर्शन किया। इसी तरह से चकार-छकार-जकार-झकार-त्रकार की रचना करके चकारवर्गप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। चकार वर्ग के पश्चात् क्रमश: ट-ठ-ड-ढ-ण के आकार की सुरचना द्वारा टकारवर्गप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यनिधि का प्रदर्शन किया। टकारवर्ग के अनन्तर क्रम प्राप्त तकार-थकार-दकार-धकार-नकार की रचना करके तकारवर्गप्रविभक्ति नामक नाट्यविधि को दिखलाया। ___तकारवर्ग के नाट्याभिनय के अनन्तर प, फ, ब, भ, म के आकार की रचना करके पकारवर्गप्रविभक्ति नाम की दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। विवेचन यहाँ लिपि सम्बन्धी अभिनयों के उल्लेख में ककार से पकार पर्यन्त पांच वर्गों के पच्चीस अक्षरों के अभिनयों का हो संकेत किया है, उसमें स्वरों तथा य, र, ल, व, ष, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ अक्षरों के अभिनयों का उल्लेख नहीं है। इसका कोई ऐतिहासिक कारण है या अन्य यह विचारणीय है / अथवा सम्भव है कि देवों की लिपि में ककार से लेकर पकार तक के अक्षर होते हों जिससे उन्हीं का अभिनय प्रदर्शित किया है / इन लिपि सम्बन्धी अभिनयों में 'क' वगैरह की जो मूल प्राकृतियाँ ब्राह्मी लिपि में बताई हैं, आकृतियों के सदृश अभिनय यहाँ समझना चाहिये। जैसे कि ब्राह्मी लिपि में क की+ऐसी प्राकृति है, अतएव इस आकृति के अनुरूप स्थित होकर अभिनय करके बताना 'क' की प्राकृति का अभिनय कहलायेगा / इसी प्रकार लिपि सम्बन्धी शेष दूसरे सभी अभिनयों के लिये भी समझ लेना चाहिये। १०२–असोयपल्लवप० च, अंबपल्लवप० च, जंबूपल्लवप० च, कोसंबपल्लवप० च, पल्लवप. च णाम उवदंसेति / १०२–तत्पश्चात् अशोक पल्लव (अशोकवृक्ष का पत्ता) आम्रपल्लव, जम्बू (जामुन) पल्लव, कोशाम्रपल्लव की प्राकृति-जैसी रचना से युक्त पल्लवप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि प्रदर्शित की। १०३-पउमलयाप० जाव (नागलयाप० असोगलयाप० चंपगलयाप० चयलयाप० वणलयाप० वासंतियलयाप० प्राइमुत्तयलयाप० कुदलयाप०) सामलयाप० चलयाप० च णामं उवदंसेंति / १०३-तदनन्तर पद्मलता यावत् नागलता, अशोकलता, चंपकलता, आम्रलता, वनलता, 1. 'पल्लव पल्लव प.' इति पाठान्तरम् / 2. 'लया लया प.' इति पाठान्तरम् / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के जीवनप्रसंगों का अभिनय ] [57 वासंतीलता, अतिमुक्तकलता और श्यामलता की सुरचना वाला लताप्रविभक्ति नामक नाट्याभिनय प्रदर्शित किया / 104- दुयणाम उवदंसेति / विलंबियं णाम उव० / दुयविलबियं णाम उव० / अंचियं, रिभियं, अंचियरिभियं, प्रारभडं, भसोलं प्रारभउभसोलं, उप्पयनिवयपवत्तं, संकुचियं पसारियं रयारइयं भंतं संभंतं णामं दिध्वं णट्टविहि उवदंसेंति / १०४–इसके पश्चात् अनुक्रम से द्र त, विलंबित, द्र त विलंबित, अंचित, रिभित, अंचितरिभित, पारभट, भसोल और आरभटभसोल नामक नाट्यविधियों का अभिनय प्रदर्शित किया / तदनन्तर उत्पात-(ऊपर नीचे उछलने-कूदने) निपात, संकुचित-प्रसारित भय और हर्षवश शरीर के अंगोपांगों को सिकोड़ना और फैलाना, रयार इय (?) भ्रान्त और संभ्रान्त सम्बन्धी क्रियाओं विषयक दिव्य नाट्य-अभिनयों को दिखाया / विवेचन-पूर्वोक्त नाट्यविधियों का स्वरूप-प्रतिपादन नाट्यविधिप्राभृत में किया गया है। परन्तु पूर्वो के विच्छिन्न होने से इन विधियों का पूर्ण रूप से जैसा का तैसा वर्णन करना सम्भव नहीं है। वर्तमान में भरत का नाट्यशास्त्र उपलब्ध है। जिसमें नाट्य, संगीत आदि से सम्बन्धित विषयों की जानकारी दी गई है। यहां देवों ने जिन नाट्यों का प्रदर्शन किया है, उनमें से कुछ एक के नाम तो इस नाट्यशास्त्र में भी आये हैं, यथा-संकुचित, प्रसारित, द्रत. विलंबित, अंचित इत्यादि / सूत्र 92 से 104 पर्यन्त संगीत और वाद्यों के वर्णन के साथ नाट्य विधियों के अभिनयों का वर्णन किया गया है। अनेक अभिनय तो ऐसे हैं जिनके भाव समझ में पा सकते हैं। इनमें से कतिपय पशुपक्षियों, वनस्पतियों, जगत् के अन्य पदार्थों, प्राकृतिक प्रसंगों और उत्पातों एवं लिपि-आकारों से सम्बन्धित हैं। १०५-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति जाव दिवे देवरमणे पवते यावि होत्था। १०५-तदनन्तर अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार की नाट्यविधियों का प्रदर्शन करने के अनन्तर वे देवकुमार और देवकुमारियाँ एक साथ एक स्थान पर एकत्रित हुए यावत् दिव्य देवरमत में प्रवृत्त हो गये। भगवान महावीर के जीवन-प्रसंगों का अभिनय __ १०६-तए णं ते बहके देवकुमारा य देवकुमारोपो य समणस्स भगवनो महावीरस्स पुव्वभवचरियणिबद्ध च, चवणचरियणिबद्ध च, संहरणचरियनिबद्धच, जम्मणचरियनिबद्ध च, अभिसेअचरिय निबद्धच, बालभावरियनिबद्ध च, जोव्वण-चरियनिबद्ध च, कामभोगचरियनिबद्धच, निक्खपण-चरियनिबद्ध च, तवचरणचरियनिबद्ध च, णाणुप्पायरिय-निबद्ध च, तित्थपवत्तणचरिय-परिनिव्वाणचरियनिबद्ध च, चरिमचरियनिबद्धं च णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति / १०६-तत्पश्चात् उन सब देवकुमारों एवं देवकुमारियों ने श्रमण भगवान् महावीर के पूर्वभवों संबंधी चरित्र से निबद्ध एवं वर्तमान जीवन संबंधी, च्यवनचरित्रनिबद्ध, गर्भसंहरणचरित्र Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] [राजप्रेश्नीयसूत्र निबद्ध, जन्मचरित्रनिबद्ध, जन्माभिषेक, बालक्रीड़ानिबद्ध, यौवन-चरित्रनिबद्ध (गृहस्थावस्था से संबंधित) अभिनिष्क्रमण-चरित्रनिबद्ध (दीक्षामहोत्सव से संबन्धित), तपश्चरण-चरित्र निबद्ध (साधनाकालीन दृश्य) ज्ञानोत्पाद चरित्र-निबद्ध (कैवल्य प्राप्त होने की परिस्थिति का चित्रण), तीर्थ-प्रवर्तन चरित्र से सम्बन्धित, परिनिर्वाण चरित्रनिबद्ध (मोक्ष प्राप्त होने के समय का दृश्य) तथा चरम चरित्र निबद्ध (निर्वाण प्राप्त हो जाने के पश्चात् देवों आदि द्वारा किये जाने वाले महोत्सव से संबंधित) नामक अंतिम दिव्य नाट्य-अभिनय का प्रदर्शन किया। विवेचन–देवों द्वारा श्रमण भगवान् महावीर एवं गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष प्रदर्शित बत्तीस प्रकार के नाट्य-अभिनयों में से अंतिम (बत्तीसवां अभिनय) श्रमण भगवान् महावीर की जीवन-घटनाओं के मुख्य-मुख्य प्रसंगों से संबंधित है / यह सब देखकर तत्कालीन अभिनयकला की परम प्रकर्षता का दृश्य उपस्थित हो जाता है और उस-उस अभिनय की उपयोगिता भी परिज्ञात हो जाती है। नाट्याभिनय का उपसंहार १०७–तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीमो य चउन्विहं वाइत्तं वाएंति--तं जहा. ततं-विततं-घणं-झुसिरं / १०७–तत्पश्चात् (दिव्य नाट्यविधियों को प्रदर्शित करने के पश्चात) उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने ढोल-नगाड़े आदि तत, वीणा आदि वितत, झांझ आदि घन और शंख, बांसुरी आदि शुषिर इन चतुर्विध वादित्रों-बाजों को बजाया। १०८-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियानो य चउन्विहं गेयं गायति तंजहा. उक्खितं-पायंत-मंदायं-रोइयावसाणं च / १०८--वादित्रों को बजाने के अनन्तर उन सब देवकुमारों और देवकुमारियों ने उत्क्षिप्त, पादान्त, (पादवृद्ध) मंदक और रोचितावसान रूप चार प्रकार का संगीत (गाना) गाया। १०६–तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियायो य चउब्विहं गट्टविहि उवदंसंति, तंजहा-अंचिरिभियं-प्रारभडं-भसोलं च / १०६--तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने अंचित, रिभित, आरभट एवं भसोल इन चार प्रकार की नृत्यविधियों को दिखाया। ११०–तए गं ते बहवे देवकमारा य देवकुमारियानो च चउन्विहं अभिणयं अभिणएंति, तंजहा-दिट्ठतियं—पाडितियं (पाडियंतियं)-सामन्नाविणिवाइयं-अंतो-मज्झावसाणियं च / ११०-तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने चार प्रकार के अभिनय प्रदर्शित किये, यथा--दार्टान्तिक, प्रात्यंतिक, सामान्यतोविनिपातनिक और अन्तर्मध्यावसानिक, [लोकमध्यावसानिक। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाट्याभिनय का उपसंहार] [59 विवेचन-सूत्र संख्या 107-110 पर्यन्त नाटकों का प्रदर्शन करने के पश्चात् उपसंहार रूप चार प्रकार के वाद्यों को बजाने, संगीतों को गाने एवं नृत्यों और अभिनयों को करने का उल्लेख किया है। वाद्यादि अभिनय पर्यन्त चार-चार प्रकारों को बतलाने का कारण यह है कि ये उन-उनके मूल हैं / अर्थात् वाद्यों, राग-रागनियों आदि के अलग-अलग नाम होने पर भी वे सभी मुख्य-गौण भाव से इन चार प्रकारों के ही विविध रूप हैं / प्रस्तुत में तत प्रादि शब्दों के वाद्यों के उत्क्षिप्त आदि शब्दों से संगीत के और अंचित आदि शब्दों से नृत्य के चार-चार भेद और उनके सामान्य अर्थ तो समझ लिये जा सकते हैं तथा इसी प्रकार अभिनय के जो चार प्रकार बतलाये है उनमें से दृष्र्टान्तिक अभिनय-किसी प्रकार के दृष्टान्त का अभिनय / प्रत्यन्त का अर्थ म्लेच्छदेश है ('प्रत्यन्तो म्लेच्छमण्डल:'-अभिधान चिन्तामणि कोश 4 श्लोक 18) / भोट (भूटान) आदि देशों की म्लेछ देशों में गणना है / इन देशों के निवासियों और उनके आचरण अथवा किसी प्रसंग आदि का अभिनय प्रात्यंतिक अभिनय है। सामान्य प्रकार के अभिनय को सामान्यतोपनिपातनिक और लोक के मध्य या अन्त सम्बन्धी अभिनय को अन्तर्मध्यावसानिक अभिनय कहते हैं / यह अभिनय के प्रकारसूचक शब्दों का शब्दार्थमात्र है / परन्तु उन सभी के विशेष अर्थ को समझने के लिए संगीत तथा अभिनय विशारदों एवं नाट्यशास्त्र से जानकारी प्राप्त करना चाहिये। १११-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियायो य गोयमादियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविड्डि दिव्वं देवजुति दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसइबद्ध नाडयं उवदंसित्ता समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता बंदति नमसंति, बंदित्ता नमंसिता जेणेव सरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिमाहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धाति वद्धावित्ता एवं प्राणत्तियं पच्चप्पिणंति / १११-तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने गौतम आदि श्रमण निर्गन्थों को दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव प्रदर्शक बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधियों को दिखाकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दननमस्कार करने के पश्चात् जहाँ अपना अधिपति सूर्याभदेव था वहाँ आये। वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़कर सिर पर प्रावर्तपूर्वक मस्तके पर अंजलि करके सूर्याभदेव को 'जय विजय हो' शब्दोच्चारणों से बधाया और बधाकर आज्ञा वापस सौंपी, अर्थात् निवेदन किया कि आपकी आज्ञा के अनुसार हम श्रमण भगवन् महावीर आदि के पास जाकर बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि दिखा आये हैं / ११२-तए णं से सूरिया देवे तं दिव्वं देविति, दिव्वं देवजुई, दिग्वं देवाणुभावं पडिसाहरइ, पडिसाहरेत्ता खणेणं जाते एगे एगभूए / तए णं से सूरियाभे देवे समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ, बंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता नियगपरिवालसद्धि संपरिकुडे तमेव दिग्वं जाणविमाणं दुरूहति दुरूहिता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 [ राजप्रेश्नीयसूत्र ११२-तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने अपनी सब दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवाति और दिव्य देवानुभाव-प्रभाव को समेट लिया--अपने शरीर में प्रविष्ट कर लिया और शरीर में प्रविष्ट करके क्षणभर में अनेक होने से पूर्व जैसा अकेला था वैसा ही एकाकी बन गया / इसके बाद सूर्याभ देव ने श्रमण भगवान महावीर को दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके तीन वार प्रदक्षिणा को, वन्दन-नमस्कार किया / वन्दना-नमस्कार करके अपने पूर्वोक्त परिवार सहित जिस यान-विमान से आया था उसी दिव्य यान-विमान पर आरुढ़ हुआ। प्रारुढ़ होकर जिस दिशा सेजिस ओर से आया था, उसी ओर लौट गया। गौतमस्वामी की जिज्ञासाः भगवान का समाधान 113-- भंते' त्ति भयवं गोयमे समणं भगवंतं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसिता एवं क्यासी'--सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स एसा दिवा देविड्डी दिव्वा देवज्जुती दिब्वे देवाणुभावे कहि गते ? कहि अणुष्पवि?? 1. कहीं कहीं यह पाठान्तर देखने में माता है-- __ 'तेणं कालेणं तेण समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स जि? अन्तेवासी इंदभूई नाम अणगारे गोयमसगोत्ते सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छुढसरीरे संखित्तविपुलतेयलेस्से चउदसपुब्बी चउनाणोवगए सब्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंतं उडुढं जाण ग्रहोसिरे झाणकोट्टोबगए संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ / तए णं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले उप्पन्नसड्ढे उत्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोउहल्ले उट्टाए उट्ठइ उदाए उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवत महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेत्ता वंदति नमसति बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी 'उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी-शिप्य गौतम गोत्रीय, सात हाथ ऊंचे, समचौरस संस्थान एवं वज्र ऋषभनाराच संहनन वाले, कसौटी पर खींची गई स्वर्ण रेखा तथा कमल की केशर के समान गौरवर्ण वाले, उग्रतपस्वी, कर्मवन को दग्ध करने के लिये अग्निवत् जाज्वल्पमान तप वाले, तप्त तपस्वी---ग्रात्मा को तपानेवाले, महातपस्वी-दीर्घतप करनेवाले, उदार-प्रधान, घोर-कषायादि के उन्मूलन में कठोर, घोरगुण-दूसरों के द्वारा दुरनुचर मूलोत्तर गुणों से सम्पन्न घोरतपस्वी-बड़ी बड़ी तपस्यायें करने वाले, घोर ब्रह्मचर्यवासी-अन्यों के लिये कठिन ब्रह्मचर्य में लीन, शारीरिक संस्कारों और ममत्व का त्याग करने वाले, विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके शरीर में समाहित करने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, मति आदि मनपर्याय पर्यन्त चार ज्ञानों से समन्वित, सर्व अक्षरों और उनके संयोगजन्य रूपों को जानने वाले गौतम नामक अनगार श्रमण भगवान महावीर से न अतिदूर और न अति समीप अर्थात् उचित स्थान में स्थित होकर ऊपर घुटने और नीचा मस्तक रखकर-मस्तक नमाकर ध्यान रूपी कोष्ठ में विराजमान होकर संयम तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरते थे। ___तत्पश्चात् भगवान् गौतम को तत्त्वविषयक श्रद्धा-जिज्ञासा-हुई, सशय हुआ, कुतूहल हुया, श्रद्धा उत्पन्न हुई, सशय उत्पन्न हुया, कुतूहल उत्पन्न हुग्रा, विशेषरूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई, विशेषरूप से सशय उत्पन्न हया विशेष रूप से कुतूहल उत्पन्न हुआ, विशेष रूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई, विशेष रूप से संशय उत्पन्न हुया और विशेष रूप से कुतुहल उत्पन्न हुअा। तब अपने स्थान से उठ खड़े हुए, और उठकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराज रहे थे, वहां आये, वहां पाकर दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर श्रमण भगवान महावीर को प्रदक्षिणा की। तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके वन्दन और नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा-निवदेन किया--1' Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव के विमान का अवस्थान और वर्णन ] 113 - तदनन्तर--सूर्याभदेव के वापस जाने के अनन्तर- 'हे भदन्त' इस प्रकार से संबोधित कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके विनयपूर्वक इस प्रकार पूछा ___ प्रश्न- हे भगवान् ! सूर्याभदेव की वह सब पूर्वोक्त दिव्य देवऋद्धि दिव्य देवद्यु ति, दिव्य देवानुभाव-प्रभाव कहां चल गया ? कहाँ प्रविष्ट हो गया-समा गया ? ११४-गोयमा ! सरीरं गते सरीरं अणुप्पविट्ठ / ११४-उत्तर-हे गौतम ! सूर्याभ देव द्वारा रचित वह सब दिव्य देव ऋद्धि प्रादि उसके शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई–समा गई, अन्तर्लीन हो गई। ' ११५–से केपट्टणं भंते ! एवं वुच्चइ सरीरं गते, सरीरं अणुप्पविट्ठ ? 115-- प्रश्न-हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि शरीर में चली गई, शरीर में अनुप्रविष्ट–अन्तर्लीन हो गई ? ११६–गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया-दुहतो लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा, तोसे कूडागारसालाए अदूरसामंते एस्थ णं महेगे जणसमूहे चिट्ठति, तए णं से जणसमूहे एगं महं अभवद्दलगं वा वासबद्दलगं वा महावायं वा एज्जमाणं वा पासति, पासित्ता तं कूडागारसालं अंतो अणुप्पविसित्ता णं चिट्ठइ, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चति–'सरीरं अणुप्पविट्ठ'। ११६-हे गौतम! जैसे कोई एक भीतर-बाहर गोवर आदि से लिपी-पुती, बाह्य प्राकारपरकोटे-से घिरी हुई, मजबूत किवाड़ों से युक्त गुप्त द्वार वाली निर्वात-बायु का प्रवेश भी जिसमें दुष्कर है, ऐसी गहरी, विशाल कुटाकार--पर्वत के शिखर के आकार वाली-- शाला हो / उस कुटाकार शाला के निकट एक विशाल जनसमूह बैठा हो। उस समय वह जनसमूह आकाश में एक बहत बड़े मेघपटल को अथवा जलवृष्टि करने योग्य बादल को अथवा प्रचण्ड अांधी को प्राता हुआ देखे तो जैसे वह उस कूटाकार शाला के अंदर प्रविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार हे गौतम ! सूर्याभदेव की वह सब दिव्य देवऋद्धि आदि उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई-अन्तर्लीन हो गई है, ऐसा मैंने कहा है। सूर्याभ देव के विमान का अवस्थान और वर्णन-- 117 ---कहि णं भंते ! सूरियाभस्स देवस्स सूरिया नाम विमाणे पन्नत्ते ? ११७--हे भगवन् ! उस सूर्याभदेव का सूर्याभ नामक विमान कहाँ पर कहा गया है ? ११८-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो उड्ढे चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोअणसयाई एवं-सहस्साई-सयसहस्साई, बहुई प्रो जोअणकोडोप्रो, जोत्रणसयकोडोप्रो, जोप्रणसहस्सकोडोप्रो, बहुईग्रो जोअणसयसहस्सकोडीयो बहुईनो जोत्रण-कोडाकोडोप्रो उड्ढे दूरं बीतीवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे नाम कप्पे पन्नते-पाईणपडीणायते उदीणदाहिण-वित्यिण्णे, अद्ध चंदसंदणसंठिते, अच्चिमालि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [ राजप्रेश्नीयसूत्र भासरासिवण्णाभे, असंखेज्जाप्रो जोअणकोडाकोडीनो पायामविक्खं भेणं, असंखेज्जाओ जोअणकोडाकोडोप्रो परिक्खेवेणं, एस्थ णं सोहम्माणं देवाणं बत्तीसं विमाणावासयसहसाई भवंति इति, मक्खायं / ते णं विमाणा सवरयणामया अच्छा जाव (सण्हा लण्हा, घट्टा मट्ठा, णीरया निम्मला, नियंका निक्ककडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया, दरिसणिज्जा अभिरूवा) पडिरूवा / तेसिं गं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडिसया पन्नत्ता, तं जहा-असोगडिसए सत्तवण्णवडिसए चंपगवडिसए' चूतडिसए मज्झे सोधम्मडिसए / ते णं वडिसगा सघरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / तस्स णं सोधम्मवडिसगस्स महाविमाणस्स पुरथिमेणं तिरियं असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई वोइवइत्ता एस्थ णं सूरियाभस्स देवस्स सूरियाभे विमाणे पण्णत्ते, अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं, अउणयालीसं च सयसहस्साई बावन्नं च सहस्साइं अट्ट य अडयाल जोयणसते' परिक्खेवेणं। ११८-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर (सुमेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रमणीय समतल भूभाग से ऊपर ऊर्ध्वदिशा में चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण नक्षत्र और तारामण्डल से आगे भी ऊंचाई में बहुत से मैकड़ों योजनों, हजारों योजनों, लाखों, करोड़ों योजनों और सैकड़ों करोड़, हजारों करोड़, लाखों करोड़ योजनों, करोड़ों करोड़ योजन को पार करने के बाद प्राप्त स्थान पर सौधर्मकल्प नाम का कल्प है-अर्थात् सौधर्म नामक स्वर्गलोक है / वह सौधर्मकल्प पूर्व-पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण विस्तृत-चौड़ा है, अर्धचन्द्र के समान उसका आकार है, सूर्य किरणों की तरह अपनी द्युति-कान्ति से सदैव चमचमाता रहता है / असंख्यात कोडाकोडि योजन प्रमाण उसकी लम्बाई-चौड़ाई तथा असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण उसकी परिधि है। उस सौधर्मकल्प में सौधर्मकल्पवासी देवों के बत्तीस लाख विमान बताये हैं। वे सभी सर्वात्मना रत्नों से बने हुए स्फटिक मणिवत स्वच्छ यावत (सलौने, अत्यन्त चिकने. घिसे हए, मंजे हए, नीरज, निर्मल, निष्कलंक, निरावरण, दीप्ति, कान्ति, तेज और उद्योत-प्रकाशयुक्त, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, मनोहर एवं) अतीव मनोहर हैं। उन विमानों के मध्यातिमध्य भाग में-ठीक बीचोंबीच-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चार दिशाओं में अनुक्रम से अशोक-अवतंसक, सप्तपर्ण-अवतंसक, चंपक-अवतंसक, आम्र-अवतंसक तथा मध्य में सौधर्म-अवतंसक, ये पांच अवतंसक (मुख्य श्रेष्ठ भवन) हैं। ये पांचों अवतंसक भी रत्नों से निर्मित, निर्मल यावत् प्रतिरूप-अतीव मनोहर हैं। उस सौधर्म-अवतंसक महाविमान की पूर्व दिशा में तिरछे असंख्यात लाख योजन प्रमाण आगे जाने पर प्रागत स्थान में सूर्याभ देव का सूर्याभ नामक विमान है / उसका आयाम-विष्कंभ (लम्बाईचौड़ाई) साढ़े बारह लाख योजन और परिधि उनतालीस लाख बावन हजार आठ सौ अड़तालीस योजन है। 1. पाठान्तर--भूतवडेंसए, भूयगडिसते / 2. पाठान्तर—अतो तेरसय सहस्साई आयामविक्खंभेणं बायालीसं च सयसहस्साई अ य अड० / 3. अउणयालीसं च सयसहस्साई अट्ठ य अडयालजोयणसते / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभविमान के द्वारों का वर्णन ] ११६.-से णं एगेणं पागारेणं सम्वनो समता संपरिषिखत्ते। से णं पागारे तिण्णि जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले एगं जोयणसयं विक्खंभेणं, मज्झे पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं, उपि पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं / भूले विस्थिणे, मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे। ११६-वह सूर्याभ विमान चारों दिशाओं में सभी ओर से एक प्राकार-परकोटे से घिरा हुआ है / यह प्राकार तीन सौ योजन ऊँचा है, मूल में इस प्राकार का विष्कम्भ (चौड़ाई) एक सौ योजन, मध्य में पचास योजन और ऊपर पच्चीस योजन है। इस तरह यह प्राकार मूल में चौड़ा, मध्य में संकड़ा और सबसे ऊपर अल्प-पतला होने से गोपुच्छ के प्राकार जैसा है। यह प्राकार सर्वात्मना रत्नों से बना होने से रत्नमय है, स्फटिकमणि के समान निर्मल है यावत् प्रतिरूप-अतिशय मनोहर है / १२०--से णं पागारे णाणाविहपंचवणेहि कविसीसएहि उपसोभिते, तं जहा--कण्हेहि य नीलेहि य लोहितेहि हालिद्देहि सुकिल्लेहि कविसीसहि / ते णं कविसीसगा एगं जोयणं पायामेणं, प्रद्धजोयणं विक्खंभेणं, देसणं जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / 120 -- वह प्राकार अनेक प्रकार के कृष्ण, नील, लोहित-लाल, हारिद्र-पीले और श्वेत इन पाँच वर्णों वाले कपिशीर्षकों (कंगूरों) से शोभित है / ये प्रत्येक कपिशीर्षक (कंगो) एक-एक योजन लम्बे, प्राधे योजन चौड़े और कुछ कम एक योजन ऊंचे हैं तथा ये सब रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् बहुत रमणीय हैं / सूर्याभविमान के द्वारों का वर्णन-- 121~ सूरियाभस्स गं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए दारसहस्सं दारसहस्सं भवतीति मक्खायं / ते गं दारा पंच जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेलेणं, सेया वरकणगभियागा ईहामिय-उस भ-तुरग-णर-मगर-विहग-वालग-किन्नर-हरु-सरभचमर-कुजर-वणलय-पउमलयभत्ति-चित्ता, खंभुग्गयवरवयरवेइयापरिगयाभिरामा, विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ता विव, प्रच्चीसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया, भिसमाणा भिभिसमाणा, चक्खुल्लोयणलेसा, सुहफासा सस्सिरीय रूवा / वन्नो दाराणं तेसि होइ–तं जहा--बइरामया णिम्मा, रिद्वामया पइट्ठाणा, वेरुलियमया खंभा, जायरूवोवचिय-पवरपंचवन्न-मणिरयण-कोट्टिमतला, हंसम्ममया एलुया, गोमेज्जमया इंदकीला, लोहियक्खमतीतो चेडामो, जोईरसमया उत्तरंगा, लोहियक्षमईप्रो सुईनो, बयरामया संधी, नाणामणिमया समुग्गया, वयरामया अगला-अम्गलपासाया, रययामयामो प्रावत्तणढियायो। अंकुत्तरपासगा, निरंतरियघणकवाडा भित्तीसु चेव भित्तिगुलिता छपन्ना तिणि होति गोमाणसिया तत्तिया णाणामणिरयणवालरूवगलीलटिअसाल-भंजियागा, वयरामया कूडा, रययाम या उस्सेहा, सव्वतवणिज्जमया उल्लोया, णाणामणिरयणजालपंजर-मणिबंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमा, अंकामया पक्खा-पक्खबाहाम्रो, जोईरसामया वंसा-वंसकवेल्लुयायो, रययामईओ पट्टियानो, जायरूवमईश्रो पोहाडणोनो, वइरामईयो उरिपुञ्छणीश्रो, सव्वसेयरययामये छायणे, अंकमयकणगकूडतवणिज्जथभियागा, सेया संखतलविमलनिम्मलदधिघण-गोखीर-फेणरययणिगरपगासा तिलगरयणद्धचंद Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [ राजप्रेश्नीयसूत्र चित्ता' नाणामणिदामालंकिया, अंतो बहिं च सण्हा तणिज्जवालुया पत्थडा, सुहफासा, सस्सिरीयरूबा, पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। १२१–सूर्याभदेव के उस विमान को एक-एक बाजू में एक-एक हजार द्वार कहे गये हैं, अर्थात् उस विमान की पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन चारों दिशाओं में से प्रत्येक में एक-एक हजार द्वार हैं। ये प्रत्येक द्वार पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं, अढाई सौ योजन चौड़े हैं और इतना ही (अढाई सौ योजन) इनका प्रवेशन—गमनागमन के लिए घुसने का स्थान--है / ये सभी द्वार श्वेत वर्ण के हैं / उत्तम स्वर्णमयी स्तूपिकानों-शिखरों से सुशोभित हैं। उन पर ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मकर विहग, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ-अष्टापद चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित स्तम्भों पर बनी हुई वज्र रत्नों की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखाई पड़ते हैं। समश्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यन्त्र द्वारा चलते हुए-से दीख पड़ते हैं / वे द्वार हजारों किरणों से व्याप्त और हजारों रूपकों-चित्रों से युक्त होने से दीप्यमान और अतीव देदीप्यमान हैं / देखते ही दर्शकों के नयन उनमें चिपक जाते हैं। उनका स्पर्श सुखप्रद है। रूप शोभासम्पन्न है। उन द्वारों का वर्ण-स्वरूपवर्णन इस प्रकार है उन द्वारों के नेम (भूभाग से ऊपर निकले प्रदेश) वज्ररत्नों से, प्रतिष्ठान (मूल पाये) रिष्ट रत्नों से स्तम्भवैडूर्य मणियों से तथा तलभाग स्वर्णजड़ित पंचरंगे मणि रत्नों से बने हुए हैं। इनकी देहलियाँ हंसगर्भ रत्नों की, इन्द्रकीलियाँ गोमेदरत्नों की, द्वारशाखायें लोहिताक्ष रत्नों की, उत्तरंग (प्रोतरंग-द्वार के ऊपर पाटने के लिये तिरछा रखा पाटिया) ज्योतिरस रत्नों के, दो पाटियों को जोड़ने के लिये ठोकी गई कीलियाँ लोहिताक्षरत्नों की हैं और उनकी सांधे वज्ररत्नों से भरी हुई हैं। समुदगक (कीलियों का ऊपरी हिस्सा-टोपी) विविध मणियों के हैं। अर्गलायें अर्गलापाशक (कुदा) वज्ररत्नों के हैं। आवर्तन पीठिकायें (इन्द्रकीली का स्थान) चाँदी की हैं। उत्तरपार्श्वक (वेनी) अंक रत्नों के हैं। इनमें लगे किवाड़ इतने सटे हुए सघन हैं कि बन्द करने पर थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं रहता है। प्रत्येक द्वार की दोनों बाजुओं की भीतों में एक सौ अड़सठ-एक सौ अड़सठ सब मिलाकर तीन सौ छप्पन भित्तिगुलिकायें (देखने के लिये गोल-गोल गुप्त झरोखे) हैं और उतनी ही गोमानसिकायें-बैठकें हैं--प्रत्येक द्वार पर अनेक प्रकार के मणि रत्नमयी व्यालरूपों-सौ-से क्रीड़ा करती पुतलियाँ बनी हुई हैं। अथवा सर्परूप धारिणी अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से निर्मित क्रीड़ा करती हुई पुतलियाँ इन द्वारों पर बनी हुई हैं। इनके माड़ वज्ररत्नों के और माड़ के शिखर चाँदी के हैं और द्वारों के ऊपरी भाग स्वर्ण के हैं / द्वारों के जालीदार झरोखे भाँति-भाँति के मणि-रत्नों से बने हए हैं / मणियों के बांसों का छप्पर है और बांसों को बाँधने की खपच्चियाँ लोहिताक्ष रत्नों की हैं। रजतमयी भूमि है अर्थात् छप्पर पर चाँदी की परत बिछी हुई है। उनकी पाखें और पाखों की बाजुये अंकरत्नों की हैं / छप्पर के नीचे सीधी और बाड़ी लगी हुई वल्लियाँ तथा कबेलू ज्योतिरस - रत्नमयी हैं / उनको पाटियाँ चाँदी की हैं। अवघाटनियाँ (कबेलुओं के ढक्कन) स्वर्ण की बनी हुई हैं / ऊरि 1. पाठान्तर --सङ्घतल-विमल निम्मल-दहिघण-गोखीरफेण-रययनियरप्पमासद्धचन्दचित्ताई। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभविमान के द्वारों का वर्णन ] प्रोच्छनियाँ (टाटियाँ) वज्ररत्नों की हैं। टाटियों के ऊपर और कबेलुगों के नीचे के प्राच्छादन सर्वात्मना श्वेत-धवल और रजतमय हैं / उनके शिखर अंकरत्नों के हैं और उन पर तपनीय-स्वर्ण की स्तूपिकायें बनी हुई हैं / ये द्वार शंख के समान विमल, दही एवं दुग्धफेन और चांदी के ढेर जैसी श्वेत प्रभा वाले हैं / उन द्वारों के ऊपरी भाग में तिलकरत्नों से निर्मित अनेक प्रकार के अर्धचन्द्रों के चित्र बने हुए हैं / अनेक प्रकार की मणियों की मालाओं से अलंकृत हैं। वे द्वार अन्दर और बाहर अत्यन्त स्निग्ध और सुकोमल हैं। उनमें सोने के समान पीली बालुका बिछी हुई है / सुखद स्पर्श वाले रूपशोभासम्पन्न, मन को प्रसन्न करने वाले, देखने योग्य, मनोहर और अतीव रमणीय हैं। १२२–तेसि णं दाराणं उभनो पासे दुहम्रो निसीहियाए सोलस सोलस चंदणकलसपरिवाडीओ पन्नत्तानो, ते णं चंदणकलसा वरकमल-पइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा, चंदणकयचच्चागा, प्राविद्ध कंठे गुणा, पउमुप्पलपिहाणा सव्वरयणामया, अच्छा जाव' पडिरूवगा महयामहया इदकुभसमाणा पन्नत्ता समणाउसो! १२२-उन द्वारों की दोनों बाजुओं की दोनों निशीधिकाओं (बैठकों) में सोलह-सोलह चन्दनकलशों की पंक्तियाँ हैं, अर्थात् उन द्वारों की दायीं बायीं बाजू की एक-एक बैठक में पंक्तिबद्ध सोलहसोलह चन्दनकलश स्थापित हैं। ये चन्दनकलश श्रेष्ठ उत्तम कमलों पर प्रतिष्ठित-रखे हैं, उत्तम सुगन्धित जल से भरे हुए हैं, चन्दन के लेप से चचित-मंडित, विभूषित हैं, उनके कंठों में कलावा (रक्तवर्ण सूत) बंधा हुआ है और मुख पद्मोत्पल के ढक्कनों से ढके हुए हैं / हे आयुष्मन् श्रमणो ! ये सभी कलश सर्वात्मना रत्नमय हैं, निर्मल यावत् बृहत् इन्द्रकुभ जैसे विशाल एवं अतिशय रमणीय हैं। १२३–तेसि णं दाराण उभयो पासे दुहम्रो मिसीहियाए सोलस-सोलस णागदन्तपरिवाडीयो पन्नत्तायो। ते णं णागवंता मत्ताजालंतरुसियहेमजाल-गवक्खजाल-खिखिणीघंटाजाल-परिक्खित्ता प्रभुग्गया अभिणिसिट्टा तिरियं सुसंपरिग्गहिया अहेपन्नगद्धरूवा, पन्नगद्धसंठाणसंठिया, सव्वषयरामया अच्छा जावर पडिरूवा महया महया गयदंतसमाणा पन्नता समाणाउसो ! १२३–उन द्वारों की उभय पार्श्ववर्ती दोनों निशीधिकाओं में सोलह-सोलह नागदन्तों (खूटियों-नकूचों) की पंक्तियाँ कही हैं। ये नागदन्त मोतियों और सोने की मालाओं में लटकती हुई गवाक्षाकार (गाय की आँख) जैसी आकृति वाले घुघरुओं से युक्त, छोटी-छोटी घंटिकानों से परिवेष्टित-व्याप्त, घिरे हुए हैं। इनका अग्रभाग ऊपर की ओर उठा और दीवाल से बाहर निकलता हुआ है एवं पिछला भाग अन्दर दीवाल में अच्छी तरह से घुसा हुआ है और आकार सर्प के अधोभाग जैसा है / अग्रभाग का संस्थान सपर्धि के समान है। वे वज्ररत्नों से बने हुए हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! बड़े-बड़े गजदन्तों जैसे ये नागदन्त अतीव स्वच्छ, निर्मल यावत् प्रतिरूप-अतिशय शोभाजनक हैं। 1-2. देखें सूत्र संख्या 118. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] বিলসহনীয় १२४–तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तबद्धा वग्घारितमल्लदामकलावा णील-लोहितहालिद्द-सुक्किलसुत्तबद्धा बग्घारितमल्लदामकलावा / ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा, सुवन्नपयरगमंडिया नाणाविहमणिरयणविविहहारउवसोभियसमुदया जाव (ईसि अण्णमण्णम-संपत्ता, वाहि पुवावरदाहिणुत्तरागएहि मंदायं मंदाय एज्जमाणाणि एज्जमाणाणि पलंबमाणाणि पलंबमाणाणि वदमाणाणि वदमाणाणि उरालेणं मणुन्नणं मणहरेणं कण्ण-मणणिव्वतिकरेणं सद्देणं ते पएसे सम्बयो समंता प्रापूरेमाणा प्रापूरमाणा) सिरीए अईच अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति / १२४-इन नागदन्तों पर काले सूत्र से गथी हई तथा नीले, लाल, पीले और सफेद डोरे से गूथी हुई लंबी-लंबी मालायें लटक रही हैं / वे मालायें सोने के झूमकों और सोने के पत्तों से परिमंडित तथा नाना प्रकार के मणि-रत्नों से रचित विविध प्रकार के शोभनीक हारों-अर्धहारों के अभ्युदय यावत् (पास-पास टंगे होने से पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर की हवा के मंद-मंद झोकों से हिलने-डुलने और एक दूसरे से टकराने पर विशिष्ट, मनोज्ञ, मनहर, कर्ण और मन को शांति प्रदान करने वाली ध्वनि से समीपवर्ती समस्त प्रदेश को व्याप्त करते हुए) अपनी श्री-शोभा से अतीव-अतीव उपशोभित हैं। १२५–तेसि णं णागदंताणां उवरि अन्नाश्रो सोलस-सोलस नागदंतपरिवाडीनो पन्नत्ता, ते णं णागदंता तं चेव जाव गयदंतसमाणा पन्नत्ता समाणाउसो! तेसु णं णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कगा पन्नत्ता, तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामईनो धूवघडीमो पण्णत्ताप्रो, तानो णं धूवघडीपो कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगंधुधुयाभिरामाप्रो सुगंधवरगंधियातो गंधवट्टिभूयारो अोरालेणं मणुणेणं मणहरेणं घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं ते पदेसे सवो समंता प्रापूरेमाणा प्रापूरमाणा जाव (सिरीए अतीव प्रतीव उवसोभेमाणा उबसोभेमाणा) चिट्ठति / १२५-~-इन नागदंतों के भी ऊपर अन्य-दुसरी सोलह-सोलह नागदन्तों की पंक्तियाँ कही हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! पूर्ववणित नागदंतों की तरह ये नागदंत भी यावत् विशाल गजदंतों के समान हैं। इन नागदन्तों पर बहुत से रजतमय शोंके (छींके) लटके हैं। इन प्रत्येक रजतमय शीकों में वैडूर्य-मणियों से बनी हुई धूप-घटिकायें रखी हैं / ये धूपघटिकायें काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क, तुरुष्क (लोभान) और सुगंधित धूप के जलने से उत्पन्न मघमघाती मनमोहक सुगन्ध के उड़ने एवं उत्तम सुरभि-गंध की अधिकता से गंधवर्तिका के जैसी प्रतीत होती हैं तथा सर्वोत्तम, मनोज्ञ, मनोहर, नासिका और मन को तृप्तिप्रदायक गंध से उस प्रदेश को सब तरफ से अधिवासित करती हुई यावत् अपनी श्री से अतीव-अतीव शोभायमान हो रही हैं। द्वारस्थित पुतलियां १२६-तेसि णं दाराणं उभनो पासे दुहनो णिसीहियाए सोलस सोलस सालभंजियापरिवाडीयो पन्नत्तानो, तानो पं सालभंजियानो लीलट्ठियाओ, सुपइट्टियानो, सुप्रलंकियाो, णाणाविहरागवसणाप्रो, णाणामल्लपिणद्धारो. मुट्ठिगिज्झसुमज्झायो, पामेलगजमलजुयल-वट्टिय-अन्भुन्नय Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारवर्णन पोणरइयसंठियपीवरपोहरायो, रत्तावंगायो, असियकेसीयो मिउविसयपसत्थ-लक्खणसंवेल्लियग्गसिरयानो ईसि असोगवरपायवसमुट्टियानो वामहत्थम्गहियग्गसालाप्रो ईसि पद्धच्छिकडक्खचिट्ठिएणं लूसमाणीप्रो विव चक्खुल्लोयणलेसेहि य अन्नमन्नं खिज्जमाणीप्रो विव पुढविपरिणामाग्रो, सासयभावमवगयाो, चन्दाणणाओ, चन्दविलासिणीनो, चंदद्धसमणिडालाओ, चंदाहियसोमदंसणाश्रो, उक्का विव उज्जोवेमाणाश्रो, विज्जुघणमिरियसूरदिप्पंततेयहिययरसन्निकासाम्रो सिंगारागारचारवेसानो पासाइयाग्रो जाव (दरिसणिज्जाओ अभिरूवानो पडिरूवाओ) चिट्ठति / १२६–उन द्वारों को दोनों बाजुओं की निशीधिकाओं (बैठकों) में सोलह-सोलह पुतलियों की पंक्तियाँ हैं। ये पुतलियाँ विविध प्रकार की लीलायें—(क्रीड़ायें) करती हुई, सुप्रतिष्ठित-मनोज्ञ रूप से स्थित सब प्रकार के आभूषणों- अलंकारों से शृगारित, अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे परिधानों वस्त्रों एवं मालाओं से शोभायमान, मुट्ठी प्रमाण (मुट्ठी में समा जाने योग्य) कृश-पतले मध्य भाग (कटि प्रदेश) वाली, शिर पर ऊँचा अंबाड़ा--जूड़ा बांधे हुए और समश्रेणि में स्थित हैं / वे सहवर्ती, अभ्युनत-ऊँचे, परिपुष्ट-मांसल, कठोर, भरावदार—पीवर-स्थूल गोलाकार पयोधरों-स्तनों वाली, लालिमा युक्त नयनान्तभाग वाली, सुकोमल, अतीव निर्मल, शोभनीक सघन घुघराली काली-काली कजरारी केशराशि वाली, उत्तम अशोक वृक्ष का सहारा लेकर खड़ी हुई और बायें हाथ से अन शाखा को पकडं हए, अध निमोलित नेत्रों की ईषत् वक्र कटाक्ष-रूप चेष्टाओ द्वारा देवो के म करती हुई-सी और एक दूसरे को देखकर परस्पर खेद-खिन्न होती हुई-सी, पार्थिवपरिणाम (मिट्टी से बनी)होने पर भी शाश्वत-नित्य विद्यमान, चन्द्रार्धतुल्य ललाट वाली, चन्द्र से भी अधिक सौम्य कांति वाली, उल्का-खिरते तारे के प्रकाश पुज की तरह उद्योत वाली-चमकीली विद्युत् (मेघ की बिजली) को चमक एवं सूर्य के देदीप्यमान तेज से भी अधिक प्रकाश-प्रभावाली, अपनी सुन्दर वेशभूषा से शृगार रस के गृह-जैसी और मन को प्रसन्न करने वाली यावत अतीव (दर्शनीय, मनोहर अतोव रमणीय) हैं। १२७-तेसिणं दाराणं उभओ पासे दुहनो णिसीहियाए सोलस सोलस जालकडगपरिवडीयो पन्नत्ता, ते णं जालकडगा सब्बरयणामया अच्छा जाव' पडिरूवा। १२७---इन द्वारों की दोनों बाजुओं की दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सोलह जालकटक (जाली झरोखों से बने प्रदेश) हैं, ये प्रदेश सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अत्यन्त रमणीय हैं / १२८–तेसि णं दाराणं उभो पासे दुहनो निसीहियाए सोलस सोलस घंटापरिवाडीसो पन्नत्ता, तासि णं घंटाणं इमेयारूवे वन्नावासे पन्नत्ते, तं जहा जंबूणयामईओ घंटाओ, वयरामयानो, लालागो गाणामणिमया घंटापासा, तवणिज्जामइयानो संखलामो, रययामयानो रज्जूप्रो। तामो घंटामो प्रोहस्सरायो, मेहस्सरायो, हंसस्सराम्रो कुचस्सराम्रो, सीहस्सरानो, दुंदुहिस्सरायो, णंदिघोसामो, मंजुस्सरानो, मंजुघोसाओ, सुस्सरानो, सुस्सरघोसानो उरालेणं मणुन्नेणं 1. देखें सूत्र संख्या, 118 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65] [ राजप्रश्नीयसूत्र मणहरेणं कन्नमनिव्वुइकरेणं सद्देणं ते पदेसे सव्वनो समंता आपूरेमाणाम्रो आपूरेमाणाप्रो जाव (सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा) चिट्ठति / १२८-इन द्वारों को उभय पार्श्ववर्ती दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सोलह घंटाओं को पंक्तियाँ कही गई हैं। उन घंटाओं का वर्णन इस प्रकार है-वे प्रत्येक घंटे जाम्बूनद स्वर्ण से बने हुए हैं, उनके लोलक वज्ररत्नमय हैं, भीतर और बाहर दोनों बाजुओं में विविध प्रकार के मणि जड़े हैं, लटकाने के लिये बंधी हुई साँकलें सोने को और रस्सियाँ (डोरियां) चाँदी की हैं। मेघ की गड़गड़ाहट, हंसस्वर, क्रौंचस्वर, सिंहगर्जना, दुन्दुभिनाद, वाद्यसमूहनिनाद, नन्दिघोष, मंजुस्वर, मंजुघोष, सुस्वर, सुस्वरघोष जैसी ध्वनिवाले वे घंटे अपनी श्रेष्ठ-सुन्दर मनोज्ञ, मनोहर कर्ण और मन को प्रिय, सुखकारी झनकारों से उस प्रदेश को चारों ओर से व्याप्त करते हुए अतीव अतीव शोभायमान हो रहे हैं / 126 तेसि णं दाराणं उभरो पासे दुहनो णिसीहियाए सोलस सोलस वणमालापरिवाडीयो पन्नत्तानो, तायो णं वणमालाप्रो गाणामणिमयदुमलयकिसलयपल्लवसमाउलाश्रो छप्पयपरिभुज्जमाणसोहंत सस्सिरीयानो पासाईयाओ, दरिसणिज्जाम्रो अभिरुवानो पडिरूवानो। १२६-उन द्वारों की दोनों बाजुओं की दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सोलह वनमालाओं की परिपाटियां-पंक्तियाँ कही हैं। ये वनमालायें अनेक प्रकार की मणियों से निर्मित द्रमों वृक्षों, पौधों, लतानों किसलयों (नवीन कोपलों) और पल्लवों-पत्तों से व्याप्त हैं। मधुपान के लिये बारंबार षटपदों-भ्रमरों के द्वारा स्पर्श किये जाने से सुशोभित ये बनलतायें मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप, एवं प्रतिरूप हैं। १३०–तेसि णं दाराणं उभग्रो पासे दुहनो णिसीहियाए सोलस-सोलस पगंठगा पन्नत्ता / ते णं पगंठगा अड्डाइज्जाइं जोयणसयाई प्रायामविक्खंभेणं, पणवीसं जोयणसयं बाहल्लेणं, सव्ववयरामया अच्छा जाव' पडिरूवा। १३०--इन द्वारों की उभय पार्ववर्ती दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सलह प्रकंठक (वेदिका रूप पीठविशेष, चबूतरा) हैं। ये प्रत्येक प्रकंठक अढाई सौ योजन लंबे, अढाई सौ योजन चौड़े और सवा सौ योजन मोटे हैं तथा सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् अतीव रमणीय हैं / 131 तेसि णं पगंठगाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं पासायव.सगा पन्नत्ता। ते णं पासायव.सगा अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, पणवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं, अभुग्गयमूसिअपहसिया विव, विविहमणिरयणभत्तिचित्ता, वाउद्घयविजय-वेजयंतपडागच्छत्ताइछत्तकलिया, तुगा, गगण 1. देखें सुत्र संख्या 118 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारवर्णन [66 तलमणुलिहंतसिहरा, जालंतररयणपंजरुम्मिलिय व्व, मणिकणगथूभियागा, वियसियसयवत्तपोंडरीयतिलगरयणद्धचंदचित्ता, णाणामणिदामालंकिया अंतो बहिं च सहा तवणिज्जवालुया-पत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासादीया दरिसणिज्जा जावदामा / १३१-उन प्रकण्ठकों के ऊपर एक-एक प्रासादावतंसक (श्रेष्ठमहल-विशेष) है / ये प्रासादावंतसक ऊँचाई में अढाई सौ योजन ऊँचे और सवा सौ योजन चौड़े हैं, चारों दिशाओं में व्याप्त अपनी प्रभा से हंसते हुए से प्रतीत होते हैं / विविध प्रकार के मणि-रत्नों से इनमें चित्र-विचित्र रचनायें बनी हुई हैं / वायु से फहराती हुई, विजय को सूचित करने वाली वैजयन्तीपताकाओं एवं छत्रातिछत्रों (एक दूसरे के ऊपर रहे हुए छत्रों) से अलंकृत हैं, अत्यन्त ऊँचे होने से इनके शिखर मानो आकाशतल का उल्लंघन करते हैं। विशिष्ट शोभा के लिये जाली-झरोखों में रत्न जड़े हुए हैं। वे रत्न ऐसे चमकते हैं मानों तत्काल पिटारों से निकाले हुए हों। मणियों और स्वर्ण से इनकी स्तूपिकायें निर्मित (शिखर) हैं / तथा स्थान-स्थान पर विकसित शतपत्र एवं पुंडरीक कमलों के चित्र और तिलकरत्नों से रचित अर्धचन्द्र बने हुए हैं / वे नाना प्रकार की मणिमय मालाओं से अलंकृत हैं / भीतर और बाहर से चिकने-कमनीय हैं। प्रांगणों में स्वर्णमयी बालुका बिछी हुई है, इनका स्पर्श सूखप्रद है। रूप शोभासम्पन्न है। देखते ही चित्त में प्रसन्नता होती है, वे दर्शनीय हैं / यावत् मुक्तादामों आदि से सुशोभित हैं / विवेचन-'जाव दामा' पद से यह सूचित किया है कि यानविमान के प्रसंग में जिस तरह उसकी अन्तर्भूमि, प्रेक्षागृह मंडप, रंगमंच, सिंहासन, विजय दृष्य, वज्राकुश एवं मुक्तादामों का वर्णन किया है, उसी प्रकार समस्त वर्णन यहाँ भी समझ लेना चाहिये। संक्षेप में उक्त वर्णन का सारांश इस प्रकार है इन प्रासादावतंसकों का अन्तर्वर्ती भूभाग आलिंग पुष्कर, मृदंगपुष्कर, सूर्यमंडल, चन्द्रमंडल अथवा कीलों को ठोक और चारों ओर से खींचकर सम किये गये भेड़, बैल, सुअर, सिंह आदि के चमड़े के समान अतीव सम, रमणीय है एवं अनेक प्रकार के शुभ लक्षणों तथा आकार प्रकार वाले काले, पीले, नीले आदि वर्गों की मणियों से उपशोभित है। - प्रत्येक प्रासादावतंसक के उस समभूमि भाग के बीचों-बीच वेदिकानों, तोरणों, पुतलियों आदि से अलंकृत प्रेक्षागृहमंडप बने हुए हैं और उन मंडपों के भी मध्यभाग में स्थित मणिपीठिकाओं पर ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मगर आदि-आदि के चित्रामों से युक्त स्वर्ण-मणि रत्नों से बने हुए सिंहासन रखे हैं। __ सिंहासनों के ऊपरी भाग में शंख, कुद-पुष्प, क्षीरोदधि के फेनपुज आदि के सदृश श्वेतधवल विजयदृष्य बंधे हैं और उनके बीचों बीच वज्ररत्नों से बने हुए अकुश लगे हैं। उन अकुशों में कुभप्रमाण, अर्धकुभ प्रमाण जैसे बड़े-बड़े मुक्तादाम (झूमर) लटक रहे हैं / ये सभी दाम सोने के लंबूसकों, मणि रत्नमयी हारों-अर्धहारों से परिवेष्टित हैं तथा हवा के झोकों से परस्पर एक-दूसरे से टकराने पर कर्णप्रिय ध्वनि से समीपवर्ती प्रदेश को व्याप्त करते हुए असाधारण रूप से सुशोभित हो रहे हैं / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र द्वारों के उभय पार्श्ववर्ती तोरण १३२–तेसि णं वाराणं उभो पासे सोलस सोलस तोरणा पन्नत्ता, णाणामणिमया णाणामणिमएसु खंभेसु उवणिविट्ठसन्निविट्ठा जाव' पउम-हत्थगा। तेसि णं तोरणाणं पत्तेयं पुरो दो दो सालभंजियारो पन्नत्तानो, जहा हेढा तहेव / तेसि गं तोरणाणं पुरो नागदंता पन्नत्ता, जहा हेट्ठा जाव' दामा। तेसि णं तोरणाणं पुरनो दो-दो हयसंघाडा गयसंघाडा, नरसंघाडा, किन्नरसंघाडा, किंपुरिससंघाडा, महोरगसंघाडा, गंधवसंघाडा, उसभसंघाडा, सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, एवं पंतीमो वोही मिहुणाई। तेसि गं तोरणाणं दो दो पउमलयानो जाव५ (नागलयानो, असोगलयानो, चंपगलयानो, चूयलयानो, वणलयानो, वासंतियलयाओ, अइमुत्तयलयानो कुदलयानो) सामलयामो, णिच्चं कुसुमियाओ सव्वरयणामया अच्छा जाव' पडिरूबा। तेसि गं तोरणाणं पुरषो दो-दो दिसा-सोवत्थिया पन्नत्ता, सघरयणामया अच्छा जावई पडिरूवा। तेसि गं तोरणाणं पुरतो दो-दो चंदणकलसा पन्नत्ता, ते णं चंदणकलसा वरकमलपइट्टाणा तहेव / तेसि गं तोरणाणं पुरतो भिंगारा पन्नत्ता, ते णं भिगारा वरकमलपइट्टाणा जाव' महया मत्तगयमुहागितिसमाणा पन्नत्ता समणाउसो ! तेसि णं तोरणाणं पुरो दो-दो प्रायंसा पन्नत्ता, तेसि णं पायंसाणं इमेयारूवे वन्नावासे पन्नत्ते, तंजहा-तवणिज्जमया पगंठगा, अंकमया मंडला, अणुग्घसिनिम्मलाए छायाए समणुबद्धा, चंदमंडलपडिणिकासा, महया-महया अद्धकायसमाणा पन्नत्ता समणाउसो! तेसि णं तोरणाणं पुरनो दो-दो वइरनाभथाला पनत्ता, अच्छतिच्छडियसालितंदुलणहसंदिपडिपुन्ना इव चिट्ठति सव्वजंबूणयमया जाव पडिरूवा महया-महया रहचक्कवालसमाणा पन्नता समणाउसो! तेसि णं तोरणाणं पुरनो दो-दो पाईप्रो, तानो णं पाईओ सच्छोदगपरिहत्थानो, णाणाविहस्स फलहरियगस्स बहुपडिपुन्नाप्रो विव चिट्ठति, सम्वरयणामईयो अच्छा जाव'' पडिरूवाप्रो महया-महया गोकलिंजरचक्कसमाणीपो पन्नत्तानो समणाउसो! तेसि णं तोरणाणं पुरो दो दो सुपइट्टा पन्नत्ता णाणाविहभंडविरइया इव चिट्ठति सम्वरयणामया अच्छा जाव'' पडिरूवा। तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो-दो मणोगुलियानो पन्नत्ताओ, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुबन्न-रुपमया फलगा पन्नत्ता, तेसु णं सुवन्नरुप्पमएसु फलगेसु बहवे वयरामया नागदंतया पन्नत्ता, तेसु णं क्यरामएसु णागदंतएसु बहवे वयरामया सिक्कगा पन्नत्ता, तेसु णं क्यरामएसु सिक्कगेसु किण्ह१-२. देखें सूत्र संख्या 126 / ३--देखें सूत्र संख्या 123 ४--देखें सूत्र संख्या 118 / 5-6 देखें सूत्र 118 ७-८-देखें सूत्र संख्या 112 ९-१०-११-देखें सूत्र संख्या 118 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारों के उभय पार्श्ववती तोरण] [71 सुत्तसिक्कगवच्छिया णोलसुत्तसिक्कगवच्छिया, लोहियसुत्तसिक्कगवच्छिया हालिद्दसुत्तसिक्कगवच्छिया, सुकिल्लसुत्तसिक्कगवच्छिया बहवे वायकरगा पन्नत्ता सव्ववेरुलियमया अच्छा जाव' पडिरूवा / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरडगा पन्नत्ता, से जहाणामए रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चित्ते रयणकरंडए वेरुलियमणिफलिहपडलपच्चोयडे साते पहाते ते पतेसे सवतो समंता प्रोभा सति उज्जोवेति तवति पभासति, एवमेव ते वि चित्ता रयणकरंडगा साते पभाते ते पएसे सव्वनो समंता प्रोभासंति, उज्जोति, तवंति पभासंति / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो हयकंठा, गयकंठा, नरकंठा, किन्नरकंठा, किपुरिसकंठा, महोरगकंठा, गंधव्वकंठा, उसभकंठा सम्वरयणामया अच्छा जावर पडिरूवा। तेसि णं तोरणाणं पुरो दो-दो पुटफचंगेरीनो, मल्लचंगेरोमो, चुन्नचंगेरीयो, गंधचंगेरोमो, वत्थचंगेरीमो, शाभरणचंगेरीमो, सिद्धत्थचंगेरीमो लोमहत्थचंगेरीयो पन्नत्तानो सवरयणामयानो अच्छाप्रो जाव' .डिरूवारो। तेसि णं तोरणाणं पुरो दो दो पुप्फपडलगाई जाव लोमहत्थपडलगाई सम्वरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूवाई। तेसि णं तोरणाणं पुरो दो दो सोहासणा पण्णत्ता, तेसि णं सीहासणाणं वण्णो जावर दामा। तेसि णं तोरणाणं पुरनो दो दो रुप्पमया छत्ता पन्नता, ते णं छत्ता वेरुलियविमलदंडा, जंबूणयकम्निया, वइरसंधी, मुत्ताजालपरिगया, अट्ठसहस्सवरकंचणसलागा, ददरमलयसुगंधिसवोउयसुरभिसीयलच्छाया, मंगलभत्तिचित्ता, चंदागारोवमा। तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चामरानो पन्नत्तानो, तानो णं चामरानो चंदप्पभवेरुलियवयरतानामणिरयणखचियचित्तदण्डामोय सुहमरययवीहवालातो संखंककुददगरयममयमहियफेणपुजसन्निगासातो, सव्वरयणामयाओ, प्रच्छामो जाव पडिरूवानो। तेसि णं तोरणाणं पुरनो दो दो तेल्लसमुग्गा, पत्तसमुग्गा, चोयगसमुग्गा, तगरसमुग्गा, एलासमुग्गा, हरियालसमुग्गा, हिंगुलयसमुग्गा, मणोसिलासमुग्गा, अंजणसमुग्गा, सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। १३२-उन द्वारों के दक्षिण और वाम-दोनों पावों में सोलह-सोलह तोरण हैं / वे सभी तोरण नाना प्रकार के मणिरत्नों से बने हुए हैं तथा विविध प्रकार की मणियों से निर्मित स्तम्भों के ऊपर अच्छी तरह बन्धे हैं यावत् पद्म-कमलों के झूमकों-गुच्छों से उपशोभित हैं। उन तोरणों में से प्रत्येक के आगे दो-दो पुतलियां स्थित हैं / पुतलियों का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 1-2-3-4 देखें सूत्र संख्या 118 5. सिंहासन के वर्णन के लिये देखें सूत्र संख्या 48, 49, 50, 51 / 6. पाठान्तर–णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जज्जलविचित्तदंडापो चिल्लियायो। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [ राजप्रश्नीयसूत्र उन तोरणों के आगे दो-दो नागदन्त (खूटे) हैं / मुक्तादाम पर्यन्त इनका वर्णन पूर्ववणित नागदन्तों के समान जानना चाहिये। उन तोरणों के आगे दो-दो अश्व, गज, नर, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व और वृषभ संघाट (युगल) हैं / ये सभी रत्नमय, निर्मल यावत् असाधारण रूप-सौन्दर्य वाले हैं / इसी प्रकार से इनकी पंक्ति (श्रेणी) वीथि' और मिथुन (स्त्री-पुरुषयुगल) स्थित हैं / उन तोरणों के आगे दो-दो पदमलतायें यावत् (नागलतायें, अशोकलतायें, चम्पकलतायें, अाम्रलतायें, वनलतायें, वासन्तीलतायें, अतिमुक्तकलताये, कुदलतायें)श्यामलतायें हैं / ये सभी लतायें पुष्पों से व्याप्त और रत्नमय, निर्मल यावत् असाधारण मनोहर हैं। उन तोरणों के अग्र भाग में दो-दो दिशा-स्वस्तिक रखे हैं, जो सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् (मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप-मनोहर) प्रतिरूप-अतीव मनोहर हैं / उन तोरणों के आगे दो-दो चन्दनकलश कहे हैं / ये चन्दनकलश श्रेष्ठ कमलों पर स्थापित हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / उन तोरणों के आगे दो-दो भंगार (झारी) हैं / ये भृगार भी उत्तम कमलों पर रखे हुए हैं यावत् हे आयुष्मन् श्रमणो ! मत्त गजराज की मुखाकृति के समान विशाल प्राकार वाले हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो आदर्श-दर्पण रखे हैं / इन दर्पणों का वर्णन इस प्रकार है इनकी पाठपीठ सोने की है, (चौखटे वैड्यं मणि के और पिछले भाग वज्ररत्नों के बने हुये हैं) प्रतिबिम्ब मण्डल अंक रत्न के हैं और अनघिसे होने (घिसे नहीं जाने पर भी ये दर्पण अपनी स्वाभाविक निर्मल प्रभा से युक्त हैं / हे आयुष्मन् श्रमणो! चन्द्रमण्डल सरीखे ये निर्मल दर्पण ऊंचाई में कायार्ध (प्राधे शरीर) जितने बड़े-बड़े हैं। उन तोरणों के आगे वज्रमय नाभि वाले (वज्ररत्नों से निर्मित मध्य भाग वाले) दो-दो थाल रखे हैं / ये सभी थाल मशल आदि से तीन बार छांटे गये, शोधे गये अतीव स्वच्छ निर्मल अखण्ड तंदुलों-चावलों से परिपूर्ण-भरे हुए से प्रतिभासित होते हैं / हे आयुष्मन् श्रमणो ! ये थाल जम्बूनदस्वर्णविशेष-से बने हुए यावत् अतिशय रमणीय और रथ के पहिये जितने विशाल गोल आकार के हैं / उन तोरणों के आगे दो-दो पात्रियाँ रखी हैं / ये पात्रियां स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई हैं और विविध प्रकार के सद्य-ताजे हरे फलों से भरी हुई-सी प्रतिभासित होती हैं / हे आयुष्मन् श्रमणो ! ये सभी पात्रियां रत्नमयी, निर्मल यावत् अतीव मनोहर हैं और इनका आकार बड़े-बड़े गोकलिंजरों (गाय को घास रखने के टोकरों) के समान गोल हैं। उन तोरणों के आगे दो दो सुप्रतिष्ठकपात्र विशेष (प्रसाधन मंजूषा-शृगारदान) रखे हैं। प्रसाधन-शृगार की साधन भूत औषधियों आदि से भरे हुए भांडों से सुशोभित हैं और सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् अतीव मनोहर हैं / their 1. एक दिशोन्मुख एवं परस्पर एक दूसरे के उन्मुख अवस्थान को क्रमश: पंक्ति और वीथि कहते हैं। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोरणवर्णन ] उन तोरणों के आगे दो-दो मनोगुलिकायें हैं। इन मनोहर मनोगुलिकानों पर अनेक सोने और चांदी के पाटिये जड़े हुए हैं और उन सोने और चांदी के पाटियों पर वज्ररत्नमय नागदन्त लगे हैं एवं उन नागदन्तों के ऊपर वज्ररत्नमय छींके टंगे हैं। उन छींकों पर काले, नीले, लाल, पीले और सफेद सूत के जालीदार वस्त्र खण्ड से ढंके हुए वातकरक (जल से रहित, कोरे घड़े) रखे हैं। ये सभी वातकरक वज्ररत्नमय, स्वच्छ यावत् अतिशय सुन्दर हैं। उन तोरणों के आगे चित्रामों से युक्त दो-दो (रत्नकरंडक-रत्नों के पिटारे) रखे हैं। जिस तरह चातुरंत चक्रवर्ती (षट खंडाधिपति) राजा का वैडर्यमणि से बना हया एवं स्फटिक मणि के पट आच्छादित अद्भुत-आश्चर्य-जनक रत्नकरंडक अपनी प्रभा से उस प्रदेश को पूरी तरह से प्रकाशित, उद्योतित, तापित और प्रभासित करता है, उसी प्रकार ये रत्नकरंडक भी अपनी प्रभा–कांति से अपने निकटवर्ती प्रदेश को सर्वात्मना प्रकाशित, उद्योतित तापित और प्रभासित करते हैं / उन तोरणों के प्रागे दो-दो अश्वकंठ (कंठ पर्यन्त घोड़े की मुखाकृति जैसे रत्न-विशेष) गजकंठ, नरकंठ किन्नरकंठ, किंपुरुषकंठ, महोरगकंठ, गंधर्वकंठ, और वृषभकंठ रखे हैं / ये सब अश्वकंठादिक सर्वथा रत्नमय, स्वच्छ-निर्मल यावत् असाधारण सुन्दर हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो पुष्प-चंगेरिकायें (फूलों से भरी छोटी-छोटी टोकरियां-डलिया) माल्यचंगेरिकायें, चूर्ण (सुगन्धित चूर्ण) चंगेरिकायें गन्ध चंगेरिकायें, वस्त्र चंगेरिकायें, आभरण (आभूषण) चंगेरिकायें, सिद्धार्थ (सरसों) को चंगेरिकायें एवं लोमहस्त (मयूरपिच्छ) चंगेरिकायें रखी हैं / ये सभी रत्नों से बनी हुई, निर्मल यावत् प्रतिरूप-अतीव मनोहर हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो पुष्पपटलक (पिटारे) यावत् (माल्य, चूर्ण, गन्ध, वस्त्र, आभरण, सिद्धार्थ,) तथा मयूर पिच्छपटलक रखे हैं। ये सब भी पटलक रत्नमय, स्वच्छ-निर्मल यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो सिंहासन हैं / इन सिंहासनों का वर्णन मुक्तादामपर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिये। उन तोरणों के आगे रजतमय दो-दो छत्र हैं। इन रजतमय छत्रों के दण्ड विमल वैडूर्यमणियों के हैं, कणिकायें (बीच का केन्द्र) सोने को हैं, संधियाँ वज्र की हैं, मोती पिरोई हुई आठ हजार सोने की सलाइयां (ता.) हैं तथा दद्दर चन्दन और सभी ऋतुओं के पुष्पों की सुरभि से युक्त शीतल कान्ति वाले हैं / इन पर मंगलरूप स्वस्तिक आदि के चित्र बने हैं। इनका आकार चन्द्रमण्डलवत् गोल है। उन तोरणों के आगे दो-दो चामर हैं। इन चामरों की डंडियां चन्द्रकांत वैडूर्य और वज्र रत्नों की हैं और उनपर अनेक प्रकार के मणि-रत्नों द्वारा विविध चित्र-विचित्र रचनायें बनी हैं, शंख, अंकरत्न, कुदपुष्प, जलकण और मथित क्षीरोदधि के फेनज सदश श्वेत-धवल इनके पतले लम्बे बाल हैं / ये सभी चामर सर्वथा रत्नमय. निर्मल यावत् प्रतिरूप-अनुपम शोभा शाली हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो तेलसमुद्गक (सुगन्धित तेल से भरे पात्र), कोष्ठ (सुगन्धित द्रव्यविशेष कुटज) समुद्गक, पत्र (तमाल के पत्ते) समुद्गक, चोयसमुद्गक, तगरसमुद्गक, एला Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [ राजप्रश्नोयसूत्र (इलायची) समुद्गक, हरतालसमुद्गक, हिंगलुकसमुद्गक, मैनमिलसमुद्गक, अंजनसमुद्गक रखे हैं। ये सभी समुद्गक रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् अतीव मनोहर हैं / द्वारस्थ ध्वजारों का वर्णन - १३३-सूरिया णं विमाणे एगमेगे दारे अनुसयं चक्कझयाणं, अट्ठसयं मिगझयाणं, गरुडझयाणं, छत्तज्झयाणं, पिच्छन्झयाणं, सउणिज्झयाणं, सौहझयाणं, उसभज्झयाणं, प्रसयं सेयाणं चउविसाणाणं नागवरकेऊणं / एवमेव सपुत्वावरेणं सूरियाभे विमाणे एगमेगे दारे असीयं असीयं केउसहस्सं भवति इति मक्खायं / 133 -सूर्याभ विमान के प्रत्येक द्वार के ऊपर चक्र, मृग, गरुड़, छत्र, मयूरपिच्छ, पक्षी, सिंह. वषभ. चार दांत वाले श्वेत हाथी और उत्तम नाग (सर्प) के चित्र (चिह्न) से अंकित एक सौ, आठ-एक सौ आठ ध्वजायें फहरा रही हैं। इस तरह सब मिलाकर एक हजार अस्सी-एकहजार अस्सी ध्वजायें उस सूर्याभ विमान के प्रत्येक द्वार पर फहरा रही हैं—ऐसा तीर्थकर भगवन्तों ने कहा है। द्वारवर्ती भौमों (विशिष्ट स्थानों) का वर्णन १३४–तेसि गंदाराणं एगमेगे दारे पट्टि पट्टि भोमा पन्नत्ता। तेसि णं भोमाणं भूमिभागा, उल्लोया च भागियया / तेसि गं भोमाणं च बहुमज्झदेसभागे पत्तेयं पत्तेयं सोहासणे, सीहासणवन्नो सपरिवारो, अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं-पत्तेयं भद्दासणा पन्नत्ता। १३४–उन द्वारों के एक-एक द्वार पर पैसठ-पैंसठ भौम (विशिष्ट स्थान-उपरिगृह) बताये हैं / यान विमान की तरह ही इन भौमों के समरमणीय भूमि भाग और उल्लोक (चन्देवों) का वर्णन करना चाहिए। इन भौमों के बीचों-बीच एक-एक सिंहासन रखा है। यानविमानवर्ती सिंहासन की तरह उसका सपरिवार वर्णन समझना चाहिए, अर्थात् उसके परिवार रूप सामानिक आदि देवों के भद्रासनों सहित इन सिंहासनों का वर्ण-जानना चाहिये / शेष आसपास के भौमों में भद्रासन रक्खे हैं / १३५--तेसि णं वाराणं उत्तमागारा' सोलसविहेहि रयणेहि उवसोभिया, तं जहा–रयणेहि जाव रि?हिं / तेसि णं दाराणं उपि अट्ठमंगलगा सज्झया जाव छत्तातिछत्ता। एवमेव सपुत्वावरेणं सूरियाने विमाणे चत्तारि वारसहस्सा भवंतीति मक्खायं / १३५–उन द्वारों के ओतरंग (ऊपरी भाग) सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित हैं / उन रत्नों के नाम इस प्रकार हैं--कर्केतनरत्न यावत् (वज्र, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंक, अंजन, रजत, अंजनपुलक, जातरूप, स्फटिक), रिष्ट रत्न / 1. पाठान्तर—उवरिमागारा। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमान के बनखण्डों का वर्णन [75 उन द्वारों के ऊपर ध्वजाओं यावत् छत्रातिछत्रों से शोभित स्वस्तिक आदि पाठ-पाठ मंगल हैं। __इस प्रकार सूर्याभ विमान में सब मिलकर चार हजार द्वार सुशोभित हो रहे हैं / विमान के वनखण्डों का वर्णन १३६-सरियाभस्स विमाणस्स चउद्दिस पंच जोयणसयाई अबाहाए चत्तारि वणसंडा पन्नत्ता, तं जहा---प्रसोगवणे, सत्तवण्णवणे, चंपगवणे, चूयगवणे / पुरस्थिमेणं असोगवणे, दाहिणेणं सत्तवन्नवणे, पच्चत्थिमेणं चंपगवणे, उत्तरेणं चूयगवण / ते णं वणखंडा साइरेगाइं प्रद्धतेरस जोयणसयसहस्साई प्रायामेणं, पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं, पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिखित्ता, किण्हा किण्होमासा, नीला नीलोभासा, हरिया हरियोभासा, सीया सोयोभासा, निद्धा निद्धोभासा, तिब्वा तिन्वोभासा, किण्हा किण्हच्छाया, नीला नीलच्छाया, हरिया हरियच्छाया, सीया सीयच्छाया, निद्धा निद्धच्छाया, घणकडितडियच्छाया, रम्मा महामेहनिकुरुबभूया ।..ते णं पायवा मूलमंतो वणखंडवन्नो / १३६-उस सूर्याभविमान के चारों ओर पांच सौ-पांच सौ योजन के अन्तर पर चार दिशाओं में 1. अशोकवन, 2. सप्तपर्णवन, 3. चंपकवन और 4. आम्रवन नामक चार वन खंड हैं। पूर्व दिशा में अशोकवन, दक्षिण दिशा में सप्तपर्ण वन, पश्चिम में चंपक वन और उत्तर में आम्रवन है। ये प्रत्येक वनखंड साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक लम्बे और पांच सौ योजन चौड़े हैं / प्रत्येक वनखंड एक-एक परकोटे से परिवेष्टित-घिरा है। ये सभी वनखंड अत्यन्त घने होने के कारण काले और काली प्राभा वाले, नीले और नील आभा वाले, हरे और हरी कांति वाले, शीत स्पर्श और शीत प्राभा वाले, स्निग्ध-कमनीय और कमनीय कांति दीप्ति-प्रभा वाले, तीव्र प्रभा वाले तथा काले और काली छाया वाले, नीले और नीली छाया वाले, हरे और हरी छाया वाले, शीतल और शीतल छाया वाले, स्निग्ध और स्निग्ध छाया वाले हैं एवं वृक्षों की शाखा-प्रशाखायें आपस में एक दूसरी से मिली होने के कारण अपनी सघन छाया से बड़े ही रमणीय तथा महा मेघों के समुदाय जैसे सुहावने दिखते हैं। इन वनखंडों के वृक्ष जमीन के भीतर गहरी फैली हुई जड़ों से युक्त हैं, इत्यादि वृक्षों का समग्र वर्णन प्रौपपातिक सूत्र के अनुसार यहाँ करना चाहिए। विवेचन--औपपातिक सूत्र के अनुसार संक्षेप में वनखंड के वृक्षों का वर्णन इस प्रकार है 1. एक जाति वाले श्रेष्ठ वृक्षों के समूह को वन और भिन्न-भिन्न जाति वाले वृक्षों के समुदाय को वनखंड ___ कहते हैं--एग जाईएहिं रुक्लेहि वणं अणेगजाईएहिं उत्तमेहिं रुक्षेहि वणसण्डे (जीवाभिगम चूणि)। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र इन वनखंडों के वृक्ष जमीन के अन्दर विस्तृत गहरे फैले हुए मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रशाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज से युक्त हैं। छतरी के समान इनका रमणीय गोल प्राकार है। इनके स्कन्ध ऊपर की ओर उठी हुई अनेक शाखा-प्रशाखाओं से शोभित हैं और इतने विशाल एवं वृत्ताकार हैं कि अनेक पुरुष मिलकर भी अपने फैलाये हुए हाथों से उन्हें घेर नहीं पाते। पत्ते इतने घने हैं कि बीच में जरा भी अंतर दिखलाई नहीं देता है। पत्र-पल्लव सदैव नवीन जैसे दिखते हैं / कोपलें अत्यन्त कोमल हैं और सदैव सर्व ऋतुओं के पुष्पों से व्याप्त हैं तथा नमित, विशेष नमित, पुष्पित, पल्लवित, गुल्मित, गुच्छित, विनमित प्रणमित होकर मंजरी रूप शिरोभूषणों से अलंकृत रहते हैं। तोता, मयूर, मैना, कोयल, नंदीमुख, तीतर, बटेर, चक्रवाल, कलहंस, बतक, सारस आदि अनेक पक्षि-युगलों के मधुर स्वरों से गूजते रहते हैं / अनेक प्रकार के गुच्छों और गुल्मों से निर्मित मंडप आदि से सुशोभित हैं / नासिका और मन को तृप्ति देने वाली सुगंध से महकते रहते हैं / इस प्रकार ये सभी वृक्ष सुरम्य, प्रासादिक दर्शनीय, अभिरूप-मनोहर एवं प्रतिरूप-विशिष्ट शोभासंपन्न हैं। १३७–तेसि णं वणसंडाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता, से जहानामए प्रालिंगपुक्खरे तिवा जाव णाणाविहपंचवर्णोहि मणीहि य तणेहि य उवसोभिया, तेसि णं गंधो फासो यत्रो जहक्कम १३७–उन वनखंडों के मध्य में प्रति सम रमणीय भूमिभाग (मैदान) हैं / वे-मैदान प्रालिंग पुष्कर आदि के सदृश समतल यावत् नाना प्रकार के रंग-बिरंगे पंचरंगे मणियों और तणों से उपशोभित हैं। इन मणियों के गंध और स्पर्श यथाक्रम से पूर्व में किये गये मणियों के गंध और स्पर्श के वर्णन के समान जानना चाहिए / मरिणयों और तरणों की ध्वनियाँ १३८-प्र०--तेसि णं भंते ! तणाण य मणीण य पुवावरदाहिणुत्तरागतेहि वातेहि मंदायं मंदायं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं खोभियाणं उदोरिदाणं केरिसए सद्दे भवति? 138 --हे भदन्त ! पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा से आए वायु के स्पर्श से मंद-मंद हिलने-डुलने, कंपने, डगमगाने, फरकने, टकराने क्षुभित-विचलित और उदीरित-प्रेरित होने पर उन तृणों और मणियों की कैसी शब्द-ध्वनि होती है ? १३६-30-गोयमा ! से जहानामए सीयाए बा, संदमाणीए वा, रहस्स वा सच्छत्तस्स सज्झयस्स, सघंटस्स, सपडागस्त, सतोरणवरस्स सनंविघोसस्स, सखिखिणिहेमजालपरिक्खित्तस्स, हेमवयचित्ततिणिसकणगणिज्जुत्तदारुयायस्स, सुसंपिनद्धचषकमंडलधुरागस्स, कालायससुकयणेमिजंतकम्मस्स प्राइण्णवर-तुरगसुसंपउत्तरस, कुसलणरच्छेयसारहि-सुसंपरिग्गहियस्स, सरसबत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकंकडावयंगस्स, सचाव-सर-पहरण-प्रावरणभरिय-जोधजुज्झसज्जस्स, रायंगणंसि वा रायंतेउरंसि वा रम्मंसि वा मणिकुट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघट्टिज्जमाणस्स वा नियट्टिज्जमाणस्स वा अोराला मणण्णा मणोहरा कण्णमणनिव्वुइकरा सद्दा सम्वनो समंता अभिणिस्सवंति। भवेयारूवे सिया? णो इण? सम? / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणियों और तृणों को ध्वनियां] [77 १३९-हे गौतम ! जिस तरह शिविका (डोली, पालको) अथवा स्यन्दमानिका (बहली-सुखपूर्वक एक व्यक्ति के बैठने योग्य घोड़ा जुता यान-विशेष) अथवा रथ, जो छत्र, ध्वजा, घंटा, पताका और उत्तम तोरणों से सुशोभित, वाद्यसमूहवत् शब्द-निनाद करने वाले घुघरुनों एवं स्वर्णमयी मालाओं से परिवेष्टित हो, हिमालय में उत्पन्न अति निगड़-सारभूत उत्तम तिनिश काष्ठ से निमित एवं सुव्यवस्थित रीति से लगाये गये प्रारों से युक्त पहियों और धरा से सुसज्जित हो, सुदढ़ उत्तम लोहे के पट्टों से सुरक्षित पट्टियों वाले, शुभलक्षणों और गुणों से युक्त कुलीन अश्व जिसमें जुते हों जो रथ-संचालन-विद्या में अति कुशल, दक्ष सारथी द्वारा संचालित हो, एक सौ-एक सौ वाण वाले, बत्तीस तूणोरों (तरकसों) से परिमंडित हो, कवच से आच्छादित अग्र-शिखर-भाग बाला हो, धनुष बाण, प्रहरण, कवच आदि युद्धोपकरणों से भरा हो, और युद्ध के लिये तत्पर-सन्नद्ध योधानों के लिए सजाया गया हो, ऐसा रथ बारंबार मणियों और रत्नों से बनाये गये-फर्श वाले राजप्रांगण, अंतःपुर अथवा रमणीय प्रदेश में आवागमन करे तो सभी दिशा-विदिशा में चारों ओर उत्तम, मनोज्ञ, मनोहर, कान और मन को प्रानन्द-कारक मधुर शब्द-ध्वनि फैलती है। हे भदन्त ! क्या इन रथादिकों की ध्वनि जैसी ही उन तृणों और मणियों की ध्वनि है ? गौतम ! नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है / (उनकी ध्वनि तो इनसे भी विशेष मधुर है।) १४०-से जहाणामए वेयालियवीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अंके सुपइट्टियाए कुसल नरनारिसुसंपरिग्गहियाए चंदणसारनिम्भियकोणपरिघट्टियाए युवरत्तावरत्तकालसमयंमि मंदाय-मंदायं वेइयाए, पवेइयाए, चलियाए, घट्टियाए, खोभियाए, उदीरियाए पोराला, मणुण्णा, मणहरा, कण्हमणनिव्वुइकरा सद्दा सम्वो समंता अभिनिस्सवंति, भवेयारूवे सिया? जो इण? सम?।। १४०---भदन्त ! क्या उन मणियों और तृणों की ध्वनि ऐसी है जैसी कि मध्यरात्रि अथवा रात्रि के अंतिम प्रहर में वादनकुशल नर या नारी द्वारा अंक-गोद में लेकर चंदन के सार भाग से रचित कोण (वीणा बजाने का दंड, डांडी) के स्पर्श से उत्तर-मंद मूर्च्छना वाली (रागरागिनी के अनुरूप तीव्र-मंद आरोह-अवरोह ध्वनियुक्त) वैतालिक वीणा को मंद-मंद ताड़ित, कंपित, प्रकंपित, चालित, घर्षित क्षुभित और उदीरित किये जाने पर सभी दिशाओं एवं विदिशाओं में चारों ओर उदार, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोहर, कर्णप्रिय एवं मनमोहक ध्वनि गूजती है ? गौतम ! नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। उन मणियों और तृणों की ध्वनि इससे भी अधिक मधुर है। १४१–से जहानामए किन्नराण वा, किपुरिसाण वा, महोरगाण वा, गंधव्वाण वा, भद्दसालवणगयाणं वा, नंदणवणगयाणं वा, सोमणसवणगयाणं वा, पंडगवणगयाणं वा, हिमवंतमलयमंदरगिरिगृहासमन्नागयाण वा, एगो सन्निहियाणं समागयाणं सन्निसन्नाणं समुवविद्वाणं पमुइयपक्कीलियाणं गीयरइ गंधवहसियमणाणं गज्ज पज्जं, कत्थं, गेयं पयबद्ध, पायबद्ध उक्खितं पायंत मंदायं रोइयावसाणं सत्तसरसमन्नागयं' छद्दोसविप्पमुक्कं एक्कारसालंकारं अद्वगुणोववेयं, गुजाऽवंककुहरोवगूढं रत्तं तिट्ठाणकरणसुद्ध पगोयाणं, भवेयारूवे ? 1. पाठान्तर—अटूरससंपउत्तं / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] | राजप्रश्नीयसूत्र १४१–भगवन् ! तो क्या उनकी ध्वनि इस प्रकार की है, जैसे कि भद्रशालवन, नन्दनवन, सौमनसवन अथवा पांडुक वन या हिमवन, मलय अथवा मंदरगिरि की गुफाओं में गये हुए एवं एक स्थान पर एकत्रित, समागत, बैठे हुए और अपने-अपने समूह के साथ उपस्थित, हर्षोल्लास पूर्वक क्रीड़ा करने में तत्पर, संगीत-नृत्य-नाटक-हासपरिहासप्रिय किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों अथवा गंधर्वो के गद्यमय-पद्यमय, कथनीय, गेय, पद-बद्ध, पादबद्ध, उत्क्षिप्त, पादान्त, मंद-मंद घोलनात्मक, रोचितावसान-सुखान्त, मनमोहक सप्त स्वरों से समन्वित, षड्दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों और आठ गुणों से युक्त गुंजारव से दूर-दूर के कोनों क्षेत्रों को व्याप्त करने वाले राग-रागिनी से युक्त / त्रि-स्थान-करण शुद्ध गीतों के मधुर बोल होते हैं ? / विवेचन-भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, और वैमानिक इन चार देवनिकायों में से किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व व्यंतरनिकाय के देव हैं। ये सभी प्रशस्त गीत, संगीत, नृत्य एवं नाट्य-कलापों के प्रेमी होते हैं / बालसुलभ क्रीड़ा और हास-परिहास, कोलाहल करने में इन्हें आनन्दानुभूति होती है / पुष्पों से बनाये हुए मुकुट, कुंडल आदि इनके प्रिय आभूषण हैं / सर्व ऋतुओं के सुन्दर सुगंधित पुष्पों द्वारा निर्मित वनमालाओं से इनके वक्षस्थल शोभित रहते हैं। ये अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र रंग-बिरंगे पंचरंगे परिधान-वस्त्र पहनते हैं। ये सभी प्रायः सुमेरु पर्वत और हिमवंत प्रादि पर्वतों के रमणीय प्रदेशों में निवास करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में संगीत के स्वर, दोष और गुणों की संख्या का संकेत करने के लिये सत्तसरसमत्नागयं, छद्दोस विप्पमुक्कं, अट्ठगुणोववेयं पद दिये हैं / स्वरों आदि के नाम इस प्रकार हैं सप्तस्वर- 1. षड्ज, 2. ऋषभ, 3. गांधार, 4. मध्यम, 5. पंचम, 6. धैवत और 7. निषाद / षड्दोष-१. भीत, 2. द्रुत, 3. उप्पित्थ, 4. उत्ताल, 5. काकस्वर, 6. अनुनास / अष्टगुण-१. पूर्ण, 2. रक्त 3. अलंकृत 4. व्यक्त 5. अविघुष्ट, 6. मधुर, 7. सम 8. सुललित / १४२–हता सिया। १४२-हे गौतम ! हाँ, ऐसी ही मधुरातिमधुर ध्वनि उन मणियों और तृणों से निकलती है। वनखंडवौ वापिकाओं आदि का वर्णन--- १४३--तेसि णं वणसंडाणं तत्थ-तत्थ तहि तहि देसे से बहूईप्रो खुड्डा खुड्डियातो वावीयानो, पुक्खरिणीप्रो, .दीहियानो, गुजालियानो, सरपंतियानो, सरसरपंतियाओ, बिलतिओ, अच्छाप्रो सहामो रययामयकलापो, समतीरानो वयरामयपासाणानो तवणिज्जतलामो, सुवण्णसुज्झरययवालुयाओ वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडामो, सुहोयारसुउत्तारामो. गाणामणितित्थसुबद्धाओ. चउक्कोणाश्रो, प्राणुषुव्वसुजातवप्पगंभीरसीयलजलामो, संछन्नपत्तभिसमुणालायो, बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपोंडरीयसयवत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियानो छप्पयपरिभुज्जमाणकमलापो, अच्छविमलसलिलपुण्णाओ, पडिहत्थभमंतमच्छकच्छम-प्रणेगसउणमिहुणगपविचरितारो। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनखंडवौं वापिकाओं आदि का वर्णन ] [79 पत्तेयं-पत्तेयं पउमवरदेदियापरिक्खित्तानो, पत्तेयं-पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्तायो। __अप्पेगइयानो पासवोयगाो, अप्पेगइयायो वारुणोयगाओ, अप्पेगइयानो खीरोयगाओ, अप्पेगइयानो घनोयगायो, अप्पेगइयाओ खोदोयगानो' अप्पेगतियानो पगतीए उयगरसेणं पण्णत्तायो, पासादीयानो दरिसणिज्जानो अभिरुवायो पडिरूवाप्रो। १४३–उन वनखंडों में जहाँ-तहाँ स्थान-स्थान पर अनेक छोटी-छोटी चौरस वापिकायेंबावड़ियाँ, गोल पुष्करिणियाँ, दीपिकायें (सीधी बहती नदियाँ), गुजालिकायें (टेड़ी-तिरछीबांकी बहती नदियां), फूलों से ढंकी हुई सरोवरों की पंक्तियाँ, सर-सर पंक्तियाँ (पानी के प्रवाह के लिये नहर द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए तालाबों की पंक्तियाँ) एवं कूपपंक्तियाँ बनी हुई हैं। इन सभी वापिकाओं आदि का बाहरी भाग स्फटिमणिवत अतीव निर्मल, स्निग्ध-कमनीय है। इनके तट रजतमय हैं और तटवर्ती भाग अत्यन्त सम-चौरस हैं / ये सभी जलाशय वज्ररत्न रूपी पाषाणों से बने हुए हैं। इनके तलभाग तपनीय स्वर्ण से निर्मित हैं तथा उन पर शुद्ध स्वर्ण और चांदी की बालू बिछी है / तटों के समीपवर्ती ऊँचे प्रदेश (मुडेर) वैडूर्य और स्फटिक मणि-पटलों के बने हैं। इनमें उतरने और निकलने के स्थान सुखकारी हैं। घाटों पर अनेक प्रकार की मणियाँ जड़ी हुई हैं / चार कोने वाली वापिकाओं और कुत्रों में अनुक्रम से नीचे-नीचे पानी अगाध एवं शीतल है तथा कमलपत्र, बिस (कमलकंद) और मृणालों से ढंका हुआ है / ये सभी जलाशय विकसित-खिले हुए उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुंडरीक, शतपत्र तथा सहस्र-पत्र कमलों से सुशोभित हैं और उन पर पराग-पान के लिये भ्रमरसमूह गूंज रहे हैं। स्वच्छ-निर्मल जल से भरे हुए हैं / कल्लोल करते हुए मगर-मच्छ कछुआ आदि बेरोक-टोक इधर-उधर घूम फिर रहे हैं और अनेक प्रकार के पक्षिसमूहों के गमनागमन से सदा व्याप्त रहते हैं।। ये सभी जलाशय एक-एक पद्मवरवेदिका और एक एक वनखंड से परिवेष्टित-घिरे इन जलाशयों में से किसी में पासव जैसा, किसी में वारुणोदक (वारुण समुद्र के जल) जैसा, किसी में क्षीरोदक जैसा, किसी में घी जैसा, किसी में इक्षुरस जैसा और किसी-किसी में प्राकृतिकस्वाभाविक पानी जैसा पानी भरा है। ये सभी जलाशय मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। १४४--तासि णं वावीणं जाव बिलपंतीणं पत्तेयं पत्तेयं चउहिसि चत्तारि तिसोपाणपडिरूवगा पण्णता, तेसि णं तिसोपाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा–बइरामया नेमा"..... तोरणाणं छत्ताइछत्ता य यव्वा / १४४-उन प्रत्येक वापिकाओं यावत् कूपपंक्तियों की चारों दिशाओं में तीन-तीन सुन्दर सोपान बने हुए हैं / इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का वर्णन इस प्रकार है, जैसे—उनकी नेमें वज्ररत्नों की हैं इत्यादि तोरणों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों पर्यन्त इनका वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / 1. पाठान्तरअप्पेगइपायो खारोयगायो। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 [ राजप्रश्नीयसूत्र १४५–तासि णं खुड्डाखुड्डियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ-तत्थ तहि-तहिं बहवे उपायपन्वयगा, नियइपन्वयगा, जगईपव्वयगा दारुइज्जपन्वयगा, दगमंडवा, दगमंचगा, दगमालगा, दगपासायगा, उसड्डा खुड्डखुड्डगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। १४५---उन छोटी-छोटी वापिकाओं यावत् पपंक्तियों के मध्यवर्ती प्रदेशों में बहुत से उत्पात पर्वत, नियतिपर्वत, जगतीपर्वत दारुपर्वत तथा कितने ही ऊँचे-नीचे, छोटे-बड़े दकमंडप, दकमंच, दकमालक, दकप्रासाद बने हुए हैं तथा कहीं-कहीं पर मनुष्यों और पक्षियों को झूलने के लिये झूलेहिंडोले पड़े हैं। ये सभी पर्वत आदि सर्वरत्नमय अत्यन्त निर्मल यावत् असाधारण रूप से संपन्न हैं। विवेचन-सूत्र में बापिकाओं आदि के अन्तरालवर्ती स्थानों में आये हुए जिन पर्वतों आदि का वर्णन किया है, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उत्पातपर्वत-ऐसे पर्वत जहाँ सूर्याभ-विमानवासी देव-देवियाँ विविध प्रकार की चित्र-विचित्र क्रीडाओं के निमित्त अपने-अपने उत्तर वैक्रिय शरीरों की रचना करते हैं / नियतिपर्वत-इन पर्वतों पर सूर्याभ-विमानवासी देव-देवियाँ अपने-अपने भवधारणीय (मूल) वैक्रिय शरीरों से क्रीड़ारत रहते हैं। जगतीपर्वत–इन पर्वतों का प्राकार कोट-परकोटे जैसा होता है / दारुपर्वत- दारु अर्थात् काष्ठ-लकड़ी / लकड़ी से बने पर्वत जैसे आकार वाले कृत्रिम पर्वत / दकमंडप-स्फटिक मणियों से निर्मित. मंडप अथवा ऐसे मंडप जिनमें फुव्वारों द्वारा कृत्रिम वर्षा की रिमझिम-रिमझिम फुहारें बरसती रहती हैं। दकमालक-स्फटिक मणियों से बने हुए घर के ऊपरी भाग में बने हुए कमरे---मालिये / उत्पात पर्वतों आदि की शोभा १४६-तेसु णं उप्याय-पन्यएसु पक्खंदोलएसु बहूई हंसासणाई, कोंचासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाई, पणयासणाई, दोहासणाइं, भद्दासणाई, पक्खासणाई, मगरासणाई, उसभासणाई, सोहासणाई, पउमासणाई, दिसासोबत्थियाई' सम्बरयणामयाइं अच्छाई जाव पडिरूवाई। १४६-उन उत्पात पर्वतों, पक्षिहिंडोलों आदि पर सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अतीव मनोहर अनेक हंसासन (हंस जैसी प्राकृति वाले प्रासन) कोंचासन, गरुडासन, उन्नतासन (ऊपर की ओर उठे हुए आसन), प्रणतासन (नीचे की ओर झुके हुए प्रासन), दीर्घासन (शैया जैसे लम्बे ग्रासन) भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और दिशास्वस्तिक प्रासन (पक्षी, मगर, वृषभ, सिंह, कमल और स्वस्तिक के चित्रामों से सुशोभित अथवा तदनुरूप प्राकृति वाले प्रासन रखे हुए हैं। 1. यथाक्रम से इन आसनों की नामबोधक संग्रहणी गाथा इस प्रकार है 'हंसे कोंचे गरुडे उग्णय पणए य दीह भद्दे य / पक्खे मयरे पउमे सीह दिसासोत्थि बारसमे / " Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनखंडवर्ती ग्रहों एवं मण्डपों का वर्णन] [81 वनखंडवर्ती गृहों का वर्णन १४७–तेसु णं वणसंडेसु तत्थ-तत्थ तहि-तहिं देसे-देसे बहवे प्रालियघरगा, मालियघरगा, कलिघरगा, लयाघरगा, अच्छणधरगा, पिच्छणधरगा, मज्जणघरगा, पसाहणघरगा, गब्भघरगा, मोहणघरगा, सालघरगा, जालघरगा, कुसुमघरगा, चित्तघरगा, गंधव्वघरगा, आयंसघरगा सन्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। १४७---उन वनखंडों में यथायोग्य स्थानों पर बहुत से आलिगृह (वनस्पतिविशेष से बने हुए गृह जैसे मंडप) मालिगृह (वनस्पतिविशेष से बने हुए गृह) कदलीगृह, लतागृह, आसनगृह, (विश्राम करने के लिये बैठने योग्य आसनों से युक्त घर) प्रेक्षागृह (प्राकृतिक शोभा के अवलोकन हेतु बने विश्रामगृह अथवा नाटयगृह) मज्जनगृह (स्नानघर) प्रसाधनगृह (शृगार-साधनों से सुसज्जित स्थान) गर्भगृह (भीतर का घर), मोहनगृह (रतिक्रीड़ा करने योग्य स्थान), शालागृह, जाली वाले गृह, कुसुमगृह, चित्रगृह (चित्रों से सज्जित स्थान) गंधर्वगृह (संगीत-नृत्य शाला) आदर्शगृह (दर्पणों से बने हुए भवन) सुशोभित हो रहे हैं। ये सभी गृह रत्नों से बने हुए अधिकाधिक निर्मल यावत् असाधारण मनोहर हैं। १४८-तेसु णं प्रालियघरगेसु जाव' प्रायंसघरगेसु तहि तहिं घरएसु हंसासणाई जाव दिसासोवत्थिनासणाई सम्वरयणामयाई जाव पडिरूवाई। १४८-उन प्रालिगृहों यावत् आदर्शगृहों में सर्वरत्नमय यावत् अतीव मनोहर हंसासन यावत् दिशा-स्वस्तिक आसन रखे हैं / वनखंडवों मंडपों का वर्णन १४६-तेसु णं वणसंडेसु तत्थ-तत्थ देसे तहि तहि बहवे जातिमंडवगा, जहियामंडवगा मल्लियामंडवगा, णवमालियामंडवगा, वासंतिमंडवगा, दहिवासुयमंडवगा, सूरिल्लियमंडवगा तंबोलिमंडवगा, मुद्दियामंडवगा, गागलयामंडवगा, अतिमुत्तयलयामंडवगा, अप्फोयामंडगा, मालुया. मंडवगा, अच्छा सव्वरयणामया जाव पडिरूवा / १४९-उन वनखंडों में विभिन्न स्थानों पर बहुत से जातिमंडप (जाई के कुज), यूथिकामंडप (जूही को बेल के मंडप), मल्लिकामंडप, नवमल्लिकामंडप, वासंतीमंडप, दधिवासुका (वनस्पतिविशेष) मंडप, सूरिल्लि (सूरजमुखी) मंडप, नागरबेलमंडप, मृद्वीकामंडप (अंगूर की बेल के मंडप) नागलतामंडप, अतिमुक्तक (माधवीलतामंडप, अप्फोया मंडप और मालुकामंडप बने हुए हैं। ये सभी मंडप अत्यन्त निर्मल, सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप-अतीव मनोहर हैं। विवेचन-लता और बेलों से बने इन मंडपों में बहुत सी सुगंधित पुष्पों वाली लतायें और बेलें तो प्रसिद्ध हैं, परन्तु कुछ एक नामों के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। जैसे दधिवासुका 1. देखें सूत्र संख्या 147 2. देखें सूत्र संख्या 146 3. पाठान्तर-सूरल्लि, सूरमल्लि / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [राजप्रश्नीयसूत्र अप्फोया मालुका / लेकिन प्रसंग से ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी लतायें प्रायः सुगंधित पुष्पों वाली होनी चाहिये। १५०–तेसु णं जातिमंडवएसु जाव मालुयामंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा हंसासणसंठिया जाव दिसासोवस्थियासणसंठिया, अण्णे य बहवे वरसयणासणविसिट्ठसंठाणसंठिया' पुढविसिलापट्टगा पण्णत्ता समाणाउसो ! आईणग-रूय-बूर-णवणीय-तुलफासा, सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। १५०-हे आयुष्मन् श्रमणो ! उन जातिमंडपों यावत् मालुकामंडपों में कितने ही हंसासन सदश प्राकार वाले यावत कितने ही क्रोचासन, कितने ही गरुडासन, कितने ही उन्नतासन, कितने ही प्रणतासन, कितने ही दीर्घासन, कितने ही भद्रासन, कितने ही पक्ष्यासन, कितने ही मकरासन, कितने वृषभासन, कितने ही सिंहासन, कितने ही पद्मासन, कितने ही दिशा स्वस्तिकासन जैसे आकार वाले पृथ्वीशिलापट्टक तथा दूसरे भी बहुत से श्रेष्ठ शयनासन (शैया, पलंग) सदृश विशिष्ट आकार वाले पृथ्वी शिलापट्टक रखे हुए हैं। ये सभी पृथ्वीशिलापट्टक चर्मनिर्मित वस्त्र अथवा मृगछाला, रुई, बूर, नवनीत, तूल, सेमल या पाक की रुई के स्पर्श जैसे सुकोमल, कमनीय, सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अतीव रमणीय हैं। १५१-तत्थ णं बहवे वैमाणिया देवा य देवीयो य प्रासयंति, सयंति, चिटुंति, निसीयंति, तुयट्ट ति, रमंति, ललंति, कोलंति, किटेंति, मोहेंति, पुरा पोराणाणं सुचिण्णाण सुपरिक्कंताण सुभाण कडाण कम्माण कल्लाणाण कल्लाणं फलविवागं पच्चणुभवमाणा विहरंति / १५१--उन हंसासनों आदि पर बहुत से सूर्याभविमानवासी देव और देवियाँ सुखपूर्वक बैठते हैं, सोते हैं, शरीर को लम्बा कर लेटते हैं, विश्राम करते हैं, ठहरते हैं, करवट लेते हैं, रमण करते हैं, केलिक्रीड़ा करते हैं, इच्छानुसार भोग-विलास भोगते हैं, मनोविनोद करते हैं, रासलीला करते हैं और रतिक्रीड़ा करते हैं / इस प्रकार वे अपने-अपने सुपुरुषार्थ से पूर्वोपार्जित शुभ, कल्याणमय शुभफलप्रद, मंगलरूप पुण्य कर्मों के कल्याणरूप फलविपाक का अनुभव करते हुए समय बिताते हैं। वनखण्डवर्ती प्रासादावतंसक १५२-तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं-पत्तेयं पासायवडेंसगा पण्णत्ता, तेणं पासायवडेसगा पंच जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसियपहसिया इव तहेव बहुसमरमणिज्जभूमिभागो, उल्लोप्रो, सीहासणं सपरिवारं। तत्थ गं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव महज्जइया, महाबला, महासुक्खा महाणुभावा) पलिप्रोवद्वितीया परिवसंति, तंजहा प्रसोए सत्तपण्णे चंपए चूए। १५२–उन वनखण्डों के मध्यातिमध्य भाग में (बीचोंबीच) एक-एक प्रासादावतंसक (प्रासादों के शिरोभूषण रूप श्रेष्ठ प्रासाद) कहे हैं। ये प्रासादावतंसक पाँच सौ योजन ऊँचे और अढ़ाई सौ योजन चौड़े हैं और अपनी उज्ज्वल प्रभा से हंसते हुए से प्रतीत होते हैं। इनका भूमिभाग अतिसम एवं रमणीय है। इनके चंदेवा, सामानिक आदि देवों के भद्रासनों सहित सिंहासन आदि का वर्णन पूर्ववत् कर लेना चाहिए। 1. पाठान्तर-मांसलसुघट्टविसिट्ठसंठाणसंठिया / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनखंडवर्ती प्रासादावतंसक] इन प्रासादावतंसकों में महान् ऋद्धिशाली यावत् (महाद्य तिसम्पन्न, महाबलिष्ठ, अतीव सुखसम्पन्न और महाप्रभावशाली) एक पल्योपम की स्थिति वाले चार देव निवास करते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं---अशोकदेव, सप्तपर्णदेव, चंपकदेव और आम्र देव / विवेचन-सुत्र में मात्र सूर्याभविमान के चतुर्दिग्वर्ती बनखंडों में निवास करने वाले देवों के नाम और उनकी प्रायुका उल्लेख किया है / इनके विषय में विशेष ज्ञातव्य यह है ये चारों देव अपने-अपने नाम वाले वनखंड के स्वामी हैं तथा सूर्याभ देव के सदृश महान् ऋद्धिसम्पन्न हैं एवं अपने-अपने सामानिक देवों, सपरिवार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सप्त अनीकों सेनाओं और सेनापतियों, आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य, स्वामित्व आदि करते हुए नृत्य, गीत, नाटक और वाद्यघोषों के साथ विपुल भोगोपभोगों का भोग करते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं। इन वनखंडाधिपति देवों की आयु का कालप्रमाण बतलाने के लिये 'पल्योपम' शब्द का प्रयोग किया है / जो अतिदीर्घ काल का बोधक है / - काल अनन्त है और इसमें से जिस समय-अवधिकी दिन, मास, और वर्षों के रूप में गणना की जा सकती है, उसके लिये तो जैन वाङमय में घड़ी, घंटा, पूर्वांग पूर्व, आदि शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त संज्ञायें निश्चित की हैं / परन्तु इसके बाद जहाँ समय की अवधि इतनी लम्बी हो कि उसकी गणना वर्षों में न की जा सके, वहाँ उपमाप्रमाण की प्रवृत्ति होती है। अर्थात् उसका बोध उपमाप्रमाण द्वारा कराया जाता है। उस उपमाकाल के दो भेद हैं—पल्योपम और सागरोपम / प्रस्तुत में पल्योपम का उल्लेख होने से उसका प्राशय स्पष्ट करते हैं। पल्य या पल्ल का अर्थ है कुत्रा अथवा धान्य को मापने का पात्र विशेष / उसके आधार या उसकी उपमा से की जाने वाली कालगणना की अवधि पल्योपम कहलाती है। पल्योपम के तीन भेद हैं-१. उद्धारपल्योपम, 2. अद्धापल्योपम और 3. क्षेत्रपल्योपम / ये तीनों भी प्रत्येक बादर' और सूक्ष्म के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। इनका स्वरूप क्रमश: इस प्रकार है---- उद्धारपल्योपम-उत्सेधांगुल* द्वारा निष्पन्न एक योजन प्रमाण लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा एक गोल पल्य-बनाकर उसमें एक दिन से लेकर सात दिन तक की प्रायू वाले भोगभूमिज मनुष्यों के बालानों को इतना ठसाठस भरें कि न उन्हें आग जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही प्रवेश हो सके / इस प्रकार से भरे हुए उस कुए में से प्रतिसमय एक-एक बालाग्रबालखंड निकाला जाये तो निकालते-निकालते जितने समय में वह कुआ खाली हो जाये उस कालपरिमाण को उद्धारपल्योपम कहते हैं / उद्धार का अर्थ है निकालना। अतएव बालों के उद्धार या निकाले जाने के कारण इसका उद्धारपल्योपम नामकरण किया गया है। उपर्युक्त वर्णन बादर उद्धार-पल्योपम का है। अब सूक्ष्म उद्धार-पल्योपम का स्वरूप बतलाते हैं१. अनुयोग द्वार में सूक्ष्म और व्यावहारिक ये दो भेद किये हैं। 2. पाठ यवमध्य का उत्सेधांगुल होता है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] [ राजप्रश्नीयसूत्र ऊपर बादर उद्धार-पल्योपम को समझने के लिये कुए में जिन बालानों का संकेत किया है। उनमें से प्रत्येक बालाग्र के बुद्धि के द्वारा असंख्यात खंड-खंड करके उन सूक्ष्म खंडों की पूर्ववणित कुए में ठसाठस भरा जाये और फिर प्रतिसमय एक-एक खंड को उस कुए से निकाला जाये / ऐसा करने पर जितने काल में वह कुया निःशेष रूप से खाली हो जाये, उस समयावधि को सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहते हैं / इसका कालप्रमाण संख्यात करोड़ वर्ष है। इस सूक्ष्म उद्धारपल्योपम से द्वीप और समुद्रों की गणना की जाती है। प्रद्धापल्योपम-अद्धा शब्द का अर्थ है काल या समय / प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित फ्ल्योपम का प्राशय इसी पल्योपम से है / इसका उपयोग चतुर्गति के जीवों की प्रायु और कर्मों की स्थिति वगैरह को जानने में किया जाता है। इसकी गणना का क्रम इस प्रकार है-पूर्वोक्त प्रमाण वाले कुए को बालानों से ठसाठस भरने के बाद सौ-सौ वर्ष के अनन्तर एक-एक बालान को निकाला जाये और इस प्रकार से निकालतेनिकालते जितना काल लगे, निकालने पर कुप्रा खाली हो जाये, उतने काल प्रमाण को बादर अद्धा पल्योपम कहते हैं। ऊपर कहे गये बादर अद्धापल्योपम के लिये जो बालान लिये गये हैं, उनके बुद्धि द्वारा असंख्यात अदृश्य खंड करके कुए को ठसाठस भरा जाये और फिर प्रति सौ वर्ष बाद एक खंड को निकाला जाये एवं इस प्रकार से निकालते-निकालते जब कुआ खाली हो जाये और उसमें जितना समय लगे, उतने कालप्रमाण को सूक्ष्म श्रद्धापल्योपम कहते हैं। क्षेत्रपल्योपम-उद्धार पल्योपम के प्रसंग में जिस एक योजन लम्बे-चौड़े और गहरे कुए का उल्लेख है उसको पूर्व की तरह एक से सात दिन तक के भोगभूमिज के बालानों से ठसाठस भर दो। वे अग्रभाग अाकाश के जिन प्रदेशों का स्पर्श करें, उनमें से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहरण करते-करते जितने समय में समस्त प्रदेशों का अपहरण हो जाये, उतने समय का प्रमाण बादर क्षेत्र पल्योपम कहलाता है / यह काल असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवपिणी काल के बराबर होता है। बादरक्षेत्र पल्योपम का प्रमाण जानने के लिये जिन बालानों का संकेत है, उनके असंख्यात खंड करके पूर्ववत् पल्य में भर दो / वे खंड उस पल्य में प्राकाश के जिन प्रदेशों का स्पर्श करें और जिन प्रदेशों का स्पर्श न करें, उनमें से प्रति समय एक-एक प्रदेश का अपहरण करते-करते जितने समय में स्पृष्ट और अस्पृष्ट दोनों प्रकार के सभी प्रदेशों का अपहरण किया जा सके उतने समय के प्रमाण को सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपमकाल कहते है / इसका काल भी असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है। जो बादर क्षेत्र पल्योपम की अपेक्षा असंख्यात गुना अधिक जानना चाहिये। इसके द्वारा दृष्टिवाद में द्रव्यों के प्रमाण का विचार किया जाता है। अनुयोगद्वार सूत्र और प्रवचनसारोद्धार में पल्योपम का विस्तार से विवेचन किया गया है / दिगम्बर साहित्य में पल्योपम का जो वर्णन किया गया है, वह उक्त वर्णन से कुछ भिन्न है / उसमें क्षेत्र पल्योपम नाम का कोई भेद नहीं है और न प्रत्येक पल्योपम के बादर और सूक्ष्म भेद ही किये हैं। वहाँ पल्योपम के तीन प्रकारों के नाम इस प्रकार हैं-१. व्यवहारपल्य, 2. उद्धारपल्य Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकारिकालयन का वर्णन ] [85 और 3. अद्धापल्य / इनमें से व्यवहार पल्य का इतना ही उपयोग है कि उसके द्वारा उद्धारपल्य और अद्धापल्य की निष्पत्ति होती है / उद्धारपल्य के द्वारा द्वीप और समुद्रों की संख्या और अद्धापल्य के द्वारा जीवों की आयु आदि का विचार किया जाता है। सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थराजवातिक और त्रिलोकसार में इनका विशद रूप में विवेचन किया गया है। उपकारिकालयन का वर्णन १५३--सरियाभस्स णं देवविमाणस्स घेतो बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे पण्णते, तंजहा-वणसंडविहूणे जाव बहवे वेमाणिया देवा देवीयो य प्रासयंति जाव विहरति / तस्स णं बहसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झवेसे एत्थ णं महेगे उवगारियालयणे पण्णत्ते, एगं जोयणसयसहस्सं पायामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोणि य सत्तावीसं जोयणसए तिन्निय कोसे अट्ठावीसं च धणसयं तेरस य अंगुलाई अद्ध गुलं च किचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं, जोयणं बाहल्लेणं सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे। १५३–सूर्याभ नामक देवविमान के अंदर अत्यन्त समतल एवं अतीव रमणीय भूमिभाग है / शेष बहुत से वैमानिक देव और देवियों के बैठने से लेकर विचरण करने तक का वर्णन पूर्ववत् कर लेना चाहिए / किन्तु यहाँ वनखंड का वर्णन छोड़ देना चाहिए / उस अतीव सम रमणीय भूमिभाग के बीचों-बीच एक उपकारिकालयन बना हुआ है। जो एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है और उसकी परिधि (कुल क्षेत्र का घेराव) तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है। एक योजन मोटाई है / यह विशाल लयन सर्वात्मना (पूरा का पूरा) स्वर्ण का बना हुआ, निर्मल यावत् प्रतिरूप-अतीव रमणीय है। विवेचन--उपकारिकालयन-प्रशासनिक कार्यों की व्यवस्था के लिए निर्धारित सचिवालय सरीखे स्थान विशेष को कहना चाहिये---सौधोऽस्त्री राजसदनम् उपकार्योपकारिका' (अमरकोश द्वि. कां. पुरवर्ग श्लोक 10, हैम अभिधान कां. 4 श्लोक५६)। किन्तु 'पाइअसहमहण्णवो' में उवगारिया+लयण (लेण) इस प्रकार समास पद मानकर उवगारिया का अर्थ प्रासाद आदि की पीठिका और लयण (लेण) का अर्थ गिरिवर्ती पाषाण-गृह बताया है। यहाँ के वर्णन से प्रतीत होता है कि प्रासाद आदि की पीठिका अर्थ ग्रहण किया है। १५४–से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेण य सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते / १५४~-वह उपकारिकालयन सभी दिशा-विदिशाओं में सब ओर से एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड (उद्यान) से घिरा हुआ है। पद्मवरवेदिका का वर्णन १५५-सा णं पउमवरवेइया प्रद्धजोयणं उर्ल्ड उच्चत्तेणं, पंच धणुसयाई विक्खंभेणं उवकारियलेणसमा परिक्खेवेणं / तोसे णं पउमवरवेइयाए इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा वयरामया णिम्मा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र रिट्ठामया पतिढाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्ण-रुप्पमया फलया, नाणामणिमया कलेवरसंघाङगा णाणामणिमया रूवा जाणामणिमया रूवसंघाडगा अंकामया पक्खा, पक्खबाहाओ, जोईरसामया वंसा वंसकवेल्लुयानो, रययामईश्रो पट्टियानो जायरूवमईयो अोहाडणीसो वइरामईप्रो उवरिपुच्छणी, सव्वरयणामए अच्छायणं / सा णं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं, ए.' गवक्खजालेणं, एक खिखिणीजालेणं, ए० घंटाजालेणं, ए० मुत्ताजालेणं, ए० मणिजालेणं, ए० कणगजालेणं, ए० पउमजालेणं सव्वतो समंता संपरिखित्ता, तेणं जाला तणिज्जलंबूसगा जाव' चिट्ठति / तोसे णं पउमवरवेड्याए तत्थ-तस्थ-देसे तहि तहिं बहवे हयसंघाडा जाव' उसभसंघाडा सम्वरयणामया अच्छा जाव घडिरूवा पासादीया जाव वोहीनो पंतीयो मिहुणाणि लयाओ। १५५-वह पद्मवरवेदिका ऊँचाई में आधे योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी और उपकारिकालयन जितनी इसकी परिधि है / उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार का किया गया है, जैसे कि वज्ररत्नमय (इसकी नेम हैं। रिष्टरत्नमय इसके प्रतिष्ठान-मूल पाद हैं। वैडर्यरत्नमय इसके स्तम्भ हैं)। स्वर्ण और रजतमय इसके फलक-पाटिये हैं / लोहिताक्ष रत्नों से बनी इसकी सूचियाँ-कीलें हैं / विविध मणिरत्नमय इसका कलेवर-ढांचा है तथा इसका कलेवर संघात-भीतरी-बाहरी ढांचा विविध प्रकार की मणियों से बना हुआ है / अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से इस पर चित्र बने हुए हैं। नानामणि-रत्नों से इसमें रूपक संघात–बेल-बूटों, चित्रों आदि के समूह बने हैं / अंक रत्नमय इसके पक्ष-सभी हिस्ते हैं और अंक रत्नमय ही इसके पक्षबाहा-प्रत्येक भाग है। ज्योतिरस रत्नमय इसके वंश-बांस, वला और वंशकवेल्लुक (सीधे रखे बांसों के दोनों ओर रखे तिरछे बांस एवं कवेल) हैं। रजतमय इनकी पट्टियां (बांसों को लपेटने के लिये ऊपर नीचे लगी पट्टियां-लागे) हैं। स्वर्णमयी अवघाटनियां (ढंकनी) और वज्ररत्नमयी उपरिप्रोंछनी (नरियां) हैं / सर्वरत्नमय आच्छादन (तिरपाल) हैं। वह पद्मवरवेदिका सभी दिशा-विदिशाओं में चारों ओर से एक-एक हेमजाल (स्वर्णमय माल्यसमूह) से जाल (गवाक्ष की प्राकृति के रत्नविशेष के माल्यसमुह) से, किंकणी (घुघरु) घंटिका, मोती, मणि, कनक (स्वर्ण-विशेष) रत्न और पद्म (कमल) की लंबी-लंबी मालाओं से परिवेष्टित है अर्थात उस पर लंबी-लंबी मालायें लटक रही हैं / ये सभी मालायें सोने के लंबूसकों (गेंद को प्राकृति जैसे आभूषणविशेषों, मनकों) आदि से अलकृत हैं। उस पद्मवरवेदिका के यथायोग्य उन-उन स्थानों पर अश्वसंघात (समान प्राकृति-संस्थान वाले अश्वयुगल) यावत् वृषभयुगल सुशोभित हो रहे हैं। ये सभी सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् प्रतिरूप, प्रासादिक-मन को प्रफुल्लित करने वाले हैं यावत् इसी प्रकार इनकी वीथियाँ, पंक्तियाँ, मिथुन एवं लतायें हैं। 1. 'ए.' अक्षर 'एगमेगेणं' पद का दर्शक हैं। 2. देखें सूत्र संख्या 49 / 3. देखें सूत्र संख्या 130 / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मवरवेदिका का वर्णन ] [87 १५६–से केण?णं भंते ! एवं बुच्चति पउमवरवेइया पउमवरवेइया ? १५६--गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा-हे भदन्त ! किस कारण कहा जाता है कि यह पद्मवरवेदिका है, पद्मवरवेदिका है ? अर्थात् इस वेदिका को पद्मवरवेदिका कहने का क्या कारण है ? १५७–गोयमा ! पउमवरवेइयाए णं तत्थ-तत्थ देसे तहि-तहि वेइयासु, वेइयावाहासु य . वेइयफलतेसु य वेइयपुडंतरेसु य खंभेसु, खेमबाहासु खेमसोसेसु, खंभपुडतरेसु, सूईसु, सूईमुखेसु, सूईफलएसु, सूईपुडतरेसु, पक्षेसु, पक्खबाहासु, पक्खपेरतेसु, पक्खपुडतरेसु बहुयाई उप्पलाई-पउमाई-कुमुयाई लिणाति-सुभगाई-सोगंधियाइं-पुडरीयाई-महापुडरीयाणि-सयवत्ताई-सहस्सवत्ताई सम्बरयणामयाई अच्छाई पडिरूवाई महया वासिक्कछत्तसमाणाई पण्णत्ताई समणाउसो ! से एएणं अट्ठणं गोयमा ! एवं बच्चइ पउमवरवेइया 'पउमवरवेइया'। १५७--भगवान ने उत्तर दिया-हे गौतम ! पदमवर-वेदिका के आस-पास की (समीपवर्ती) भूमि में, वेदिका के फलकों-पाटियों में, वेदिकायुगल के अन्तरालों में, स्तम्भों-स्तम्भों, की बाजुनों, स्तम्भों के शिखरों, स्तम्भयुगल के अन्तरालों, कीलियों, कोलियों के ऊपरीभागों, कोलियों से जुड़े हुए फलकों, कोलियों के अन्तरालों, पक्षों (स्थान विशेषों), पक्षों के प्रान्त भागों और उनके अन्तरालों आदि-आदि में वर्षाकाल के बरसते मेघों से बचाव करने के लिए छत्राकार--जैसे अनेक प्रकार के बड़े-बड़े विकसित, सर्व रत्नमय स्वच्छ, निर्मल अतीव सुन्दर, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक पुडरीक महापुडरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र कमल शोभित हो रहे हैं। इसीलिये हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! इस पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका कहते हैं। १५८-पउमवरवेइया णं भंते / कि सासया, प्रसासया ? गोयमा ! सिय सासया, सिय प्रसासया / से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासया, सिय प्रसासया ? गोयमा ! दवट्ठयाए सासया, वन्नपज्जवेहि, गंधपज्जवेहि, रसपज्जर्वेहि, फासपज्जवेहि प्रसासया, से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति सिय सासया, सिय प्रसासया। पउमवरवेइया णं भंते ! कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! ण कयावि णासि, ण कयावि णस्थि, ण कयावि न मविस्सइ, भूवि च हवइ य, भविस्सइ य, धुवा णियया सासया अक्खया अन्वया अवट्ठिया णिच्चा पउमवर वेइया। १५८-हे भदन्त ! वह पद्मवरवेदिका शाश्वत है अथवा अशाश्वत है। हे गौतम ! (किसी अपेक्षा) शाश्वत नित्य भी है और (किसी अपेक्षा) अशाश्वत भी है। भगवन् ! किस कारण आप ऐसा कहते हैं कि (किसी अपेक्षा) वह शाश्वत भी है और (किसी अपेक्षा) अशाश्वत भी है ? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [ राजप्रश्नीयसूत्र हे गौतम! द्रव्याथिकनय की अपेक्षा वह शाश्वत है परन्तु वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा प्रशाश्वत है / इसी कारण हे गौतम ! यह कहा है कि वह पद्मवरवेदिका शाश्वत भी है और प्रशाश्वत भी है। हे भदन्त ! काल की अपेक्षा वह पद्मवर-वेदिका कितने काल पर्यन्त--कब तक रहेगी? हे गौतम ? वह पद्मवरवेदिका पहले (भूतकाल में) कभी नहीं थी, ऐसा नहीं है, अभी (वर्तमान में) नहीं है, ऐसा भी नहीं है और प्रागे (भविष्य में) नहीं रहेगी ऐसा भी नहीं है, किन्तु पहले भी थी. अब भी है और आगे भी रहेगी। इस प्रकार त्रिकालावस्थायी होने से वह पद्मवरवेदिका ध्र व, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में पद्मवरवेदिका की शाश्वतता विषयक गौतम स्वामी की जिज्ञासा का समाधान द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दो दृष्टियों (नयों से) किया गया है। भगवान् ने पदमवर वेदिका को द्रव्याथिक दृष्टि से शाश्वत बताने के साथ वर्णादि पर्यायों के परिवर्तनशील होने से प्रशाश्वत बताया है क्योंकि द्रव्य-पर्याय का यही स्वरूप है / नित्य शाश्वत ध्र व होते हुए भी द्रव्य में भावात्मक-पर्यायात्मक परिवर्तन प्रतिसमय होता रहता है। इन्हीं परिवर्तनों को पर्याय कहते हैं और पर्यायें अशाश्वत होती हैं। पर्यायें अवश्य ही प्रतिसमय परिवर्तित होती रहती हैं परन्तु प्रदेशों के लिए यह नियम नहीं है। किन्हीं द्रव्यों के प्रदेश नियत भी होते हैं और किन्हीं के अनियत भी / जैसे कि जीव के प्रदेश सभी देश और काल में नियत हैं, वे कभी घटते-बढ़ते नहीं हैं। किन्तु पुद्गलद्रव्य के प्रदेशों का नियम नहीं है, उनमें न्यूनाधिकता होती रहती है / - पद्मवरवेदिका पौद्गलिक है और पर्याय दृष्टि से परिवर्तनशील-अशाश्वत है किन्तु पुद्गल द्रव्य होते हुए भी अनियत प्रदेशी नहीं है / इन सब विशेषताओं को सूत्र में ध्र वा णियया, सासया, अक्खया, अव्वया, अवट्ठिया-ध्र व नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित पदों से स्पष्ट किया है / १५६—सा णं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सवप्रो संपरिक्खित्ता। से णं वणसंडे देसणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं उवयारियालेणसमे परिवखवणं, वणसंडवण्णो भाणितन्वो जाव विहरंति / १५६--वह पद्मबरवेदिका चारों ओर-सभी दिशा-विदिशाओं में एक वनखंड से परिवेष्टित-घिरी हुई है। उस वनखंड का चक्रवालविष्कम्भ (गोलाकार-चौड़ाई) कुछ कम दो योजन प्रमाण है तथा उपकारिकालयन की परिधि जितनी उसको परिधि है / वहाँ देव-देवियाँ विचरण करती हैं, यहाँ तक वनखंड का वर्णन पूर्ववत् यहाँ कर लेना चाहिये। विवेचन--सूत्र संख्या 136-151 में वनखंड का विस्तार से वर्णन किया है। उसी वर्णन को यहाँ करने का संकेत 'वणसंडवण्णो भाणितब्बो जाव विहरंति' पद से किया है। संक्षेप में उक्त वर्णन का सारांश इस प्रकार है--- Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदमवर वैदिका का वर्णन] [89 यह वनखंड चारों ओर से एक परकोटे से घिरा हुआ है तथा वृक्षों की सघनता से हरा-भरा अत्यन्त शीतल और दर्शकों के मन को सुखप्रद है / वनखंड का भूभाग अत्यन्त सम तथा अनेक प्रकार की मणियों और तृणों से उपशोभित है / इस वनखंड में स्थान-स्थान पर अनेक छोटी बड़ी बावड़ियां, पुष्करणियां, गुजालिकायें आदि बनी हैं / इन सबके तट रजतमय हैं और तल भाग में स्वर्ण-रजतमय बालुका बिछी हुई है। कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुंडरीक आदि विविध जाति के कमलों से इनका जल आच्छादित है। इन वापिकाओं आदि के अन्तरालवर्ती स्थानों में मनुष्यों और पक्षियों के झूलने के लिये झूले-हिंडोले पड़े हैं और बहुत से उत्पातपर्वत, नियतिपर्वत, दारुपर्वत, दकमंडप, दकमालक दकमंच बने हुए हैं। इन वनखण्डों में कहीं-कहीं आलिगृह, मालिगृह, कदलीगृह, लतागृह, मंडप आदि बने हैं और विश्राम करने के लिये जिनमें हंसासन आदि अनेक प्रकार के प्रासन तथा शिलापट्टक रखे हैं और जहाँ बहुत से देव-देवियां आ-आकर विविध प्रकार को क्रीड़ायें करते हुए पूर्वोपाजित पुण्यकर्मों के फलविपाक को भोगते हुए आनन्दपूर्वक विचरण करते हैं। १६०-तस्स णं उवयारियालेणस्स चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वष्णो, तोरणा, झया, छत्ताइच्छत्ता। तस्स णं उवयारियालयणस्स उर्वार, बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो। १६०-उस उपकारिकालयन की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक (तीन-तीन सीढ़ियों की पंक्ति) बने हैं। यान विमान के सोपानों के समान इन त्रिसोपान-प्रतिरूपकों का वर्णन भी तोरणों, ध्वजाओं, छत्रातिछत्रों आदि पर्यन्त यहाँ करना चाहिये। उस उपकारिकालयन के ऊपर अतिसम, रमणीय भूमिभाग है। यानविमानवत् मणियों के स्पर्शपर्यन्त इस भूमिभाग का वर्णन यहाँ करना चाहिये / विवेचन--उपकारिकालयन को त्रिसोपान-पंक्तियों और भूमिभाग का वर्णन यानविमानवत् करने की सूचना प्रस्तुत सूत्र में दी गयी है। संक्षेप में उक्त वर्णन इस प्रकार है ___ इन त्रिसोपानों की नेम वज्ररत्नों से बनी हुई हैं / रिष्टरत्नमय इनके प्रतिष्ठान (पैर रखने के स्थान) हैं / वैडूर्य रत्नों से बने इनके स्तम्भ हैं और फलक-पाटिये स्वर्ण रजतमय हैं / नाना मणिमय इनके अवलंबन और कटकड़ा हैं / मन को प्रसन्न करने वाले अतीव मनोहर हैं / इन प्रत्येक त्रिसोपान-पंक्तियों के आगे अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से बने हुए बेलबूटों आदि से सुशोभित तोरण बंधे हैं और तोरणों के ऊपरी भाग स्वस्तिक आदि आठ-पाठ मंगलों एवं वज्ररत्नों से निर्मित और कमलों जैसी सुरभिगंध से सुगंधित, रमणीय चामरों से शोभित हो रहे हैं। इसके साथ ही अत्यन्त शोभनीक रत्नों से बने हुए छत्रातिछत्र, पताकायें, घंटा-युगल एवं उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक पुंडरीक, महापुडरीक आदि कमलों के झूमके भी उन तोरणों पर लटक रहे हैं आदि। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र उस उपकारिकालयन का भूमिभाग आलिंग-पुष्कर, मृदंगपुष्कर, सरोवर, करतल, चन्द्रमंडल, सूर्यमंडल आदि के समान अत्यन्त सम और रमणीय है। उस भूभाग में अंजन, खंजन, सघन मेध घटाओं आदि के कृष्ण वर्ण से, भृगकीट, भृगपंख, नीलकमल, नील-अशोकवृक्ष आदि के नील वर्ण से, प्रातःकालीन सूर्य, पारिजात पुष्प, हिंगलुक, प्रबाल आदि के रक्त वर्ण से, स्वर्णचंपा, हरताल, चिकुर, चंपाकुसुम ग्रादि के पीत वर्ण से, और शंख, चन्द्रमा, कुमुद आदि के श्वेत वर्ण से भी अधिक श्रेष्ठ कृष्ण प्रादि वर्ण वाली मणियां जड़ी हुई हैं। वे सभी मणियां इलायची, चंदन, अगर, लवंग प्रादि सुगंधित पदार्थों से भी अधिक सुरभि गंध वाली हैं और बुर–रुई, मक्खन, हंसगर्भ नामक रुई विशेष से भी अधिक सुकोमल उनका स्पर्श है। मुख्य प्रासादावतंसक का वर्णन १६१–तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगे मूलपासायवडेंसए पण्णत्ते। से णं मूलपासायडिसए पंच जोयणसयाई उड्ढ उच्चत्तेण, अड्ढाइज्जाइं जोयणसयाई विक्खंभेणं, प्रभुग्गयमूसिय-वण्णो, भूमिभागो उल्लोश्रो सीहासणं सपरिवारं भाणियन्वं, अदृट्ठमंगलगा झया छत्ताइच्छत्ता। १६१-उस अतिसम रमणीय भूमिभाग के अतिमध्यदेश में एक विशाल मूल-मुख्य प्रासादावतंसक (उत्तम महल) है / वह प्रासादावतंसक पांच सौ योजन ऊँचा और अढाई सौ योजन चौड़ा है तथा अपनो फैल रही प्रभा से हँसता हुआ प्रतीत होता है, आदि वर्णन करते हुए उस प्रासाद के भीतर के भूमिभाग, उल्लोक-चंदेवा, परिवार रूप अन्य भद्रासनों आदि से सहित सिंहासन. पाठ मंगल, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों का यहां कथन करना चाहिए / १६२---से णं मूलपासायवडेसगे प्रणेहि चहि पासायव.सएहि तयद्ध च्चत्तप्पमाणमेहि सवतो समंता संपरिखिते, ते णं पासायव.सगा अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई उड्ढ़ उच्चत्तेणं. पणवीस जोयणसयं विषख भेणं जाव वणश्रो। ते णं पासायडिसया अर्जाह चहि पासायडिसएहि तयधुच्चत्तप्पमाणमेदि सव्वग्रो समंता संपरिखित्ता / ते णं पासायव.सया पणवीसं जोयणसयं उड्ढ उच्चत्तेणं बासद्धि जोयणाई श्रद्धजोयणं च विक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसिय वण्णो, भूमिभागो उल्लोप्रो सोहासणं सपरिवारं भाणियन्वं अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता। ते णं पासायवडेंसगा अणेहि चहि पासायवडेंसरहिं तदधुच्चत्तपमाणमेहि सवतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं पासायवडेंसगा बाढि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढं उच्चत्तेणं एक्कतोसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं, वण्णो, उल्लोप्रो सीहासणं सपरिवार पासाय० उरि अटुट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मा सभा का वर्णन ] [91 १६२-वह प्रधान प्रासादावतंसक सभी चारों दिशाओं में ऊँचाई में अपने से प्राधे ऊँचे अन्य चार प्रासादावतंसकों से परिवेष्टित है / अर्थात् उसकी चारों दिशामों में और दूसरे चार प्रासाद बने हुए हैं। ये चारों प्रासादावतंसक ढाई सौ योजन ऊँचे और चौड़ाई में सवा सौ योजन चौड़े हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् यहाँ करना चाहिये। ये चारों प्रासादावतंसक भी पून: चारों दिशाओं में अपनी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से घिरे हैं / ये प्रासादावतंसक एक सौ पच्चीस योजन ऊँचे और साढ़े बासठ योजन चौड़े हैं तथा ये चारों ओर फैल रही प्रभा से हंसते हुए-से दिखते हैं, यहाँ से लेकर भूमिभाग, चंदेवा, सपरिवार सिंहासन, पाठ-आठ मंगल, ध्वजाओं, छत्रातिछत्रों से सुशोभित है, पर्यन्त इनका वर्णन करना चाहिए। ये प्रासादावतंसक भी चारों दिशाओं में अपनी ऊँचाई से प्राधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से परिवेष्टित हैं / ये प्रासादावतंक साड़े बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस चौड़े हैं / इन प्रासादों के भूमिभाग, चंदेवा, सपरिवार सिंहासन, ऊपर आठ मंगल, ध्वजाओं छत्रातिछत्रों आदि का वर्णन भी पूर्ववत् यहाँ करना चाहिये / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रधान प्रासादावतंसक के आस-पास की चारों दिशाओं सम्बन्धी रचना का वर्णन किया है / वह प्रधान प्रासाद अपनी आस-पास की रचना के बीचों-बीच है और चारों दिशाओं में बने अन्य चार प्रासादों की अपेक्षा सबसे अधिक ऊँचा और लम्बा-चौड़ा है तथा शेष पार्श्ववर्ती प्रासाद अपने-अपने से पूर्व के प्रासादों की अपेक्षा ऊँचाई और चौड़ाई में उत्तरोत्तर आधेप्राधे हैं / अर्थात मूल प्रासादावतंसक की अपेक्षा उत्तरवर्ती अन्य-अन्य प्रासाद शिखर से लेकर तलहटी तक पर्वत के आकार के समान क्रमशः अर्ध, चतुर्थ और अष्ट भाग प्रमाण ऊँचे और चौड़े हैं। सुधर्मा सभा का वर्णन १६३-तस्स णं मूलपासायवडेंसयस्त उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं सभा सुहम्मा पण्णता, एमं जोयणसयं पायामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खम्भेणं, बावरि जोयणाई उड्ढ उच्चत्तणं, अणेगखम्भ "जाव' अच्छरगण... पासादीया। १६३---उस प्रधान प्रासाद के ईशान कोण में सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी और वहत्तर योजन ऊँची सुधर्मा नामक सभा है। यह सभा अनेक सैंकड़ों खंभों पर सन्निविष्ट यावत् अप्सरानों से व्याप्त अतीव मनोहर है। १६४--समाए णं सुहम्माए तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता तंजहा-पुरस्थिमेणं, दाहिणेणं, उत्तरेणं / ते णं दारा सोलस जोयणाई उड्ढ़ उच्चत्तेणं, प्रद जोयणाई विक्खम्भेणं, तावतियं चेव पवेसेणं, सेया वरकणगथूभियागा जाववणमालाप्रो / तेसि णं दाराणं उरि अट्ठ मङ्गलगा झया छत्ताइछत्ता। तेसि णं दाराणं पुरओ पत्तेयं पत्तयं मुहमण्डवे पण्णते, ते ण मुहमण्डवा एग जोयणसयं मायामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, साइरेगाइं सोलस जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं, वण्णो सभाए सरिसो। सिणं मुहमण्डवाणं तिदिसि ततो दारा पण्णत्ता, तंजहा पुरस्थिमेणं, दाहिणेणं, उत्तरेणं / ते णं दारा सोलस जोयणाई उड्ढे उच्चत्तणं, अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेया 1-2 देखें सूत्र संख्या 45 / 3. देखें सूत्र संख्या 121 से 129 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नोयसूत्र वरकणगथूभियागा जाव' वणमालानो / तेसि णं मुहमंडवाणं भू मि मागा, उल्लोया तेसि णं मुहमंडवाणं उरि अट्ठ मङ्गलगा, झया, छत्ताइच्छत्ता। तेसि णं मुहमंडवाणं पुरतो पत्त यं-पत्त यं पेच्छाघरमंडवे पण्णत्ते, मुहमंडववत्तन्वया जाव, दारा, भूमिमागा, उल्लोया / १६४---इस सुधर्मा सभा की तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं। वे इस प्रकार हैं---पूर्व दिशा में एक, दक्षिण दिशा में एक और उत्तर दिशा में एक / वे द्वार ऊँचाई में सोलह योजन ऊँचे, आठ योजन चौड़े और उतने ही प्रवेश मार्ग वाले हैं। वे द्वार श्वेत वर्ण के हैं / श्रेष्ठ स्वर्ण से निर्मित शिखरों एवं वनमालानों से अलंकृत हैं, अादि वर्णन पूर्ववत् यहाँ करना चाहिये। (उन द्वारों के ऊपर स्वस्तिक आदि आठ-आठ मंगल, ध्वजायें और छत्रातिछत्र विराजित - हैं-शोभायमान हो रहे हैं।) उन द्वारों के आगे सामने एक-एक मुखमंडप हैं। ये मंडप सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और ऊँचाई में कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे हैं / सुधर्मा सभा के समान इनका शेष वर्णन कर लेना चाहिये। __ इन मंडपों की तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं, यथा--एक पूर्व दिशा में, एक दक्षिण दिशा में और एक उत्तर दिशा में / ये द्वार ऊँचाई में सोलह योजन ऊंचे हैं, पाठ योजन चौड़े और उतने ही प्रवेशमार्ग वाले हैं। ये द्वार श्वेत धवलवर्ण और श्रेष्ठ स्वर्ण से बनी शिखरों, वनमालाओं से अलंकृत हैं, पर्यन्त का वर्णन पूर्ववत् यहाँ करना चाहिये। (उन मंडपों के भूमिभाग, चंदेवा और ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजारों, छत्रातिछत्र आदि का भी वर्णन करना चाहिए।) इन मुखमंडपों में से प्रत्येक के आगे प्रक्षागृहमंडप बने हैं। इन मंडपों के द्वार, भूमिभाग, चांदनी आदि का वर्णन मुखमंडपों की वक्तव्यता के समान जानना चाहिये / १६५-तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्त यं पत्तेयं वइरामए अक्खाडए पण्णत्त / तेसि णं वयरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झ-देसभागे पत्तेयं-पत्तेयं मणिपेढिया पण्णत्ता, तामो णं मणिवेढियाओ अट्ट जोयणाई प्रायाम-विक्खंभेणं, चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं, सव्वणिमईओ अच्छाप्रो जाव' पडिरूवायो। तासि णं मणिपेढियाणं उरि पत्तेयं-पत्तेयं सोहासणे पण्णत्ते, सोहासणवष्णो सपरिवारो। तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं उरि अटुट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता / 1. देखें सूत्र संख्या 121 से 129 2. देखें सूत्र संख्या 47 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तूप वर्णन ] १६५–उन प्रेक्षागृह मंडपों के अतीव रमणीय समचौरस भूमिभाग के मध्यातिमध्य देश में एक-एक वज्ररत्नमय अक्षपाटक-मंच कहा गया है / उन वज्ररत्नमय अक्षपाटकों के भी बीचों-बीच पाठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी और विविध प्रकार के मणिरत्नों से निर्मित निर्मल यावत् प्रतिरूप---असाधारण सुन्दर एक-एक मणिपीठिकायें बनी हुई हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर एक-एक सिंहासन रखा है। भद्रासनों आदि आसनों रूपी परिवार सहित उन सिंहासनों का वर्णन करना चाहिए। उन प्रेक्षागृह मंडपों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजायें, छत्रातिछत्र सुशोभित हो रहे हैं। स्तूप-वर्णन १६६-तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ पत्तेयं-पत्तेयं मणिपेढियाम्रो पण्णत्तायो / ताप्रोणं मणिपेढियातो सोलस-सोलस जोयगाई आयामविक्खंभेणं, अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं, सव्वमणिमईयो अच्छाप्रो पडिरूवानो। तासि णं उरि पत्त यं-पत्त यं थमे पग्णत्ते / ते णं थूभा सोलस-सोलस जोयणाई प्रायामविक्खंभेणं, साइरेगाई सोलस-सोलस जोयणाई उट्ट उच्चत्तणं, सेया संखंक (कुद-दगरय-प्रमय-महियफेणपुजसंन्निगासातो) सव्वरयणामया अच्छा जाव (सण्हा-लण्हा-घट्ठा-मट्टा-णोरया-निम्मला-निष्पकानिक्कंकडच्छाया-सप्पमा-समिरीया-सउज्जोया पासादीया-दरिसणिज्जा अभिरूवा) पडिरूवा / तेसि णं थूमाणं उरि अट्ठ मंगलगा, झया छत्तातिछत्ता जाव' सहस्सपत्तहत्थया। तेसि णं थभाणं पत्त यं-पत्त यं चउहिसि मणि-पेढियातो पण्णत्ताओ। तानो णं मणिपेढियातो अट्ट जोयणाई प्रायामविक्खंभणं, चत्तारि जोवणाई बाहल्लेणं, सव्वमणि-मईयो अच्छाप्रो जाव पडिरूवातो। तासि णं मणिपेढियाणं उरि चत्तारि जिणपडिमातो जिणुस्सेहपमाणमेतानो संपलियंकनिसन्नाओ, थूभाभिमुहीमो सन्निक्खित्तानो चिट्ठति, तंजहा-उसभा, वद्धमाणा, चंदाणणा वारिसेणा / १६६--उन प्रेक्षागृह मंडपों के प्रागे एक-एक मणिपीठिका है। ये मणिपीठिकायें सोलहसोलह योजन लम्बी-चौड़ी पाठ योजन मोटी हैं / ये सभी सर्वात्मना मणिरत्नमय, स्फटिक मणि के समान निर्मल और प्रतिरूप हैं / उन प्रत्येक मणिपीठों के ऊपर सोलह-सोलह योजन लम्बे-चौड़े समचौरस और ऊंचाई में कुछ अधिक सोलह योजन ऊंचे, शंख, अंक रत्न, कुन्दपुष्प, जलकण, मंथन किये हुए अमृत के फेनपुंज सदृश प्रभा वाले) श्वेत, सर्वात्मना रत्नों से बने हुए स्वच्छ यावत् (चिकने, सलौने घुटे हुए, मृष्ट, शुद्ध, निर्मल पंक (कीचड़)रहित, आवरण रहित परछाया वाले, प्रभा, चमक और उद्योत वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, देखने योग्य, मनोहर) असाधारण रमणीय स्तूप बने हैं। 1. देखें सूत्र संख्या 27, 28, 29. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] [ राजप्रश्नीयसूत्र उन स्तूपों के ऊपर पाठ-आठ मंगल, ध्वजायें छत्रातिछत्र यावत् सहस्रपत्र कमलों के झूमके सुशोभित हो रहे हैं। उन स्तूपों की चारों दिशाओं में एक-एक मणिपीठिका है। ये प्रत्येक मणिपीठिकायें आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी और अनेक प्रकार के मणि रत्नों से निर्मित, निर्मल यावत् प्रतिरूप हैं। प्रत्येक मणिपीठिका के ऊपर, जिनका मुख स्तूपों के सामने हैं ऐसी जिनोत्सेध प्रमाण वाली चार जिन-प्रतिमायें पर्यकासन से विराजमान हैं, यथा-(१) ऋषभ, (2) वर्धमान (3) चन्द्रानन (4) वारिषेण की। विवेचन-जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओ' अर्थात् ऊंचाई में जिन-भगवान् के शरीर प्रमाण वाली। जिन भगवान् के शरीर की अधिकतम ऊंचाई पांच सौ धनुष और जघन्यतम सात हाथ की बताई है / वर्णन को देखते हुए यहाँ स्थापित जिन-प्रतिमायें पांच सौ धनुष प्रमाण ऊंची होनी चाहिये, ऐसा टीकाकार का अभिप्राय है। चैत्य वृक्ष १६७--तेसि णं थूभाणं पुरतो पत्तयं-पत्तेयं मणिपेढियानो पण्णत्तानो। तानो णं मणिपेढियानो सोलस जोयणाई पायामविक्खंभेणं, अट्र जोयणाई बाहल्लेणं, सवमणिमई प्रो जाव पडिरूवाओ। तासि णं मणिपेढियाणं उरि पत्तेयं-पत्तयं चेइयरुक्खे पण्णत्ते, ते णं चेइयरुक्खा अढ जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं श्रद्धजोयणं उन्हेणं, दो जोयणाइं खंधा, श्रद्धजोयणं विक्खंभेणं, छ जोयणाई विडिमा, बहुमज्झदेसभाए अट्ट जोयणाई अायामविखंभेणं, साइरेगाई अटु जोयणाई सत्वग्गेणं पण्णत्ता / तेसि णं चेइयरुक्खाणं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा--- वयरामयमूल-रययसुपइट्टियविडिमा, रिट्टामयवि उलकंदवेरुलियरुइलखंधा, सुजायवरजायरूबपढमगविसालसाला, नाणामणिमयरयणविविहसाहपसाह-वेरुलियपत्त-तवणिज्जपबिटा, जंबणयरत्तम उयसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा, विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरनमियसाला, सच्छाया, सप्पभा, सस्सिरोया, स उज्जोया, अहियं नयणमणणिव्वुइकरा, अमयरससमरसफला, पासाईया ... / तेसि णं चेइयरुक्खाणं उरि अदृट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता। १६७-उन प्रत्येक स्तूपों के आगे-सामने मणिमयी पीठिकायें बनी हुई हैं। ये मणिपीठिकायें सोलह योजन लम्बी-चौड़ी, पाठ योजन मोटी और सर्वात्मना मणिरत्नों से निर्मित, निर्मल यावत् अतीव मनोहर हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर एक-एक चैत्यवृक्ष है। ये सभी चैत्यवक्ष ऊंचाई में पाठ योजन ऊंचे, जमीन के भीतर आधे योजन गहरे हैं / इनका स्कन्ध भाग दो योजन का और आधा योजन चौड़ा है। स्कन्ध से निकलकर ऊपर को ओर फैली हुई शाखायें छह योजन ऊंची और लम्बाई-चौड़ाई में पाठ योजन को है। कुल मिलाकर इनका सर्वपरिमाण कुछ अधिक पाठ योजन है / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहेन्द्र-ध्वज इन चैत्य वृक्षों का वर्णन इस प्रकार किया गया है, इन वृक्षों के मूल (जड़ें) वज्ररत्नों के हैं, विडिमायें-शाखायें रजत की, कंद रिष्टरत्नों के, मनोरम स्कन्ध वैडूर्यमणि के, मूलभूत प्रथम विशाल शाखायें शोभनीक श्रेष्ठ स्वर्ण की, विविध शाखाप्रशाखायें नाना प्रकार के मणि-रत्नों की, पत्ते वैडूर्यरत्न के, पत्तों के वन्त (डंडियाँ) स्वर्ण के, अरुणमृदु-सुकोमल-श्रेष्ठ प्रवाल, पल्लव एवं अंकुर जाम्बूनद (स्वर्णविशेष) के हैं और विचित्र मणिरत्नों एवं सुरभिगंध-युक्त पुष्प-फलों के भार से नमित शाखाओं एवं अमृत के समान मधुररस युक्त फल वाले ये वृक्ष सुदर मनोरम छाया, प्रभा, कांति, शोभा, उद्योत से संपन्न नयन-मनको शांतिदायक एवं प्रासादिक हैं। उन चैत्यवृक्षों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजायें और छत्राति छत्र सुशोभित हो रहे हैं / ___१६८-तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरतो पत्तेयं-पत्तेयं मणिपेढियानो पण्णत्तायो / तानो णं मणिपेढियायो अढ जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सध्वमणिमईयो अच्छाप्रो जाव पडिरूवायो। १६८-उन प्रत्येक चैत्य वृक्षों के आगे एक-एक मणिपीठिका है। ये मणिपीठिकायें पाठ योजन लंबी-चौड़ी, चार योजन मोटी, सर्वात्मना मणिमय निर्मल यावत् प्रतिरूप-अतिशय मनोरम हैं / माहेन्द्र-ध्वज : १६६–तासि णं मणिपेढियाण उरि पत्तेयं-पत्तेयं महिंदज्झए पण्णत्ते / ते गं महिंदज्झया सढि जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धकोसं उव्वेहेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, वइरामय-वट्ट-लट्ठ-संठिय-सुसिलिट्ठ-परिघट्ठ-मट्ठ-सुपतिट्ठिए-विसिटु -अणेगवर-पंचवण्णकुडभी-सहस्सुस्सिएपरिमंडियाभिरामे-बाउधुविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलिते, तुगे, गगणतल-मणुलिहंतसिहरा पासादीया। तेसि णं महिंदज्झयाणं उरि अदृट्ठ मंगलया झया छत्तातिछत्ता / १६६-उन मणिपीठिकाओं के ऊपर एक-एक माहेन्द्रध्वज (इन्द्र के ध्वज सदृश अति विशाल ध्वज) फहरा रहा है / वे माहेन्द्रध्वज साठ योजन ऊंचे, प्राधा कोस जमीन के भीतर ऊंडे-गहरे, प्राधा कोस चौड़े. वज्ररत्नों से निर्मित, दीप्तिमान, चिकने, कमनीय मनोज्ञ वर्तु लाकार-गोल डंडे वाले शेष ध्वजारों से विशिष्ट, अन्यान्य हजारों छोटी-बड़ी अनेक प्रकार की मनोरम रंग-बिरंगी-पंचरंगी पताकाओं से परिमंडित, वायुवेग से फहराती हुई विजय वैजयन्ती पताका, छत्रातिछत्र से युक्त आकाशमंडल को स्पर्श करने वाले ऐसे ऊंचे उपरिभागों से अलंकृत, मन को प्रसन्न करने वाले हैं। इन माहेन्द्र--ध्वजों के ऊपर पाठ-आठ मंगल, ध्वजाये और छत्रातिछत्र सुशोभित हो रहे हैं / १७०-तेसि णं महिंदज्झयाणं पुरतो पत्तेयं-पत्तेयं नंदा पुक्खरिणीप्रो पण्णत्तानो। तानो णं पुक्खरिणीनो एगं जोयणसयं प्रायामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, दस जोयणाई उबेहेणं, अच्छाप्रो जाव वण्णप्रो, एगइयानो उदगरसेणं पण्णत्तानो। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [राजप्रश्नीयसूत्र पत्तेयं-पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्तानो, पत्तेयं-पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्तायो / तासि णं गंदाणं पुखरिणीणं तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णता। तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णो , तोरणा, झया, छत्तातिछत्ता / १७०-उन माहेन्द्रध्वजाओं के आगे एक-एक नन्दा नामक पुष्करिणी बनी हुई है। ये पुष्करिणियाँ सौ योजन लंबी, पचास योजन चौड़ी, दस योजन ऊंडी-गहरी हैं और स्वच्छनिर्मल हैं आदि वर्णन पूर्ववत् यहाँ जानना चाहिए। इनमें से कितनेक का पानी स्वाभाविक पानी जैसा मधुर रस वाला है / ये प्रत्येक नन्दा पुष्करिणियां एक-एक पद्मवर-वेदिका और वनखंडों से घिरी हुई हैं। इन नन्दा पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अतीव मनोहर त्रिसोपान-पंक्तियाँ हैं। इन त्रिसोपान-पंक्तियों के ऊपर तोरण, ध्वजायें, छत्रातिछत्र सुशोभित हैं आदि वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए। सुधर्मासभावर्ती मनोगुलिकायें गोमानसिकायें १७१–सभाए णं सुहम्माए अडयालीसं मणोगुलियासाहस्सोमो पण्णत्तामो, तं जहापुरस्थिमेणं सोलससाहस्सोमो, पच्चस्थिमेणं सोलससाहस्सीग्रो, दाहिणणं अट्ठसाहस्सोमो, उत्तरेणं अट्ठ- . साहस्सोयो। तासु णं मणोगलियासु बहवे सुवण्णरूपमया फलगा पण्णत्ता / तेसु णं सुबन्न रूपमएसु फलगेसु बहवे वइरामया मागदंता पण्णता। तेसु णं वइरामएसु णागदंतएसु किण्हसुत्तवट्टवग्धारियमल्लदामकलावा चिट्ठति / १७१-सुधर्मा सभा में अड़तालीस हजार मनोगुलिकायें (छोटे-छोटे चबूतरे) हैं, वे इस प्रकार हैं—पूर्व दिशा में सोलह हजार, पश्चिम दिशा में सोलह हजार, दक्षिण दिशा में आठ हजार और उत्तर दिशा में आठ हजार / उन मनोगुलिकाओं के ऊपर अनेक स्वर्ण एवं रजतमय फलक-पाटिये और उन स्वर्ण रजतमय पाटियों पर अनेक वज्ररत्नमय नागदंत लगे हैं। उन वज्रमय नागदंतों पर काले सूत से बनी हुई गोल लंबी-लंबी मालायें लटक रही हैं / १७२-समाए णं सुहम्माए अडयालीसं गोमाणसियासाहस्सीनो पन्नत्तानो। जह मणोगुलिया जाव णागदंतगा। तेसु णं णागदंत एसु बहवे रययामया सिक्कगा पण्णत्ता / तेसु णं रययामएसु सिक्कगेसु बहवे वेरुलियामइयो धूवघडियानो पण्णत्तानो / ताप्रो धूवघडियानो कालागुरुपवर जाव चिट्ठति।। १७२--सुधर्मा सभा में अड़तालीस हजार गोमानसिकायें (शय्या रूप स्थानविशेष) रखी हुई हैं। नागदन्तों पर्यन्त इनका वर्णन मनोगुलिकाओं के समान समझ लेना चाहिए / Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणवक चैत्यस्तम्भ ] [ 97 उन नागदंतों के ऊपर बहुत से रजतमय सीके लटके हैं। उन रजतमय सीकों में बहुत-सी वैडूर्य रत्नों से बनी हुई धूपघटिकायें रखी हैं / वे धूपघटिकायें काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क आदि को सुगंध से मन को मोहित कर रही हैं। मारणवक चैत्यस्तम्भ १७३–सभाए णं सुहम्माए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूभिभागे पण्णत्ते जाव मणोहिं उबसोभिए मणिफासो य उल्लायो य। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता, सोलस जोयणाई प्रायामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं सबमणिमयो जाव पडिरूवा। १७३-उस सुधर्मा सभा के भीतर अत्यन्त रमणीय सम भूभाग है / वह भूमिभाग यावत् मणियों से उपशोभित है आदि मणियों के स्पर्श एवं चंदेवा पर्यन्त का सब वर्णन यहाँ पूर्ववत् कर लेना चाहिये। उस अति सम रमणीय भूमिभाग के अति मध्यदेश में एक विशाल मणिपीठिका बनी हुई है। जो आयाम-विष्कम्भ की अपेक्षा सोलह योजन लंबी-चौड़ी और पाठ योजन मोटी तथा सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई यावत् प्रतिरूप-अतीव मनोरम है / १७४-तीसे गं मणिपेढियाए उरि एत्थ णं माणवए चेइएखंभे पण्णते, सदि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, जोयणं उन्हेणं, जोयणं विक्खंभेणं, अडयालीसंसिए, अडयालीसइ कोडीए, अडयालीसइ विग्गहिए सेसं जहा महिंदज्झयस्स / माणबगस्स णं चेइयखंभस्स उरि बारस जोयणाई प्रोगाहेत्ता, हेटावि बारस जोयणाई वज्जेत्ता, मज्झे छत्तोसाए जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरूपमया फलगा पण्णत्ता / तेसु णं सुदण्णरूपाएसु फलएसु बहवे वइरामया णागदंता पण्णता / तेसु णं वइरामएसु नागदंतेसु बहवे रययामया सिक्कगा पण्णता। तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वइरामया गोलवट्टसमुग्गया पण्णत्ता / तेसु णं वयरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहवे जिणसकहातो संनिक्खित्तानो चिट्ठति / तानो णं सूरियाभस्स देवस्स अन्नेसि च बहूणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जासो जाव पज्जु. वासणिज्जायो। माणवगस्स चेइयखंभस्स उरि अट्ठ मंगलगा, झया, छत्ताइच्छत्ता / १७४–उस मणिपीठिका के ऊपर एक माणवक नामक चैत्यस्तम्भ है / वह ऊँचाई में साठ योजन ऊँचा, एक योजन जमीन के अंदर गहरा, एक योजन चौड़ा और अड़तालोस कोनों, अड़तालोस धारों और अड़तालीस आयामों-पहलुओं वाला है। इसके अतिरिक्त शेष वर्णन माहेन्द्रध्वज जैसा जानना चाहिए। उस माणवक चैत्यस्तम्भ के ऊपरी भाग में बारह योजन और नोचे बारह योजन छोड़कर मध्य के शेष छत्तीस योजन प्रमाण भाग–स्थान में अनेक स्वर्ण और रजतमय फरक-पाटिये लगे हए हैं। उन स्वर्ण-रजतमय फलकों पर अनेक वज्रमय नागदंत-खूटिया हैं / उन बज्रमय नागदंतों पर Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र बहुत से रजतमय सीके लटक रहे हैं। उन रजतमय सींकों में वज्रमय गोल गोल समुद्गक (डिब्बे) रखे हैं / उन गोल-गोल वज्ररत्नमय समुद्गकों में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। __ वे अस्थियां सूर्याभदेव एवं अन्य देव-देवियों के लिए अर्चनीय यावत् (वंदनीय, पूजनीय, संमाननीय, सत्करणीय तथा कल्याण, मंगल देव एवं चैत्य रूप में) पर्युपासनीय हैं। उस माणवक चैत्य के ऊपर पाठ पाठ मंगल, ध्वजायें और छत्रातिछत्र सुशोभित हो रहे हैं / देव-शय्या १७५-तस्स माणवगस्स चेइयखंभस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता, अट्ठ जोयणाई अायाम-विक्खंभेणं, चत्तारि जोषणाई बाहल्लेणं सब्वमणिमई अच्छा जाव पडिरूवा / तीसे णं मणिपेढियाए उरि एत्थ णं महेगे सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णओ सपरिवारो। तस्स णं माणवगस्स चेइयखंभस्स पच्चस्थिमेणं एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता, अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं, चत्तारि जोयणाइं बाहल्लेणं, सध्वमणिमया अच्छा जाव पडिरूवा। तीसे णं मणिपेढियाए उरि एस्थ णं महेगे देवसयणिज्जे पण्णत्ते। तस्स णं देवसणिज्जस्स इमेयारवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा–णाणामणिमया पडिपाया, सोवनिया पाया, णाणामणिमयाई पायसोसगाई, जंबूणयामयाइं गत्तगाई, वइरामया संधो, णाणामणिमए विच्चे, रययामई तूली, लोहियक्खमया बिब्बोयणा, तवणिज्जमया गंडोबट्टाणया / से णं सयणिज्जे सालिगणवट्टिए उभो बिब्बोयणं दुहमओ उण्णते, मज्झे णयगंभोरे गंगापुलिणवालुया-उद्दालसालिसए, सुविरइयरयत्ताणे, उचियखोमदुगुल्लपट्ट-पडिच्छायणे आईणग-रूय-बूरगवणीय-तूलफासमउए, रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे पासादीए पडिरूवे। १७५–उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पूर्व दिग्भाग में विशाल मणिपीठिका बनी हुई है। जो आठ योजन लंबी-चौड़ी, चार योजन मोटी और सर्वात्मना मणिमय निर्मल यावत् प्रतिरूप है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल सिंहासन रखा है। भद्रासन आदि आसनों रूप परिवार सहित उस सिंहासन का वर्णन करना चाहिए / उस माणवक चैत्यस्तम्भ की पश्चिम दिशा में एक बड़ी मणिपीठिका है। वह मणिपीठिका आठ योजन लम्बी चौड़ी, चार योजन मोटी, सर्व मणिमय, स्वच्छ-निर्मल यावत् असाधारण सुन्दर है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक श्रेष्ठ रमणीय देव-शय्या रखी हुई है। उस देवशय्या का वर्णन इस प्रकार है, यथा-इसके प्रतिपाद अनेक प्रकार की मणियों से बने हुए हैं / स्वर्ण के पाद-पाये हैं। पादशीर्षक (पायों के ऊपरी भाग) अनेक प्रकार की मणियों के हैं / गाते (ईषायें, पाटियां) सोने को हैं / सांधे वज्ररत्नों से भरी हुई हैं। बाण (निवार) विविध रत्नमयी है। तूली (बिछौना-गादला) रजतमय है। प्रोसीसा लोहिताक्षरत्न का है। गंडोपधानिका (तकिया) सोने की है। उस शय्या पर शरीर प्रमाण उपधान-गद्दा बिछा है। उसके शिरोभाग और चरणभाग (सिरहाने और पांयते) दोनों ओर तकिये लगे हैं। वह दोनों ओर से ऊँची और मध्य में नत-झुकी Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धायतन ] हूई, गंभीर गहरी है। जसे गंगा किनारे की बालू में पांव रखने से पांव धंस जाता है, उसी प्रकार बैठते ही नीचे की ओर धंस जाते हैं। उस पर रजस्त्राण पड़ा रहता है-मसहरी लगी हुई है। कसीदा वाला क्षौमदुकूल (रूई का बना चद्दर) बिछा है / उसका स्पर्श प्राजिनक (मृगछाला, चर्मनिर्मित वस्त्र) रूई. बर नामक वनस्पति, मक्खन और पाक की रुई के समान सुकोमल है। रक्तांशुकलाल तूस से ढका रहता है / अत्यन्त रमणीय, मनमोहक यावत् असाधारण सुन्दर है। आयुधगृह-शस्त्रागार १७६–तस्स णं देवसणिज्जस्स उत्तरपुरस्थिमेणं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता-प्रद जोयणाई प्रायाम-विक्खंभेणं, चत्तारि जोप्रणाई बाहल्लेणं, सव्वमणिमयो जाव पडिरूवा। तीसे णं मणिपेढियाए उरि एत्थ णं महेगे खुड्डए महिंदज्झए पण्णत्ते, सट्टि जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं, जोयणं विक्खंभेणं वइरामया बदृलट्टसंठियसुसिलिट्ठ जाव पडिरूवा / उरि अट्ठ मंगलगा, झया, छत्तातिछत्ता। तस्स गं खुड्डागहिंदज्झयस्स पच्चस्थिमेणं एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स चोपाले नाम पहरणकोसे पन्नत्ते, सव्ववइरामए अच्छे जाव पडिरूवे / तत्थ णं सरियाभस्स देवस्स फलिहरयण-खग्ग-गया-धगुप्पमुहा बहवे पहरणरयणा संनिक्खिता चिट्ठति, उज्जला निसिया सुतिक्खधारा पासादीया.... . सभाए णं सुहम्माए उरि अट्ठमंगलगा, झया, छत्तातिछत्ता / १७६-उस देव-शय्या के उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशान-कोण) में पाठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटो सर्वमणिमय यावत् प्रतिरूप एक बड़ी मणिपीठिका बनी है। उस मणिपीठिका के ऊपर साठ योजन ऊँचा, एक योजन चौड़ा, वज्ररत्नमय सुन्दर गोल आकार वाला यावत् प्रतिरूप एक क्षुल्लक छोटा माहेन्द्रध्वज लगा हुआ है--फहरा रहा है। जो स्वस्तिक आदि पाठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों से उपशोभित है। उस क्षुल्लक माहेन्द्रध्वज की पश्चिम दिशा में सूर्याभदेव का 'चोप्पाल' नामक प्रहरणकोश (प्रायुधगृह-शस्त्रागार) बना हुआ है / यह आयुधगृह सर्वात्मना रजतमय, निर्मल यावत् प्रतिरूप है / उस प्रहरणकोश में सूर्याभ देव के परिघरत्न, (मूसल, लोहे का मुद्गर जैसा शस्त्रविशेष तलवार, गदा, धनुष आदि बहुत से श्रेष्ठ प्रहरण (अस्त्र-शस्त्र) सुरक्षित रखे हैं। वे सभी शस्त्र अत्यन्त उज्ज्वल, चमकीले, तीक्ष्ण धार वाले और मन को प्रसन्न करने वाले प्रादि हैं। सुधर्मा सभा का उपरी भाग पाठ-पाठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों से सुशोभित हो रहा है। सिद्धायतन १७७-सभाए णं सुहम्माए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं महेगे सिद्धायतणे पण्णत्ते, एगं जोयण Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10.] [ राजप्रश्नीयसूत्र सयं पायामेणं, पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं, बावरि जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं, सभागमएणं जाव' गोमाणसियानो, भूमिभागा, उल्लोया तहेव / १७७-उस सुधर्मा सभा के उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशान कोण) में एक विशाल सिद्धायतन है। वह सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और बहत्तर योजन ऊँचा है / तथा इस सिद्धायतन का गोमानसिकाओं पर्यन्त एवं भूमिभाग तथा चदेवा का वर्णन सुधर्मा सभा के समान जानना चाहिये। विवेचन–'सभागमएणं जाव गोमाणसियानो' पाठ से सिद्धायतन का वर्णन सुधर्मा सभा के समान करने का जो संकेत किया है, संक्षेप में वह वर्णन इस प्रकार है सुधर्मा सभा के समान ही इस सिद्धायतन की पूर्व, दक्षिण और उत्तर इन तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं। उन प्रत्येक द्वारों के आगे एक-एक मुखमंडप बना है। मुखमण्डपों के आगे प्रेक्षागृह मंडप हैं। प्रेक्षागृह मण्डपों के आगे प्रतिमाओं सहित चार चैत्यस्तूप हैं तथा उन चैत्य स्तूपों के आगे चैत्यवृक्ष हैं / चैत्य वृक्षों के आगे एक एक माहेन्द्रध्वज फहरा रहा है। माहेन्द्रध्वजों के आगे नन्दा पुष्करिणियाँ हैं और उनके अनन्तर मनोगुलिकायें एवं गोमानसिकायें हैं। 178 तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पणत्ता-सोलस जोयणाई आयामबिक्खंभेणं, अट्ट जोयणाइं बाहल्लेणं। तोसे णं मणिपेढियाए उरि एत्थ णं महेगे देवच्छंदए पण्णत्ते सोलस जोयणाई मायामविक्खंभेणं, साइरेगाइं सोलस जोयणाई उडू उच्चत्तेणं, सन्वरयणामए जाव पडिरूवे। एत्थ णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं संचिट्ठति / तासि णं जिणपडिमाणं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा तवणिज्जमया हत्यतलपायतला, अंकामयाई नक्खाई अंतोलोहियक्खपडिसेगाई, कणगामईयो जंघाश्रो, कणगामया जाण, कणगामया उरू, कणगामईनो गायलट्रीमो, तवणिज्जमयाओ नाभीयो, रिद्वामईओ रोमराईनो, तवणिज्जमया चुचया, तवणिज्जमया सिरिवच्छा सिलप्पवालमया प्रोडा, फालियामया दंता, तवणिज्जमईप्रो जोहानों, तवणिज्जमया तालुया, कणगामईनो नासिगाश्रो अंतोलोहियक्खपडिसेगारो, अंकामयाणि अच्छोणि अंतोलोहियक्खपडिसेगाणि, [रिद्वामईप्रो ताराप्रो] रिट्रामयाणि अच्छिपत्ताणि, रिट्ठामईयो भमुहाओ, कणगामया कवोला, कणगामया सवणा, कणगामईयो पिडालपट्टियाओ, वइरामईओ सीसघडीमो, तवणिज्जमईप्रो केसंतकेसभूमीओ, रिट्टामया उरि मुद्धया। १७८-उस सिद्धायतन के ठीक मध्यदेश में सोलह योजन लम्बी-चौड़ी, पाठ योजन मोटी एक विशाल मणिपीठिका बनी हुई है। उस मणिपीठिका के ऊपर सोलह योजन लम्बा-चौड़ा और कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचा, सर्वात्मना मणियों से बना हुअा यावत् प्रतिरूप एक विशाल देवच्छन्दक (आसनविशेष) स्थापित है और उस पर जिनोत्सेध तीर्थकरों की ऊंचाई के बराबर वाली एक सौ आठ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। उन जिन प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार है, जैसे कि१. देखें सूत्रसंख्या 163 से 171 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धायतन ] [101 उन प्रतिमाओं की हथेलियाँ और पगलियाँ तपनीय स्वर्णमय हैं / मध्य में खचित लोहिताक्ष रत्न से युक्त अंकरत्न के नख हैं। जंघायें,---जानुयें-घुटने,-पिंडलियाँ और देहलता-शरीर कनकमय है / नाभियाँ तपनीयमय हैं। रोमराजि रिष्ट रत्नमय हैं। चूचक (स्तन का अग्र भाग) और श्रीवत्स (वक्षस्थल पर बना हुआ चिह्न-विशेष) तपनीयमय हैं। होठ प्रवाल (मूगा) के बने हुए हैं, दंतपंक्ति स्फटिकमणियों और जिह्वा एवं तालु तपनीय स्वर्ण (लालिमायुक्त स्वर्ण) के हैं। नासिकायें बीच में लोहिताक्ष रत्न खचित कनकमय हैं (नेत्र लोहिताक्ष रत्न से खचित मध्य-भाग युक्त अंकरत्न के हैं और नेत्रों की तारिकायें (कनीनिकायें-आँख के बीच का काला भाग) अक्षिपत्रपलकें तथा भौंहें रिष्टरत्नमय हैं। कपोल, कान और ललाट कनकमय हैं / शीर्षघटी (खोपड़ी) वज्र रत्नमय है / केशान्त एवं केशभूमि (चांद) तपनीय स्वर्णमय है और केश रिष्टरत्नमय हैं। १७९-तासि णं जिणपडिमाणं पिटुतो पत्तेयं-पत्तेयं छत्तधारगपडिमानो पण्णत्तायो / तामो णं छत्तधारगपडिमानो हिम-रयय-कुबेदुप्पगासाई, सकोरंटमल्लदामधवलाई श्रायवत्ताई सलीलं धारेमाणीओ धारेमाणीओ चिट्ठति / / तासि णं जिणपडिमाणं उभो पासे पत्तेयंपत्तेयं चामरधार (ग) पडिमाओ पण्णत्तायो। तामो गं चामर-धारपडिमातो चंदप्पहवयरवेरुलियनानामणिरयणखचियचित्तदंडाप्रो सुहमरयत. दोहवालाप्रो संखंककुद-दगरय-अमतमहियफेणपुजसन्निकासाप्रो धवलामो चामराम्रो सलीलं धारेमाणीप्रो चिट्ठति / तासि गं जिणपडिमाणं पुरतो दो-दो नागपडिमानो जक्खपडिमानो, भूयपडिमानो, कुडधारपडिमाश्रो सव्वरयणामईओ अच्छाप्रो जाव चिट्ठति / तासि ण जिणपडिमाणं पुरतो अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदणकलसाणं, अट्ठसयं भिंगाराणं एवं प्रायंसाणं, यालाणं पाईणं सुपइट्टाणं, मणोगुलियाणं वायकरगाणं, चित्तगराणं रयणकरंडगाणं, हयकंठाणं जाव' उसभकंठाणं, पुप्फचंगेरोणं जावर लोमहत्थचंगेरीणं, पुष्फपडलगाणं तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं, अट्ठसयं झयाणं, अट्टसयं धूवकडुच्छुयाणं संनिक्खित्तं चिटुति / सिद्धायतणस्स णं उरि अट्ठ मंगलगा, झया छत्तातिछत्ता / १७६-उन जिन प्रतिमाओं में से प्रत्येक प्रतिमा के पीछे एक एक छत्रधारक-छत्र लिये खड़ी देवियों की प्रतिमायें हैं। वे छत्रधारक प्रतिमायें लीला करती हुई-सी भावभंगिमा पूर्वक हिम, रजत, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान प्रभा–कांतिवाले कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त धवल-श्वेत आतपत्रों (छत्रों) को अपने-अपने हाथों में धारण किये हुए खड़ी हैं। प्रत्येक जिन-प्रतिमा के दोनों पार्श्व भागों-बाजुओं में एक एक चामरधारक-प्रतिमायें हैं। वे चामर-धारक प्रतिमायें अपने अपने हाथों में विविध मणिरत्नों से रचित चित्रामों से युक्त चन्द्रकान्त, वज्र और बैडूर्य मणियों की डंडियों वाले, पतले, रजत जैसे श्वेत लम्बे-लम्बे बालों वाले 1, 2, ३-देखें सूत्र संख्या 132. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [ राजप्रश्नीयसूत्र शंख, अंकरल, कुन्दपुष्प, जलकण, रजत और मन्थन किये हुए अमृत के फेनपुज सदृश श्वेत-धवल चामरों को धारण करके लीलापूर्वक बींजती हुई-सी खड़ी हैं। उन जिन-प्रतिमाओं के प्रागे दो-दो नाग-प्रतिमायें, यक्षप्रतिमायें, भूतप्रतिमायें, कुड (पात्रविशेष) धारक प्रतिमायें खड़ी हैं। ये सभी प्रतिमायें सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-निर्मल यावत् अनुपम शोभा से सम्पन्न हैं। उन जिन-प्रतिमाओं के आगे एक सौ पाठ-एक सौ आठ घंटा, चन्दनकलश, भंगार, दर्पण, थाल, पात्रियां, सुप्रतिष्ठान, मनोगुलिकायें, वातकरक, चित्रकरक, रत्न करंडक, अश्वकंठ यावत् वृषभकंठ पुष्पचंगेरिकायें यावत् मयूरपिच्छ चंगेरिकायें, पुष्पषटलक, तेलसमुद्गक यावत् अंजनसमुद्गक, एक सौ पाठ ध्वजायें, एक सौ आठ धूपकडुच्छुक (धूपदान) रखे हैं।। __ सिद्धायतन का ऊपरीभाग स्वस्तिक आदि पाठ-आठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों से शोभायमान है। उपपात आदि सभाएँ १८०-तस्स णं सिद्धायतणस्स उत्तरपुरत्यिमेणं एस्थ णं महेगा उववायसभा पण्णता, जहा सभाए सुहम्माए तहेव जाव' मणिपेढिया अट्ट जोयणाई, देवसयणिज्जं तहेव सयणिज्जवण्णमो, अट्ठ मंगलगा, झया, छत्तातिछत्ता / १८०-इस सिद्धायतन के ईशान कोण में एक विशाल श्रेष्ठ उपपात-सभा बनी हुई है। सुधर्मा-सभा के समान ही इस उपपात-सभा का वर्णन समझना चाहिए। मणिपीठिका की लम्बाईचौड़ाई पाठ योजन की है और सुधर्मा-सभा में स्थित देवशैया के समान यहां की शैया का ऊपरी भाग आठ मंगलों, ध्वजामों और छत्रातिछत्रों से शोभायमान हो रहा है। विवेचन--सुधर्मा-सभा के समान इस उपपातसभा के वर्णन करने के संकेत का आशय यह सुधर्मासभा के समान ही इस उपपात-सभा के लिये भी पूर्वादि दिग्दर्ती तीन द्वारों, मुखमण्डप, प्रेक्षागहमण्डप, चैत्यस्तूप, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज एवं नन्दा-पुष्करिणी से लेकर उल्लोक तक का तथा मध्यभाग में स्थित-मणि-पीठिका और उस पर विद्यमान देवशैया एवं ऊपरी भाग में पाठ-पाठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रों का वर्णन करना चाहिए। १८१-तीसे णं उववायसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं महेगे हरए पण्णत्ते, एग जोयणसयं पायामेणं, पण्णासं जोयणाई विखंक्मेणं, दस जोयणाई उब्वेहेणं, तहेव से णं हरए एगाए पउमवरबेइयाए, एगेण वणसंडेण सम्बो समंता संपरिक्खित्ते / तस्स णं हरयस्स तिदिसं तिसोवाणपडिरूवगा पन्नत्ता। १८१-उस उपपातसभा के उत्तर-पूर्व दिग्भाग में एक विशाल ह्रद-जलाशय-सरोवर है / इस ह्रद का आयाम (लम्बाई) एक सौ योजन एवं विस्तार (चौड़ाई) पचास योजन है तथा गहराई 1. देखें सूत्र संख्या 163 से 176 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकरल एवं नन्दा-पुष्करिणी ] [ 103 दस योजन है। यह ह्रद सभी दिशानों में एक पद्मवरवेदिका एवं एक वनखण्ड से परिवेष्टित-घिरा हुया है तथा इस हद के तीन ओर अतीव मनोरम त्रिसोपान-पंक्तियाँ बनी हुई हैं। १८२-तस्स गं हरयस्स उत्तरपुरस्थिमे णं एत्य णं महेगा अभिसेगसभा पण्णत्ता, सुहम्मागमएणं जाव' गोमाणसियानो मणिपेढिया सीहासणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठति / तस्थ णं सूरियामस्स देवस्स सुबहु अभिसेयभंडे संनिक्खित्ते चिट्ठइ, अट्ठ मंगलगा तहेव / १८२-उस ह्रद के ईशानकोण में एक विशाल अभिपेकसभा है। सुधर्मा-सभा के अनुरूप ही यावत् गोमानसिकायें, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, यावत् मुक्तादाम हैं, इत्यादि।इस अभिषेक सभा का भी वर्णन जानना चाहिए। वहां सूर्याभदेव के अभिषेक योग्य साधन-सामग्री से भरे हुए बहुत-से भाण्ड (पात्र आदि सामग्री) रखे हैं तथा इस अभिषेक-सभा के ऊपरी भाग में पाठ-आठ मंगल आदि सुशोभित हो १८३–तीसे णं अभिसेगसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं अलंकारियसभा पण्णत्ता, जहा सभा सुधम्मा मणिपेढिया अट्ट जोयणाई, सीहासणं सपरिवारं / तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स सुबहु अलंकारियभंडे संनिक्खित्ते चिट्ठति, सेसं तहेव / १८३-उस अभिषेकसभा के ईशान कोण में एक अलंकार-सभा है। सुधर्मासभा के समान हो इस अलंकार-सभा का तथा पाठ योजन की मणिपीठिका एवं सपरिवार सिहासन आदि का वर्णन समझ लेना चाहिए। __ अलंकारसभा में सूर्याभदेव के द्वारा धारण किये जाने वाले अलंकारों से भरे हुए बहुत-से अलंकार-भांड रखे हैं / शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिये। १८४-तोसे णं अलंकारियसभाए उत्तरपुरस्थिमे णं तत्थ णं महेगा ववसायसभा पण्णता, जहा उववायसभा जाव सीहासणं सपरिवारं मणिपेढिया, अट्ठ मंगलगा० / १८४-उस अलंकारसभा के ईशानकोण में एक विशाल व्यवसायसभा बनी है / उपपातसभा के अनुरूप ही यहां पर भी सपरिवार सिंहासन, मणिपीठिका आठ-आठ मंगल आदि का वर्णन कर लेना चाहिए। पुस्तकरत्न एवं नन्दा-पुष्करिणी १८५-तत्थ णं सूरिमाभस्स देवस्स एत्य महेगे पोत्थयरयणे सन्निक्खित्ते चिटुइ, तस्स णं पोत्थयरयणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तं जहा-- रिद्वामईप्रो कंबिधानो, तवणिज्जमए दोरे, नाणामणिमए गंठी, रयणामयाई पत्तगाई, वेरुलियमए लिप्पासणे, रिट्ठामए छंदणे, तवणिज्जमई संकला, रिद्वामई मसी, वइरामई लेहणी, रिट्ठामयाई अश्वराई, धम्मिए लेक्खे। 1. देखें सूत्र संख्या 163 से 171 / 2. देखें सूत्र संख्या 48 से 51 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र यवसायसभाए णं उरि अटुट्ठ मंगलगा। तोसे णं ववसायसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं नंदा पुक्खरिणी पण्णत्ता हरयसरिसा / तीसे गं गंदाए पुषखरिणीए उत्तरपुरस्थिमेणं महेगे बलिपोढे पणत्ते सव्वरयणामए प्रच्छे जाव पडिरूवे। १८५-उस व्यवसाय-सभा में सूर्याभ देव का विशाल श्रेष्ठतम पुस्तकरत्न रखा है / उस पुस्तकरत्न का वर्णन इस प्रकार है इसके पूठे रिष्ट रत्न के हैं। डोरा स्वर्णमय है, गांठे विविध मणिमय हैं / पत्र रत्नमय हैं / लिप्यासन-दवात वैर्य रत्न की है, उसका ढक्कन रिष्टरत्नमय है और सांकल तपनीय स्वर्ण की बनी हुई है / रिष्टरत्न से बनी हुई स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी-कलम है। रिष्टरत्नमय अक्षर हैं और उसमें धार्मिक लेख लिखे हैं / / व्यवसाय-सभा का ऊपरी भाग आठ-आठ मंगल आदि से सुशोभित हो रहा है। उस व्यवसाय-सभा में उत्तरपूर्व दिग्भाग में एक नन्दा पुष्करिणी है। ह्रद के समान इस नन्दा पुष्करिणी का वर्णन जानना चाहिए। उस नन्दा पुष्करिणी के ईशानकोण में सर्वात्मना रत्नमय, निर्मल, यावत् प्रतिरूप एक विशाल बलिपीठ (प्रासन-विशेष) बना है / उपपातान्तर सूर्याभदेव का चिन्तन १८६--तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियामे देवे अहुणोववण्णमित्तए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए, प्राणपाणपज्जत्तीए, भासा-मणपज्जत्तीए / तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--कि मे पुब्धि करणिज्जं ? कि मे पच्छा करणिज्ज कि मे पुवि सेयं ? कि मे पच्छा सेयं? कि मे पुब्धि पि पच्छा वि हियाए सुहाए खमाए हिस्सेयसाए प्राणगामियत्ताए भविस्सइ ? १८६-उस काल और उस समय में तत्काल उत्पन्न होकर वह सूर्याभ देव (1) आहार पर्याप्ति (2) शरीर-पर्याप्ति (3) इन्द्रिय-पर्याप्ति (4) श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति और (5) भाषामनःपर्याप्ति-इन पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त अवस्था को प्राप्त हुआ / पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त होने के अनन्तर उस सूर्याभदेव को इस रिक विचार. चिन्तन. अभिलाष, मनोगत एवं संकल्प उत्पन्न हआ कि---मुझे पहले क्या करना चाहिये ? और उसके अनन्तर क्या करना चाहिये ? मुझे पहले क्या करना उचित (शुभ, कल्याणकर) है ? और बाद में क्या करना उचित है ? तथा पहले भी और पश्चात् भी क्या करना योग्य है जो मेरे हित के लिये, सुख के लिये, क्षेम के लिये, कल्याण के लिये और अनुगामी रूप (परंपरा) से शुभानुबंध का कारण होगा ? Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामानिक देवों द्वारा कृत्यसंकेत] [105 विवेचन--जीव की उस शक्ति को पर्याप्ति कहते है जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उनको आहार, शरीर ग्रादि के रूप में परिवर्तित करने का कार्य होता है। संसारी जीव को पुद्गलों के ग्रहण करने और परिणमाने की शक्ति पुदगलों के उपचय (पोषण, वृद्धि) से प्राप्त होती है एवं इस उपचय से ग्रहण और परिणमन करता है। इस प्रकार के कार्य-कारण भाव से उपचय, ग्रहण और परिणमन इन तीनों का क्रम निरंतर चलता रहता है। पर्याप्ति के छह भेद हैं 1. आहार-पर्याप्ति 2. शरीर-पर्याप्ति 3. इन्द्रिय-पर्याप्ति 4. श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5. भाषा-पर्याप्ति 6. मन-पर्याप्ति / उक्त छह पर्याप्तियों में अनुक्रम से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के प्रादि की चार पर्याप्तियों के साथ भाषा-पर्याप्ति को मिलाने से पाँच तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनपर्यन्त छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। इहभव संबंधी शरीर को छोड़ने के पश्चात् जब जीव परभव सम्बन्धी शरीर ग्रहण करने के लिए उत्पत्तिस्थान में पहुँच कर कार्मण शरीर के द्वारा प्रथम समय में जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, उनके आहार-पर्याप्ति आदि रूप छह विभाग हो जाते हैं और उनके द्वारा एक साथ आहार आदि छहों पर्याप्तियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है, लेकिन उनकी पूर्णता क्रमश: होती है। अर्थात् आहार के बाद शरीर, शरीर के बाद इन्द्रिय आदि / यह क्रम मन-पर्याप्ति पर्यन्त समझना चाहिए / इसको एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझना चाहिए। जैसे कि छह सूत कातने वाली स्त्रियों ने रुई का कातना तो एक साथ प्रारंभ किया, किन्तु उनमें मोटा सूत कातने वाली जल्दी कात लेती है और उत्तरोत्तर बारीक-बारीक कातने वाली अनुक्रम से विलम्ब से कातती हैं / इसी प्रकार यद्यपि पर्याप्तियों का प्रारंभ तो एक साथ हो जाता है किन्तु उनकी पूर्णता अनुक्रम से होती है। पर्याप्तियां औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों में होती हैं और उनमें उनकी पूर्णता का क्रम इस प्रकार जानना चाहिए औदारिक शरीर वाला जीव पहलो ग्राहार-पर्याप्ति एक समय में पूर्ण करता है और इसके बाद दूसरी से लेकर छठी तक प्रत्येक अनुक्रम से एक-एक अन्तर्मुहूर्त के बाद पूर्ण करता है। वैक्रिय और आहारक शरीर वाले जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूर्ण कर लेते हैं और उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में दूसरी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं और उसके बाद तीसरी से छठी पर्यन्त अनुक्रम से एक-एक समय में पूरी करते हैं। लेकिन देव पांचवीं और छठी इन दोनों पर्याप्तियों को अनुक्रम से पूर्ण न कर एक साथ एक समय में ही पूरी कर लेते हैं / सूत्र में "भासामणपज्जत्तीए" पद से सूर्याभदेव को पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होने का संकेत देवों के पाँचवीं और छठी भाषा और मन-पर्याप्तियाँ एक साथ पूर्ण होने की अपेक्षा किया गया है। सामानिक देवों द्वारा कृत्य-संकेत १८७-तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा सूरियाभस्स देवस्स Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र इमेयारूवमझस्थियं जाव समुध्यन्नं समभिजाणित्ता जेणेव सरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, सरियाभं देवं करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धाविन्ति, बद्धावित्ता एवं वयासी एवं खलु दवाणुप्पियाणं सूरियाभे विमाणे सिद्धायतणंसि जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमित्ताणं अट्ठसयं संनिक्खित्तं चिट्ठति, सभाए णं सुहम्माए माणवए चेइयखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूमो जिणसकहाम्रो संनिक्खित्तानो चिट्ठति, तानो णं देवाणुप्पियाणं अणेसि च बहूर्ण वेमाणियाणं देवाणं य देवीण य प्रच्चणिज्जापो जाव पज्जवासणिज्जायो। तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुटिव करणिज्ज, तं एवं गं देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिज्जं। तं एवं गं देवाणुपियाणं पुदिव सेयं, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं / तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुचि पि पच्छा वि हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेयसाए, आणुगामियत्ताए भविस्सति / १८७–तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देव सूर्याभदेव के इस अान्तरिक विचार यावत् उत्पन्न संकल्प को अच्छी तरह से जानकर सूर्याभदेव के पास आये और उन्होंने दोनों हाथ जोड़ आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से सूर्याभदेव को अभिनन्दन करके इस प्रकार कहा आप देवानुप्रिय के सूर्याभविमान स्थित सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण वाली एक सौ पाठ जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं तथा सुधर्मा सभा के माणवक-चैत्यस्तम्भ में वज्ररत्नमय गोल समुद्गकों (डिब्बों) में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ व्यवस्थित रूप से रखी हुई हैं / वे आप देवानुप्रिय तथा दूसरे भी बहुत से वैमानिक देवों एवं देवियों के लिये अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं। अतएव प्राप देवानुप्रिय के लिये उनकी पर्युपासना करने रूप कार्य पहले करने योग्य है और यही कार्य पीछे करने योग्य है / आप देवानुप्रिय के लिये यह पहले भी श्रेय-रूप है और बाद में भी यही श्रेय रूप है / यही कार्य आप देवानुप्रिय के लिए पहले और पीछे भी हितकर, सुखप्रद, क्षेमकर, कल्याणकर एवं परम्परा से सुख का साधन रूप होगा / १८८-तए णं से सरियामे देवे तेसि सामाणियपरिसोववन्न गाणं देवाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा-निसम्म हट्ठ-तुट्ठ जाव (चित्तमादिए-पीइमणे-परमसोमणस्सिए-हरिसवसविसष्पमाण) हयहियए सयणिज्जानो अब्भुट्ठति, सयणिज्जाप्रो अभुत्ता उववायसभाम्रो पुरथिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छइ, जेणेय हरए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता हरयं अणपयाहिणीकरेमाणे-अणुपयाहिणी-करेमाणे पुरथिमिलेणं तोरणेणं अणुपविसइ, अणुपविसत्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जलावगाहं जलमज्जणं करेइ, करित्ता जलकिड्डं करेइ, करिता जलाभिसेयं करेइ, करित्ता प्रायंते चोक्खे परमसइभूए हरयानो पच्चोत्तरइ, पच्चोत्तरित्ता जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छिता अभिसेयसभं अणुपयाहिणीकरेमाणे अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरस्थिमिलेणं दारेणं अणुपावसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने / १८८-तत्पश्चात् वह सूर्याभदेव उन सामानिकपरिषदोपगत देवों से इस अर्थ–बात को सुनकर और हृदय में अवधारित-मनन कर हर्षित, संतुष्ट यावत् (चित्त में प्रानन्दित, अनुरागी, परम Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यामदेव का अभिषेक-महोत्सव ] [107 प्रसन्न, हर्षातिरेक से विकसित) हृदय होता हुआ शय्या से उठा और उठकर उपपात सभा के पूर्वदिग्वर्ती द्वार से निकला, निकलकर ह्रद (जलाशय-तालाब) पर पाया, प्राकर ह्रद की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशावर्ती तोरण से होकर उसमें प्रविष्ट हुना। प्रविष्ट होकर पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपान पंक्ति से नीचे उतरा, उतर कर जल में अवगाहन और जलमज्जन (स्नान) किया, जल-मज्जन करके जलक्रीडा की, जलक्रीडा करके जलाभिषेक किया, जलाभिषेक करके आचमन (कुल्ला आदि) द्वारा अत्यन्त स्वच्छ और शुचिभूत-शुद्ध होकर ह्रद से बाहर निकला, निकल कर जहां अभिषेकसभा थी वहाँ आया, वहाँ आकर अभिषेकसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशावर्ती द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, प्रविष्ट होकर सिंहासन के समीप आया और पाकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। सूर्याभदेव का अभिषेक-महोत्सव १८६-तए णं सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा प्राभिप्रोगिए देवे सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी _ खिपामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभस्स देवस्त महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेयं उवटवेह / १८६-तदनन्तर सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनसे कहा--- देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही सूर्याभदेव का अभिषेक करने हेतु महान अर्थ वाले महर्ष (बहुमूल्य) एवं महापुरुषों के योग्य विपुल इन्द्राभिषेक की सामग्री उपस्थित करो-तैयार करो। १६०–तए णं ते प्राभिओगिमा देवा सामाणियपरिसोववन्नेहि देवेहि एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु 'एवं देवो! तह' त्ति प्राणाए विणएणं वयर्ण पडिसुगंति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसोभागं प्रवक्कमति, उत्तरपुरस्थिमं दिसोभागं अवकमिसा वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति / समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई जाव' दोच्चं पि उब्वियसमुग्धाएणं समोहणित्ता अट्ठसहस्सं सोवनियाणं कलसाणं, असहस्सं रुप्पमयाणं कलसाणं, असहस्सं मणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुबन्तमणिमयाणं कलसाणं, अट्टसहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं, असहस्सं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं असहस्सं भोमिज्जाणं कलसाणं एवं भिगाराणं, प्रायंसाणं थालाणं, पाईगं, सुमतिद्वाण वायकरगाणं, रयणकरंडगाणं, पुप्फचंगेरोणं, जावर लोमहत्यचंगेरोणं, पुष्फपडलगाणं जाव लोमहत्यपडलगाणं, सोहासणाणं, छत्ताणं, चामराणं, तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं, झयाणं, असहस्सं धूवकडुच्छुयाणं विउव्वति / विउवित्ता ते साभाविए य वेउविए य कलसे य जाव कडुच्छुए य गिण्हंति, गिण्हित्ता सूरिया. भानो विमाणाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता ताए उक्किट्ठाए चवलाए जाव तिरियमसंखेज्जाणं जाव' वीतिवयमाणे-बोतिवयमाणे जेणेव खोरोदयसमुद्दे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता खोरोयगं 1. देखें सूत्र संख्या-१३ 2. देखें सूत्र संख्या 132 3. देखें सूत्र संख्या 132 4-5 देखें सूत्र संख्या 13 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र गिण्हंति, जाइं तत्थुप्पलाइं ताई गेण्हंति जाव (पउमाई, कुमुयाई, नलिणाई, सुभगाई, सोगंधियाई, पोंडरियाई, महापोंडरियाई) सयसहस्सपत्ताइं गिण्हंति / गिण्हिता जेणेव पुक्खरोदए समुद्दे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पुक्खरोदयं गेण्हंति, जाई तत्थुप्पलाई सयसहस्सपत्ताई ताई जाव गिण्हति / गिहित्ता समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयाई वासाई जेणेव मागहवरदाम-पभासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता तित्थोदगं गेण्हंति, गेण्हेत्ता तित्थमट्टियं गेण्हति / गेण्हित्ता जेणेव गंगा-सिंधु-रत्ता-रत्तवईयो महानईप्रो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेण्हंति, सलिलोदगं गेण्हित्ता उभगोकूलमट्टियं गेण्हति / ___ मट्टियं गेण्हिता जेणेव चुल्लहिमवंत-सिहरीवासहरपब्वया तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता दगं गेण्हंति, सध्यतुयरे सव्वपुप्फे, सव्वगंधे, सव्वमल्ले, सवोसहिसिद्धस्थए गिण्हंति, गिहित्ता जेणेव पउमपुडरीयदहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता दहोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई ताइं गेण्हंति / गेण्हित्ता जेणेव हेमवएरवयाई वासाई जेणेव रोहिय-रोहियंसा-सुवण्णकूल-रुप्पकूलामो महाणईनो तेणेव उवागच्छंति, सलिलोदगं गेण्हत्ति, गेहिता उभयोकलमट्टियं गिण्हंति, गिहित्ता जेणेव सद्दावाति-वियडावातिपरियागा वट्टवेयड्डपध्वया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतूयरे तहेव / जेणेव महाहिमवंतप्पिवासहरपध्वया तेणेव उवागच्छन्ति तहेव, जेणेव महापउम-महापुडरीयदहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता बहोदगं गिण्हन्ति तहेव / जेणेव हरिवास-रम्मगवासाई जेणेव हरिकंत-नारिकताप्रो महाणईग्रो, तेणेव उवागच्छंति तहेव, जेणेव गंधावाइमालवंतपरियाया वट्टवेयड्डपब्वया तेणेव तहेव। जेणेव णिसढ-णीलवंतवासघरपव्वया तहेव, जेणेव तिगिच्छ-केसरिहायो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तहेव / जेणेव महाविदेहे वासे जेणेव सीता-सीतोदामो महाणदीनो तेणेव तहेव / जेणेव सम्वचक्कट्टिविजया जेणेव सब्वमागह-वरदाम-पभासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता तित्थोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता सध्वंतरणईपो जेणेव सव्ववक्खारपव्वया तेणेव उवागच्छंति, सव्वतूयरे तहेव / जेणेव मंदरे पव्वते जेणेव भहसालवणे तेणेव उवागच्छंति सव्वतूयरे सव्वपुप्फे सवमल्ले सम्वोसाहिसिद्धस्थए य गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव गंदणवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सम्वतूयरे जाव सम्वोसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छति सब्बतूयरे जाव सम्योसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं च दिवं च सुमणदामं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतूयरे जाव सचोसहिसिद्धत्थए च सरसं च गोसीसचंदणं च दिव्वं च सुमणदामं ददरमलयसुगंधियगंधे गिण्हंति / . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव का अभिषेक-महोत्सव ] [109 गिण्हित्ता एगतो मिलायंति मिलाइत्ता ताए उक्किट्ठाए जाव' जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सरियाभे विमाणे जेणेव अभिसेयसभा जेणेव रियाभे देवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धाविति वद्धावित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेयं उवट्ठति / १६०–तत्पश्चात् उन आभियोगिक देवों ने सामानिक देवों की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित यावत् विकसित हृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके 'देव ! बहुत अच्छा ! ऐसा ही करेंगे' कहकर विनय पूर्वक आज्ञा-वचनों को स्वीकार किया। स्वीकार करके वे उत्तरपूर्व दिग्भाग में गये और उस उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया। __ वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दण्ड बनाया यावत् पुनः दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात करके एक हजार आठ स्वर्णकलशों की, एक हजार आठ रुप्यकलशों की, एक हजार आठ मणिमय कलशों की, एक हजार आठ स्वर्ण-रजतमय कलशों की, एक हजार आठ स्वर्ण-मणिमय कलशों की, एक हजार आठ रजत-मणिमय कलशों की, एक हजार आठ स्वर्ण-रूप्य-मणिमय कलशों की, एक हजार पाठ भौमेय (मिट्टी के) कलशों की एवं इसी प्रकार एक हजार आठ--एक हजार आठ भगारों, दर्पणों, थालों, पात्रियों, सप्रतिष्ठानों वातकरकों, रत्नकरंडकों, पुष्पचंगेरिकाओं यावत मयूरपिच्छचंगेरिकाओं, पुष्पपटलकों यावत् मयूरपिच्छपटलकों, सिंहासनों, छत्रों, चामरों, तेलसमुद्गकों यावत् अंजनसमुद्गकों, ध्वजारों, धूपकडुच्छकों (धूपदानों) की विकुर्वणा (रचना) की। विकुर्वणा करके उन स्वाभाविक और विक्रियाजन्य कलशों यावत् धूपकडुच्छकों को अपनेअपने हाथों में लिया और लेकर सूर्याभविमान से बाहर निकले / निकलकर अपनी उत्कृष्ट चपल दिव्य गति से यावत् तिर्यक् लोक में असंख्यात योजनप्रमाण क्षेत्र को उलांघते हुए जहां क्षीरोदधि समूद्र था, वहाँ पाये। वहाँ अाकर कलशों में क्षारसमुद्र के जल को भरा तथा वहां के पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुडरीक, महापुण्डरीक) शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों को लिया। ____ कमलों आदि को लेकर जहां पुष्करोदक समुद्र था वहाँ आये, आकर पुष्करोदक को कलशों में में भरा तथा वहां के उत्पल शतपत्र सहस्रपत्र आदि कमलों को लिया। तत्पश्चात् जहाँ मनुष्यक्षेत्र था और उसमें भी जहाँ भरत-ऐरवत क्षेत्र थे, जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ थे वहाँ आये और प्राकर उन-उन तीर्थों के जल को भरा और वहाँ की मिट्टी ग्रहण की। इस प्रकार से तीर्थोदक और मृत्तिका को लेकर जहाँ गंगा, सिन्धु, रक्ता रक्तवती महानदियां थीं, वहाँ आये / आकर नदियों के जल और उनके दोनों तटों की मिट्टी को लिया / नदियों के जल और मिट्टी को लेकर चुल्लहिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत पर आये। वहाँ आकर कलशों में जल भरा तथा सर्व ऋतुओं के श्रेष्ठ--उत्तम पुष्पों, समस्त गंधद्रव्यों, समस्त पुष्पसमूहों और सर्व प्रकार की प्रौषधियों एवं सिद्धार्थकों (सरसों) को लिया और फिर पद्मद्रह एवं पुंडरीकद्रह पर पाये / यहाँ आकर भी पूर्ववत् कलशों में द्रह-जल भरा तथा सुन्दर श्रेष्ठ उत्पल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लिया / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [ राजप्रश्नीयसूत्र ___ इसके पश्चात् फिर जहाँ हैमवत और ऐरण्यवत क्षेत्र थे, जहाँ उन दोनों क्षेत्रों की रोहित, रोहितांसा तथा स्वर्णकूला और रूप्यकला महानदियाँ थी, वहाँ आये और कलशों में उन नदियों का जल भरा तथा नदियों के दोनों तटों को मिट्टी लो / जल मिट्टी को लेने के पश्चात् जहाँ शब्दापाति विकटापांति वृत्त वैताढच पर्वत थे, वहां आये / प्राकर समस्त ऋतुओं के उत्तमोत्तम पुष्पों आदि को लिया / वहाँ से वे महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधर पर्वत पर आये और वहाँ से जल एवं पुष्प आदि लिये, फिर जहाँ महापद्म और महापुण्डरीक द्रह थे, वहाँ आये / पाकर द्रह जल एवं कमल आदि लिये। तत्पश्चात् जहाँ हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्र थे, हरिकांता और नारिकांता महानदियाँ थी, गंधापाति, माल्यवंत और वृत्तवैताढ्य पर्वत थे, वहाँ आये और इन सभी स्थानों से जल, मिट्टी, औषधियाँ एवं पुष्प लिये। इसके वाद जहां निषध, नील नामक वर्षधर पर्वत थे, जहाँ तिगिछ और केसरीद्रह थे, वहाँ आये, वहाँ पाकर उसी प्रकार से जल आदि लिया। तत्पश्चात् जहाँ महाविदेह क्षेत्र था जहाँ सीता, सीतोदा महानदियाँ थी वहाँ पाये और उसी प्रकार से उनका जल, मिट्टी, पुष्प आदि लिये। फिर जहाँ सभी चक्रवर्ती विजय थे, जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ थे, वहाँ आये, वहाँ पाकर तीर्थोदक लिया और तीर्थोदक लेकर सभी अन्तर-नदियों के जल एवं मिट्टी को लिया। फिर जहाँ बक्षस्कार पर्वत थे वहाँ आये और वहाँ से सर्व ऋतओं के पष्पों प्रादि को लिया। तत्पश्चात् जहाँ मन्दर पर्वत के ऊपर भद्रशाल वन था वहाँ पाये, वहाँ आकर सर्व ऋतुओं के पुष्पों, समस्त औषधियों और सिद्धार्थकों को लिया / लेकर वहाँ से नन्दनवन में आये, आकर सर्व ऋतुओं के पुष्पों यावत् सर्व औषधियों, सिद्धार्थकों (सरसों) और सरस गोशीर्ष चन्दन को लिया। लेकर जहाँ सौमनस वन था, वहाँ पाये / पाकर वहाँ से सर्व ऋतुओं के उत्तमोत्तम पुष्पों यावत् सर्व औषधियों, सिद्धार्थकों, सरस गोशीर्ष चन्दन और दिव्य पुष्पमालाओं को लिया, लेकर पांडुक वन में आये और वहाँ आकर सर्व ऋतुनों के सर्वोत्तम पुष्पों यावत् सर्व औषधियों, सिद्धार्थकों, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य पुष्पमालाओं, दर्दरमलय चन्दन की सुरभि गंध से सुगन्धित गंध-द्रव्यों को लिया। इन सब उत्तमोत्तम पदार्थों को लेकर वे सब आभियोगिक देव एक स्थान पर इकट्ठा हुए और फिर उत्कृष्ट दिव्यगति से यावत् जहाँ सौधर्म कल्प था और जहाँ सूर्याभविमान था, उसकी अभिषेक सभा थी और उसमें भी जहाँ सिंहासन पर बैठा सूर्याभदेव था, वहाँ आये / आकर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके सूर्याभदेव को 'जय हो विजय हो' शब्दों से बधाया और बधाई देकर उसके आगे महान् अर्थ वाली, महा मूल्यवान्, महान् पुरुषों के योग्य विपुल इन्द्राभिषेक की सामग्री उपस्थित की-रखी। १९१–तए णं तं सरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सोमो, चत्तारि अग्गमहिसीनो सपरिवाराणो, तिन्नि परिसायो, सत्त प्रणियाहिवइणो जाव अन्नेवि बहवे सरियाभविमाणवासिणो देवा य देवोनो य तेहिं साभाविएहि य वे उम्बिएहि य वरकमलपइट्ठाणेहि य सुरभिवरवारिपडिपुन्नेहि चंदग Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषेक कालीन देवोल्लास ] [ 111 कयचच्चिएहि आविद्धकंठेगुहिं पउमुष्पलपिहाणेहि सुकुमालकोमलकरपरिग्गहिएहि असहस्सेणं सोवन्नियाणं कलसाणं जाव असहस्सेणं भोमिज्जाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सबउट्टियाहि सव्वतूपरेहि जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहि य सव्विड्ढोए जाव वाइएणं महया-महया इंदाभिसेएणं अभिसिचंति / १६१-तत्पश्चात-अभिषेक की सामग्री प्रा जाने के बाद चार हजार सामानिक देवों, परिवार सहित चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकाधिपतियों यावत् अन्य दूसरे बहुत से देवों-देवियों ने उन स्वाभाविक एवं विक्रिया शक्ति से निष्पादित-बनाये गये श्रेष्ठ कमलपुष्पों पर संस्थापित, सुगंधित शुद्ध श्रेष्ठ जल से भरे हुए, चन्दन के लेप से चचित, पंचरंगे सूत-कलावे से पाविद्ध बन्धे-लिपटे हए कंठ वाले, पदम (सूर्यविकासी कमलों) एवं उत्पल (चन्द्रविकासी कमलों) के ढक्कनों से ढंके हुए, सुकुमाल कोमल हाथों से लिये गये और सभी पवित्र स्थानों के जल से भरे हए एक हजार आठ स्वर्ण कलशों यावत् एक हजार पाठ मिट्टी के कलशों, सब प्रकार की मृत्तिका एवं ऋतुओं के पुष्पों, सभी काषायिक सुगन्धित द्रव्यों यावत् औषधियों और सिद्धार्थकों-सरसों से महान् ऋद्धि यावत् वाद्यघोषों पूर्वक सूर्याभ देव को अतीव गौरवशाली उच्चकोटि के इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषेककालीन देवोल्लास १९२-तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स महया-महया इंदाभिसेए वट्टमाणे अप्पेगतिया देवा सरियाभं विमाणं नच्चोययं नातिमटियं पविरल-फुसियरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदगं वासं वासंति, अप्पेगतिया देवा हयरयं, नहरयं, भट्टरयं, उवसंतरयं, पसंतरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा सरियाभं विमाणं मंचाइमंचकलियं करेंति, अप्पेगइया देवा सरियाभं विमाणं णाणाविहरागोसियं झयपडागाइपडागमंडियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सरियाभं विमाणं लाउल्लोइयमहियं, गोसीससरसरसचंदणददरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगतिया देवा सरियाभं विमाणं उवत्रियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसमागं करेंति, अप्पेगतिया देवासूरियाभं विमाणं पासत्तोसतविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं पंचवण्णसुरभिमुक्कपुप्फपुजोवयारकलियं करेंति, अप्पेगतिया सूरियाभं विमाणं कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगंधुद्ध्याभिरामं करेंति, अप्पेगइतया देवा सूरियाभं विभाणं सुगंधगंधियं गंधटिभूतं करेंति / अप्पेगतिया देवा हिरण्णवासं वासंति, सुवण्णवासं वासंति, रययवासं वासंति, वइरवासं०५ पृष्फवासं० फलवासं० मल्लवासं० गंधवासं० चण्णवासं० प्राभरणवासं० वासंति / अप्पेगतिया देवा हिरण्णविहिं भाएंति, एवं सुवन्नविहिं भाएंति रयणविहि, पुष्फविहि, फलविहि, मल्लविहिं चुण्णविहिं बथविहिं गंधविहि, तत्थ अप्पेगतिया देवा प्राभरणविहिं भाएंति / अप्पेगतिया चउन्विहं वाइत्तं वाइंति-ततं-विततं-घणं झसिरं, अप्पेगइया देवा चउन्विहं गेयं गायंति तं०-उक्खित्तायं-पायत्तायं-मंदायं-रोइतावसाणं, अप्पेगतिया देवा दुयं नट्टविहिं उवदंसिति, अप्पेगतिया विलंबियणट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेगतिया देवा दुतविलंबियं णट्टविहि उवदंसेंति, एवं अप्पेगतिया अंचियं नट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेगतिया देवा प्रारभर्ट, भसोलं, प्रारमडमसोलं उप्पायनिवाय१. 0 'वासंति' शब्द का सूचक है तथा भाएंति शब्द का भी संकेत किया गया है। संदर्भानुसार उस उस शब्द को ग्रहण करना चाहिये। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] [राजप्रश्नीयसूत्र पवत्तं संकुचियपसारियं, रियारियं भंतसंभंतणामं दिव्यं णट्टविहि उवदंसेंति, अप्पेगतिया देवा चउन्विहं अभिणयं अभिणयंति, तं जहा–दिढ़तियं पाउंतियं-सामंतोवणिवाइयं-लोगअंतोमज्झावसाणियं / अप्पेगतिया देवा बुक्कारेंति, अप्पेगतिया देवा पोणेति, प्रगतिया लासेंति, अप्पेगतिया हक्कारेंति, अप्पेगतिया विणंति, तंडवेंति, अप्पेगतिया घग्गंति, अप्फोडेंति, अप्पेगतिया अप्फोति, वगंति, अप्पे०' तिवई छिदंति, अप्पेगतिया हयहेसियं करेंति, अप्पेगतिया हथिगुलगुलाइयं करेति, अप्पेगतिया रह-घणघणाइयं करेंति, अप्पेगतिया हयहेसिय-हत्थिगुलगुलाइय-रहघणघणाइयं करेंति, / उच्छलेंति, अप्पेगतिया पोच्छलेंति. अप्पेगतिया उक्किद्रियं करेंति, 02 उच्छलेंतिपोच्छलेंति, अप्पेगतिया तिन्नि वि, अप्पेगतिया उवयंति, अप्पेगतिया उप्पयंति, अप्पेगतिया परिवयंति, अप्पेगतिया तिन्नि वि, अग्वेगइया सोहनायंति अप्पेगतिया दद्दरयं करेंति, अप्पेगतिया भूमिचवेडं दलयंति अप्पे० तिन्नि वि, अप्पेगतिया गज्जंति, अप्पेगतिया विज्जुयायंति, अप्पेगल्या वासं वासंति, अप्पेगतिया तिन्निवि करेंति, अप्पेगतिया जलंति अप्पेगतिया तवंति, अप्पेगतिया पतति, अप्पेगतिया तिन्नि वि, अप्पेगतिया हक्कारेंति अप्पेगतिया थुक्कारेति अप्पेगतिया धक्कारेंति, अप्पेगतिया साइं साई नामाइं साहेति, अप्पेगतिया चत्तारि वि, अप्पेगइया देवा देवसन्निवायं करेंति, अप्पेगतिया देवुज्जोयं करेंति, अप्पेगइया देवुक्कलियं करेंति, अप्पेमइया देवा कहकहगं करेंति, अप्पेगतिया देवा दुहदुहगं करेंति, अप्पेगतिया चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगइया देवसन्तिवायं-देवुज्जोयं-देवक्कलियं-देवकहकहगं-देवदुहदुहगं-चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगतिया उप्पलहत्थगया जाव सयसहस्सपत्तहत्थगया, अप्पेगतिया कलसहत्थगया जाव धूवकडुच्छयहत्थगया हट्ठ-तुट्ठ जाव हियया सव्वतो समंता प्राहावंति परिधावति / १९२-इस प्रकार के महिमाशाली महोत्सवपूर्वक जब सूर्याभदेव का इन्द्राभिषेक हो रहा था, तब कितने ही देवों ने सूर्याभ विमान में इस प्रकार से झरमर-झरमर विरल नन्हीं-नन्हीं बूदों में अतिशय सुगंधित गंधोदक की वर्षा बरसाई कि जिससे वहाँ को धुलि दब गई, किन्तु जमीन में पानी नहीं फैला और न कीचड़ हुआ। कितने ही देवों ने सूर्याभ विमान को झाड़-बुहार कर हतरज, नष्टरज, भ्रष्टरज, उपशांतरज और प्रशांतरज वाला बना दिया। कितने ही देवों ने सूर्याभ विमान की गलियों, बाजारों और राजमार्गों को पानी से सींचकर, कचरा वगैरह झाड़-बुहार कर और गोबर से लीपकर साफ किया। कितने ही देवों ने मंच बनाये एवं मंचों के ऊपर भी मंचों की रचना कर सूर्याभ विमान को सजाया। कितने ही देवों ने विविध प्रकार की रंग-बिरंगी ध्वजारों, पताकातिपताकाओं से मंडित किया / कितने ही देवों ने सूर्याभ विमान को लीप-पोतकर स्थान-स्थान पर सरस गोरोचन और रक्त दर्दर चंदन के हाथे लगाये। कितने ही देवों ने सूर्याभ विमान के द्वारों को चंदनचर्चित कलशों से बने तोरणों से सजाया। कितने ही देवों ने सूर्याभ विमान को ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लंबी-लंबी गोल मालाओं से विभूषित किया। कितने ही देवों ने पंचरंगे सुगंधित पुष्पों को बिखेर कर मांडने मांडकर सुशोभित किया / कितने ही देवों ने सूर्याभ विमान को कृष्ण अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क तुरुष्क और धूप की मघमघाती सुगंध से मनमोहक बनाया / कितने ही देवों ने सूर्याभ विमान को सुरभि गंध से व्याप्त कर सुगंध की गुटिका जैसा बना दिया। किसी ने चाँदी की वर्षा बरसाई तो किसी ने सोने की, रत्नों को, बज्र रत्नों को, पुष्पों की, 1. अप्पे. शब्द 'अपेगतिया' का सूचक है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषेककालीन देवोल्लास] [113 फलों की, पुष्पमालाओं की, गंध द्रव्यों की, सुगंधित चूर्ण की और किसी ने आभूषणों की वर्षा बरसाई। कितने ही देवों ने एक दूसरे को भेंट में चांदी दी। इसी प्रकार से किसी ने आपस में एक दूसरे को स्वर्ण, रत्न, पुष्प, फल, पुष्पमाला, सुगंधित चूर्ण, वस्त्र, गंध द्रव्य और आभूषण भेंट रूप में दिये। कितने ही देवों ने तत, वितत, घन और शुषिर, इन चार प्रकार के वाद्यों को बजाया। कितने ही देवों ने उत्क्षिप्त, पादान्त, मंद एवं रोचितावसान ये चार प्रकार के संगीत गाये। किसी ने द्रुत नाट्यविधि का प्रदर्शन किया तो किसी ने विलंबित नाट्यविधि का एवं द्रुतविलंबित नाट्यविधि और किसी ने अंचित नाट्यविधि दिखलाई। कितने ही देवों ने आरभट, कितने ही देवों ने भसोल, कितने ही देवों ने आरभट-भसोल, कितने ही देवों ने उत्पात-निपातप्रवृत्त, कितने ही देवों ने संकुचितप्रसारित-रितारित और कितने ही देवों ने भ्रांत-संभ्रान्त नामक दिव्य नाट्यविधि प्रदर्शित की। किन्हीं किन्हीं देवों ने दार्टान्तिक, प्रात्यान्तिक, सामन्तोपनिपातिक और लोकान्तमध्यावसानिक इन चार प्रकार के अभिनयों का प्रदर्शन किया। साथ ही कितने ही देव हर्षातिरेक से बकरे-जैसी बुकबुकाहट करने लगे। कितने ही देवों ने अपने शरीर को फुलाने का दिखावा किया ! कितनेक नाचने लगे, कितनेक हक-हक की आवाजें लगाने लगे। कितने ही लम्बी-लम्बी दौड़ दौड़ने लगे। कितने ही गुनगुनाने लगे। कितने ही तांडव नृत्य करने लगे। कितने ही उछलने के साथ ताल ठोकने लगे और कितने ही ताली बजा बजाकर कूदने लगे / कितने ही तीन पैर की दौड़ लगाने लगे, कितने हो घोड़े जैसे हिनहिनाने लगे। कितने ही हाथी जैसी गुलगुलाहट करने लगे। कितने ही रथ जैसी घनघनाहट करने लगे और कितने ही कभी घोड़ों की हिनहिनाहट, कभी हाथी को गुलगुलाहट और रथों की घनघनाहट जैसी आवाजें करने लगे। कितनेक ने ऊँची छलांग लगाई, कितनेक और अधिक ऊपर उछले। कितने ही हर्षध्वनि करने लगे। हर्षित हो किलकारियां करने लगे। कितने उछले और अधिक ऊपर उछले और साथ ही हर्षध्वनि करने लगे। कोई ऊपर से नीचे, कोई नीचे से ऊपर और कोई लंबे कूदे। किसी ने नीची-ऊँची और लंबी-तीनों तरह की छलांगें मारी। कितनेक ने सिंह जैसी गर्जना की, कितनेक ने एक दूसरे को रंग-गुलाल से भर दिया, कितनेक ने भूमि को थपथपाया और कितनेक ने सिंहनाद किया, रंग-गुलाल उड़ाई और भूमि को भी थपथपाया / कितने ही देवों ने मेघों की गड़गड़ाहट, कितने ही देवों ने बिजली की चमक जैसा दिखावा किया और किन्हीं ने वर्षा बरसाई। कितने ही देवों ने मेघों के गरजने चमकने और बरसने के दश्य दिखाये। कछ एक देवों ने गरमी से प्राकल-व्याकल होने का, कितने ही देवों ने तपने का, कितने ही देवों ने विशेष रूप में तपने का तो कितने ही देवों ने एक साथ इन तीनों का दिखावा किया। कितने ही हक-हक, कितने ही थक-थक कितने ही धक-धक जैसे शब्द और कितने ही अपने-अपने नामों का उच्चारण करने लगे। कितने ही देवों ने एक साथ इन चारों को किया / कितने ही देवों ने टोलियां (समूह, झुड) बनाई, कितने ही देवों ने देवोद्योत किया, कितने ही देवों ने रुक-रुक कर बहने वाली बाततरंगों का प्रदर्शन किया। कितने ही देवों ने कहकहे लगाये, कितने ही देव दुहदुहाहट करने लगे, कितनेक देवों ने वस्त्रों की बरसा की और कितने ही देवों ने टोलियाँ बनाई, देवोद्योत किया देवोत्कलिका की, कहकहे लगाये, दुहहाहट की और वस्त्रवर्षा की। कितनेक Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] [राजप्रश्नीयसूत्र देव हाथों में उत्पल यावत् शतपत्र सहस्रपत्र कमलों को लेकर, कितने ही हाथों में कलश यावत् धूप दोनों को लेकर हर्षित सन्तुष्ट यावत् हर्षातिरेक से विकसितहृदय होते हुए इधर-उधर चारों ओर दौड़-धूप करने लगे। विवेचन---प्रस्तुत सूत्र में उल्लास और प्रमोद के समय होने वाली मानसिक वृत्तियों एवं हर्षातिरेक के कारण की जाने वाली प्रवृत्तियों का यथार्थ चित्रण किया है। उपर्युक्त वर्णन में प्रदर्शित चेष्टाओं के चित्र हमें त्यौहारों-मेलों आदि के अवसरों पर देखने को मिलते हैं, जब बालक से लेकर वृद्ध जन तक सभी अपने-अपने पद और मर्यादा को भूलकर मस्ती में रम जाते हैं। १९३--तए णं तं सरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सोमो जाव' सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे सरियाभरायहाणिवत्यव्वा देवा य देवीप्रो य महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसिचंति, अभिसिंचित्ता पत्तेयं-पत्तेयं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! जय जय नंदा ! भदं ते, प्रजियं जिणाहि, जियं च पालेहि, जियमझे वसाहि, इंदो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, भरहो इव मणुयाणं बहूई पलिप्रोवमाई, बहूइं सागरोवमाई बहूई पलिपोक्मसागरोवमाई, चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं सरियाभस्स विमाणस्स अन्नेसि च बहूर्ण सरियाभविमाणवासीणं देवाण य देवीण य प्राहेवच्च जाव (पोरेवच्चं-सामितं-भट्टित्तं-महत्तरगत्तं-प्राणाईसरसे. णावच्च) महया महयाहयनट्ट० कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कटु जय जय सदं पति / १६३–तत्पश्चात् चार हजार सामानिक देवों यावत् सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदानों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा दूसरे भी बहुत से सूर्याभ राजधानी में वास करने वाले देवों और देवियों ने सूर्याभदेव को महान् महिमाशाली इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषेक करके प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! तुम्हारा भद्रकल्याण हो ! हे जगदानन्दकारक ! तुम्हारी बारंबार जय हो ! तुम न जीते हुओं को जीतो और विजितों (जीते हुओं) का पालन करो, जितों-शिष्ट प्राचार वालों के मध्य में निवास करो। देवों में इन्द्र के समान, ताराओं में चन्द्र के समान, असुरों में चमरेन्द्र के समान, नागों में धरणेन्द्र के समान, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती के समान, अनेक पल्योपमों तक, अनेक सागरोपमों तक, अनेकअनेक पल्योपमों-सागरोपमों तक, चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा सूर्याभ विमान और सूर्याभ विमानवासी अन्य बहुत से देवों और देवियों का बहुत-बहुत अतिशय रूप से आधिपत्य (शासन) यावत् (पुरोवर्तित्व, (प्रमुखत्व) भर्तृत्व, (पोषकत्व) महत्तरकत्व, एवं आज्ञेश्वरत्व, सेनापतित्व) करते हुए, पालन करते हुए विचरण करो। इस प्रकार कहकर पुनः जय जय कार किया / 1. देखें सूत्र संख्या-७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषेकानंतर सूर्याभदेव का अलंकरण ] [115 अभिषेकानंतर सूर्याभदेव का अलंकरण १६४–तए णं से सरियाभे देवे महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसित्ते समाणे अभिसेयसभाम्रो पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अलंकारियसभं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे करेमाणे अलंकारियसभं पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति, अणुपविसित्ता जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छति सोहासणवरगते पुरस्थाभिमुहे सन्निसम्ने / १९४–अतिशय महिमाशाली इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त होने के पश्चात् सूर्याभदेव अभिषेकसभा के पूर्व-दिशावर्ती द्वार से बाहर निकला, निकलकर जहाँ अलंकार-सभा थी वहाँ आया / आकर अलंकार-सभा की अनुप्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से अलंकार-सभा में प्रविष्ट हुआ / प्रविष्ट होकर जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया और आकर पूर्व की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर प्रारूढ हुआ। १९५--तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोधवनगा अलंकारियभंडे उबवेति / तए णं से सूरियाभे देवे तप्पढमयाए पम्हलसूमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेति लहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अलिपति, अलिपित्ता नासानीसासवायवोझ चक्खहरं वनफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचियन्तकम्मं प्रागासफालियसमप्पभं दिव्वं देवदूसजुयलं नियंसेति, नियंसेत्ता हारं पिणद्धति, पिद्धित्ता अद्धहारं पिणद्ध इ, एगावलि पिणद्धति, विद्धित्ता मुत्तालि पिणद्धति. पिणद्धित्ता रयणावलि पिणद्ध इ, पिणद्धित्ता एवं अंगयाइं केयूराइं कडगाइं तुडियाई कडिसुत्तगं दसमुद्दाणंतगं वच्छसुत्तगं मुरविं कंठमुरवि पालंबं कुंडलाइं चूडामणि मउडं पिणद्ध इ, गंथिमवेढिम-पूरिम-संघाइमेणं चउब्धिहेणं मल्लेणं कपरुक्खगं पिव अप्पाणं प्रलंकियविभूसियं करेइ, करित्ता दद्दर-मलय-सुगंधगंधिएहि गायाइं भुखंडेइ दिव्वं च सुमणदामं पिणद्ध इ। १९५-तदनन्तर उस सूर्याभ देव की सामानिक परिषद् के देवों ने उसके सामने अलंकार--- भांड उपस्थित किया। इसके बाद सूर्याभदेव ने सर्वप्रथम रोमयुक्त सुकोमल काषायिक सुरभि गंध से सुवासित वस्त्र से शरीर को पोंछा / पौंछकर शरीर पर सरस गोशीर्ष चंदन का लेप किया, लेप करके नाक की नि:श्वास से भी उड़ जाये, ऐसे अति बारीक, नेत्राकर्षक, सुन्दर वर्ण और स्पर्श वाले, घोड़े के थूक (लार) से भी अधिक सुकोमल, धवल जिनके पल्लों और किनारों पर सुनहरी बेलबूटे बने हैं, आकाश एवं स्फटिक मणि जैसी प्रभा वाले दिव्य देवदूष्य (वस्त्र)युगल को धारण किया। देवदूष्य यूगल धारण करने के पश्चात् गले में हार पहना, अर्धहार पहना, एकावली पहनी, मुक्ताहार पहना, रत्नावली पहनी, एकावली पहन कर भुजाओं में अंगद, केयूर (बाजूबंद) कड़ा, त्रुटित, करधनी, हाथों की दशों अंगुलियों में दस अंगूठियाँ, वक्षसूत्र, मुरवि (मादलिया) कंठमुरवि (कंठी) प्रालंब (झूमके), कानों में कुडल पहने तथा मस्तक पर चूड़ामणि (कलगी) और मुकुट पहना / इन आभूषणों को पहनने के पश्चात् नथिम (गूथी हुई), वेष्टिम (लपेटी हुई), पूरिम (पूरी हुई) और संघातिम (सांधकर बनाई हुई), इन चार प्रकार की मालाओं से अपने को कल्पवृक्ष के समान अलंकृतविभूषित किया / विभूषित कर दद्दर मलय चंदन की सुगंध से सुगंधित चूर्ण को शरीर पर भुरकाछिड़का और फिर दिव्य पुष्पमालानों को धारण किया। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] [ राजप्रश्नीयसूत्र विवेचन-उपयुक्त वस्त्र परिधान एवं आभूषणों को पहनने से यह ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के समकालीन भारतीय जन दो वस्त्र पहनने के साथ-साथ यथायोग्य प्राभूषणों को धारण करते थे। शृंगारप्रसाधनों में अतिशय सुरभिगंध वाले पदार्थों का उपयोग किया जाता था। वस्त्र-वर्णन तो तत्कालीन वस्त्र-कला की परम प्रकर्षता की प्रतीति कराता है। उस समय 'पाउडर' चूर्ण का भी प्रयोग किया जाता था। सूर्याभदेव द्वारा कार्य-निश्चय १९६-तए णं से सूरियाभे देवे केसालंकारेणं, मल्लालंकारेणं प्राभरणालंकारेणं वत्थालंकारेणं चउन्विहेण अलंकारेण प्रलंकिय-विभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सोहासणानो अब्भुट्ठति, अब्भुट्टित्ता अलंकारियसभाम्रो पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव व्यवसायसमा तेणेव उवागच्छति, ववसायसभं अणुपयाहिणीकरेमाणे अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति जेणेव सीहासणवरगए (?) जाव सन्निसन्ने / तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा पोत्थयरयणं उणति, तते णं से सरियामे देवे पोत्थयरयणं गिहति, गिहिता पोस्थयरयणं मुया, मुइत्ता पोत्थयरयणं विहाडेइ, विहाडित्ता पोत्थयरयणं वाएति, पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं ववसायं ववसइ, ववसइत्ता पोत्थयरयणं पडिनिक्खवइ, सोहासणाप्रो अभट्ठति, अन्भुटुत्ता ववसायसभातो पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमित्ता जेणेव नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता गंदापुक्तरिणि पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता हत्थपादं पक्खालेति, पक्खालित्ता प्रायंते चोक्खे परमसुइभूए एग मह एमं मई सेयं रययामयं विमलं सलिलपण्णं मत्तगयमहागितिक भसमाणं भिगारंपण्डित्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताई गेहति गेण्हित्ता गंदातो पुक्खरिणोतो पच्चुत्तरति, पच्चत्तरित्ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। १६६--तत्पश्चात् केशालंकारों (केशों को सजाने वाले अलंकार), पुष्प-मालादि रूप माल्यालंकारों, हार आदि प्राभूषणालंकारों एवं देवदूष्यादि वस्त्रालंकारों-इन चारों प्रकार के अलंकारों से (अलंकृत-विभूषित होकर वह सूर्याभदेव सिंहासन से उठा। उठकर) अलंकारसभा के पूर्वदिग्वर्ती द्वार से बाहर निकला / निकलकर व्यवसाय सभा में आया एवं बारंबार व्यवसायसभा की प्रक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ / प्रविष्ट होकर जहाँ सिंहासन था वहाँ आकर यावत् सिंहासन पर आसीन हुआ। तत्पश्चात् सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने व्यवसायसभा में रखे पुस्तक-रत्न को उसके समक्ष रखा। सर्याभदेव ने उस उपस्थित पस्तक-रत्न को हाथ में लिया हाथ में लेकर पुस्तक-रत्न खोला, खोलकर उसे बांचा / पुस्तकरत्न को बांचकर धर्मानुगत-धार्मिक कार्य करने का निश्चय किया। निश्चय करके वापस यथास्थान पुस्तकरत्न को रखकर सिंहासन से उठा एवं व्यवसायसभा के पूर्व-दिग्वर्ती द्वार से बाहर निकलकर जहाँ नन्दापुष्करिणी थी, वहाँ अाया। प्राकर पूर्वदिग्वर्ती तोरण और त्रिसोपान पंक्ति से नंदा पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ-उतरा / प्रविष्ट होकर हाथ पैर धोये / हाथ-पैर धोकर और आचमन-कुल्ला कर पूर्ण रूप से स्वच्छ और परम शुचिभूत--शुद्ध होकर मत्त गजराज की मुखाकृति जैसी एक विशाल श्वेतधवल रजतमय जल से भरी हुई भृगार Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धायतन का प्रमार्जन ] [ 117 (झारी) एवं वहाँ के उत्पल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लिया। फिर नंदा पुष्करिणी से बाहर निकला / बाहर निकलकर सिद्धायतन की ओर चलने के लिये उद्यत हुआ। सिद्धायतन का प्रमार्जन - १९७-तए णं ते सरियाभं देवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सोप्रो जाव सोलस पायरक्खदेवसाहस्सोमो अन्ने य बहवे सरियाभविमाणवासिणो जाव देवीओ य अप्पेगतिया देवा उप्पलहत्थगा जाव सय-सहस्सपत्त-हत्थगा सूरियाभं देवं पिटुतो समणुगच्छति। तए णं तं सूरियाभं देवं बहवे प्राभिनोगिया देवा य देवीप्रो य अध्ये गतिआ कलसहत्थगा जाव अप्पेगतिया धूवकडुच्छयहत्थगता हट्टतुट्ठ जाव सूरियाभं देवं पिट्ठतो समणुगच्छति / १९७–तब उस सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा कितने ही अन्य बहुत से सूर्याभविमानवासी देव और देवी भी हाथों में उत्पल यावत् शतपथ-सहस्रपत्र कमलों को लेकर सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले / तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव के बहुत-से आभियोगिक देव और देवियाँ हाथों में कलश यावत् धूप-दानों को लेकर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले / १९८-तए णं से सरिया देवे चहि सामाणिगसाहस्सीहिं जाव अन्नेहि य बहूहि य जाद देवेहि य देवी हि य सद्धि संपरिबुडे सव्विड्डीए जाव णातियरवेणं जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता सिद्धायतणं पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति, अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव जिणपडिमानो तेणेव उवागच्छति, उवाच्छित्ता जिणपडिमाणं पालोए पणामं करेति, करिता लोमहत्थगं गिण्हति, गिण्हित्ता जिणपडिमाणं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता जिणपडिमानो सुरभिणा गंधोदएणं हाणेइ, हाणित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिपइ, अणुलिपइत्ता सुरभिगंधकासाइएणं गायाइं लूहेति, लूहित्ता जिणपडिमाणं प्रहयाई देवदूसजुयलाई नियंसेइ, नियंसित्ता पुप्फारुहणंमल्लारुहणं-गंधारहणं-चुण्णाहणं-वन्नारुहणं-याभरणारहणं करेइ, करित्ता भासत्तोसत्तविउलवट्टबग्घा. रियमल्लदामकलावं करेड. मल्लदामकलावं करेता कयम्गहगहियकरयलपब्भविप्पमक्केणं दसबद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुष्फपुजोवयारकलियं करेति, करित्ता जिणपडिमाणं पुरतो अच्छेहि सण्हेहि रययामहि प्रच्छरसातंदुलेहिं अट्ठ मंगले प्रालिहइ, तंजहा-सोस्थियं जाव दप्पणं / __तयाणंतरं च णं चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-मघमघंतगंधुत्तमाणुविद्ध च धूवर्वाट्ट विणिम्मुयंतं वेरुलियमयं कडुच्छुयं पगहिय पयत्तेणं धूवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहि अत्थजुत्तेहि अपुणरुत्तेहि महावितेहि संथुणइ, संथुणित्ता सत्तट्ठ पयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता वामं जाणु अंचेइ अंचित्ता दाहिणं जाणुधरणितलंसि निहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवाडेइ निवाडित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चण्णमित्ता करयलपारग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी १९८-तत्पश्चात् सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् और दूसरे बहुत से देवों और देवियों से परिवेष्टित होकर अपनी समस्त ऋद्धि, वैभव यावत् वाद्यों की तुमुल ध्वनिपूर्वक जहाँ सिद्धायतन था, वहाँ आया। पूर्वद्वार से प्रवेश करके जहाँ देवछंदक और जिनप्रतिमाएँ थीं वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जिनप्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करके लोममयी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [राजप्रश्नीयसूत्र प्रमार्जनी (मयूरपिच्छ की पूजनी) हाथ में ली और प्रमार्जनी को लेकर जिनप्रतिमाओं को प्रमार्जित किया (पूजा)। प्रमाजित करके सुरभि गन्धोदक से उन जिनप्रतिमाओं का प्रक्षालन किया / प्रक्षालन करके सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। लेप करके काषायिक (कसैली) सुरभि गन्ध से सुवासित वस्त्र से उनको पोंछा / उन जिन-प्रतिमाओं को प्रखण्ड (अक्षत) देवदूष्य-युगल पहनाया। देवदूष्य पहना कर पुष्प, माला, गन्ध, चूर्ण, वर्ण, वस्त्र और आभूषण चढ़ाये / इन सबको चढ़ाने के अनन्तर फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोल मालायें पहनाई। मालायें पहनाकर पंचरंगे पुष्पपुजों को हाथ में लेकर उनकी वर्षा की और मांडने मांडकर उस स्थान को सुशोभित किया। फिर उन जिनप्रतिमाओं के सन्मुख शुभ्र, सलौने, रजतमय अक्षत तन्दुलों-चावलों से आठपाठ मंगलों का आलेखन किया, यथा-स्वस्तिक यावत् दर्पण / / तदनन्तर उन जिनप्रतिमाओं के सन्मुख श्रेष्ठ काले अगर, कुन्दरु, तुरुष्क और धूप की महकती सुगन्ध से व्याप्त और धूपवत्ती के समान सुरभिगन्ध को फैलाने वाले चन्द्रकांत मणि, वज्ररत्न और वैड्र्य मणि की दंडी तथा स्वर्ण-मणिरत्नों से रचित चित्र-विचित्र रचनात्रों से युक्त वैडूर्यमय धूपदान को लेकर धूप-क्षेप किया तथा विशुद्ध (काव्य-दोष से रहित) अपूर्व अर्थसम्पन्न अपुनरुक्त महिमाशाली एक सौ आठ छन्दों में स्तुति की। स्तुति करके सात-पाठ पग पीछे हटा, और फिर पीछे हटकर बायां घुटना ऊंचा किया और दायां घुटना जमीन पर टिकाकर तीन बार मस्तक को भूमितल पर नमाया / नमाकर कुछ ऊँचा उठाया, तथा मस्तक ऊंचा कर दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहाअरिहंत-सिद्ध भगवन्तों की स्तुति १९६-नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं, श्रादिगराणं, तित्थगराणं सयंसंबद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुण्डरीआणं, पुरिसवरगंध-हत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहिप्राणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोनगराणं, अभयदयाणं, चवखुदयाणं मग्गदयाणं, सरणदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं, अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं, विश्रदृच्छउमाणं, जिणाणं, जावयाणं तिनाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोअगाणं, सव्वन्नणं, सम्वदरिसीणं सिबं, अयलं, अरुअं, अणंतं, अक्खयं, अन्वाबाहं, अपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं; बंदइ नमसइ / १६६-अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो, श्रुत-चारित्र रूप धर्म की आदि करनेवाले, तीर्थकरतीर्थ की स्थापना करने वाले, स्वयंसंबद्ध-गुरूपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्मशत्रुओं का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, सौम्य और लावण्यशाली होने से पुरुषों में श्रेष्ठ पुंडरीक-कमल के समान, अपने पुण्य प्रभाव से ईति-व्याधि भीति- भय आदि को शांत, विनाश करने के कारण पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, संसारीप्राणियों को सन्मार्ग दिखाने के कारण लोक में प्रदीप के समान, केवलज्ञान द्वारा लोका-लोक को प्रकाशित करने वाले-वस्तु स्वरूप को बताने वाले, अभय दाता, श्रद्धा-ज्ञान रूप नेत्र के दाता, मोक्षमार्ग के दाता, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, देशविरति सर्वविरतिरूप धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथी, सम्यक् धर्म के प्रवर्तक चातुर्गतिक Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव द्वारा सिद्धायतन के देवच्छंदक आदि की प्रमार्जना | [119 संसार का अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती, अप्रतिहत-श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन के धारक, कर्मावरण या कषाय रूप छद्म के नाशक, रागादि शत्रुओं को जीतने वाले तथा अन्य जीवों को भी कर्मशत्रुओं को जीतने के लिये प्रेरित करने वाले, संसारसागर से स्वयं तिरे हुए तथा दूसरों को भी तिरने का उपदेश देने वाले, बोध को प्राप्त तथा दूसरों को भी उपदेश द्वारा बोधि प्राप्त कराने वाले, स्वयं कर्ममुक्त एवं अन्यों को भी कर्ममुक्त होने का उपदेश देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा शिव-उपद्रव रहित, अचल, नीरोग, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध अपुनरावृत्ति रूप (जन्म-मरण रूप संसार से रहित) सिद्धगति नामक स्थान में विराजमान सिद्ध भगवन्तों को वन्दन-नमस्कार हो। सूर्याभदेव द्वारा सिद्धायतन के देवच्छन्दक आदि की प्रमार्जना २००-वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं परामुसइ, सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभागं लोमहत्थेणं पमज्जति, दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं मंडलगं प्रालिहइ कयग्गहहिय जाव' पुजोक्यारकलियं करेइ, करित्ता धूवं दलयइ, जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छति, स्थगं परामसह. टारचेडीयो सालभंजियायो य बालरूवए य लोमहत्थएणं पमज्जह, दिवाए दगधाराए प्रभुक्खेइ, सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलइत्ता पुस्फारुहणं मल्ला० जाव' अामरणारुहणं करेइ, करेता भासत्तोसत्त जाव धूवं दलयइ / जेणेव दाहिणिल्ले दारे मुहमंडवे जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ लोमहत्थगं परामसइ, बहुमज्झदेसभागं लोमहत्थेणं पमज्जइ दिव्वाए दगधाराए प्रभुक्खेइ, सरसेणं गोसोसचंदणेणं पंचंगुलितलं मंडलगं प्रालिहइ, कयग्गहगहिय जाव धूवं दलयइ / जेणेव दाहिणिलस्स महमंडवस्स पच्चथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं परामुसइ दारचेडीयो य सालभंजियाश्रो य वालरूवए य लोमहत्थेणं पमज्जइ, दिवाए दगधाराए०४ सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, पुष्फारहणं जाव प्राभरणारहणं करेइ प्रासत्तोसत्त० कयगाहिय० घुवं दलया। जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स उत्तरिल्ला खंभपंती तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थं परामुसइ थंभे य सालभंजियारो य वालरूवए य लोमहत्थएणं पमज्जइ जहा चेव पच्चथिमिल्लस्स दारस्स जाव धूवं दलयइ / जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं परामसति दारचेडीग्रो तं चेव सव्वं / जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ दारचेडीयो तं चेव सव्वं / जेणेव दाहिणिल्ले पेच्छाघरमंडवे, जेणेव दाहिणिल्लस्स पेच्छाघरमंडबस्स बहुमज्भदेसभागे, जेणेव वइरामए अक्खाइए, जेणेव मणिपेढिया, जेणेव सीहासणे, तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं परामुसइ. 1. देखें सूत्र संख्या 198 2. देखें सूत्र संख्या 198 3. देखें सूत्र संख्या 198 4. दगधाराए के अनन्तर पागत० से 'अब्भुक्खेइ' शब्द ग्रहण करना चाहिये / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 [राजप्रश्नीयसूत्र अक्खाडगं च मणिपढियं च सोहासणं च लोमहत्थएणं पमज्जइ, दिवाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, पुष्फारहणं प्रासत्तोसत्त जाव धवं दलेइ, जेणेव दाहिणिल्लस्स पेच्छाघरमंडवस्स पच्चस्थिमिल्ले दारे उत्तरिल्ले दारे तं चेव जं चेव पुरथिमिल्ले दारे तं चेव दाहिणे दारे तं चेव / जेणेव दाहिणिल्ले चेइयथभे तेणेव उवागच्छइ थभ मणिपेढियं च दिवाए दगधाराए सरसेण गोसीसचंदणेण चच्चए दलेइ पुष्फारु० पासत्तो० जाव धूवं दलेइ। जेणेव पच्चस्थिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव पच्चत्थिममिल्ला जिणपडिमा त चेव, जेणेव उत्तरिल्ला जिणपडिमा तं चेव सव्वं / जेणेव पुरथिमिल्ला मणिपढिया जेणेव पुरथिमिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ तं चेव, दाहिणिल्ला मणिपेढिया दाहिणिल्ला जिणपडिमा तं चेव / जेणेव दाहिणिल्ले चेइयरुक्खे तेणेव उवागच्छद तं चेव, जेणेव महिंदज्झए, जेणेव दाहिणिल्ला नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति, लोमहत्थगं परामसति, तोरणे य तिसोवाणपडिरूवए सालभंजियानो य वालरूबए य लोमहत्थएणं पमज्जइ, दिवाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं० पुष्फारुहणं पासत्तो. सत्त० धवं दलयति / सिद्धाययणं अणुपयाहिणीकरेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला गंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति तं चेव, जेणेव उत्तरिल्ले चेइयरुक्खे तेणेव उवागच्छति, जेणेव उत्तरिल्ले चेइयथभे तहेव, जेणेव पच्चत्यि मिल्ला पेढिया जेणेव पच्चथिमिल्ला जिणपडिमा तं चेव / जेणेव उत्तरिले पेच्छाधरमंडवे तेणेव उवागच्छति जा चेव दाहिणिल्लवत्तव्वया सा चेव सव्वा पुरथिमिल्ले दारे, दाहिणिल्ला खंभपंतो तं चेव सव्वं / जेणेव उत्तरिल्ले मुहमंडवे जेणेव उत्तरिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तं चेव सव्वं, पच्चस्थिमिल्ले दारे तेणेव उत्तरिल्ले दारे दाहिणिल्ला खंमपंती सेसं तं चेव सव्वं / जेणेव सिद्धायतणस्स उत्तरिल्ले दारे तं चेव, जेणेव सिद्धायतणस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ तं चेव, जेणेव पुरथिमिल्ले महमंडवे जेणेव पुरथिमिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमझदेसभाए तेणेव उवागच्छइ तं चेव, पुरस्थिमिल्लस्स मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे पच्चस्थिमिल्ला खंभपंती उत्तरिल्ले दारे तं चेव पुरथिमिल्ले दारे तं चेव / / जेणेव पुरथिमिल्ले पेच्छाघरमंडवे, एवं थूभे, जिणपडिमानो चेइयरुक्खा, महिंदज्झा गंदापुक्खरिणी तं चेव धूवं दलयइ।। जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छति, सभ सुहम्म पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, जेणेव माणवए चेइयखंभे जेणेव वइरामए गोलवट्टसमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता लोमहत्थगं परामुसइ, वइसमए गोलवट्टसमुग्गए लोमहत्थेणं पमज्जइ, वइरामए गोलवट्टसमुग्गए विहाडेइ, जिणसगहारो लोमहत्थेणं पमज्जइ, सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ, पक्खालित्ता अग्गेहि वरेहि गंधेहि य मल्लेहि य प्रच्चेइ, धूवं दलथइ, जिसकहानो वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु पडिनिक्खवइ माणवर्ग चेइयखंभलोमहत्थएणं पमज्जइ, दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, पुप्फारुहणं जाव धवं दलयइ, जेणेव सीहासणे तं चेव, जेणेव देवसणिण्जे तं चेव, जेणेव खडागर्माहंदज्झए तं चेव / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव द्वारा सिद्धायतन के देवच्छंदक आदि का प्रमार्जन] [121 जेणेव पहरणकोसे चोप्पालए तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं परामुसइ पहरणकोसं चोप्पालं लोमहत्थएणं पमज्जइ, दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं दलेइ, पुष्फारुहणं आसत्तोसत्त० धूवं दलयइ। जेणेव सभाए सुहम्माए बहुमज्झदेसभाए, जेणेव मणिपेढिया जेणेव देवसयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं परामसह, देवसयणिज्जं च मणिपेढियं च लोमहत्थएणं पमज्जइ जाव धूवं दलय। जेणेव उववायसभाए दाहिणिल्ले दारे तहेव अभिसेयसभा सरिसं जाव पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ, तोरणे य तिसोवाणे य सालभंजियानो य वालरूवए य तहेव / जेणेव अभिसेयसभा, तेणेव उवागच्छइ तहेव सोहासणं च मणिपेढियं च, सेसं तहेव प्राययणसरिसं जाव पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी / जेणेव प्रलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ जहा अभिसेयसभा तहेव सव्वं / ___ जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छइ तहेव लोमहत्थयं परामुसति, पोत्थयरयणं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिवाए दगधाराए अग्गेहि बरेहि य गंधेहि मल्लेहि य अच्चेति मणिपेढियं सीहासणं च सेसं तं चेव पुरथिमिल्ला नंदा पुक्खरिणी जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ तोरणे य तिसोवाणे य सालभंजियानो य वालरूवए य तहेव / जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छइ बलिविसज्जणं करेइ, प्राभिप्रोगिए देवे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी २००–सिद्ध भगवन्तों को वन्दन नमस्कार करने के पश्चात् सूर्याभदेव देवच्छन्दक और सिद्धायतन के मध्य देशभाग में आया / वहाँ आकर मोरपीछी उठाई और मोरपीछी से सिद्धायतन के अति मध्यदेशभाग को प्रमाजित किया (पूजा, झाड़ा-बुहारा) फिर दिव्य जल-धारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करके हाथे लगाये, मांडने मांडे यावत् हाथ में लेकर पुष्पपुज बिखेरे / पुष्प बिखेर कर धूप प्रक्षेप किया--और फिर सिद्धायतन के दक्षिण द्वार पर आकर मोरपीछी ली और उस मोरपीछी से द्वारशाखाओं पुतलियों एवं व्यालरूपों को प्रमाजित किया, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया, सन्मुख धूप जलाई, पुष्प चढ़ाये, मालायें चढ़ाई, यावत् आभूषण चढ़ाये / यह सब करके फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई गोल-गोल लम्बी मालाओं से विभूषित किया। धूपप्रक्षेप करने के बाद जहाँ दक्षिणद्वारवर्ती मुखमण्डप था और उसमें भी जहाँ उस दक्षिण दिशा के मुखमण्डप का अतिमध्य देशभाग था, वहाँ आया और मोरपीछी ली, मोरपीछी को लेकर उस अतिमध्य देशभाग को प्रमाजित किया-बुहारा, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया-हाथे लगाये, मांडने मांडे तथा ग्रहीत पुष्प पुजों को बिखेर कर उपचरित किया यावत् धूपक्षेप किया। - इसके बाद उस दक्षिणदिग्वर्ती मुखमण्डप के पश्चिमी द्वार पर आया, वहाँ पाकर मोरपीछी ली। उस मोरपीछी से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्याल (सर्प) रूपों को पूजा, दिव्य जलधारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया। धूपक्षेप किया, पुष्प चढ़ाये यावत् प्राभूषण चढ़ाये / लम्बी-लम्बी गोल मालायें लटकाईं। कचग्रहवत् विमुक्त पुष्पपुजों से उपचरित किया, धूप जलाई। For Private & Personal use only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] (राजप्रश्नीयसूत्र तत्पश्चात् उसी दक्षिणी मुखमण्डप की उत्तरदिशा में स्थित स्तम्भ-पंक्ति के निकट अाया। वहाँ प्राकर लोमहस्तक- मोरपंखों से बनी प्रमार्जनी को उठाया, उससे स्तम्भों को, पुतलियों को और व्यालरूपों को प्रमाजित किया तथा पश्चिमी द्वार के समान दिव्य जलधारा से सींचने आदि रूप सब कार्य धूप जलाने तक किये। इसके बाद दक्षिणदिशावर्ती मुखमण्डप के पूर्वी द्वार पर आया, आकर लोमहस्तक हाथ में लिया और उससे द्वारशाखाओं, पुतलियों सर्परूपों को साफ किया, दिव्य जलधारा सींची आदि सब कार्य धूप जलाने तक के किये। / तत्पश्चात् उस दक्षिण दिशावर्ती मुखमण्डप के दक्षिण द्वार पर आया और द्वारचेटियों आदि को साफ किया, जलधारा सींची आदि धूप जलाने तक करने योग्य पूर्वोक्त सब कार्य किये / तदनन्तर जहाँ दाक्षिणात्य प्रेक्षागृहमण्डप था, एवं उस दक्षिणदिशावर्ती प्रेक्षागृहमण्डप का अतिमध्य देशभाग था और उसके मध्य में बना हुआ वज्रमय अक्षपाट तथा उस पर बनी मणिपीठिका एवं मणिपीठिका पर स्थापित सिंहासन था, वहाँ आया और मोरपीछी लेकर उससे अक्षपाट, मणिपीठिका और सिंहासन को प्रमाजित किया, दिव्य जलधारा से सिंचित किया, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया, धूपप्रक्षेप किया, पुष्प चढ़ाये तथा ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोल. गोल मालाओं से विभूषित किया यावत् धूपक्षेप करने के बाद अनुक्रम से जहाँ उसी दक्षिणी प्रेक्षागृहमण्डप के पश्चिमी द्वार एवं उत्तरी द्वार थे वहाँ आया और वहाँ आकर पूर्ववत् प्रमार्जनादि कार्य से लेकर धूपदान तक करने योग्य कार्य सम्पन्न किये / उसके बाद पूर्वी द्वार पर पाया। यहाँ आकर भी प्रमार्जनादि कार्य से लेकर धूपदान तक के सब कार्य पूर्ववत् किये। तत्पश्चात् दक्षिणी द्वार पर आया, वहाँ अाकर भी उसने प्रमार्जनादि कार्य से लेकर धूप दान तक के सब कार्य किये। इसके पश्चात् दक्षिण दिशावर्ती चैत्यस्तूप के सन्मुख आया वहाँ पाकर स्तूप और मणिपीठिका को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा से सिंचित किया, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया, धूप जलाई, पुष्प चढ़ाये, लम्बी-लम्बी मालायें लटकाई आदि सब कार्य सम्पन्न किये / अनन्तर जहाँ पश्चिम दिशा को मणिपीठिका थी, जहाँ पश्चिम दिशा में विराजमान जिनप्रतिमा थी वहाँ आकर प्रमार्जनादि कृत्य से लेकर धूप दान तक सब कार्य किये / इसके बाद उत्तरदिशावर्ती मणिपीठिका और जिनप्रतिमा के पास पाया। पाकर प्रमार्जन करने से लेकर धपक्षेपपर्यन्त सब कार्य किये। इसके पश्चात् जहाँ पूर्वदिशावर्ती मणिपीठिका थी तथा पूर्वदिशा में स्थापित जिनप्रतिमा थी, वहाँ पाया। वहाँ पाकर पूर्ववत् प्रमार्जन करना आदि धूप जलाने पर्यन्त सब कार्य किये / इसके बाद जहाँ दक्षिण दिशा की मणिपीठिका और दक्षिण दिशावर्ती जिनप्रतिमा थी वहाँ पाया और पूर्ववत् धूप जलाने तक सब कार्य किये। ___इसके पश्चात् दक्षिणदिशावर्ती चैत्यवृक्ष के पास आया / वहाँ आकर भी पूर्ववत् प्रमार्जनादि कार्य किये। इसके बाद जहाँ माहेन्द्रध्वज था. दक्षिण दिशा की नंदा पुष्करिणी थी, वहाँ आया। आकर मोरपीछी को हाथ में लिया और फिर तोरणों, त्रिसोपानों काष्ठपुतलियों और सर्परूपकों को मोरपीछी से प्रमाजित किया-पोंछा, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चंदन से चचित किया, पुष्प चढ़ाये, लम्बी-लम्बी पुष्पमालाओं से विभूषित किया और धूपक्षेप किया। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव द्वारा सिद्धायतन के देवच्छंदक आदि की पमार्जना। [123 तदनन्तर सिद्धार्थतन की प्रदक्षिणा करके उत्तरदिशा की नंदा पुष्करिणी पर आया और वहाँ पर भी पूर्ववत् प्रमार्जनादि धूपक्षेप पर्यन्त कार्य किये। इसके बाद उत्तरदिशावर्ती चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तम्भ के पास पाया एवं पूर्ववत् प्रमार्जन से लेकर धूपक्षेप करने तक के कार्य किये। इसके पश्चात् जहाँ पश्चिमदिशावर्ती मणिपीठिका थी, पश्चिम दिशा में स्थापित प्रतिमा थी, वहाँ आकर भी पूर्ववत् धूपक्षेपपर्यन्त करने योग्य कार्य किये। ___ तत्पश्चात् वह उत्तर दिशा के प्रेक्षागृह मण्डप में आया और धूपक्षेपपर्यन्त दक्षिण दिशा के प्रेक्षागृहमण्डप जैसी समस्त वक्तव्यता यहाँ जानना चाहिये तथा बही सब पूर्वदिशावर्ती द्वार के लिये और दक्षिण दिशा की स्तम्भपंक्ति के लिये भी पूर्ववत् वही सब कार्य किये अर्थात् स्तम्भों, काष्ठपुतलियों और व्यालरूपों आदि के प्रमार्जन से लेकर धूपक्षेप तक सब कार्य किये। इसके बाद वह उत्तर दिशा के मुखमण्डप और उस उत्तरदिशा के मुखमण्डप के बहुमध्य देशभाग (स्थान) में आया / यहाँ आकर पूर्ववत् अक्षपाटक, मणिपीठिका एवं सिंहासन आदि की प्रमार्जना से धूपक्षेपपर्यन्त सब कार्य किये। इसके बाद वह पश्चिमी द्वार पर आया, वहाँ पर भी द्वारशाखाओं आदि के प्रमार्जनादि से लेकर धूप दान तक के सब कार्य किये / तत्पश्चात् उत्तरी द्वार और उसकी दक्षिण दिशा में स्थित स्तम्भपंक्ति के पास आया। वहाँ भी पूर्ववत् स्तम्भ पुतलियों एवं व्याल रूपों की संमार्जना, आदि से लेकर धूपदान तक के सब कार्य किये। तदनन्तर सिद्धायतन के उत्तरी द्वार पर आया। यहाँ भी पुतलियों आदि के प्रमार्जन आदि से लेकर धूपक्षेप तक के सब कार्य किये / इसके अनन्तर सिद्धातन के पूर्व दिशा के द्वार पर आया और यहाँ पर भी पूर्ववत् कार्य किये / इसके बाद जहाँ पूर्वदिशा का मुखमण्डप था और उस मुखमण्डप का अतिमध्य देशभाग था, वहाँ आया और अक्षपाट, मणिपीठिका, सिंहासन की प्रमार्जना करके धूपक्षेप तक के सब कार्य किये / इसके बाद जहाँ उस पूर्व दिशा के मुखमण्डप का दक्षिणी द्वार था और उसकी पश्चिम दिशा में स्थित स्तम्भपंक्ति थी वहां आया / फिर उत्तर दिशा के द्वार पर आया और पहले के समान इन स्थानों पर स्तम्भों, पुतलियों, व्यालरूपों वगैरह को प्रमार्जित किया आदि धूपदान तक के सभी कार्य किये / इसी प्रकार से पूर्व दिशा के द्वार पर पाकर भी पूर्ववत् सब कार्य किये। इसके अनन्तर पूर्व दिशा के प्रेक्षागृह-मण्डप में आया / यहाँ आकर अक्षपाटक, मणिपीठिका, सिंहासन का प्रमार्जन आदि किया और फिर क्रमशः उस प्रेक्षागृहमण्डप के पश्चिम, उत्तर, पूर्व, एवं दक्षिण दिशावर्ती प्रत्येक द्वार पर जाकर उन-उनकी द्वारशाखाओं, पूतलियों, व्यालरू करने से लेकर धूपदान तक के सब कार्य पूर्ववत् किये / इसी प्रकार स्तूप की, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन चार दिशाओं में स्थित मणिपीठिकानों की, जिनप्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की, माहेन्द्रध्वजों की, नन्दा पुष्करिणी की, त्रिसोपानपंक्ति की, पुतलियों की, व्यालरूपों की प्रमार्जना करने से लेकर धूपक्षेप तक के सब कार्य किये / इसके पश्चात् जहाँ सुधर्मा सभा थी, वहाँ प्राया और पूर्वदिग्वर्ती द्वार से उस सुधर्मा सभा में प्रविष्ट हुा / प्रविष्ट होकर जहाँ माणवक चैत्यस्तम्भ था और उस स्तम्भ में जहाँ वज्रमय गोल समुद्गक रखे थे वहाँ आया। वहाँ आकर मोरपीछी उठाई और उस मोरपीछी से वज्रमय गोल समुद्गकों को प्रमाजित कर उन्हें खोला। उनमें रखी हुई जिन-अस्थियों को लोमहस्तक से पौंछा, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] राजप्रश्नीयसूत्र सुरभि गंधोदक से उनका प्रक्षालन करके फिर सर्वोत्तम श्रेष्ठ गन्ध और मालाओं से उनकी अर्चना की, धूपक्षेप किया और उसके बाद उन जिन-अस्थियों को पुनः उन्हीं वज्रमय गोल समुद्गकों को बन्द कर रख दिया। इसके बाद मोरपीछी से माणवक चैत्यस्तम्भ को प्रभाजित किया, दिव्य जलधारा से सिंचित किया, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया, उसपर पुष्प चढ़ाये यावत् धूपक्षेप किया। इसके पश्चात् सिंहासन और देवशैया के पास आया। वहाँ पर भी प्रमार्जना से लेकर धूपक्षेप तक के सब कार्य किये / इसके बाद क्षुद्र माहेन्द्रध्वज के पास आया और वहाँ भी पहले की तरह प्रमार्जना से लेकर धूपदान तक के सब कार्य किये। इसके अनन्तर चौपाल नामक अपने प्रहरणकोश (प्रायधशाला. शस्त्रभण्डार) में पाया। आकर मोर पंखों की प्रमार्जनिका-बुहारी हाथ में ली एवं उस प्रमानिका से प्रायुधशाला चौपाल को प्रमाजित किया। उसका दिव्य जलधारा से प्रक्षालन किया। वहाँ सरस गोशीर्ष चन्दन के हाथे लगाये, पुष्प आदि चढ़ाये और ऊपर से नोचे तक लटकती लम्बी-लम्बी मालाओं से उसे सजाया यावत् धूपदान पर्यन्त सर्व कार्य सम्पन्न किये। इसके बाद सुधर्मा सभा के अतिमध्यदेश भाग में बनी हुई मणिपीठिका एवं देवशैया के पास आया और मोरपीछी लेकर उस देवशैया और मणिपीठिका को प्रमाजित किया यावत् धूपक्षेप किया। इसके पश्चात् पूर्वदिशा के द्वार से होकर उपपात सभा में प्रविष्ट हुआ / यहाँ पर भी पूर्ववत् उसके अतिमध्य भाग की प्रमार्जन आदि कार्य करके उपपात सभा के दक्षिणी द्वार पर आया / वहाँ पाकर अभिषेकसभा (सधर्मासभा) के समान यावत पर्ववत पर्वदिशा की नन्दा पुष्करिणी की की। इसके बाद हद पर आया और पहले की तरह तोरणों, त्रिसोपानों, काष्ठ-पुतलियों और व्यालरूपों की मोरपीछी से प्रमार्जना की, उन्हें दिव्य जलधारा से सिंचित किया प्रादि धूपक्षेपपर्यन्त सर्व कार्य सम्पन्न किये। इसके अनन्तर अभिषेक सभा में आया और यहाँ पर भी पहले की तरह सिंहासन मणिपीठिका को मोरपीछी से प्रमाजित किया, जलधारा से सिंचित किया आदि धूप जलाने तक के सब कार्य किये / तत्पश्चात् दक्षिणद्वारादि के क्रम से पूर्व दिशावर्ती नन्दापुष्करिणीपर्यन्त सिद्धायतनबत् धूपप्रक्षेप तक के कार्य सम्पन्न किये। इसके पश्चात् अलंकारसभा में पाया और अभिषेकसभा की वक्तव्यता की तरह यहाँ धूपदान तक के सब कार्य सम्पन्न किये। इसके बाद व्यवसाय सभा में पाया और मोरपीछी को उठाया। उस मोरपीछी से पुस्तकरत्न को पोंछा, फिर उस पर दिव्य जल छिड़का और सर्वोत्तम श्रेष्ठ गन्ध और मालाओं से उसकी अर्चना की। इसके बाद मणिपीठिका की, सिंहासन की अति मध्य देशभाग की प्रमार्जना की, आदि धूपदान तक के सर्व कार्य किये। तदनन्तर दक्षिणद्वारादि के क्रम से पूर्व नन्दा पुष्करिणी तक सिद्धायतन की तरह प्रमार्जना आदि कार्य किये / इसके बाद वह ह्रद पर आया। वहाँ आकर तोरणों, त्रिसोपानों, पुतलियों और व्यालरूपों की प्रमार्जना आदि धूपक्षेपपर्यन्त कार्य सम्पन्न किये / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभियोगिक देवों द्वारा आज्ञापालन ] इन सबकी अर्चना कर लेने के बाद वह बलिपीठ के पास आया और बलि-विसर्जन करके अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनको यह प्राज्ञा दीआभियोगिक देवों द्वारा प्राज्ञापालन २०१-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभे विमाणे सिंघाडएसु तिएसु उक्केसु चच्चरेसु चउमुहेसु महापहेसु पागारेसु अट्ठालएसु चरियासु दारेसु गोपुरेसु तोरणेसु पारामेसु उज्जाणेसु वणेसु वणराईसु काणणेसु वणसंडेसु अच्चणियं करेह, अच्चणियं करेत्ता एवमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह / २०१---हे देवानुप्रियो ! तुम लोग जानो और शीघ्रातिशीघ्र सूर्याभ विमान के शृगाटकों (सिंघाड़े को प्राकृति जैसे त्रिकोण स्थानों) में, त्रिकों (तिराहों) में, चतुष्कों (चौकों) में, चत्वरों में, चतुर्मुखों (चारों ओर द्वार वाले स्थानों) में, राजमार्गों में, प्राकारों में, अट्टालिकानों में, चरिकाओं में, द्वारों में, गोपुरों में, तोरणों, आरामों, उद्यानों, वनों, वनराजियों काननों, वनखण्डों में जा-जा कर अर्चनिका करो और अर्चनिका करके शीघ्र ही यह आज्ञा मुझे वापस लौटाओ, अर्थात् आज्ञानुसार कार्य करने की मुझे सूचना दो। २०२-तए णं ते पाभिमोगिया देवा सूरियाभेणं देवेणं एवं वृत्ता समाणा जाव पडिसुणित्ता सूरियाभे विमाणे सिंघाडएसु-तिएसु-चउक्कएसु-चच्चरेसु-चउम्मुहेसु-महापहेसु-पागारेसु-अट्टालएसु-चरियासु-दारेसु-गोपुरेसु-तोरणेसु-पारामेसु-उज्जाणेसु-वणेसु-वणरातीसु-काणणेसु-वणसंडेसु अच्चणियं करेन्ति, जेणेव सूरियामे देवे जाव पच्चप्पिणंति / २०२--तदनन्तर उन प्राभियोगिक देवों ने सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुनकर यावत् स्वीकार करके सूर्याभ विमान के शृगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, राजमार्गों, प्राकारों, अट्टालिकाओं, चरिकाओं, द्वारों, गोपुरों, तोरणों, आरामों, उद्यानों, वनों, वनराजियों और वनखण्डों की अर्चनिका को और अर्चनिका करके सूर्याभदेव के पास आकर प्राज्ञा वापस लौटाई-आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना दी। २०३--तते णं से सूरियाभे देवे जेणेव गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, नंदापुक्खरिणि पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणपडिरूबएणं पच्चोरहति, हत्थपाए पक्खालेइ, गंदाश्रो पुक्खरिणीयो पच्चत्तरेइ, जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारित्य गमणाए। २०३–तदनन्तर वह सूर्याभदेव जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी, वहाँ पाया और पूर्व दिशावर्ती त्रिसोपानों से नन्दा पुष्करिणी में उतरा। हाथ पैरों को धोया और फिर नन्दा पुष्करिणी से बाहर निकला। निकल कर सुधर्मा सभा की ओर चलने के लिए उद्यत हुया / २०४--तए णं सूरियाभे देवे चहि सामाणियसाहस्सीहि जाव' सोलसहि प्रायरक्खदेवसाहस्सीहि, अन्नेहि य बहूहिं सूरियाविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि देवीहि य सद्धि संपरिडे सविडोए जाव नाइयरवेणं जेणव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, सभं सुधम्म पुरथिमिल्लेणं दारेणं 1. देखें सूत्र संख्या 7 2. देखें सूत्र संख्या 19 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] राजप्रश्नीयसूत्र अणुविसति, अणुपविसित्ता जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छइ, सोहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे। २०२--इसके बाद सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् (परिवार सहित चार अग्र महिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों-सेनाओं, सात अनिकाधिपतियों सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा और दूसरे भी बहुत से सूर्याभ विमानवासी देव-देवियों से परिवेष्टित होकर सर्व ऋद्धि यावत् तुमुल वाद्यध्वनि पूर्वक जहाँ सुधर्मा सभा थी वहाँ पाया और पूर्व दिशा के द्वार से सुधर्मा सभा में प्रविष्ट हुअा। प्रविष्ट होकर सिंहासन के समीप पाया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। सूर्याभदेव का सभा-वैभव २०५----तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स अवरत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं दिसिमाएणं चत्तारि य सामाणियसाहस्सोमो चउसु भद्दासणसाहस्सीसु निसीयंति / तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पुरथिमिल्लेणं चत्तारि प्रग्गमहिस्सोमो चउसु भद्दासणेसु निसीयंति। तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरियपरिसाए अट्ट देवसाहस्सीनो अट्ठसु भद्दासणसाहस्सीसु निसीयंति / तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स दाहिणेणं मज्झिमाए परिसाए दस देवसाहस्सीनो दससु, भद्दासणसाहस्सोसु निसीयंति / तए णं तस्स सूरियामस्स देवस्स दाहिणपच्चस्थिमेणं बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीग्रो बारससु भद्दासणसाहस्सीसु निसीयंति / तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पच्चत्थिमेणं सत्त प्रणियाहिवइणो सहि महासणेहि णिसी यति / तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स चउद्दिसि सोलस प्रायरक्खदेवसाहस्सोप्रो सोलसहि भद्दासणसाहस्सोहि णिसीयंति, तंजहा पुरथिमिल्लेणं चत्तारि साहस्सीओ०। तेणं प्राय रक्खा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्टिया, पिणद्ध गेविज्जा प्राविद्धविमलवरचिधपढ़ा, गहियाउहपहरणा, तिणयाणि तिसंधियाई वयरामयकोडीणि धणई पगिज्झ पडियाइयकंडकलावा णीलपाणिणो, पीतवाणिणो, रत्तपाणिणो. चावपाणिणो-चारुपाणिणो. चम्मपाणिणो. दंडपाणिणो, खम्गपाणिणो, पासपाणिणो, नीलपीयरत्तचावचारुचम्मदंडखग्गपासधरा, पायरक्ख रक्खोवगा, गुत्ता, गुत्तपालिया जुत्ता, जुत्तपालिया पत्तेयं-पत्तेयं समयसो विणयओ किंकरभूया चिट्ठति / २०५--तदन्तर उस सूर्याभदेव की पश्चिमोत्तर और उत्तरपूर्व दिशा में स्थापित चार हजार भद्रासनों पर चार हजार सामानिक देव बैठे। उसके बाद सूर्याभ देव की पूर्व दिशा में चार भद्रासनों पर चार अग्रमहिषियाँ बैठीं। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याभदेव विषयक गौतम को जिज्ञासा] [127 तत्पश्चात् सूर्याभ देव के दक्षिण-पूर्वदिक् कोण में अभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देव पाठ हजार भद्रासनों पर बैठे। सूर्याभदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद् के दस हजार देव दस हजार भद्रासनों पर बैठे। तदनन्तर सूर्याभ देव के दक्षिण-पश्चिम दिग् भाग में बाह्य परिषद् के बारह हजार देव बारह हजार भद्रासनों पर बैठे। तत्पश्चात् सूर्याभदेव की पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति सात भद्रासनों पर बैठे / इसके बाद सूर्याभदेव की चारों दिशाओं में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पूर्व दिशा में चार हजार, दक्षिण दिशा में चार हजार, पश्चिम दिशा में चार हजार और उत्तर दिशा में चार हजार, इस प्रकार सोलह हजार भद्रासनों पर बैठे। वे सभी प्रात्मरक्षक देव अंगरक्षा के लिये गाढबन्धन से बद्ध कवच को शरीर पर धारण करके, बाण एवं प्रत्यंचा से सन्नद्ध धनष को हाथों में लेकर गले में गैवेयक नामक ग्राभषण भषण-विशेष को पहनकर, अपने-अपने विमल और श्रेष्ठ चिह्नपट्टकों को धारण करके, प्रायुध और पहरणों से सुसज्जित हो, तीन स्थानों पर नमित और जुड़े हुये वज्रमय अग्र भाग वाले धनुष, दंड और बाणों को लेकर, नील-पीत-लाल प्रभा वाले बाण, धनुष चारु (शस्त्र-विशेष) चमड़े के गोफन, दंड, तलवार, पाश-जाल को लेकर एकाग्रमन से रक्षा करने में तत्पर, स्वामी-प्राज्ञा का पालन करने में सावधान, गुप्त-प्रादेश पालन करने में तत्पर, सेवकोचित गुणों से युक्त अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये उद्यत, विनयपूर्वक अपनी प्राचार-मर्यादा के अनुसार किंकर-सेवक जैसे होकर स्थित थे। सूर्याभदेव विषयक गौतम की जिज्ञासा २०६५०–सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि पालियोवमाई ठिती पण्णत्ता / प्र०-सरियाभस्स णं भंते! देवस्स सामाणियपरिसोववरणगाणं देवाणं केवइयं कालं ठिती पग्णता? उ-गोयमा ! चत्तारि पलिपोवमाई ठिती पण्णत्ता। महिड्ढोए महज्जुत्तीए, महब्बले, महायसे, महासोक्खे, महाणुभागे सूरियाभे देवे। अहो णं भंते ! सूरियाभे देवे महिड्डीए जाव महाणुभागे / सरियाभेणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देविड्डी, सा दिव्या देवज्जुई, से दिब्वे देवाणुभागे किण्णा लद्ध, किण्णा पत्ते, किण्णा अभिसमन्नागए ? पुन्वभवे के पासी? किनामए वा ? को वा गुत्तेणं ? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा प्रागरंसि वा प्रासमंसि वा संबाहंसि वा सन्निवेसंसि वा ? किं वा दच्चा, कि वा भोच्चा कि वा किच्चा, कि वा समायरित्ता, कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अतिए एगमवि आरियं धम्मयं सुवयणं सुच्चा निसम्म ज णं सरियामेणं देवेणं सा दिवा देविड्डी जाव देवाणुभागे लद्ध पत्ते अभिसमन्नागए ? Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [राजप्रश्नीयसूत्र २०६–सूर्याभदेव के समस्त चरित को सुनने के पश्चात् भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर से निवेदन किया प्र.-भदन्त ! सूर्याभदेव की भवस्थिति कितने काल की है ? उ.----गौतम ! सूर्याभदेव की भवस्थिति चार पल्योपम की है / प्र.-भगवन् ! सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों की स्थिति कितने काल की है। उ.--गौतम ! उनकी चार पल्योपम की स्थिति है। यह सूर्याभ देव महाऋद्धि, महाद्युति, महान् बल, महायश, महासौख्य और महाप्रभाव वाला है। भगवान् के इस कथन को सुनकर गौतम प्रभु ने आश्चर्य चकित होकर कहा-अहो भदन्त ! वह सूर्याभदेव ऐसा महाऋद्धि, यावत् महाप्रभावशाली है / उन्होंने पुनः प्रश्न किया भगवन् ! सूर्याभदेव को इस प्रकार की वह दिव्य देव ऋषि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवप्रभाव कैसे मिला है ?. उसने कैसे प्राप्त किया है ? किस तरह से अधिगत किया है, स्वामी बना है ? वह सूर्या भदेव पूर्वभव में कौन था ? उसका क्या नाम और गोत्र था ? वह किस ग्राम, नगर, निगम (व्यापारप्रधान नगर) राजधानी, खेट (ऊँचे प्राकार से वेष्टित नगर) कर्बट (छोटे प्रकार से घिरी वस्ती), मडंब (जिसके आसपास चारों ओर एक योजन तक कोई दूसरा गाँव न हो), पत्तन, द्रोणमुख (जल और स्थलमार्ग से जुड़ा नगर), प्राकर (खानों वाला स्थान, नगर), पाश्रम (ऋषिमहर्षि प्रधान स्थान) संबाह (संबाध-जहाँ यात्री पड़ाव डालते हों, ग्वाले आदि बसते हों) संनिवेश सामान्य जनों की बस्ती का निवासी था ? इसने ऐसा क्या दान में दिया, ऐसा क्या अन्त-प्रान्तादि विरस आहार खाया, ऐसा क्या कार्य किया, कैसा आचरण किया और तथारूप श्रमण अथवा माहण से ऐसा कौनसा धार्मिक आर्य सुवचन सुना कि जिससे सूर्याभदेव ने वह दिव्य देवद्धि यावत्देवप्रभाव उपाजित किया है, प्राप्त किया है और अधिगत किया है ? केकय अर्ध जनपद और प्रदेशी राजा २०७-'गोयमाई' समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम पामतेत्ता एवं क्यासी एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे केयइप्रद्ध नाम जणवए होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्ध सब्बोउयफलसमिद्ध रम्मे नंदणवणपगासे पासाईए जाव (दरिसणिज्जे, अभिरूवे) पडिरूवे / ___तत्थ णं केयइबद्ध जणवए सेयविया गाम नगरी होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव' पडिरूवा। 1. देखें सूत्र संख्या 1 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केकय अर्ध जनपद और प्रदेशी राजा] [129 तीसे णं सेवियाए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसौभागे एत्थ णं मिगवणे णामं उज्जाणे होत्था--रम्मे नंदणवणप्पगासे, सव्वोउयफलसमिद्ध, सुभसुरभिसीयलाए छायाए सव्वनो चेव समणुबद्ध पासादीए जाव पडिरूवे। तत्थ णं सेयवियाए णगरोए पएसी णामं राया होत्था, महयाहिमवंत जाव' विहरइ / अधम्मिए, अधम्मिट्ठ, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपजणणे, प्रधम्मसीलसमुयायारे, अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे 'हण'-'छिद'-भिंद-पवत्तए, लोहियपाणी पावे, रुद्दे, खुद्दे, साहस्सोए, उपकंचण-वंचण-माया-नियडि-कूड-कवड-सायिसंजोगबहुले, निस्सीले, निव्वए, निग्गुणे, निम्मेरे, निष्पच्चकखाणपोसहोववासे, बहूर्ण दुपय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खी-सिरिसवाण घायाए वहाए उच्छायणयाए अधम्मकेऊ, समुट्टिए, गुरूणं णो अभट्ठति, णो विणयं पउंजइ, सयस्स वि य णं जणवयस्स णो सम्म करभरवित्ति पयत्तेइ। २०७-हे गौतम ! इस प्रकार गौतम स्वामी को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा हे गौतम ! उस काल और उस समय में (इस अवसर्पिणी काल के चौथे पारे रूप काल एवं केशीस्वामी कुमार श्रमण के विचरने के समय में) इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में केकयअर्ध (केकयि-अध) नामक जनपद-देश था। जो भवनादिक वैभव से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र-परचक्र के भय से रहित और समृद्ध-धनधान्यादि वैभव से सम्पन्न-परिपूर्ण था। सर्व ऋतुओं के फल-फूलों से समृद्ध, रमणीय, नन्दनवन के समान मनोरम, प्रासादिक-मन को प्रसन्न करने वाला, यावत् (दर्शनीय, बारंबार देखने योग्य प्रतिरूप) अतीव मनोहर था। उस केकय-अर्ध जनपद में सेयबिया नाम की नगरी थी। यह नगरी भी ऋद्धि-सम्पन्न स्तमित-शत्रुभय से मुक्त एवं समृद्धिशाली यावत् प्रतिरूप थी। उस सेयविया नगरी के बाहर ईशान कोण में मृगवन नामक उद्यान था। यह उद्यान रमणीय, नन्दनवन के समान सर्व ऋतुनों के फल-फूलों से समृद्ध, शुभ-सुखकारी, सुरभिगंध और शीतल छाया से समनुबद्ध (व्याप्त) प्रासादिक यावत् प्रतिरूप-असाधारण शोभा से सम्पन्न था। उस सेयविया नगरी के राजा का नाम प्रदेशी था। प्रदेशी राजा महाहिमवान. मलय पर्वत. मन्दर एवं महेन्द्र पर्वत जैसा महान था। किन्तु वह अधामिक-(धम विरोधी ), अमिष्ठ (अधर्मप्रेमी), अधर्माख्यायी (अधर्म का कथन और प्रचार करने वाला), अधर्मानुग (अधर्म का अनुसरण करने वाला), अधर्म प्रलोको (सर्वत्र अधर्म का अवलोकन करने वाला), अधर्मप्रजनक (विशेष रूप से अधार्मिक आचार-विचारों का जनक-प्रचार करने वाला-प्रजा को अधर्माचरण की ओर प्रवृत्त करने वाला) अधर्मशीलसमुदाचारी (अधर्ममय स्वभाव और प्राचारवाला) तथा अधर्म से ही आजीविका चलाने वाला था। वह सदैव 'मारो, छेदन करो, भेदन करो' इस प्रकार की आज्ञा का प्रवर्तक था / अर्थात् मारो आदि वचनों के द्वारा अपने आश्रितों को जीवों की हिंसा वगैरह के कार्यों में लगाये रखता था। उसके हाथ सदा रक्त से भरे रहते थे। साक्षात् पाप का अवतार था। 1. देखें सूत्र संख्या 4 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [ राजप्रश्नीयसूत्र प्रकृति से प्रचण्ड-क्रोधी, रौद्र भयानक और क्षुद्र-अधम था। वह साहसिक (बिना विचारे प्रवृत्ति करनेवाला) था। उत्कंचन धूर्त, बदमाशों और ठगों को प्रोत्साहन देने वाला, उकसाने वाला था। लांच-रिश्वत लेनेवाला, वंचक-दूसरों को ठगने वाला, धोखा देने वाला, मायावी, कपटी-बकवृत्ति वाला, कूट-कपट करने में चतुर और अनेक प्रकार के झगड़ा-फिसाद रचकर दूसरों को दुःख देने वाला था। निश्शील--शील रहित था। निर्व-हिंसादि पापों से विरत न होने से व्रतरहित था, क्षमा आदि गुणों का अभाव होने से निर्गुण था, परस्त्रीवर्जन आदि रूप मर्यादा से रहित होने से निर्मर्याद था, कभी भी उसके मन में प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि करने का विचार नहीं आता था। अनेक द्विपद-मनुष्यादि, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप-सर्प आदि की हत्या करने, उन्हें मारने, प्राणरहित करने, विनाश करने से साक्षात् अधर्म की ध्वजा जैसा था, अथवा अधर्म रूपी केतुग्रह था / गुरुजनोंमाता पिता आदि को देखकर भी उनका आदर करने के लिए आसन से खड़ा नहीं होता था, उनका विनय नहीं करता था और जनपद को प्रजाजनों से राजकर लेकर भी उनका सम्यक् प्रकार सेयथार्थ रूप में पालन और रक्षण नहीं करता था। विवेचन–'केकय-अर्ध'-शास्त्रों में साढ़े पच्चीस (25 // ) आर्य देशों और उन देशों की एक-एक राजधानी के नामों का उल्लेख है / पच्चीस देश तो पूर्ण रूप से आर्य थे किन्तु केकय देश का आधा भाग आर्य था। बौद्ध ग्रंथों में भी केकय देश का उल्लेख है। उस देश का वर्तमान स्थान उत्तर में पेशावर (पाकिस्तान) के आसपास होना चाहिये, ऐसा इतिहासवेत्ताओं का मंतव्य है। परन्तु अभी भी उसके नाम और भौगोलिक स्थिति का निश्चित निर्णय नहीं हो सका है। मूल पाठ में 'अद्धे' शब्द है, जिसकी टीकाकार ने 'केकया नाम अर्धम्' लिखकर मूल शब्द की व्याख्या की है। राजा दशरथ की एक रानी का नाम "कैकयी" था। जो इस केकय देश को थी, जिससे उसका नाम कैकयी पड़ा हो, यह संभव है। ___ 'सेयविया' केकय देश की राजधानी के रूप में इस नगरी का उल्लेख सूत्रों में किया गया है / आवश्यक सूत्र में बताया है कि श्रमण भगवान महावीर छद्मस्थ-अवस्था में विहार करते हुए उत्तर वाचाल प्रदेश में गये और वहाँ से “से यविया" गये। इस नगरी के श्रमणोपासक राजा प्रदेशी ने भगवान् की महिमा की और उसके पश्चात् भगवान् वहाँ से सुरभिपुर पधारे / परन्तु वर्तमान में यहनगरी कहाँ है, एतद् विषयक कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। __ दीघनिकाय (बौद्ध ग्रन्थ) के 'पायासि सुत्तंत' में इस नगरी का नाम 'सेतव्या' बताया है और कौशल देश में विहार करते हुए कुमार कश्यप इस नगरी में पाये थे, यह सूचित करके इसे कोसल देश का नगर बताया है-'येन सेतव्या नाम कोसलानं नगरं तद् अवसरि' (दीघ-निकाय भाग 2) / जैन दृष्टि से कोशल देश अयोध्या और उसके आस-पास का प्रदेश माना गया है / सेयविया का किसी किसी ने "श्वेतविका" यह भी संस्कृत रूपान्तर किया है। 'पएसी'--सूत्र में उल्लिखित इस शब्द का टीकाकार प्राचार्य ने 'प्रदेशी' संस्कृत भाषान्तर किया है और आवश्यक सूत्रों में "पदेशी" शब्द का प्रयोग किया है। इस राजा सम्बन्धी जो वर्णन इस "रायपसेणइय" सूत्र में आगे किया जाने वाला है, उससे मिलता-जुलता वर्णन दीघनिकाय के 'पायासि सुत्तत' में भी किया गया है। इसमें मुख्य प्रश्नकार Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त सारथी] [ 131 राजा पयासी है और उसका वंश राजन्य एवं सम्बन्ध कोशल वंश के राजा 'पसेनदि' के साथ बताया है / 'रायपसेणइय' सूत्र में जिस प्रकार से राजा पयेसी को अत्यन्त पापिष्ठ के रूप में वर्णित किया है, वैसा तो दीर्घनिकाय में नहीं कहा है, किन्तु वहाँ इतना उल्लेख अवश्य है कि इस राजा के विचार पापमय थे और यह मानता था कि परलोक नहीं, औपपातिक सत्ता नहीं है और सुकृत-दुष्कृत का किसी प्रकार का फल-विपाक नहीं है (दीघनिकाय भाग 2) / इस राजा के विषय में और कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती है / रानी सूर्यकान्ता और युवराज सूर्यकान्त---- २०८-तस्स णं पएसिस्स रनो सूरियकंता नाम देवी होत्या, सुकुमालपाणिपाया धारिणी वग्णनो' / पएसिणा रन्ना सद्धि अणुरत्ता अविरत्ता इ8 सद्दे फरिसे रसे रुवे जाव (गंधे पंचविहे माणुस्सए काममोगे पच्चणुभवमाणा) विहरइ / तस्स णं पएसिस्स रण्णो जेट्ठ पुत्ते सूरियकताए देवीए अत्तए सूरियकते नाम कुमारे होत्था, सुकुमालपाणिपाए जाव पडिरूवे / से णं सूरियकते कुमारे जुवराया वि होत्था, पएसिस्स रनो रज्जं च रट्टच बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च पुरं च अंतेउरं च सयमेव पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहरइ। २०८—उस प्रदेशी राजा की सूर्यकान्ता नाम की रानी थी, जो सुकुमाल हाथ पैर आदि अंगोपांग वाली थी, इत्यादि धारिणी रानी के समान इसका वर्णन करना चाहिए / वह प्रदेशी राजा के प्रति अनुरक्त–अतीव स्नेहशील थी, उससे कभी विरक्त नहीं होती थी और इष्ट-प्रिय शब्द, स्पर्श, रस, (यावत् गन्धमूलक) अनेक प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगती हुई रहती थी। उस प्रदेशी राजा का ज्येष्ठ पुत्र और सूर्यकान्ता रानी का प्रात्मज सूर्यकान्तनामक राजकुमार था। वह सुकोमल हाथ पैर वाला, अतीव मनोहर था। वह सूर्यकान्त कुमार युवराज भी था। वह प्रदेशी राजा के राज्य (शासन), राष्ट्र (देश), बल (सेना), वाहन (रथ, हाथी, अश्व आदि) कोश, कोठार (अन्न-भण्डार) पुर और अंतःपुर की स्वयं देख भाल किया करता था। चित्त सारथी---- २०६-तस्स णं परसिस्स रनो जे? भाउयवयंसए चित्ते णाम सारही होत्था, अड्डे जावर बहुजणस्स अपरिभूए, साम-दंड-भेय-उपप्पयाण-प्रत्थसत्थ-ईहा-मइविसारए, उप्पत्तियाए-वेतियाएकम्मयाए-पारिणामियाए चउम्विहाए बुद्धोए उववेए, पएसिस्स रण्णो बहुसु कन्जेसु य कारणेसु य कुडुबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य प्रापुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, मेढो, पमाणं, पाहारे, प्रालंबणं, चक्खू, मेढिभूए, पमाणभूए, प्राहारभूए, चक्खुभूए, सव्वट्ठाणसव्वभूमियासु लद्धपच्चए विदिण्णविचारे रज्जधुराचितए प्रावि होत्था। 1. धारिणी रानी के वर्णन के लिये देखिये सूत्र संख्या 5 2. देखें सूत्र संख्या 4 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [ राजप्रश्नीयसूत्र उस प्रदेशी राजा का उम्र में बड़ा (ज्येष्ठ) भाई एवं मित्र सरीखा चित्त नामक सारथी था। वह समृद्धिशाली यावत् (दीप्त-तेजस्वी, प्रसिद्ध, विशाल भवनों अनेक सैकड़ों शय्या-आसन-यान-रथ आदि तथा विपुल धन, सोने-चांदी का स्वामी, अर्थोपार्जन के उपायों का ज्ञाता था। उसके यहाँ इतना भोजन-पान बनता था कि खाने के बाद भी बचा रहता था / दास, दासी, गायें, भैंसें, भेड़ें बहुत बड़ी संख्या में उसके यहां थी) और बहुत से लोगों के द्वारा भी पराभव को प्राप्त नहीं करने वाला था। साम-दण्ड-भेद और उपप्रदान नीति, अर्थशास्त्र एवं विचार-विमर्श प्रधान बुद्धि में विशारद-कुशल था। औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कामिकी तथा पारिणामिकी इन चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था / प्रदेशी राजा के द्वारा अपने बहुत से कार्यों में, कार्य में सफलता मिलने के उपायों में, कौटाम्बिक कार्यों में, मन्त्रणा (सलाह) में, गूप्त कार्यों में, रहस्यमय गोपनीय प्रसंगों में, निश्चय–निर्णय करने में, राज्य सम्बन्धी व्यवहार-विधानों में पूछने योग्य था, बार-बार विशेष रूप से पूछने योग्य था। अर्थात् सभी छोटे-बड़े कार्यों में उससे सलाह ली जाती थी। वह सबके लिये मेढी (खलिहान के केन्द्र में गाड़ा हुआ स्तम्भ, जिसके चारों ओर घूमकर बैल धान्य कुचलते हैं) के समान था, प्रमाण था, पृथ्वी के समान आधार-पाश्रय था, रस्सी के समान पालम्बन था, नेत्र के समान मार्गदर्शक था, मेढीभूत था, प्रमाणभूत था, प्राधार और अवलम्बनभूत था एवं चक्षुभूत था। सभी स्थानों-सन्धिविग्रह आदि कार्यों में और सभी भूमिकाओं-मन्त्री, अमात्य आदि पदों में प्रतिष्ठा-प्राप्त था। सबको विचार देने वाला था अर्थात् सभी का विश्वासपात्र था तथा चक्र की धुरा के समान राज्य-संचालक था-सकल राज्य कार्यों का प्रेक्षक था। विवेचन-उक्त वर्णन से यह प्रतीत होता है कि चित्त सारथी अतिनिपुण राजनीतिज्ञ, राज्यव्यवस्था करने में प्रवीण एवं अत्यन्त बुद्धिशाली था। उसे औत्पत्तिकी प्रादि चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त बताया है / इन चार प्रकार की बुद्धियों का स्वरूप इस प्रकार है (1) औत्पत्तिकी बुद्धि-अदृष्ट, अननुभूत और अश्रुत किसी विषय को एकदम समझ लेने, तथा विषम समस्या के समाधान का तत्क्षण उपाय खोज लेने वाली बुद्धि या अकस्मात्, सहसा, तत्काल उत्पन्न होने वाली सूझ / (2) वैनयिकी-गुरुजनों को सेवा-शुश्रूषा, विनय करने से प्राप्त होने वाली बुद्धि / (1) कार्मिकी-कार्य करते-करते अनुभव-अभ्यास से प्राप्त होने वाली दक्षता, निपुणता / इसको कर्मजा अथवा कर्मसमुत्था बुद्धि भी कहते हैं / (4) पारिणामिकी-उम्र के परिपाक से अजित विभिन्न अनुभवों से प्राप्त होने वाली बुद्धि / उक्त चार बुद्धियां मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित इन दो मूल विभागों में से दूसरे विशारा के अर्न्तगत हैं। जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के पूर्वकालिक संस्कार के निमित्त से उत्पन्न किन्तु वर्तमान में श्रुतनिरपेक्ष होता है, उसे श्रुतनिश्रित कहते हैं एवं जिसमें श्रुतज्ञान के संस्कार की किंचित्मात्र भी अपेक्षा नहीं होती है वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहलाता है। कुणाला जनपद, श्रावस्ती नगरी, जितशत्रु राजा 210 तेणं कालेणं तेणं समयेणं कुणाला नामं जणवए होत्था, रिथिमियसमिद्ध / तत्थ णं Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त सारथी का श्रावस्ती की ओर प्रयाण ] [ 133 कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नयरी होत्था रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव' पडिरूवा / तीसे णं सावत्थीए णगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसोभाए कोटुए नाम चेइए होत्था, पोराणे जाव पासादीए / तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पएसिस्स रन्नो अंतेवासी जियसत्तू नाम राया होत्था, मयाहिमवंत जाव विहरइ। २१०-उस काल और उस समय में कुणाला नामक जनपद-देश था। वह देश वैभवसंपन्न, स्तिमित-स्वपरचक्र (शत्रुओं) के भय से मुक्त और धन-धान्य से समृद्ध था। ___ उस कुणाला जनपद में श्रावस्ती नाम की नगरी थी, जो ऋद्ध, स्तिमित, समृद्ध यावत् (देखने योग्य, मन को प्रसन्न करने वाली, अभिरूप-मनोहर और) प्रतिरूप-अतीव मनोहर थी। उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान दिक्कोण) में कोष्ठक नाम का चैत्य था। यह चैत्य अत्यन्त प्राचीन यावत् प्रतिरूप था / उस श्रावस्ती नगरी में प्रदेशी राजा का अन्तेवासी जैसा अर्थात् अधीनस्थ-आज्ञापालक जितशत्रु नामक राजा था, जो महाहिमवन्त आदि पर्वतों के समान प्रख्यात था / विवेचन-दीघनिकाय के 'महासुदस्सन सुत्तंत' में श्रावस्ती नगरी को उस समय का एक महानगर बताया है। प्राचीन भूगोलशोधकों का अभिमत है कि वर्तमान में सेहट-मेहट के नाम से जो ग्राम जाना जाता है, वह प्राचीन श्रावस्ती नगरी है / चित्त सारथी का श्रावस्ती की ओर प्रयारण २११–तए णं से पएसी राया अन्नया कयाइ महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं सज्जावेइ, सज्जावित्ता चित्तं सारहिं सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छ णं चित्ता! तुमं सात्थि नगरि जियसत्तस्स रण्णो इमं महत्थं जाव (महग्धं, महरिहं रायारिह) पाहुडं उवणेहि, जाई तत्थ रायकज्जाणि य रायकिच्चाणि य रायनीतियो य रायववहारा य ताई जियसत्तणा सद्धि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहि त्ति कटु विसज्जिए। तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रण्णा एवं बुत्ते समाणे हट जाव (तुट्ठ-चित्तमादिएपोइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस-विसप्पमाण-हियए करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु 'एवं देवो तहत्ति' प्राणाए विणएणं वधणं) पडिसुणेता तं महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, पएसिस्स रण्णो जाव पडिणिक्खमइ सेयवियं नगार मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता त महत्थं जाव पाहुडं ठवेइ, कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सच्छत्तं जाव चाउग्घंट प्रासरहं जुत्तामेव उवद्ववेह जाव पच्चपिणह / तए णं ते कोडुबियपुरिसा तहेव पडिसुणित्ता खिप्यामेव सच्छत्तं जाव जुद्धसज्ज चाउग्घंट प्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेन्ति, तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / 1. देखें सूत्र संख्या 1 2. देखें सूत्र संख्या 2 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 ] [राजप्रश्नीयसूत्र तए णं से चित्ते सारही कोडुबियपुरिसाण अंतिए एयम जाव हियए हाए, कथबलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते, सन्नद्धबद्धवम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए, पिणद्धगेविज्जविमलवरचिंधपट्ट, गहियाउहपहरणे तं महत्थं जाव पाहुडं गेहइ, जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ चाउग्घंटे प्रासरहं दुरुहेति / बहहिं पुरिसेहि सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहि सद्धि संपरिवडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरेज्जमाणेणं महया भडचडगररहपहकरविंदपरिक्खित्ते सानो गिहायो णिग्गच्छइ सेवियं नगरि मभंमझेणं णिग्गच्छइ, सुहेहि वासेहिं पायरासेहि नाइविकिट्ठहि अंतरा वासेहि वसमाणे-वसमाणे केइयप्रद्धस्स जणवयस्स मज्झमझणं जेणेव कुणालाजणवए जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ, सावत्थीए नयरोए मझमझेणं अणुपविसइ / जेणेव जियसत्तुस्स रण्णो गिहे, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तुरए निगिण्हह, रहं ठवेति, रहामो पच्चोरुहइ / तं महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ जेणेव अभितरिया उवट्ठाणसाला जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उबागच्छइ, जियसत्तुं रायं करयलपरिग्गहियं जाव' कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेइ। तए णं से जियसत्तू राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पाहुडं पडिच्छइ, चित्तं सारहि सक्कारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ रायमगमोगाढं च से प्रावासं दलयइ / २११-तत्पश्चात् किसी एक समय प्रदेशी राजा ने महार्थ ( विशिष्ट प्रयोजनयुक्त ) बहमूल्य, महान् पुरुषों के योग्य, विपुल, राजाओं को देने योग्य प्राभूत (उपहार) सजाया-तैयार किया। सजाकर चित्त सारथी को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा--- हे चित्त ! तुम श्रावस्ती नगरी जानो और वहाँ जितशत्रु राजा को यह महार्थ यावत् (महान पुरुषों के अनुरूप और राजा के योग्य मूल्यवान्) भेंट दे आयो तथा जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं वहाँ की शासन-व्यवस्था, राजा की दैनिकचर्या, राजनीति और राजव्यवहार को देखो, सुनो और अनुभव करो-ऐसा कहकर विदा किया। तब बह चित्त सारथी प्रदेशी राजा की इस प्राज्ञा को सुनकर हर्षित हा यावत् (संतुष्ट हुया, चित्त में आनन्दित, मन में अनुरागी हुआ, परमसौमनस्य भाव को प्राप्त हुया एवं हर्षातिरेक से विकसित-हृदय होकर उसने दोनों हाथ जोड़ शिर पर प्रावर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके-- 'राजन् ! ऐसा ही होगा' कहकर विनयपूर्वक आज्ञा को स्वीकार किया।) आज्ञा स्वीकार करके उस महार्थक यावत् उपहार को लिया और प्रदेशी राजा के पास से निकल कर बाहर आया। बाहर आकर सेयविया नगरी के बीचों-बीच से होता हुअा जहाँ अपना घर था, वहाँ आया / आकर उस महार्थक उपहार को एक तरफ रख दिया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा देवानुप्रियो ! शीघ्र ही छत्र सहित यावत् चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर तैयार कर लामो यावत् इस प्राज्ञा को वापस लौटायो। 1. देखें सूत्र संख्या 13 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त सारथी का श्रावस्ती की ओर प्रयाण] [135 तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने चित्त सारथी को आज्ञा की आज्ञा सुनकर आज्ञानुरूप शीघ्र हो छत्रसहित यावत् युद्ध के लिये सजाये गये चातुर्घटिक अश्वरथ को जोत कर उपस्थित कर दिया और प्राज्ञा वापस लौटाई, अर्थात् रथ तैयार हो जाने की सूचना दी। कौटुम्बिक पुरुषों का यह कथन सुनकर चित्त सारथी हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् विकसितहृदय होते हुए उसने स्नान किया, बलि कर्म (कुलदेवता की अर्चना की, अथवा पक्षियों को दाना डाला), कौतुक (तिलक आदि) मंगल-प्रायश्चित्त किये और फिर अच्छी तरह से शरीर पर कवच बांधा / धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई, गले में ग्रे वेयक और अपने श्रेष्ठ संकेतपट्टक को धारण किया एवं आयुध तथा प्रहरणों को ग्रहण कर, वह महार्थक यावत् उपहार, लेकर वहाँ प्राया जहाँ चातुर्घट अश्वरथ खड़ा था। आकर उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ हुआ। ___ तत्पश्चात् सन्नद्ध यावत् प्रायुध एवं प्रहरणों से सुसज्जित बहुत से पुरुषों से परिवृत्त हो, कोरंट पुष्प की मालानों से विभूषित छत्र को धारण कर, सुभटों और रथों के समूह के साथ अपने घर से रवाना हया और सेयविया नगरी के बीचोंबीच से निकल कर सुखपूर्वक रात्रिवि प्रात: कलेवा, अति दूर नहीं किन्तु पास-पास अन्तरावास (पड़ाव) करते, और जगह-जगह ठहरतेठहरते केकयाधं जनपद के बीचोंबीच से होता हुआ जहाँ कुणाला जनपद था, जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, वहाँ आ पहुँचा / वहाँ आकर श्रावस्ती नगरी के मध्य भाग में प्रविष्ट हुआ। इसके बाद जहाँ जितशत्रु राजा का प्रासाद था और जहाँ राजा की बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया और फिर रथ से नीचे उतरा। तदनन्तर उस महार्थक यावत् भेंट को लेकर प्राभ्यन्तर उपस्थानशाला (बैठक) में जहाँ जितशत्रु राजा बैठा था, वहाँ आया। वहाँ दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से जितशत्रु राजा का अभिनन्दन किया और फिर उस महार्थक यावत् उपहार को भेंट किया। तब जितशत्रु राजा ने चित्त सारथी द्वारा भेंट किये गये इस महार्थक यावत् उपहार को स्वीकार किया एवं चित्त सारथी का सत्कार-संमान किया और विदा करके विश्राम करने के लिए राजमार्ग पर आवास स्थान दिया / विवेचन—ऊपर के सूत्र में बताया कि श्रावस्ती का राजा जितशत्रु सेयविया के राजा प्रदेशी का अंतेवासी था अर्थात् अधीनस्थ राजा था। तब प्रश्न होता है कि अधीनस्थ राजा होते हुए भी राजा प्रदेशी का जितशत्रु राजा को भेंट भेजने और चित्त सारथी को श्रावस्ती जाकर राजव्यवस्था देखने के संकेत का क्या कारण था ? प्रतीत होता है, अनेक बार अधीनस्थ राजा अपने से मुख्य राजा को अपेक्षा बल, सेना, कोष और कितनी ही दूसरी बातों में बढ़ने का गूप्त प्रयास करते हैं और प्रच्छन्न रूप से उसे अपदस्थ करके स्वयं उसके राज्य पर अधिकार करने आदि का प्रयत्न करते हैं / इस स्थिति का पता जब उस मुख्य राजा को लगता है, तब वह राजनीति का अवलंबन लेकर उसकी खोजबीन करने का प्रयास करता है / इस प्रयास के दूसरे-दूसरे उपायों की तरह भेंट भेजना भी एक उपाय है / यही बात प्रदेशी राजा द्वारा कहे गये इन शब्दों से विदित होती है-- __ 'तुम यह भेंट दे आमो तथा जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं वहाँ की शासनव्यवस्था, राजा की दैनिक चर्या, राजनीति और व्यवहार को देखो, सुनो और अनुभव करो।' Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र २१२-तए णं से चित्ते सारही विसज्जिते समाणे जियसत्तुस्स रनो अंतियानो पडिनिक्खमइ, जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्धंट प्रासरहं दुरूहइ, सात्थि नरि मज्झमझेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे प्रावासे तेणेव उवागच्छइ, तुरए निगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहापो पच्चोरहइ, जहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सद्धष्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिते अप्पमहग्घाभरणालं कियसरीरे जिमियभुत्ततरागए वियणं समाणे पुव्वावरणहकालसमयंसि गंधवेहि य गाडगेहि य उवनच्चिज्जमाणे उवनश्चिज्जमाणे, उवगाइज्जमाणे उवगाइज्जमाणे, उबलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे इ8 सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुभवमाणे विहरइ। २१२-तत्पश्चात् चित्त सारथी विदाई लेकर जितशत्र राजा के पास से निकला और जहाँ वाह्य उपस्थानशाला थी, चार घंटों वाला अश्वरथ खड़ा किया था, वहाँ पाया। आकर उस चातुर्घट अश्वरथ पर सवार हुना। फिर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच से होता हुआ राजमार्ग पर अपने ठहरने के लिये निश्चित किये गये आवास स्थान पर आया। वहाँ घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया और नीचे उतरा / इसके पश्चात् उसने स्नान किया, बलिकर्म किया और कौतुक, मंगल प्रायश्चित्त करके शुद्ध और उचित--योग्य मांगलिक वस्त्र पहने एवं अल्प किन्तु बहुमूल्य प्राभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। भोजन आदि करके तीसरे प्रहर गंधणे, नर्तकों और नाट्यकारों के संगीत, नृत्य और नाट्याभिनयों को सुनते-देखते हुए तथा इष्ट-अभिलषित शब्द, स्पर्श, रस, रूप एवं गंधमूलक पांच प्रकार के मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोगते हुए विचरने लगा। श्रावस्ती नगरी में केशी कुमारश्रमण का पदार्पण 213 तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जेि केसी नाम कुमारसमणे जातिसंपण्णे कुलसंपण्णे बलसंपण्णे रूवसंपण्णे विणयसंपण्णे नाणसंपण्णे दंसणसंपन्ने चरिससंपण्णे लज्जासंपण्णे लाघवसंपण्णे लज्जालाघवसंपण्णे प्रोयंसी तेयंसी बच्चंसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जियणिद्दे जितिदिए जियपरीसहे जीवियास-मरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे करणप्पहाणे चरणप्पहाणे निग्गहप्पहाणे निच्छयप्पहाणे प्रज्जवप्पहाणे महवप्पहाणे लाघवप्पहाणे खंतिप्पहाणे गुत्तिप्पहाणे मुत्तिप्पहाणे विज्जपहाणे मंतष्पहाणे बंभप्पहाणे वेयप्पहाणे नयप्पहाणे नियमप्पहाणे सच्चपहाणे सोयप्पहाणे नाणपहाणे सणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे अोराले धोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविपुलतेउलेस्से चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसहि सद्धि संपरिवडे पुवाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सावत्थी नयरी, जेणेव कोट्टए चेइए, तेणेव उवागच्छइ, सावत्थी नयरोए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हइ, उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। २१३---उस काल और उस समय में जातिसंपन्न--उत्तम मातृपक्ष वाले, कुल संपन्न- उत्तम पितृपक्ष वाले, आत्मबल से युक्त, अनुत्तर विमानवासी देवों से भी अधिक रूपवान् (शरीर-सौन्दर्यशाली), विनयवान्, सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चरित्र के धारक, लज्जावान्-पाप कार्यों के प्रति भीरु, लाघववान् (द्रव्य से अल्प उपधि वाले और भाव से ऋद्धि, रस और साता रूप तीन गौरवों से रहित), लज्जालाघवसंपन्न, प्रोजस्वी-मानसिक तेज से संपन्न, तेजस्वी-शारीरिक कांति से देदीप्यमान, Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावस्ती नगरी में केशी कुमारश्रमण का पदार्पण ] [137 वचस्वी सार्थक वचन बोलने वाले, यशस्वी, क्रोध को जीतने वाले, मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, लोभ को जीतने वाले, जीवित रहने की आकांक्षा एवं मृत्यु के भय से विमुक्त, तपःप्रधान अर्थात् उत्कृष्ट तप करने वाले, गुणप्रधान अर्थात् उत्कृष्ट संयम गुण के धारक, करणप्रधान (पिंडविशुद्धि आदि करणसत्तरी में प्रधान), चरणप्रधान (महाव्रत आदि चरणसत्तरी में प्रधान), निग्रह-प्रधान (मन और इन्द्रियों की अनाचार में प्रवृत्ति को रोकने में सदैव सावधान), तत्त्व का निश्चय करने में प्रधान, प्रार्जवप्रधान (माया का निग्रह करने वाले), मार्दवप्रधान (अभिमानरहित), लाघवप्रधान अर्थात् क्रिया करने के कौशल में दक्ष, क्षमाप्रधान अर्थात् क्रोध का निग्रह करने में प्रधान, गुप्तिप्रधान (मन, वचन, काय के संयमी), मुक्ति (निर्लोभता) में प्रधान, विद्याप्रधान (देवता-अधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं में प्रधान), मंत्रप्रधान (हरिणेगमैषी श्रादि देवों से अधिष्ठित अथवा साधना से प्राप्त होने वाली विद्याओं में प्रधान), ब्रह्मचर्य अथवा समस्त कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेदप्रधान अर्थात् लौकिक और लोकोत्तर आगमों में निष्णात, नयप्रधान अर्थात् समस्त वाचनिक अपेक्षाओं के मर्मज्ञ, नियमप्रधान -विचित्र अभिग्रहों को धारण करने में कुशल, सत्यप्रधान, शौचप्रधान (द्रव्य और भाव से ममत्व रहित), ज्ञानप्रधान, दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान, उदार, घोर परीषहों, इन्द्रियों और कषायों आदि अान्तरिक शत्रुओं का निग्रह करने में कठोर, घोरवती-अप्रमत्त भाव से महाव्रतों का पालन करने वाले, घोरतपस्वी-महातपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी-उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शरीरसंस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाये रखने वाले, चौदह पूर्वो के जाता, मतिज्ञानादि मन:पर्यायज्ञानपर्यन्त चार ज्ञानों के धनी पाश्र्वापत्य (भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्यपरम्परा के) केशी नामक कुमारश्रमण (कुमार अवस्था में दीक्षित साधु) पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त होकर अनुक्रम से चलते हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, जहाँ कोष्ठक चैत्य था, वहाँ पधारे एवं श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में यथोचित अवग्रह को ग्रहण किया अर्थात् स्थान की याचना की और फिर अवग्रह ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन-मूल पाठ में आगत 'करणप्पहाणे' एवं चरगप्पहाणे' पद में करण और चरण शब्द करणसत्तरी और चरणसत्तरी के बोधक हैं / इन दोनों का तात्पर्य है—करण के सत्तर भेद और चरण के सत्तर भेद / प्रयोजन होने पर साधु जिन नियमों का सेवन करते हैं उन्हें करण अथवा करणगुण कहते हैं और जिन नियमों का निरंतर पाचरण किया जाता है, वे चरण अथवा चरणगुण कहलाते हैं। करण के सत्तर भेद इस प्रकार हैं पिंडविसोही समिइ भावण पडिमा य इन्दियनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीपो अभिग्गहा चेव करणं तु // –ोधनियुक्ति गा०३ आहार, वस्त्र, पात्र और शय्या की शुद्ध गवेषणा, पाँच समिति, अनित्य आदि बारह भावनाएँ, बारह प्रतिमाएँ, पंच इन्द्रियों का निग्रह, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्ति एवं चार प्रकार के अभिग्रह (ये करण गुण के सत्तर भेद हैं)। चरण के सत्तर भेद इस प्रकार हैं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 / [ राजप्रश्नीयसूत्र वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बम्भगुत्तीयो। णाणा इतियं तवं कोहनिग्गहाई चरणमेयं / / पांच महाव्रत, क्षमा आदि दस प्रकार का यतिधर्म, सत्रह प्रकार का संयम, आचार्य आदि का दस प्रकार का वैयावत्य, नौ ब्रह्मचर्य-गप्तियाँ, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना, बारह प्रकार का तप, क्रोधादि चार कषायों का निग्रह (ये चरणगुण के सत्तर भेद हैं)। दर्शनार्थ परिषदा का गमन और चित्त की जिज्ञासा २१४–तए णं सावस्थीए नयरीए सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउमुह-महापहपहेसु महया जणसद्दे इ वा जाणबूहे इ वा जण बोले इ बा जणकलकले इ वा जणउम्मी इ वा जणउक्कलिया इ वा जणसनिवाए इ वा जाव (बहुजणो अण्णमण्णं एवं प्राइक्खइ एवं मासेइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणपिया! पासावच्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव' गामाणुगामं दूइज्जमाणे इह मागए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव सावत्थीए नयरीए बहिया कोटुए चेइए प्रहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया! तहारूवाणं समणाणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंगपुण अभिगमण-बंदन-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि पायरियस्स घम्मियस्स सुबयणस्स सवणयाए, किमंग! पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुबासामो (एयं णं इहभवे पेच्चभवे य दियाए सहाए खमाए निस्सेयसाए प्राणगामियत्ताए भविस्सह-त्ति कटट परिसा निग्गया, केसी नाम कुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, वंदइ णमसइ, बंदित्ता णमंसित्ता णच्चासन्ने णाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलियउडे अभिमुहे विणएणं) परिसा पज्जुवासइ / २१४–तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण का पदार्पण होने के पश्चात्) श्रावस्ती नगरी के शृगाटकों (त्रिकोण वाले स्थानों), त्रिकों (तिराहों), चतुष्कों (चौराहों), चत्वरों (चौकों), चतुर्मुखों (चारों तरफ द्वार वाले स्थान-विशेषों), राजमार्गों और मार्गों (गलियों) में लोग आपस में चर्चा करने लगे, लोगों के झुड इकट्ठे होने लगे, लोगों के बोलने की घोंघाट सुनाई पड़ने लगी, जनकोलाहल होने लगा, भीड़ के कारण लोग आपस में टकराने लगे, एक के बाद एक लोगों के टोले आते दिखाई देने लगे, इधर-उधर से आकर लोग एक स्थान पर इकठ्ठ होने लगे, यावत् (बहुत से लोग परस्पर एक दूसरे से कहने लगे, बोलने लगे, प्ररूपणा करने लगे-हे देवानुप्रियो ! जाति प्रादि से संपन्न. श्रेष्ठ पाश्र्वापत्य केशी कुमारश्रमण अनुक्रम से गमन करते हुए, ग्रामानुग्राम-एक गांव से दूसरे गांव में विचरते हुए आज यहां आये हैं, प्राप्त हुए हैं, पधार गए हैं और इसी श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में यथारूप (साधुमर्यादा के अनुरूप) अवग्रह-याज्ञा लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे हैं। अतएव हे देवानुप्रियो ! जब तथारूप श्रमण भगवन्तों के नाम और गोत्र के सुनने से ही महाफल प्राप्त होता है, तब उनके समीप जाने, उनकी वंदना करने, उनसे प्रश्न पूछने और उनकी 1. देखें सूत्र संख्या 213 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनार्थ परिषदा का गमन और चित्त की जिज्ञासा ] [139 पर्युपासना-सेवा करने से प्राप्त होने वाले अनुपम फल के लिये तो कहना हो क्या है ! आर्य धर्म के एक सुवचन के सुनने से जब महाफल प्राप्त होता है, तब हे आयुष्मन् ! विपुल अर्थों को ग्रहण करने से प्राप्त होने वाले फल के विषय में तो कहना ही क्या है ? इसलिये हे देवानुप्रियो! हम उनके पास चलें; उनको वंदन-नमस्कार करें, उनका सत्कार करें, भक्तिपूर्वक सम्मान करें एवं कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप उनकी विनयपूर्वक पर्युपासना करें। यह वंदन-नमस्कार करना हमें इस भव तथा परभव में हितकारी है, सुखप्रद है, क्षेम-कुशल एवं परमनिश्रेयस्-कल्याण का साधन रूप होगा तथा इसी प्रकार अनुगामी रूप से जन्म-जन्मान्तर में भी सुख देने का निमित्त बनेगा ऐसा विचार कर परिषदा (जनसमुदाय) निकली और केशी कुमारश्रमण के पास पहुँच कर दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की / प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके न तो अधिक दूर और न अधिक निकट किन्तु उनके सम्मुख यथायोग्य स्थान पर बैठकर शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए सविनय अंजलि करके) पर्युपासना-सेवा करने लगी। २१५---तए णं तस्स सारहिस्स तं महाजणसदं च जणकलकलं च सुणेत्ता य पासेत्ता य इमेयारूवे अज्झस्थिए जाव (चितिए, पत्थिए मणोगते संकप्पे) समप्पज्जित्था, किणं अज्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहे इवा, खंदमहे इवा, रुमहे इवा, मउंदमहे इवा, सिबमहे इवा, वेसमणमहे इवा, नागमहे इ वा, जक्खमहे इ वा, भूयमहे इ वा, थूममहे इ वा, चेइयमहे इ बा, रुक्खमहे इ वा, गिरिमहे इ वा, दरिमहे इ वा, अगडमहे इ वा, नईमहे इ वा, सरमहे इ वा, सागरमहे इ वा, ज णं इमे बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा राइन्ना इक्खागा णाया कोरवा जाव (खत्तिया माहणा भडा जोहा मल्लई मल्लहपुत्ता लेच्छइ, लेच्छइपुत्ता) इब्मा इन्भपुत्ता अण्णे य बहवे राया-ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबियइन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्यवाहप्पभितियो व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठेमालकडा आविद्धमणिसुवण्णा कप्पियहार-प्रद्धहार-तिसरपालंबपलंबमाण-कडिसुत्तयकयसोहाहरणा चंदणोलित्तगायसरोरा पुरिसवग्गुरापरिखित्ता महया उक्किटुसीहणायबोलकलकलरवेणं एगदिसाए जहा उववाइए जाव अप्पेगतिया हयगया गयगया जाव (रहगया सिबियागया संदमागिया अप्पेगतिया) पायचारविहरेणं महया मया वंदावंदरहि निग्गच्छंति, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कंचुइज्जपुरिसं सदावेइ, सहावित्ता एवं क्यासी कि णं देवाणुप्पिया! अज्ज सावत्थीए नगरीए इंदमहे इ वा जाव सागरमहे इ वा जेणं इमे बहवे उग्गा भोगा० णिग्गच्छति ? २१५-तब लोगों की बातचीत, जनकोलाहल सुनकर तथा जनसमूह को देखकर चित्त सारथी को इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् (चिन्तित, प्रार्थित-इष्ट और मनोगतसंकल्प-विचार) उत्पन्न हुन्ना कि क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमह (इन्द्र-निमित्तक उत्सव-इन्द्रमहोत्सव) है ? अथवा स्कन्द (कार्तिकेय) मह है ? या रुद्रमह, मुकुन्दमह, शिवमह, वैश्रमण (कुबेर) मह, नागमह (नाग सम्बन्धी उत्सव), यक्षमह, भूतमह, स्तुपमह, चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, दरि(गुफा)मह, कपमह, नदीमह, सर(तालाब)मह, अथवा सागरमह है ? कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय, उग्रवंशीयकुमार, भोगवंशीय, राजन्यवंशीय, इक्ष्वाकुवंशीय, ज्ञातवंशीय, कौरववंशीय यावत् (क्षत्रिय-सामान्य राज कुल के सम्बन्धी, माहण-ब्राह्मण, सुभट, योधा, मल्लक्षत्रिय (मल्लिक गणराज्य से संबंधित), मल्लपुत्र, लिच्छवी क्षत्रिय लिच्छिवी पुत्र), इब्भ, इब्भपुत्र तथा दूसरे भी अनेक राजा (मांडलिक राजा) ईश्वर Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [राजप्रश्नीयसूत्र (युवराज) तलवर (जागीरदार), माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्यश्रेष्ठी (महाधनी-हाथी प्रमाण धन से संपन्न सेठ), सेनापति, सार्थवाह आदि सभी स्नान कर, बलिकर्म कर, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित कर, मस्तक और गले में मालाएँ धारण कर, मणिजटित स्वर्ण के प्राभूषणों से शरीर को विभूषित कर, गले में हार, (अठारह लड़ का हार), अर्धहार, तिलड़ी, झूमका, और कमर में लटकते हुए कटिसूत्र (करधनी) पहनकर, शरीर पर चंदन का लेप कर, प्रानंदातिरेक से सिंहनाद और कलकल ध्वनि से श्रावस्ती नगरी को गुजाते हुए जनसमूह के साथ एक ही दिशा में मुख करके जा रहे हैं प्रादि वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार यहां जानना चाहिये / यावत् उनमें से कितने ही घोड़ों पर सवार होकर, कई हाथी पर सवार होकर, कोई रथों में बैठ कर, या पालखी में बैठ कर स्यंदमानिका में बैठ कर और कितने ही अपने अपने समुदाय बनाकर पैदल ही जा रहे हैं। ऐसा विचार किया और विचार करके कंचुकी पुरुष (द्वारपाल) को बुलाकर उससे पूछा देवानुप्रिय ! आज क्या श्रावस्ती नगरी में इन्द्र-महोत्सव है यावत् सागरयात्रा है कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय, भोगवंशीय आदि सभी लोग अपने-अपने घरों से निकलकर एक ही दिशा में जा रहे हैं ? २१६–तए णं से कंचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स प्रागमणगहियविणिच्छए चित्तं सारहि करयलपरिग्गहियं जाव वद्धाबेत्ता एवं वयासी–णो खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज सावस्थीए णयरीए इंदमहे इवा जाव सागरमहे इ वा जे णं इमे बहवे जाव' विदाविदएहिं निग्गच्छति, एवं खलु भो देवाणुप्पिया ! पासावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव' दूइज्जमाणे इहमागए जाव विहरइ / तेणं अज्ज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा जाव इन्भा इबभपुत्ता अप्पेगतिया वंदणवत्तियाए जाव महया बंदावंदएहि णिगच्छति / २१६--तब उस कंचुकी पुरुष ने केशी कुमारश्रमण के पदार्पण होने के निश्चित समाचार जानकर दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से वधाकर चित्तसारथी से निवेदन किया--देवानुप्रिय ! आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्र-महोत्सव यावत् समुद्रयात्रा आदि नहीं है कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय आदि लोग अपने-अपने समुदाय बनाकर निकल रहे हैं / परन्तु हे देवानुप्रिय ! बात यह है कि आज जाति आदि से संपन्न पाश्र्वापत्य केशी नामक कुमारश्रमण यावत् एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहाँ पधारे हैं यावत् कोष्ठक चैत्य में विराजमान हैं / इसी कारण आज श्रावस्ती नगरी के ये अनेक उग्रवंशीय यावत् इन्भ, इब्भपुत्र आदि वंदना आदि करने के विचार से बड़े-बड़े समुदायों में अपने घरों से निकल रहे हैं। चित्त सारथी का दर्शनार्थ गमन २१७-तए णं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठ-जावहियए कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दा वित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट प्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव सच्छत्तं उवट्ठति / / 1. देखें मूत्र संसपा 215 2. देखें सूत्र संख्या 213 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी श्रमण की देशना ] [141 217 ---तत्पश्चात् कंचुकी पुरुष से यह बात सुन-समझ कर चित्त सारथी ने हृष्ट-तुष्ट यावत् हर्षविभोर हृदय होते हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटों वाले अश्वरथ को जोतकर उपस्थित करो। यावत् वे कौटुम्बिक पुरुष छत्रसहित अश्वरथ को जोतकर लाये / २१८-"तए णं से चित्ते सारही हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिते प्रध्यमहग्घाभरणालंकियसरीरे जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटे प्रासरहं दुरूह सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भडचडगरेण विदपरिखित्ते सावत्थीनगरीए मज्झमझणं निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्टए चेइए जेणेव केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता केसिकुमारसमणस्स अदूरसामंते तुरए णिगिण्हइ रहं ठवेइ य, ठवित्ता पच्चोरुहति / पच्चोरुहिता जेणेव केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता केसिकुमारसमणं तिक्खुत्तो पायाहिणं-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, नमंसित्ता णच्चासणे णाति दूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमहे पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासइ। २१८--तदनन्तर चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किया, शुद्ध एवं सभोचित मांगलिक वस्त्रों को पहना, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया और उसके बाद वह चार घण्टों वाले प्रश्वरथ के पास आया। आकर उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ़ हुप्रा एवं कोरंट पुरुषों की मालाओं से सुशोभित छत्र धारण करके सुभटों के विशाल समुदाय के साथ श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच होकर निकला। निकलकर जहाँ कोष्ठक नामक चैत्य था और उसमें भी जहाँ केशी कुमारश्रमण विराज रहे थे, वहाँ पाया / आकर केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर धोड़ों को रोका और रथ खड़ा किया। रथ खड़ा कर उससे नीचे उतरा / उतर कर जहाँ केशी कुमारश्रमण थे, वहाँ अाया। पाकर दक्षिण दिशा से प्रारंभ कर केशी कुमारश्रमण की तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके न अत्यन्त समीप और न अति दूर किन्तु समुचित स्थान पर सम्मुख बैठकर धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से नमस्कार करता हुआ विनयपूर्वक अंजलि करके पर्युपासना करने लगा। केशी श्रमण को देशना २१६-तए णं से केसिकुमारसमणे चित्तस्स सारहिस्स तोसे महतिमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ / तं जहा--सव्वाप्रो पाणाइवायानो वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सन्वानो अदिण्णादाणाम्रो वेरमणं, सव्वानो बहिद्धादाणागो वेरमणं / तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा-निसम्म जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। २१६-तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी और उस अतिविशाल परिषद् को चार याम धर्म का उपदेश दिया। उन चातुर्यामों के नाम इस प्रकार हैं (1) समस्त प्राणातिपात (हिंसा) से विरमण (निवृत्त होना), (2) समस्त मृषावाद (असत्य) से विरत होना, (3) समस्त अदत्तादान से विरत होना, (4) समस्त बहिद्धादान (मैथुन-परिग्रह) से विरत होना। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] | राजप्रश्नीयसूत्र इसके बाद वह अतिविशाल परिषद् (जनसमूह) केशी कुमारश्रमण से धर्मदेशना सुनकर एवं हृदय में धारण कर-मनन कर जिस दिशा से आई थी, उसी ओर लौट गई, अर्थात् वह आगत जनसमूह अपने-अपने घरों को वापस लौट गया। विवेचन-कुमारश्रमण केशी पार्श्वनाथ के अनुयायी थे और भगवान् पार्श्व ने चार यामों की प्ररूपणा को है / अतः इन्होंने चार यामों (महाव्रतों) का उपदेश दिया। लेकिन भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित पंच महाव्रतों से संख्या-भेद के सिवाय इन चार महावतों के प्राशय में अन्य कोई अन्तर नहीं है। स्थानांगसत्र टीका में 'बहिद्धा' का अर्थ मैथन और 'पादान' का अर्थ परिग्रह बताया है। अथवा स्त्री-परिग्रह एवं अन्य किसी भी प्रकार का परिग्रह बहिद्धादान में गभित है। २२०–तए णं से चित्ते सारही केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ-जावहियए उढाए उ8 इ, उट्ठत्ता केसि कुमारसमणं तिक्खुत्तो प्रायाहिणंपयाहिणं करेइ, बंदइ नमसइ, नमंसित्ता एवं वयासी--- सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं / पत्तियामि णं भंते ! निम्गंथं पावयणं / रोएमि गं भंते ! निग्गंथं पावयणं / भंते! निम्गंथं पावयणं / एवमेयं निग्गंथं पावयणं / तहमेयं भंते ! 0' प्रवितहमेयं भंते ! 0 असंदिद्धमेयं०, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! जंणं तुम्भे वदह त्ति कटु वंदइ नमसइ, नमंसित्ता एवं क्यासी-जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा जाव इन्भा इन्भपुत्ता चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं एवं धणं-धन्न-बल-वाहणं-कोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विउलं धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल संतसारसावएज्जं विच्छडित्ता / दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता मुडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पब्वयंति, णो खलु अहं ता संचाएमि चिच्चा हिरण्णं तं चेव जाव पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! सा पडिबंध करेहि / २२०-तदनन्तर वह चित्त सारथी केशी कुमारश्रमण से धर्म श्रवण कर एवं उसे हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट होता हुआ यावत् (चित्त में आनन्द का अनुभव करता हुआ, प्रीति-अनुराग युक्त होता हुआ, सौम्यभावों वाला होता हुआ और हर्षातिरेक से विकसित) हृदय होता हुअा अपने आसन से उठा। उठकर केशी कुमारश्रमण की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा को, वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है / भगवन् ! इस पर प्रतीति (विश्वास) करता हूँ / भदन्त ! मुझे निर्गन्थ प्रवचन रुचता है अर्थात् तदनुरूप आचरण करने का आकांक्षी हूँ / हे भगवन् ! मैं निम्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ ! भगवन् ! 1. यहां 0 'निगन्थं पावयणं' का वोधक संकेत है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी श्रमण की देशना / [ 143 यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है / भगवत् ! यह तथ्य-यथार्थ है। भगवन् ! यह अवितथ-सत्य है / अंसिदिग्ध है-शंका-संदेह से रहित है। मुझे इच्छित है अर्थात् मैंने इसकी इच्छा की है / मुझे इच्छित, प्रतीच्छित है अर्थात् मैं इसकी पुन: पुन: इच्छा करता हूँ। भगवन् ! यह वैसा ही है जैसा आप निरूपण-कथन करते हैं / ऐसा कहकर वन्दन-नमस्कार किया और नमस्कार करके पुनः बोला देवानुप्रिय ! जिस तरह से आपके पास अनेक उग्रवंशीय, भोगवंशीय यावत् इभ्य एवं इभ्यपुत्र आदि हिरण्य-चांदी का त्याग कर, स्वर्ण को छोड़कर तथा धन, धान्य, बल, वाहन, कोश, कोठार, पुर-नगर, अन्तःपुर का त्याग कर और विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल (मूगा) आदि सारभूत द्रव्यों का ममत्व छोड़कर, उन सबको दीन-दरिद्रों में वितरित कर, पुत्रादि में बँटवारा कर, मुडित होकर, गृहस्थ जीवन का परित्याग कर अनगारधर्म में प्रवजित हुए हैं, उस प्रकार चाँदी का त्याग कर थावत् प्रवजित होने में तो मैं समर्थ नहीं हूँ। मैं पाप देवानुप्रिय के पास पंच अणुव्रत, सात शिक्षाबत मूलक बारह प्रकार का गृहीधर्म (श्रावकधर्म) अंगीकार करना चाहता हूँ। चित्त सारथी की भावना को जानकर केशी कुमारश्रमण ने कहा-देवानुप्रिय ! जिससे तुम्हें सुख हो, वैसा ही करो, किन्तु प्रतिबंध--विलंब मत करो। विवेचन-चित्त सारथी संसारभीरु था और प्रदेशी राजा के पाप कार्यों से खेदखिन्न रहता था। लेकिन अपनी मानसिक, पारिवारिक और प्रजाजनों की स्थिति को देखकर तत्काल उसे यह संभव प्रतीत नहीं हुआ कि अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार कर लू / इसीलिए उसने निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति भावपूर्ण शब्दों में अपनी प्रान्तरिक श्रद्धा का निवेदन किया / केशी कुमारश्रमण के समक्ष जब चित्त सारथी ने अपनी आन्तरिक भावना को व्यक्त करते हुए अपने विचारों को प्रकट किया तो केशी कुमारश्रमण ने अपने मध्यस्थभाव के अनुसार कहाअहासुहं देवाणुप्पिया ! और फिर यह जानकर कि यह भव्य आत्मा संसारसागर से पार होने की अभिलाषी है, इसे पथप्रदर्शन एवं तदनुकूल निमित्तों का बोध कराने की आवश्यकता है। बिना पथ प्रदर्शन के भटक सकती है तो हल्का का संकेत भी उन्होंने कर दिया कि 'मा पडिबंध करेहि।' सारांश यह हुअा कि इच्छानुसार चित्त सारथी श्रावकधर्म ग्रहण करना चाहे तो कर ले। क्योंकि जीवनशुद्धि के लिये कम-से-कम इतना त्याग तो प्रत्येक मनुष्य को करना ही चाहिए / २२१–तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स अंतिए पंचाणुव्वतियं जाव गिहिधम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति / तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं वंदइ नमसइ, तमंसिता जेणेव चाउग्धंटे प्रासरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। चाउग्धंट आसरहं दुरूहइ, जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। २२१-तब चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण के पास पांच अणुव्रत यावत् (सात शिक्षाव्रतरूप) श्रावक धर्म को अंगीकार किया। तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण की वंदना की, नमस्कार किया / नमस्कार करके जहाँ चार घंटों वाला प्रश्वरथ था, उस ओर चलने को तत्पर-उन्मुख हुप्रा / वहाँ जाकर चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ, फिर जिस ओर से आया था, वापस उसी ओर लौट गया। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र विवेचन-श्रावक धर्म पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतरूप है। ये दोनों मिलकर श्रावक के बारह व्रत कहलाते हैं / इनमें अणुव्रत श्रावक के मूलवत हैं और शिक्षाव्रत उनके पोषण, संवर्धन एवं रक्षण में सहायक वारूप व्रत हैं। अणुव्रतों के बिना जैसे इन शिक्षाव्रतों का महत्त्व नहीं है, उसी प्रकार इनके बिना अणुव्रतों का यथारूप में अभ्यास, पालन नहीं किया जा सकता है। शिक्षाक्तों के अभ्यास से अणुव्रतों में उत्तरोत्तर स्थिरता प्राती जाती है / पाँच अणुव्रत इस प्रकार हैं--अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत,अचौर्याणव्रत, स्वदार-संतोष व्रत, परिग्रहपरिमाणवत / 1. प्राणातिपात (शरीर, इन्द्रिय, आदि द्रव्यप्राणों और चैत्यन्यरूप भावप्राणों का घात करना) से विरत-निवृत्त होना / इस व्रत में निरपराधी त्रसजीवों की संकल्पपूर्वक विराधना का त्याग करके निष्प्रयोजन स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों का भी प्राणव्यपरोपण (हनन) नहीं किया जाता है। 2. मृषावाद (असत्य) से निवृत्त होना / 3. अदत्तादान (चोरी) से निवृत्त होना / 3. स्वदारसंतोषअपनी परिणीता पत्नी से अतिरिक्त अन्य स्त्रियों के साथ मैथुनसेवन न करना। 5. परिग्रह का परिमाण करना। सात शिक्षाबतों का दो प्रकारों में विभाजन है-गुणव्रत और शिक्षाव्रत / गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार हैं / गुणव्रत अणुव्रतों के गुणात्मक विकास में सहायक एवं साधक के चारित्रगुणों की वृद्धि करने वाले हैं और शिक्षाव्रत अणुव्रतों के अभ्यास एवं साधना में स्थिरता लाने में उपयोगी हैं / २२२-तए णं से चित्ते सारही समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे, उवलद्ध पुण्ण-पावे; पासव-संवर-निज्जर-किरियाहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसले असहिज्जे देवासुर-णाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खसकिन्नर-किंपुरिस--गरुल-गंधव-महोरगाईहि देवगह निम्गंथाम्रो पावयणायो अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिक्कंखिए, णिवितिगिच्छे, लट्ठ गहियट्ठ पुच्छिय? अहिगय? विणिच्छियट्ठ, अद्धिमिजपेम्माणुरागरते-'प्रयमाउसो! निग्गंथे पावयणे 8 अयं परमट्ठ सेसे अण?', ऊसियलिहे अवंगुयदुवारे चियत्तंतेउरघरपवेसे चाउद्दसटुमुद्दिष्टपुष्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे, समणिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारेणं-वत्थ-पडिग्गहकंबल-पायपुछणेणं प्रोसह-भेसज्जेणं पडिलाभेमाणे, अहापरिग्गहेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे, जाई तत्थ रायकज्जाणि य जाव' रायववहाराणि य ताइं जियसत्तुणा रण्णा सद्धि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहरइ। 222 --तब वह चित्त सारथी श्रमणोपासक हो गया। उसने जीव-अजीव पदार्थों का स्वरूप समझ लिया था, पुण्य-पाप के भेद को जान लिया था, वह अाश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण (क्रिया का प्राधार, जिसके आधार से क्रिया की जाये), बंध, मोक्ष के स्वरूप को जानने में कुशल हो गया था, दूसरे की सहायता का अनिच्छुक (आत्मनिर्भर) था अर्थात् कुतीथिकों के कुतर्कों के खंडन में पर की सहायता की अपेक्षा वाला नहीं रहा / देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग प्रादि देवताओं द्वारा निर्गन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय था, अर्थात् विचलित किये जा सकने योग्य नहीं था। निग्रन्थ-प्रवचन में निःशंक-शंकारहित था, आत्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा रहित था / अथवा अन्य मतों की आकांक्षा उसके चित्त में नहीं थी, विचिकित्सा--फल 1. देखें सूत्र संख्या 211 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त को केशी कुमारश्रमण से सेयविया पधारने की प्रार्थना] [145 के प्रति संशय रहित था, लब्धार्थ—(गुरुजनों से) यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त कर लिया था, ग्रहीतार्थ—उसे ग्रहण किये हुए था, विनिश्चितार्थ-निश्चित रूप से उस अर्थ को आत्मसात् कर लिया था एवं अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्मानुराग से भरा था अर्थात् उसकी रग-रग में निर्गन्थ प्रवचन के प्रति प्रेम और अनुराग व्याप्त था। वह दूसरों को संबोधित करते हुए कहता था कि-- आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही अर्थ - प्रयोजन भूत है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय अन्य-अन्यतीथिक के कथन कुगतिप्रापक होने से अनर्थ-अप्रयोजनभूत हैं / असद् विचारों से रहित हो जाने के कारण उसका हृदय स्फटिक की तरह निर्मल हो गया था। निर्ग्रन्थ श्रमणों का भिक्षा के निमित्त सरलता से प्रवेश हो सकने के विचार से उसके घर का द्वार अर्गलारहित था अर्थात् सुपात्र दान के लिये उसका द्वार सदा खुला रहता था। सभी के घरों, यहाँ तक कि अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश शंकारहित होने से प्रीतिजनक था / चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या एवं पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषधव्रत का समीचीन रूप से पालन करते हुए, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक, एषणीय-स्वीकार करने योग्य-- निदोष अशन, पान, खाद्य, स्वाद्याहार, पीठ, फलक, शय्या, सस्तारक, आसन, वस्त्र, पात्र, कब पादपोंछन (रजोहरण), औषध, भैषज से प्रतिलाभित करते हए एवं यथाविधि ग्रहण किये हए तप कर्म से आत्मा को भावित-शुद्ध करते हुए जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं उस श्रावस्ती नगरी के राज्यकार्यों यावत् राज्यव्यवहारों का बारम्बार अवलोकन-अनुभव करते हुए विचरने लगा। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में ऐसे मनुष्य का चरित्र-चित्रण किया है, जो जीवनशुद्धि के निमित्त धार्मिक आचार-विचारों के अनुरूप प्रवृत्ति करता है। २२३–तए णं से जियसत्तुराया अण्णया कयाइ महत्थं जाव पाहुडं सज्जेइ, चित्तं सारहिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छाहि णं तुम चित्ता ! सेयवियं नरि, पएसिस्स रन्नो इमं महत्थं जाव पाहुडं उवणेहि / मम पाउग्गं च णं जहाभणियं प्रवितहमसंदिद्धवयणं विनवेहि त्ति कट्ट विसज्जिए। २२३-तत्पश्चात् अर्थात् चित्त सारथी को श्रावस्ती नगरी में रहते-रहते पर्याप्त समय हो जाने के पश्चात् जितशत्रु राजा ने किसी समय महाप्रयोजनसाधक यावत् प्राभूत (उपहार) तैयार किया और चित्त सारथी को बुलाया। बुलाकर उससे इस प्रकार कहा-हे चित्त ! तुम वापस सेय बिया नगरी जाओ और महाप्रयोजनसाधक यावत् इस उपहार को प्रदेशी राजा के सन्मुख भेंट करना तथा मेरी ओर से विनयपूर्वक उनसे निवेदन करना कि आपने मेरे लिये जो संदेश भिजवाया है, उसे उसी प्रकार अवितथ-सत्य, प्रमाणिक एवं असंदिग्ध रूप से स्वीकार करता हूँ। ऐसा कहकर चित्त सारथी को सम्मानपूर्वक विदा किया। चित्त को केशी कुमारश्रमण से सेयविया पधारने की प्रार्थना २२४-तए णं से चित्ते सारही जियसत्तुणा रन्ना विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाव (महग्घ, महरिहं, रायरिहं पाहडं)गिण्हइ जाव जियसत्तुस्स रण्णो अंतियानो पडिनिक्खमइ / सावत्थी नयरीए मजझमाझेणं निग्गच्छई। जेणेव रायमगमोगाढे अावासे तेणेव उवागच्छइ, तं महत्थं जाव ठवइ, हाए जाव (कयबलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धपवेलाई मंगसाई वत्थाइंपवर परिहिए अप्पमहग्घा. भरणालंकिय) सरीरे सकोरंट.' महया०२ पायचारविहारेण महया पुरिसवरंगुरापरिक्खित्ते रायमग. 1. यहां ' ' से 'मल्लदामेणं छत्तण धरेज्जमाणेणं' पदों का संग्रह किया है। 2. यहां 0 से 'भडचडगररहपहकरविंद परिक्खित' पद का संग्रह किया है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [ राजप्रश्नीयसूत्र मोगाढायो प्रावासाो निग्गच्छइ, सावत्थीनगरीए मज्झमझणं निग्गच्छति, जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छति, केसी कुमारसमणस्स अन्तिए धम्म सोच्चा जाव (निसम्म हट्ठ-तुटु-चित्तमाणदिए-पोइमणे-परमसोमणस्सिए हरिसवसविसध्यमाणहियए उठाए उ8 इ, उ?त्ता केसि कुमारसमणं तिक्खुत्तो प्रायाहिणंपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदई णमंसइ, वंदित्ता गमंसित्ता) एवं वयासी- एवं खलु अहं भते ! जियसत्तुणा रन्ना पएसिस्स रन्नो इमं महत्थं जाव उवणेहि त्ति कटु विसज्जिए, तं गच्छामि णं अहं भते! सेयवियं नरि, पासादीया णं भते ! सेयर्यावया णगरी, एवं दरिसणिज्जा गं भते ! सेयविया पगरी, अभिरूवा णं मते ! सेयविया नगरी, पडिरूवा णं भते ! सेयविया नगरी, समोसरह णं भते ! तुन्भे सेयवियं नरि / २२४–तत्पश्चात् जितात्र राजा द्वारा विदा किये गये चित्त सारथी ने उस महाप्रयोजनसाधक यावत् उपहार को ग्रहण किया यावत् जितशत्रु राजा के पास से रवाना होकर श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच से निकला / निकल कर राजमार्ग पर स्थित अपने आवास में आया और उस महार्थक यावत् उपहार को एक प्रोर रखा / फिर स्नान किया, यावत् शरीर को विभूषित किया, कोन्ट पुष्प की मालानों से युक्त छत्र को धारण कर विशाल जनसमुदाय के साथ पैदल ही राजमार्ग स्थित श्रावासगृह से निकला और श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच से चलता हुआ वहाँ पाया जहाँ कोष्ठक चैत्य था, उसमें भी जहाँ केसी कुमारश्रमण विराजमान थे / वहाँ पाकर केशी कुमार श्रमण से धर्म सुनकर यावत् (उसका मनन कर हषित, परितुष्ट, चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुग्रा, सौम्य मानसिक भावों से युक्त एवं हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर अपने आसन से उठा, और उठकर केशी कुमारश्रमण की तीनवार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वंदनवंदन-नमस्कार करके) इस प्रकार निवेदन किया भगवन् ! 'प्रदेशी राजा के लिए यह महार्थक यावत् उपहार ले जायो' कहकर जितशत्रु राजा ने आज मुझे विदा किया है / अतएव हे भदन्त ! मैं सेयविया नगरी लौट रहा हूँ। हे भदन्त ! सेयविया नगरी प्रासादीया--मन को आनन्द देने वाली है। भगवन् ! सेयविया नगरी दर्शनीय-देखने योग्य है / भदन्त ! सेयविया नगरी अभिरूपा-मनोहर है / भगवन् ! यविया नगरी प्रतिरूपाअतीव मनोहर है / अतएव हे भदन्त ! आप सेयविया नगरी में पधारने की कृपा करें। २२५–तए णं से केसी कुमारसमणे चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ते समाणे चित्तस्स सारहिस्स एयमणो पाढाइ, णो परिजागाइ, तुसिणीए संचिढइ / तए णं से चित्ते सारही केसी कुमारसमणं दोच्चं पि तच्च पि एवं क्यासी-~-एव खलु अहं भते ! जियसत्तुणा रन्ना पएसिस्स रण्णो इमं महत्थं जाय विसज्जिए, तं चेव जाव समासरह ण भंते ! तुम्भे सेयवियं नरि। 225- इस प्रकार से चित्त सारथी द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भी केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी के कथन का आदर नहीं किया अर्थात् उसे स्वीकार नहीं किया / वे मौन रहे। तब चित्त सारथी ने पुनः दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा-हे भदन्त ! प्रदेशी राजा के लिए महाप्रयोजन साधक उपहार देकर जितशत्रु राजा ने मुझे विदा कर दिया है। अतएव मैं लौट रहा हूँ। सेविया नगरी प्रासादिक है, आप वहाँ पधारने की अवश्य कृपा करें / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी कुमारश्रमण का उत्तर ] [147 केशी कुमारश्रमरण का उत्तर २२६-तए णं केसी कुमारसमणे चित्तण सारहिणा दोच्च पि तच्चं पि एवं वृत्त समाणे चित्तं साहि एवं वयासी-चित्ता! से जहानामए वणसंडे सिया—किण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे, से पूर्ण चित्ता ! से वणसंडे बहूणं दुपय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खी-सिरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? हंता अभिगमणिज्जे। तंप्ति च णं चित्ता ! वणसंडसि बहवे भिलुगा नाम पावसउणा परिवसंति, जे णं तेसि बहूणं दयय-चउपय-मिय-सु-पक्खी-सिरीप्तिवाण ठियाणं चेव मंससोणियं प्राहारेति / से णूणं चित्ता! से वणसंडे तेसि बहूर्ण दुपय जाब सिरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? णो तिण? सम?। कम्हा णं? भते ! सोक्सग्गे। एवामेव चित्ता ! तुभ पि सेवियाए णयरीए पएसी नाम राया परिवसइ अम्मिए जाव (अधम्नि-अधम्मक्खाई प्रधम्माणुए-अधम्मपलोई-अधम्मपजणणे-अधम्मसीलसमुयायारे-अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे 'हण'-छिद'-भिदं'-पवत्तए, लोहिय-पाणी, पावे, चंडे, रुद्दे, खुद्दे, साहस्सीए, उक्कंचणवंचण-माया-नियडि-कड कवड-सायिसंपयोग-बहुले, निस्सीले, निव्वए, निग्गुणे, निम्मे रे, निष्पचक्खाणपोसहोववासे, बहूणं दुप्पय-च उप्पयमिय-पसु-पकावी-सिरिसवाण घायाए बहाए उच्छायणयाए अधम्मके ऊ, समुदिए गुरूणं णो प्रभुट्ठति, णो विणयं पउंजइ, सयस्स वि य णं जणवयस्स) णो सम्म करभरवित्ति पवत्तइ, त कहं णं अहं चित्ता ! सेयर्यावयाए नगरीए समोसरिस्सामि ? २२६-चित्त सारथी द्वारा दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार से विनति किये जाने पर केशो कुमार श्रमण ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! जैसे कोई एक कृष्ण वर्ण एवं कृष्ण प्रभा वाला अयान हरा-भरा यावत् अतीव मनमोहक सघन छाया वाला वनखंड हो तो हे चित्त ! वह वनखंड अनेक द्विपद (मनुष्य आदि), चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों आदि के गमन योग्य-- रहने लायक है, अथवा नहीं है ? चित्त ने उत्तर दिया- हाँ, भदन्त ! वह उनके गमन योग्य–वास करने योग्य होता है / इसके पश्चात् पुनः केशी कुमारश्रमण ने चित सारथी से पूछा- और यदि उसी वनखंड में, हे चित्त ! उन बहुत से द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सर्प आदि प्राणियों के रक्त-मांस को खाने वाले भीलुगा नामक पापशकुन (पशुओं का शिकार करने वाले पापिष्ठ भोल) रहते हों तो क्या वह वनखंड उन अनेक द्विपदों यावत् सरीसृपों के रहने योग्य हो सकता है ? चित्त ने उत्तर दिया-यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ऐसी स्थिति में वह वास करने योग्य नहीं हो सकता है। पुनः केशी कुमारश्रमण ने पूछा-क्यों ? अर्थात् वह उनके लिये अभिगमनीय-प्रवेश करने योग्य, रहने योग्य क्यों नहीं हो सकता? Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र चित्त सारथी क्योंकि भदन्त ! वह वनखंड उपसर्ग (त्रास, भय, दुःख) सहित होने से रहने योग्य नहीं है। यह सुनकर केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी को समझाने के लिये कहा- इसी प्रकार हे चित्त ! तुम्हारी सेयविया नगरी कितनी ही अच्छी हो, परन्तु वहाँ भी प्रदेशी नामक राजा रहता है। वह अधार्मिक यावत् (अधर्म को प्रिय मानने वाला, अधर्म का कथन और प्रचार करने वाला, अधर्म का अनुसरण करने वाला, सर्वत्र अधर्म-प्रवृत्तियों को देखने वाला, विशेषरूप में अधार्मिक आचारविचारों का प्रचार करने वाला अथवा अधर्ममय प्रवृत्तियों का प्रचलन--उत्पन्न करने वाला, प्रजा को अधर्माचरण की ओर प्रेरित करने वाला, अधर्ममयस्वभाव और प्राचार वाला, अधर्म से ही आजीविका चलाने वाला है। अपने आश्रितों को सदैव जीवों को मारने, छेदने, भेदने की प्राज्ञा देने वाला है। उसके हाथ सदा खन से भरे रहते हैं। वह साक्षात पाप का अवतार है। स्वभाव से प्रचंड क्रोधी, भयानक, क्षुद्र-अधम और बिना विचारे प्रवृत्ति करने वाला है। धूर्त-बदमाशों को प्रोत्साहन देने वाला, उकसाने वाला, लांच रिश्वत लेने वाला, वंचक-धोखा देने वाला, मायावी, कपटी, वकवत्तिवत् प्रवृत्ति करने वाला, कुट कपट करने में चतुर और किसी-न-किसी उपाय से दूसरों को दुःख देने वाला है। शील और व्रतों से रहित है, क्षमा आदि गुणों का अभाव होने से निर्गुण है, निर्मर्याद है, उसके मन में प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि करने का विचार ही नहीं आता है / अनेक द्विपद, चतुष्पदमृग, पशु, पक्षी, सर्प आदि सरीसृपों की हत्या करने, उन्हें मारने, प्राणरहित करने, उनका विनाश करने से साक्षात् अधर्मरूप केतु-जैसा है। गुरुजनों का कभी विनय नहीं करता है, उनको प्रादर देने के लिये प्रासन से भी खड़ा नहीं होता और) प्रजाजनों से राज-कर लेकर भी उनका अच्छी तरह से पालन-पोषण और रक्षण नहीं करता है / अतएव हे चित्त ! मैं उस सेयाविया नगरी में कैसे या सकता हूँ? विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में साधु की विहारचर्या का संकेत किया है कि साधु को उन ग्राम, नगर या जनपदों में नहीं जाना चाहिये, जहाँ राज्य-व्यवस्था उचित नहीं हो, राजभय से प्रजा का जीवन संकट में हो, शासक अन्यायी हो अथवा दुभिक्ष महामारी का प्रकोप हो, युद्ध की आशंका हो, युद्ध हो रहा हो। क्योंकि ऐसे स्थानों में यथाकल्प साध्वाचार का पालन किया जाना संभव नहीं है। २२७-तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं एवं क्यासी कि णं भंते ! तुन्भं पएसिणा रन्ना कायव्वं ? अस्थि णं भंते ! सेयबियाए नगरीए अन्ने बहवे डेसर-तलवर जाव सत्थवाहपभिइनो जे ण देवाणाप्पय वादस्सीत नम भिहनो जे णं देवाणपियं बंदिस्संति नमंसिस्संति जाव पज्जवासिस्संति विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभिस्संति, पाडिहारिएण पोढ-फलग-सेज्जा-संथारेणं उबनिमंतिस्संति। तए णं से केसी कुमारसमणे चित्तं साहिं एवं वयासी-अवि या इं चित्ता ! जाणिस्सामो। २२७–इस उत्तर को सुनकर चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया--हे भदन्त ! आपको प्रदेशी राजा से क्या करना है क्या लेना-देना है ? भगवन् ! सेयविया नगरी में दूसरे राजा, ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि बहुत से जन हैं, जो आप देवानुप्रिय को वंदन Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त की उद्यानपालकों को आज्ञा] {149 करेंगे, नमस्कार करेंगे यावत् आपकी पर्युपासना करेंगे। विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार से प्रतिलाभित करेंगे, तथा प्रातिहारिक (वापस लौटाने योग्य) पीठ, फलक, शैय्या, संस्तारक ग्रहण करने के लिये उपनिमंत्रित करेंगे अर्थात् आपसे प्रार्थना करेंगे। तब केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से कहा हे चित्त ! ध्यान में रखेंगे अर्थात् तुम्हारा आमंत्रण ध्यान में रहेगा। चित्त की उद्यानपालकों को प्राज्ञा २२८-तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं वंदइ नमसइ, केसिस्स कुमारसमणस्स अंतियानो कोट्टयानो चेइयानो पडिणिक्खमइ, जेणेव सावत्थी णगरी जेणेव रायमग्गमोगाढे प्रावासे तेणेव उवागच्छइ कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं बयासी-- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट प्रासरहं जुत्तामेव उवटुवेह, जहा सेयवियाए नगरोए निग्गच्छइ तहेव जाव' वसमाणे कुणालाजणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव केइयअद्ध, जेणेव सेयविया नगरी, जेणेव मियबणे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ / उज्जाणपालए सद्दावेइ एवं बयासी ___ जया णं देवाणुपिया ! पासावच्चिज्जे केसो नाम कुमारसमणे पुवाणुपुष्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागच्छिज्जा तया णं तुम्भे देवाणप्पिया! केसि कुमारसमणं वंदिज्जाह, नमंसिज्जाह, बंदित्ता ममंसित्ता प्रहापडिरूव उग्गहं अणुजाणेज्जाह, पडिहारिएणं पीढ-फलग जाब उवनिमंतिज्जाह, एयमाणत्तियं खिय्यामेव पच्चप्पिणेज्जाह / तए णं ते उज्जाणपालगा चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-तुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी-तहत्ति, प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति / २२८-तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण से आश्वासन मिलने के पश्चात्) चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण को वंदना की, नमस्कार किया और केशी कुमारश्रमण के पास से एवं कोष्ठक चैत्य से बाहर निकला / निकलकर जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, जहाँ राजमार्ग पर स्थित अपना आवास था, वहाँ आया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर लामो। इसके बाद जिस प्रकार पहले सेयविया नगरी से प्रस्थान किया था उसी प्रकार श्रावस्ती नगरी से निकल कर यावत् बीच-बीच में विश्राम करता हुआ पड़ाव डालता हुआ, कुणाला जनपद के मध्य भाग में से चलता हुआ जहाँ केकय-अर्ध देश था, उसमें जहाँ सेयविया नगरी थी और जहाँ उस नगरी का मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ प्रा पहुँचा। वहाँ आकर उद्यानपालकों (चौकीदारों एवं मालियों) को बुलाकर इस प्रकार कहा--- हे देवानुप्रियो ! जब पावपित्य (भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा में विचरने वाले) केशी नामक कुमारश्रमण श्रमणचर्यानुसार अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यहाँ पधारें तब देवानुप्रियो ! तुम केशी कुमारश्रमण को वंदना करना, नमस्कार करना / वंदना-नमस्कार करके उन्हें यथाप्रतिरूप-साधुकल्पानुसार वसतिका की आज्ञा देना तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक आदि 1. देखें सूत्र संख्या 211 For Private & Personal use only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र के लिये उपनिमंत्रित करना-प्रार्थना करना और इसके बाद मेरी इस अाज्ञा को शीघ्र ही मुझे वापस लौटाना अर्थात् जब केशी कुमारश्रमण का यहाँ पदार्पण हो जाये तो उनके आगमन की मुझे सूचना देना। चित्त सारथी को इस आज्ञा को सुनकर वे उद्यानपालक हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसितहृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ यावत् इस प्रकार बोले-- हे स्वामिन् ! 'पापकी आज्ञा प्रमाण' और यह कहकर उनकी आज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार किया। २२६-तए णं चित्ते सारही जेणेव सेयविया णगरी तेणेव उवागच्छइ, सेयवियं नर मज्झमज्झेणं अणुपविसइ, जेणेव पएसिस्स रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ. तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहामो पच्चोरूहइ, तं महत्थं जाव मेण्हइ, जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छई, परसि रायं करयल जाब वद्धावेत्ता तं महत्थं जाव (महाघ, महरिहं, रायरिहं पाहुडं) उवणे। तए णं से पएसो राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पडिच्छइ चित्तं सारहिं सक्कारेइ सम्माण पडिविसज्जेड। तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रण्णा विसज्जिए समाणे हद जाव हियए पएसिस्स रन्नो अंतियाश्रो पडिनिवखमइ, जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंट प्रासरहं दुरूह इ, सेवियं नरि मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाणो पच्चोरुहइ हाए जाव उप्पि पासायवरगए फुट्टमाणेहि मुइंगमस्थरहिं बत्तीस इबद्ध एहि नाडएहि वरतरुणीसंप उत्तेहि उवणच्चिज्जमाणे उवगाइज्जमाणे उवलालिज्जमाणे इ8 सहकरिस जाव विहरइ। २२६-तत्पश्चात् चित्त सारथी सेयविया नगरी में आ पहुँचा / सेयविया नगरी के मध्य भाग में प्रविष्ट हुअा / प्रविष्ट होकर जहाँ प्रदेशी राजा का भवन था, जहाँ भवन की बाह्य उपस्थानशाला पाया / पाकर घोड़ो का रोका, रथ का खड़ा किया, रथ से नीचे उतरा और उस महाथक यावत भेंट को लेकर जहाँ प्रदेशी राजा था, वहाँ पहुँचा। पहुँच कर दोनों हाथ जोड यावत जयविजय शब्दों से वधाकर प्रदेशी राजा के सन्मुख उस महार्थक यावत् (महर्ष, महान पुरुषों के योग्य, राजाओं के अनुरूप भेंट) को उपस्थित किया। इसके बाद प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से वह महार्थक यावत् भेंट स्वीकार को और सत्कार-संमान करके चित्त सारथी को विदा किया। प्रदेशी राजा से विदा लेकर चित्त सारथी हृष्ट यावत् विकसितहृदय हो प्रदेशी राजा के पास से निकला और जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहाँ आया। उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ तथा सेयविया नगरी के बीचोंबीच से गुजर कर अपने घर आया / घर आकर घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया और रथ से नीचे उतरा। इसके बाद स्नान करके यावत् श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर जोर-जोर से बजाये जा रहे मृदंगों की ध्वनिपूर्वक उत्तम तरुणियों द्वारा किये जा रहे बत्तीस प्रकार के नाटकों आदि के नृत्य, गान और क्रीड़ा (लीला) को सुनता, देखता और हर्षित होता हुआ मनोज्ञ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी कुमारश्रमण का सेयविया में पदार्पण ] [151 शब्द, स्पर्श यावत् (रस, रूप और गंध बहुल मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता हुआ) विचरने लगा। केशी कुमारश्रमरण का सेयविया में पदार्पण २३०-तए णं केसी कुमारसमणे अण्णया कयाइ पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणइ सावत्थीओ नगरीयो कोटगानो चेइयानो पडिनिक्खमइ पंचहि अणगार सहिं जाव विहरमाणे जेणेव के इय प्रद्ध जणवए, जेणेव सेविया नगरी, जेणेव मियवणे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे विहरति / २३०–तत्पश्चात किसी समय प्रातिहारिक (वापिस लौटाने योग्य) पोठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि उन-उनके स्वामियों को सौंपकर केशी कुमारश्रमण श्रावस्ती नगरो और कोष्ठक चैत्य से बाहर निकले / निकलकर पाँच सौ अन्तेवासो अनगारों के साथ यावत् विहार करते हुए जहाँ केकय. अर्ध जनपद था. उसमें जहां सेयविया नगरी थी और उस नगरो का मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ आये। यथाप्रतिरूप अवग्रह (वसतिका की आज्ञा-अनुमति) लेकर संयम एवं तप से प्रा-मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन-पीठ प्रादि को लौटाने के उपर्युक्त उल्लेख रो प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में साधु पीठ, फलक, संस्तारक आदि स्वयं गृहस्थ के यहाँ से गवेषणापूर्वक मांग कर लाते थे और उपयोग कर लेने के बाद स्वयं ही उनके स्वामियों को वापस लौटाते थे। २३१-तए णं सेवियाए नगरीए सिंघाडग महया जणसद्दे वा०' परिसा णिग्गच्छइ / तए णं ते उज्जाणपालगा इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा हट्टतुट्ठ जाव हियया जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छन्ति, केसि कुमारसमणं वंदंति नमसंति, प्रहापडिरूव उग्गहं अणुजाणंति, पाजिरिएणं जाव संथारएणं उनिमंतति, पाम गोयं पृच्छति, प्रोधारेंति, एगंतं प्रवक्कमंति, अन्न एवं क्यासी-जस्स णं देवाणुप्पिया ! चित्ते सारही दंसणं कंखइ, दसणं पत्थेइ, दंसणं पीहेइ, देसणं अभिलसइ, जस्स णं णामगोयस्स वि सवणयाए हद्वतु? जाव हियए भवति, से णं एस केलो कुनारसमणे पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए, इह संपत्ते, इह समोरडे इहेव सेयवियाए णगरीए बहिया मियवणे उज्जाणे प्रहापडिरूव जाब विहरइ। तं गच्छामो गं देवाणुपिया ! चित्तस्स सारहिस्स एयम पियं निवेएमो, पियं से भवउ / अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठ पडिसुर्णेति / जेणेव सेयविया णगरी जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे, जेणेव चित्तसारही तेणेव उवागच्छंति, चित्तं साहि करयल जाव बद्धाति एवं वयासी-जस्स णं देवाणुप्पिया! दंसणं कंखंति जाव अभिलसंति, जस्स णं णामगोयस्स वि सवणयाए हट्ट जाव भवह, से णं अयं केसी कुमारसमणे पुवाणुपुचि चरमाणे समोसढे जाव विहरइ / 231. तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण का आगमन होने के पश्चात्) सेयविया नगरी के शृगाटकों आदि स्थानों पर लोगों में बातचीत होने लगी यावत् परिष वंदना करने निकली / वे 1. देखें सूत्र संख्या 214 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [ राजप्रश्नीयसून उद्यानपालक भी इस संवाद को सुनकर और समझ कर हर्षित, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसित. हृदय होते हुए जहाँ केशी कुमारश्रमण थे, वहाँ आये / प्राकर केशी कुमारश्रमण को वंदना की, नमस्कार किया एवं यथाप्रतिरूप अवग्रह (स्थान संबंधी अनुमति) प्रदान की। प्रातिहारिक यावत् संस्तारक ग्रादि ग्रहण करने के लिये उपनिमंत्रित किया अर्थात् उनसे लेने की प्रार्थना की। __इसके बाद उन्होंने नाम एवं गोत्र पूछकर (चित्त सारथी की आज्ञा का) स्मरण किया फिर एकान्त में वे परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार बातचीत करने लगे-'देवानुप्रियो ! चित्त सारथी जिनके दर्शन की आकांक्षा करते हैं, जिनके दर्शन की प्रार्थना करते हैं, जिनके दर्शन की स्पृहाचाहना करते हैं, जिनके दर्शन की अभिलाषा करते हैं, जिनका नाम, गोत्र सुनते ही हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हैं, ये वही केशी कुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वी से गमन करते हुए, एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए यहाँ आये हैं, यहाँ प्राप्त हुए है, यहाँ पधारे हैं तथा इसी सेयविया नगरी के बाहर मृगवन उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके यावत् विराजते हैं / अतएव हे देवानुप्रियो ! हम चलें और चित्त सारथी के प्रिय इस अर्थ को (केशी कुमारश्रमण के आगमन होने के समाचार को) उनसे निवेदन करें। हमारा यह निवेदन उन्हें बहुत ही प्रिय लगेगा।' एक दूसरे ने इस विचार को स्वीकार किया। इसके बाद वे वहाँ पाये जहाँ सेयविया नगरी, चित्त सारथी का घर तथा घर में जहाँ चित्त सारथी था / वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़ यावत् चित्त सारथी को बधाया और इस प्रकार निवेदन किया-देवानुप्रिय ! आपको जिनके दर्शन की इच्छा है यावत् आप अभिलाषा करते हैं और जिनके नाम एवं गोत्र को सुनकर आप हर्षित होते हैं, ऐसे केशी कुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वी से विचरते हुए यहाँ (मृगवन उद्यान में) पधार गये हैं यावत् विचर रहे हैं / चित्त का प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने का निवेदन २३२-तए णं से चित्ते सारही तेसि उज्जाणपालगाणं अंतिए एयम8 सोच्चा णिसम्म हडतुट्ठ जाव पासणाप्रो अभट्ठति, पायपीढायो पच्चोरहइ, पाउयानो प्रोमुयइ, एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, अंजलिमउलियम्गहत्थे केसिकुमारसमणाभिमुहे सत्तट्ट पयाई अणुगच्छइ करयलपरिम्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासो नमोऽत्थु णं परहंताणं जाव' संपत्ताणं नमोऽत्थ णं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स / वदामि णं भगवतं तत्यगयं इहगए, पासउ मे ति कटु वंदइ नमसइ / ते उज्जाणपालए विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ विउलं जीविद्यारिहं पीइदाणं दलयइ, पडिविसज्जेइ / कोड बियपुरिसे सहावेइ एवं बयासी-खियामेव भो! देवाणुप्पिया चाउग्घंटे प्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव उवटुवित्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / तए णं से चित्ते सारही कोडुबियपुरिसाणं अंतिए एयभट्ट सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव 1 देखें सूत्र संख्या 199 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी कुमारश्रमण का सेयविया में पदार्पण 1 [ 153 हियए व्हाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे जेणेव चाउग्घंटे जाव दुरूहिता सकोरंट० महया भडचडगरेणं तं चेव जाव पज्जुवासइ धम्मकहाए जाव / २३२---तब वह चित्त सारथी उन उद्यानपालकों से इस संवाद को सुनकर एवं हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट हुआ। चित्त में आनंदित हुआ, मन में प्रीति हुई। परम सौमनस्य को प्राप्त हुप्रा / हर्षातिरेक से विकसितहृदय होता हुआ अपने पासन से उठा, पादपीठ से नीचे उतरा, पादुकाएं उतारी, एकशाटिक उत्तरासंग किया और मुकुलित हस्तानपूर्वक अंजलि करके जिस प्रोर केशी कुमारश्रमण विराजमान थे, उस ओर सात-आठ डग चला और फिर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा __ अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो यावत् सिद्धगति को प्राप्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो / मेरे धर्माचार्य, मेरे धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो। उनकी मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ विराजमान वे भगवान् यहाँ विद्यमान मुझे देखें, इस प्रकार कहकर वंदन-नमस्कार किया। इसके पश्चात् उन उद्यानपालकों का विपुल वस्त्र, गंध, माला, अलंकारों से सत्कार-सन्मान किया तथा जीविकायोग्य विपुल प्रीतिदान (पारितोषिक) देकर उन्हें विदा किया। तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनको आज्ञा दी-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही तुम चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर उपस्थित करो यावत् हमें इसकी सूचना दो। तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् शीघ्र ही छत्र एवं ध्वजा-पताकाओं से शोभित रथ को उपस्थित कर आज्ञा वापस लौटाते हैं-रथ लाने को सूचना देते हैं। ___ कौटुम्बिक पुरुषों से रथ लाने की बात सुनकर एवं हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् प्राभूषणों से शरीर को अलंकृत किया / जहाँ चार घण्टों वाला रथ था, वहाँ पाया और उस पर आरूढ होकर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर विशाल सुभटों के समुदाय सहित रवाना हुया / वहाँ पहुंच कर पर्युपासना करने लगा। केशी कुमारश्रमण ने धर्मोपदेश दिया। इत्यादि कथन पहले के समान यहाँ समझ लेना चाहिये। २३३–तए णं से चित्ते सारही केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हडतुडे तहेव एवं वयासो—एवं खलु भंते ! अम्ह पएसी राया अधम्मिए जाव' सयस्स वि णं जणवयस्स नो सम्म करभरवित्ति पवत्तेइ, तं जइ णं देवाणुप्पिया! पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणतरं खलु होज्जा पएसिस्स रण्णो तेसि च बहूणं दुपयचउप्पमियपसुपक्खोसिरोसवाणं, तेसि च बहूणं समणमाहणभिक्खुयाणं, तं जइ णं देवाणुप्पिया! पएसिस्स बहुगुणतरं होज्जा सयस्स वि य णं जणवयस्स। २३३---तत्पश्चात् धर्म श्रवण कर और हृदय में धारण कर हर्षित, सन्तुष्ट, चित्त में आनंदित, अनुरागी, परम सौम्यभाव युक्त एवं हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया __हे भदन्त ! हमारा प्रदेशी राजा अधार्मिक है, यावत् राजकर लेकर भी समोचीन रूप से 1. देखें सूत्र संख्या 226 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [राजप्रश्नीयसूत्र अपने जनपद का पालन एवं रक्षण नहीं करता है। अतएव आप देवानुप्रिय ! यदि प्रदेशी राजा को धर्म का आख्यान करेंगे-धर्मोपदेश देंगे तो प्रदेशी राजा के लिये, साथ ही अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों आदि के लिये तथा बहुत से श्रमणों, माहणों एवं भिक्षुत्रों आदि के लिये बहुत-बहुत गुणकारी हितावह, लाभदायक होगा। हे देवानुप्रिय ! यदि वह धर्मोपदेश प्रदेशी के लिये हितकर हो जाता है तो उससे जनपद-देश को भी बहुत लाभ होगा। केशी कुमारश्रमरण का उत्तर २३४–तए णं केसी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं क्यासी• एवं खलु चाहिं ठाणेहि चित्ता ! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभेज्जा सवणयाए, तं जहा (1) प्रारामगयं वा उज्जाणगयं वा समणं वा माहणं वा णो अभिगच्छइ, णो बंदइ, णो गमंसइ, णो सक्कारेइ, जो सम्माणेइ, णो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेइ, नो अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छइ, एएणं ठाणेणं चिता! जीवा केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभंति सवणयाए / (2) उवस्सयगयं समणं वा तं चेव जाव एतेण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवा केलिपन्नत्तं . धम्मं नो लभंति सवणयाए / (3) गोयरग्गगयं समणं वा माहणं वा जाव नो पज्जुवासइ, णो विउलेणं असण-पाण-खाइमसाइमेणं पडिलाभइ० णो अट्ठाइं जाव पुच्छइ, एएणं ठाणेणं चित्ता! केलिपन्नत्तं धम्मं नो लभइ सवणयाए। (4) जत्थ वि य णं समणेण वा माहणेण वा सद्धि अभिसमागच्छइ, तत्य विणं हत्थेण वा वत्थेण वा छत्तेण वा अप्पाणं आवरित्ता चिट्ठइ, नो अट्ठाइं जाव पुच्छइ, एएण वि ठाणेणं चित्ता! जोवे केलिपन्नत्तं धम्म णो लभइ सवणयाए / एहि च णं चित्ता! चहिं ठाणेहि जोवे जो लभइ केबलिपन्नत्तं धम्म सवणयाए। चहि ठाणेहि चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए तं जहा- (1) प्राराममयं वा उज्जाणगयं वा समणं वा माहणं वा वंदइ नमसइ जाव (सक्कारेइ, सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं) पज्जुवासइ अट्ठाई जाव (हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई) पुच्छइ, एएणं वि जाव लभइ सवणयाए एवं (2) उवस्सयगयं (3) गोयरग्गगयं समणं वा जाव पज्जुवासइ विउलेणं जाव (असण-पाण-खाइम-साइमेणं) पडिलाभेइ, अट्ठाई जाव पुच्छइ एएण वि० (4) जत्थ वि य गं समण वा माहणेण वा अभिसमागच्छइ तत्थ वि य णं णो हत्थेण वा जाव (वत्थेण वा, छत्तेण वा अप्पाणं) पावरेत्ताणं चिटइ, एएण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए। तुज्झं च णं चित्ता! पएसो राया प्रारामगयं वा तं चेव सव माणियब पाइल्लएणं गमएणं जाव अप्पाणं पावरेत्ता चिट्ठइ, तं कहं णं चित्ता ! पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खिस्सामो? २३४-चित्त सारथी की भावना को सुनने के अनन्तर केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी को समझाया Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी कुमारश्रमण का उत्तर ] [ 155 हे चित्त ! जीव निश्चय ही इन चार कारणों से केवलि-भाषित धर्म को सुनने का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता है / वे चार कारण इस प्रकार हैं 1. पाराम (बाग) में अथवा उद्यान में स्थित श्रमण या माहन के अभिमुख जो नहीं जाता है, मधुर वचनों से जो उनकी स्तुति नहीं करता है, मस्तक नमाकर उनको नमस्कार नहीं करता है, अभ्युत्थानादि द्वारा (आसन से उठकर) उनका सत्कार नहीं करता है, उनका सम्मान नहीं करता है तथा कल्याण स्वरूप, मंगल स्वरूप, देव स्वरूप, विशिष्ट ज्ञान स्वरूप मानकर जो उनकी पर्युपासना नहीं करता है; जो अर्थ-जीवाजीवादि पदार्थों को, हेतुनों (मुक्ति के उपायों) को जानने की इच्छा से प्रश्नों को, कारणों (संसारबन्ध के कारणों) को, व्याख्याओं (तत्त्वों का पूर्ण ज्ञान करने के लिये उनके स्वरूप) को नहीं पूछता है, तो हे चित्त ! वह जीव केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है। 2. उपाश्रय में स्थित श्रमण आदि का वन्दन, नमन, सत्कार-संमान आदि करने के निमित्त जो उनके सन्मुख नहीं जाता यावत् उनसे व्याकरण (तत्त्व का विवेचन) नहीं पूछता, तो इस कारण भी हे चित्त ! वह जीव केवलि-भाषित धर्म को सुन नहीं पाता है। 3. गोचरी--भिक्षा के लिये गांव में गये हुए श्रमण अथवा माहन का सत्कार आदि करने के निमित्त जो उनके समक्ष नहीं जाता यावत् उनकी पर्युपासना नहीं करता तथा विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार से उन्हें प्रतिलाभित नहीं करता, एवं शास्त्र के अर्थ यावत् व्याख्या को उनसे नहीं पूछना, तो ऐसा जीव भी हे चित्त ! केवली भगवान् द्वारा निरूपित धर्म को सुन नहीं पाता है / 4. कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिल जाने पर भी वहाँ अपने आप को छिपाने के लिये अथवा पहचाना न जाऊँ, इस विचार से हाथ से, वस्त्र से, छत्ते से स्वयं को आवत कर लेता है, ढाँक लेता है एवं उनसे अर्थ आदि नहीं पूछता है, तो इस कारण से भी हे चित्त ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म श्रवण करने का अवसर प्राप्त नहीं कर सकता है / उक्त चार कारणों से हे चित्त ! जीव केवलिभाषित धर्म श्रवण करने का लाभ नहीं ले पाता है, किन्तु हे चित्त ! इन चार कारणों से जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है / वे चार कारण इस प्रकार हैं 1. आराम में अथवा उद्यान में पधारे हुए श्रमण या माहन को जो वन्दन करता है, नमस्कार करता है यावत (सत्कार संमान करता है और कल्याणरूप मंगलरूप देवरूप एवं ज्ञानरूप मानकर) उनकी पर्युपासना करता है, अर्थों को यावत् (हेतुनों, प्रश्नों, कारणों, व्याख्याओं को) पूछता है तो हे चित्त ! वह जीव केवलिप्ररूपित धर्म को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है। 2. इसी प्रकार जो जीव उपाश्रय में रहे हुए श्रमण या माहन को वन्दन-नमस्कार करता है यावत् उनको पर्युपासना करता हुआ अर्थों आदि को पूछता है तो वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुन सकता है। 3. इसी प्रकार जो जीव गोचरी-भिक्षाचर्या के लिये गए हुए श्रमण या माहन को वन्दननमस्कार करता है यावत् उनकी पर्युपासना करता है तथा विपुल (अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] [राजप्रश्नीयसूत्र आहार से) उन्हें प्रतिलाभित करता है, उनसे अर्थों आदि को पूछता है, वह जीव इस निमित्त से भी केवलिभाषित अर्थ को सुनने का अवसर प्राप्त कर सकता है। 4. इसी प्रकार जो जीव जहाँ कहीं श्रमण या माहन का सुयोग मिलने पर हाथों, वस्त्रों, छत्ता आदि से स्वयं को छिपाता नहीं है, हे चित्त ! वह जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनने का लाभ प्राप्त कर सकता है। लेकिन हे चित्त ! तुम्हारा प्रदेशी राजा जब बाग में पधारे हुए श्रमण या माहन के सन्मुख ही नहीं आता है यावत् अपने को आच्छादित कर लेता है, तो फिर हे चित्त ! प्रदेशी राजा को मैं कैसे धर्म का उपदेश दे सकूँगा? (यहाँ पूर्व के चारों कारण समझ लेना चाहिए।') प्रदेशी राजा को लाने हेतु चित्त की युक्ति--- २३५--तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं एव वयासी एवं खलु भंते ! अण्णया कयाई कंबीएहिं चत्तारि प्रासा उवणयं उवणीया, ते मए पएसिस्स रण्णो अन्नया चेव उवणीया, तं एएणं खलु भंते ! कारणेणं अहं पएसि रायं देवाणुप्पियाणं अंतिए हब्बमाणेस्सामो, तं मा णं देवाणुप्पिया ! तुम्भे पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खमाणा गिलाएज्जाह, अगिलाए णं भंते ! तुम्भे पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जाह, छदेणं भंते ! तुम्मे पएसिस्स रणो धम्ममाइक्खेज्जाह। तए णं से केसी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं क्यासी-अवि या इं चित्ता ! जाणिस्सामो। तए णं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं वदइ नमसइ, जेणेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंटे प्रासरहं दुरूहइ, जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। २३५–केशी कुमारश्रमण के कथन को सुनने के अनन्तर चित्त सारथी ने उन से निवेदन किया--हे भदन्त ! किसी समय कंबोज देशवासियों ने चार घोड़े उपहार रूप भेंट किये थे। मैंने उनको प्रदेशी राजा के यहाँ भिजवा दिया था, तो भगवन् ! इन घोड़ों के बहाने मैं शीघ्र ही प्रदेशी राजा को आपके पास लाऊँगा। तब हे देवानुप्रिय ! आप प्रदेशी राजा को धर्मकथा कहते हुए लेशमात्र भी ग्लानि मत करना-खेदखिन्न, उदासीन न होना। हे भदन्त ! आप अग्लानभाव से प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश देना / हे भगवन् ! आप स्वेच्छानुसार प्रदेशी राजा को धर्म का कथन करना। __ तब केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! अवसर-प्रसंग आने पर देखा जायेगा। तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया और फिर जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ खड़ा था, वहाँ आया। आकर उस चार घंटों बाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ। फिर जिस दिशा से आया था उसी ओर लौट गया।। २३६-तए णं से चित्ते सारही कल्लं पाउपभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलिमि प्रहापंडुरे पभाए कयनियमावस्सए सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते सानो गिहाप्रो णिग्गच्छइ, जेणेव पएसिस्स रम्नो गिहे, जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छद, पएसि रायं करयल-जाव त्ति कटु Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी राजा को लाने हेतु चित्त की युक्ति] [157 जएणं विजएणं वद्धावेइ, एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं कंबोएहिं चत्तारि प्रासा उवणयं यणीया. ते यम देवाणपियाणं अण्णया चेव विणइया / तं एहणं सामी! ते प्रासे चिटपासह। तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासो-गच्छाहि णं तुम चित्ता! तेहि चेव चहि प्रासेहि प्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेहि जाव पच्चप्पिणाहि / तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रना एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ-जाव-हियए उवटुवेइ, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणइ। तए णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स अंतिए एयमटु सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ट जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे सानो गिहायो निग्गच्छ / जेणामेव चाउग्घंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंटे पासरहं दुरूहइ, सेयवियाए नगरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छइ / तए णं से चित्ते सारही तं रहं गाइं जोयणाई उभामेइ / तए णं से पएसी राया उण्हेण य तण्डाए य रहवाएणं परिकिलते समाणे चित्तं साहि एवं क्यासी-चित्ता! परिकिलते मे सरीरे, परावतेहि रहं। तए णं से चित्ते सारही रहं परावत्तेइ / जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, पएसि रायं एवं वयासी-एस ण सामी ! मियबणे उज्जाणे, एत्थ णं प्रासाणं समं किलामं सम्म प्रवणेमो। तए णं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वदासी-एवं होउ चित्ता! २३६-तत्पश्चात् कल (आगामी दिन) रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित हो जाने से जब कोमल उत्पल कमल विकसित हो चुके और धूप भी सुनहरी हो गई तब नियम एवं प्रावश्यक कार्यों जाज्वल्यमान तेज सहित सहस्ररश्मि दिनकर के चमकने के बाद चित्त सारथी अपने घर से निकला। जहाँ प्रदेशी राजा का भवन था, उसमें भी जहाँ प्रदेशी राजा था, वहाँ आया। प्राकर दोनों हाथ जोड़ यावत् अंजलि करके जय-विजय शब्दों से प्रदेशी राजा का अभिनन्दन किया और इस प्रकार बोला-कंबोज देशवासियों ने देवानुप्रिय के लिए जो चार घोड़े उपहार-स्वरूप भेजे थे, उन्हें मैंने आप देवानुप्रिय के योग्य प्रशिक्षित कर दिया है। अतएव स्वामिन् ! आज प्राप पधारिए और उन घोड़ों की गति अादि चेष्टाओं का निरीक्षण कीजिये। तब प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! तुम जाओ और उन्हीं चार घोड़ों को जोतकर अश्वरथ को यहाँ लामो यावत् मेरी इस आज्ञा को वापस मुझे लौटायो अर्थात् रथ आने की मुझे सूचना दो। चित्त सारथी प्रदेशी राजा के कथन को सुनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुा / यावत् विकसितहृदय होते हुए उसने अश्वरथ उपस्थित किया और रथ ले आने की सूचना राजा को दी। तत्पश्चात् वह प्रदेशी राजा चित्त सारथी की बात सुनकर और हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट हुना यावत् मूल्यवान् अल्प आभूषणों से शरीर को अलंकृत करके अपने भवन से निकला और जहाँ चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहाँ पाया। पाकर उस चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ होकर सेयविया नगरी के बीचोंबीच से निकला। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] [राजप्रश्नीयसूत्र चित्त सारथी ने उस रथ को अनेक योजनों अर्थात् बहुत दूर तक बड़ी तेज चाल से दौड़ायाचलाया / तब गरमी, प्यास और रथ की चाल से लगती हवा से व्याकुल-परेशान-खिन्न होकर प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा- हे चित्त! मेरा शरीर थक गया है। रथ को वापस लौटा लो। तब चित्त सारथी ने रथ को लौटाया और वहाँ आया जहाँ मृगवन उद्यान था। वहाँ आकर प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा--हे स्वामिन् ! यह मृगवन उद्यान है, यहाँ रथ को रोक कर हम घोडों के श्रम और अपनी थकावट को अच्छी तरह से दर कर लें। ___ इस पर प्रदेशी राजा ने कहा-हे चित्त ! ठीक, ऐसा ही करो। केशी कुमारश्रमरण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन २३७--तए णं से चित्ते सारही जेणेव मियवणे उज्जाणे, जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हेइ, रहं ठवेइ, रहामो पच्चोरहइ, तुरए मोएति, पएसि रायं एवं वयासी-एह णं सामी ! आसाणं समं किलामं सम्मं प्रवणेमो। तए णं से पएसी राया रहाम्रो पच्चोरूहाइ, चित्तण सारहिणा सद्धि प्रासाणं समं किलाम वणेमाणे पासइ जत्थ केसीकमारसमणं महइमहालियाए महच्चरिसाए मझगए महया सद्देणं धम्ममाइक्खमाणं, पासइत्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था जड्डा खलु भो ! जड्डं पज्जुवासंति, मुंडा खलु भो ! मुड पज्जुवासंति, मूढा खलु भो ! मूढं पज्जुवासंति, अपडिया खलु भो ! अपंडियं पज्जुवासंति, निविण्णाणा खलु भो ! निविष्णाणं पज्जुवासंति / से केस णं एस पुरिसे जड्डे मुंडे मूढे अपंडिए निविण्णाणे, सिरोए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे / एस णं पुरिसे किमाहारमाहारेइ ? कि परिणामेइ ? कि खाइ, कि पियइ, कि दलइ, किं पयच्छइ, जंणं एस एमहालियाए मणुस्सपरिसाए मझगए महया सद्देणं बूयाए ? एवं संपेहेइ चित्तं सारहिं एवं वयासी चित्ता ! जड्डा खलु भो! जड्डं पज्जुवासंति जाव बूयाए, साए वि णं उज्जाणभूमीए नो संचाएमि सम्म पकामं पवियरित्तए ! २३७-राजा के 'हाँ' कहने पर चित्त सारथी ने मृगवन उद्यान की ओर रथ को मोड़ा और फिर उस स्थान पर आया जो केशी कुमारश्रमण के निवासस्थान के पास था। वहाँ घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया, रथ से उतरा और फिर घोड़ों को खोलकर छोड़कर प्रदेशी राजा से कहाहे स्वामिन् ! हम यहाँ घोड़ों के श्रम और अपनी थकावट को दूर कर लें। यह सुनकर प्रदेशी राजा रथ से नीचे उतरा, और चित्त सारथी के साथ घोड़ों की थकावट और अपनी व्याकुलता को मिटाते हुए उस ओर देखा जहाँ केशी कुमारश्रमण अतिविशाल परिषद् के बीच बैठकर उच्च ध्वनि से धर्मोपदेश कर रहे थे। यह देखकर उसे मन-ही-मन यह विचार एवं संकल्प उत्पन्न हुमा जड़ ही जड़ को पर्युपासना करते हैं ! मुड ही मुड की उपासना करते हैं ! मूढ़ ही मूढ़ों की उपसना करते हैं ! अपंडित ही अपंडित की उपासना करते हैं ! और अज्ञानी ही अज्ञानी की उपासना-संमान करते हैं ! परन्तु यह कौन पुरुष है जो जड़, मुड, मूढ, अपंडित और अज्ञानी होते Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन ] [ 159 हुए भी श्री-ह्रो से संपन्न है, शारीरिक कांति से सुशोभित है ? यह पुरुष किस प्रकार का आहार करता है ? किस रूप में खाये हुए भोजन को परिणमाता है? यह क्या खाता है, क्या पीता है, लोगों को क्या देता है, विशेष रूप से उन्हें क्या वितरित करता है—बांटता है-समझाता है ? यह पुरुष इतने विशाल मानव-समूह के बीच बैठकर जोर-जोर से बोल रहा है ! उसने ऐसा विचार किया और चित्त सारथी से कहा चित्त ! जड़ पुरुष ही जड़ को पर्युपासना करते हैं आदि। यह कौन पुरुष है जो ऊंची ध्वनि से बोल रहा है ? इसके कारण हम अपनो हो उद्यानभूमि में भी इच्छानुसार घूम-फिर नहीं सकते हैं / २३८-तए णं से चित्ते सारही पएसोरायं एवं बयासी-एस गं सामी ! पासाच्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपण्णे जाव' चउनाणोवगए अधोऽवहिए अण्णजीविए / तए णं से पएसी राया चित्तं सारहि एवं वयासी—आहोहियं णं वदासि चित्ता! अण्णजीवियत्तं गं वदासि चित्ता! हंता, सामी ! पाहोहिणं वयामि, अण्णजीवियतं णं वयामि सामी ! अभिगमणिज्जे णं चित्ता! एस रिसे ? हंता ! सामी ! अभिगमणिज्जे / अभिगच्छामो णं चित्ता! अम्हे एवं पुरिसं? हंता सामी ! अभिगच्छामो। २३८--तव चित्त सारथी ने प्रदेशी राजा से कहा-स्वामिन् ! ये पाश्र्वापत्य (भगवान् पार्श्वनाथ की आचार-परम्परा के अनुगामी) केशी नामक कुमारश्रमण हैं, जो जातिसंपन्न यावत् मतिज्ञान आदि चार ज्ञानों के धारक हैं। ये आधोऽवधिज्ञान (परमावधि से कुछ न्यून अवधिज्ञान) से संपन्न एवं (एषणीय) अन्नजीवी हैं। तब आश्चर्यचकित हो प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! यह पुरुष आधोऽवधिज्ञान-संपन्न है और अन्नजोवो है ? चित्त-हाँ स्वामिन् ! ये आधोऽवधिज्ञानसम्पन्न एवं अन्नजीवी हैं / प्रदेशी-हे चित्त ! तो क्या यह पुरुष अभिगमनीय है अर्थात् इस पुरुष के पास जाकर बैठना चाहिये। चित्त-हाँ स्वामिन् ! अभिगमनीय हैं। प्रदेशी-तो फिर, चित्त ! हम इस पुरुष के पास चलें। चित्त-हाँ स्वामिन् ! चलें। २३६-तए णं से पएसी राया चित्तण सारहिणा सद्धि जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामते ठिच्चा एवं वयासो-तुम्भे णं भैते ! पाहोहिया अण्णजीविया ? 1. देखें सूत्र सं. 213 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वदासी-पएसी ! से जहाणामए अंकवाणिया इ वा, संखवाणिया इ वा, दंतवाणिया इ वा, सुकं भंसिउंकामा णो सम्म पंथं पुच्छइ, एवामेव पएसी ! तुम्भे विविणयं भंसेउकामो नो सम्म पुच्छसि / से पूर्ण तव पएसो ममं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-जड़डा खलु भो! जड्ड पज्जुवासंति, जाव पवियरित्तए, से पूणं पएसी अट्ठ समत्थे ? हंता! अस्थि / २३६–तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा, जहाँ केशी कुमारश्रमण विराजमान थे, वहाँ आया और केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर खड़े होकर बोला-हे भदन्त ! क्या आप अाधोऽवधिज्ञानधारी हैं ? क्या आप अन्नजीवी हैं ? तब केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-हे प्रदेशी ! जैसे कोई अंकवणिक् (अंक रत्न का व्यापारी) अथवा शंखवणिक्, दन्तवणिक, राजकर न देने के विचार से सीधा मार्ग नहीं पूछता, इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी विनयप्रतिपत्ति नहीं करने की भावना से प्रेरित होकर मुझ से योग्य रीति से नहीं पूछ रहे हो / हे प्रदेशी ! मुझे देखकर क्या तुम्हें यह विचार समुत्पन्न नहीं हुआ था, कि ये जड़ जड़ की पयुपासना करते हैं, यावत् मैं अपनी ही भूमि में स्वेच्छापूर्वक घूम-फिर नहीं सकता हूँ ? प्रदेशी ! मेरा यह कथन सत्य है ? प्रदेशी–हाँ आपका कहना सत्य है अर्थात् मेरे मन में ऐसा विचार प्राया था। २४०-तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वदासी–से केण?णं भंते ! तुज्झ नाणे वा दंसणे वा जेणं तुझे मम एयारूवं प्रज्झस्थियं जाव संकप्पं समुप्पण्णं जाणह पासह ? २४०–तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा-भदन्त ! तुम्हें ऐसा कौनसा ज्ञान और दर्शन है कि जिसके द्वारा आपने मेरे इस प्रकार के आन्तरिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना और देखा? २४१--तए णं से केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं क्यासी-एवं खलु पएसी ! अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णते, तं जहा–आभिणिबोहियणाणे सुयनाणे प्रोहिणाणे मणपज्जबणाणे केवलणाणे। से कि तं प्राभिणिबोहियनाणे ? प्राभिणिबोहियनाणे चउबिहे पण्णते, तं जहा-उग्गयो ईहा प्रवाए धारणा / से कि तं उम्गहे ? उम्गहे दुविहे पण्णत्ते, जहा नंदीए जाव से तं धारणा, से तं प्राभिणिबोहियणाणे / से कि तं सुयनाणे? सुयनाणे दुविहे पण्णते, तं जहा–अंगपविट्ठच, अंगबाहिरं च, सव भाणियव जाव दिदिवाओ। प्रोहिणाणं भवपच्चइयं, खओवसमियं जहा गंदीए। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन ] [161 मणपज्जवनाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उज्जुमई य, विउलमई य, तहेव केवलनाणं सव्व भाणियव / तस्थ णं जे से प्राभिणिबोहियनाणे से णं ममं अस्थि, तत्थ गंजे से सुयनाणे से वि य मम अत्यि, तत्थ णं जे से ओहिणाणे से वि य ममं अस्थि, तत्थ णं जे से मणपज्जवनाणे से वि य ममं अस्थि, तस्थ णं जे से केवलनाणे से णं मम नत्थि, से गं अरिहंताणं भगवंताणं / इच्चेएणं पएसी अहं तव चउबिहेणं छउमत्थेणं णाणेणं इमेयारूव अज्झत्थियं जाव समुप्पण्णं जाणामि पासामि। २४१-तब केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे प्रदेशी ! निश्चय ही हम निर्ग्रन्थ श्रमणों के शास्त्रों में ज्ञान के पाँच प्रकार बतलाये हैं। वे पाँच यह हैं--(१) आभिनिबोधिकज्ञान (मतिज्ञान), (2) श्रुतज्ञान (3) अवधिज्ञान (4) मनःपर्यायज्ञान और (5) केवलज्ञान / प्रदेशी--प्राभिनिबोधिक ज्ञान कितने प्रकार का है ? केशी कुमारश्रमण-आभिनिबोधिकज्ञान चार प्रकार का है-अवग्रह, ईहा, अवाय धारणा / प्रदेशी-अवग्रह कितने प्रकार का है ? केशी कुमारश्रमण-अवग्रह ज्ञान दो प्रकार का प्रतिपादन किया है इत्यादि धारणा पर्यन्त आभिनिबोधिक ज्ञान का विवेचन नंदीसूत्र के अनुसार जानना चाहिए / प्रदेशी-श्रुतज्ञान कितने प्रकार का है ? केशी कुमारश्रमण-श्रुतज्ञान दो प्रकार का है, यथा अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य / दृष्टिवाद पर्यन्त श्रुतज्ञान के भेदों का समस्त वर्णन नन्दीसूत्र के अनुसार यहाँ करना चाहिए / भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक के भेद से अवधिज्ञान दो प्रकार का है। इनका विवेचन भी नंदीसूत्र के अनुसार यहाँ जान लेना चाहिए। मनःपर्यायज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा ऋजुमति और विपुलमति / नंदीसूत्र के अनुरूप इनका भी वर्णन यहाँ करना चाहिए। इसी प्रकार केवलज्ञान का भी वर्णन यहां करना चाहिए। इन पाँच ज्ञानों में से पाभिनिबोधिक ज्ञान मुझे है, श्रुतज्ञान मुझे है, अवधिज्ञान भी मुझे है, मनःपर्याय ज्ञान भी मुझे प्राप्त है, किन्तु केवलज्ञान प्राप्त नहीं है / वह केवलज्ञान अरिहंत भगवन्तों को होता है। इन चतुर्विध छाद्मस्थिक ज्ञानों के द्वारा हे प्रदेशी ! मैंने तुम्हारे इस प्रकार के आन्तरिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना और देखा है। विवेचन-सूत्र में जैनदर्शनमान्य आभिनिबोधिक (मति) आदि पांच ज्ञानों के नाम और उन ज्ञानों के कतिपय अवान्तर भेदों का उल्लेख करके शेष विस्तृत वर्णन नंदीसूत्र के अनुसार करने का संकेत किया गया है / नन्दीसूत्र के आधार से उन मति आदि पांच ज्ञानों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [ राजप्रश्नीयसूत्र ज्ञान प्रात्मा का असाधार / अतएव ज्ञानावरणकर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से प्रात्मा का जो बोध रूप व्यापार होता है, वह ज्ञान है। आभिनिबोधिक आदि के भेद से ज्ञान के पांच प्रकार हैं / उनके लक्षण इस प्रकार हैं -- प्राभिनिबोधिक ज्ञान-जो ज्ञान पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा उत्पन्न हो और सन्मुख आये हुए पदार्थों के प्रतिनियत स्वरूप को देश, काल, अवस्था की अपेक्षा इन्द्रियों के आश्रित होकर जाने, ऐसे बोध को प्राभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं। इसका अपर नाम मतिज्ञान भी है। किन्तु अंतर यह है कि मति शव्द से ज्ञान और अज्ञान दोनों को ग्रहण किया जाता है किन्तु आभिनिबोधिक शब्द ज्ञान के लिये ही प्रयुक्त होता है। श्रुतज्ञान-शब्द को सुनकर जिससे अर्थ की उपलब्धि हो, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान का कारण शब्द है अत: उपचार से शब्द के ज्ञान को भी श्रुतज्ञान कहते हैं / अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न रखते हुए केवल आत्मा के द्वारा . रूपी—मूर्त पदार्थों का साक्षात् बोध करने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। अवधि शब्द का अर्थ मर्यादा भी होता है। अवधि ज्ञान रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है अरूपी को नहीं, यही उसकी मर्यादा है / अथवा 'अब' शब्द अधो अर्थ का वाचक है। इसलिये जो ज्ञान अधोऽधो (नीचेनीचे) विस्तृत जानने की शक्ति रखता है, अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेकर जो ज्ञान मूर्त द्रव्यों को प्रत्यक्ष करता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। मनःपर्यायज्ञान--समनस्क-संज्ञी जीव किसी भी वस्तु का चिन्तन-मनन मन से ही करते हैं / मन के चिन्तनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाये, उसे मन:पर्याय ज्ञान कहते हैं। यद्यपि मन और मानसिक आकार-प्रकारों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति अवधिज्ञान में भी मन:पर्यायज्ञान मन के पर्यायों-ग्राकार-प्रकारों को सूक्ष्म एवं निर्मल रूप में प्रत्यक्ष कर सकता है अवधिज्ञान नहीं। केवलज्ञान-केवल शब्द एक, असहाय, विशुद्ध, प्रतिपूर्ण, अनन्त और निरावरण, इन अर्थों में प्रयुक्त होता है / अतः इन अर्थों के अनुसार केवलज्ञान की व्याख्या इस प्रकार है---- जिसके उत्पन्न होने पर श्योपशमजन्य मतिज्ञानादि (आभिनिबोधिकादि) चारों ज्ञानों का विलीनीकरण होकर एक ही ज्ञान शेष रह जाये, उसे केवलज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान मन, इन्द्रिय आदि किसी की सहायता के बिना संपूर्ण मूर्त-अमूर्त (रूपी-अरूपी) ज्ञेय पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष करने में सक्षम हो, वह केवलज्ञान है। जो ज्ञान विशुद्धतम हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं / जो ज्ञान सभी पदार्थों की प्रतिपूर्ण समस्त पर्यायों को जानने की शक्ति वाला हो, वह केवलज्ञान है। जो ज्ञान अनन्त-अनन्त पदार्थों को जानने में सक्षम है, अथवा उत्पन्न होने के पश्चात् जिसका कभी अन्त न हो, ऐसे ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं / जो ज्ञान निरावरण, नित्य और शाश्वत हो, वह केवलज्ञान है। इन पाँच प्रकार के ज्ञानों में से आदि के दो ज्ञान परोक्ष और अंतिम तीन प्रत्यक्ष हैं। मन और इन्द्रियों के माध्यम से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे परोक्ष और जो ज्ञान साक्षात आत्मा के द्वारा होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं / यद्यपि मन और इन्द्रियों के माध्यम से होने वाला ज्ञान भी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन] 163 किसी अपेक्षा (लौकिक दृष्टि से) प्रत्यक्ष कहा जाता है, किन्तु वह ज्ञान मन और इन्द्रियों के आश्रित होने से परोक्ष ही है। जब हम इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कोटि में ग्रहण करते हैं तो वहाँ यह प्राशय समझना चाहिये कि लोक-प्रतिपत्ति, व्यवहार की दृष्टि से वह ज्ञान प्रत्यक्ष है, लेकिन यथार्थतः तो साक्षात् आत्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान ही प्रत्यक्ष कहलाता है। इन दोनों दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए जैनदर्शन में प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद किये हैं। नंदीसूत्र में इन दोनों के लिये क्रमश: इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया है / स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के भेद से इन्द्रियां पांच होने से इन्द्रियप्रत्यक्ष के पांच भेद हैं। कान से होने वाला ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष है, इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के लिये समझना चाहिये / अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान ये तीन नोइन्द्रियप्रत्यक्ष हैं / उक्त नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन भेदों में से अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक / तत्तत् योनिविशेष में जन्म लेने पर जो ज्ञान उत्पन्न हो अर्थात् जिसकी उत्पत्ति में भव प्रधान कारण हो, ऐसा ज्ञान भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहलाता है। यह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान देवों और नारकों को होता है। तपस्या आदि विशेष गुणों के कारण अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहते हैं / यह मनुष्यों और तिर्यंचों में पाया जाता है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान 1. प्रानुगामिक, 2. अनानुगामिक, 3. वर्धमान, 4. हीयमान, 5. प्रतिपातिक और 6. अप्रतिपातिक के भेद से छह प्रकार का है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान के उक्त छह भेदों में से प्रानुगामिक अवधिज्ञान दो प्रकार का है-- 1. अन्तगत और 2. मध्यगत / इनमें से अन्तगत अवधिज्ञान तीन प्रकार का है-१.पूरतः (आगे से) अन्तगत-जो अवधिज्ञान आगे-मागे संख्यात, असंख्यात योजनों तक पदार्थ को जाने, 2. मार्गतः (पीछे से) अन्तगत--जो ज्ञान पीछे के संख्यात, असंख्यात योजनों तक के पदार्थ को जाने, 3. पार्वतः (दोनों पाश्वों-बाजुओं) से अन्तगत—जो ज्ञान दोनों पाश्वों में संख्यात, असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित पदार्थों को जाने / जो ज्ञान चारों ओर के पदार्थों को जानते हुए ज्ञाता के साथ रहता है, उसे मध्यगत अवधिज्ञान कहते हैं / अनानगामिक अवधिज्ञान जिस स्थान पर उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर स्थित रहकर अवधिज्ञानी संख्यात, असंख्यात योजन प्रमाण सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध द्रव्यों को जानता है, अन्यत्र चले जाने पर नहीं जानता है। ____ जो अवधिज्ञान पारिणामिक विशुद्धि से उत्तरोत्तर दिशाओं और विदिशाओं में बढ़ता जाता है, उसे वर्धमानक अवधिज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान पारिणामिक संक्लेश के कारण उत्तरोत्तर हीन-हीन होता जाता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है / नारक, देव और तीर्थकर अवधिज्ञान से युक्त ही होते हैं। वे सब दिशाओं-विदिशाओंवर्ती पदार्थों को जानते हैं, किन्तु सामान्य मनुष्यों और तिर्यचों के लिए ऐसा नियम नहीं है। वे सब दिशा में और एक दिशा में भी क्षयोपशम के अनुसार जानते हैं / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [ राजप्रश्नीयसूत्र मनःपर्यायज्ञान पर्याप्त, गर्भज संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज सम्यग्दृष्टि, ऋद्धिसंपन्न अप्रमत्तसंयत मुनियों में ही पाया जाता है। इसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति / द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा ऋजुमति मनःपर्यायज्ञानी से विपुलमति मनःपर्यायज्ञान वाला अधिकअधिक विशुद्धि, निर्मलता से पदार्थों को जानता है। वह मनुष्यक्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन में परिचिन्तित अर्थ को जानने वाला है। केवलज्ञान दो प्रकार का है-भवस्थ-केवलज्ञान और सिद्ध-केवलज्ञान 1 भवस्थ-केवलज्ञान सयोगिकेवलि और अयोगिकेवलि गुणस्थानवी जीवों को होता है। सिद्ध केवलज्ञान सिद्धों को होता है। उस के भी दो भेद हैं-१. अनन्तर-सिद्ध केवलज्ञान और 2. परंपर-सिद्ध केवलज्ञान / जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम ही समय है और जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो गये हैं, उन्हें क्रमशः अनन्तरसिद्ध और परंपरसिद्ध कहते हैं और उनका केवलज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान एवं परंपरसिद्ध-केवलज्ञान कहलाता है / द्रव्य से केवलज्ञानी सर्व द्रव्यों को जानता है, क्षेत्र से सर्व लोकालोक को जानता है, काल से भूत, वर्तमान और भविष्य, इन तीनों कालवर्ती द्रव्यों को जानता है और भाव से सर्व भावों-पर्यायों को जानता है। पूर्वोक्त प्रकार से प्रत्यक्ष ज्ञानों की संक्षेप में रूपरेखा बतलाने के अनन्तर अब परोक्ष ज्ञानों का वर्णन करते हैं। प्राभिनिबोधिक (मति) ज्ञान श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित के भेद से दो प्रकार का है। श्रुतज्ञान के संस्कार के आधार से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान को श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहते हैं और जो तथाविध क्षयोपशमभाव से उत्पन्न हो, जिसमें श्रुतज्ञान के संस्कार की अपेक्षा न हो, वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान है। अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान चार प्रकार का है (1) औत्पत्तिकीबुद्धि तथाविध क्षयोपशमभाव के कारण और शास्त्र-अभ्यास के बिना अचानक जिस बुद्धि की उत्पत्ति हो / (2) वैनयिकीबुद्धि-गुरु आदि की विनय-भक्ति से उत्पन्न बुद्धि / (3) कर्मजाबुद्धि-शिल्पादि के अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि / (4) पारिणामिकीबुद्धि-चिरकालीन पूर्वापर पर्यालोचन से उत्पन्न बुद्धि / श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार भेद हैं—(१) अवग्रह, (2) ईहा, (3) अवाय, (4) धारणा। 1. जो अनिर्देश्य सामान्य मात्र अर्थ को जानता है, उसे अवग्रह कहते हैं। इसके दो भेद हैं-अर्थावग्रह, व्यंजनावग्रह / जो सामान्य मात्र का ग्रहण होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं। पांच इन्द्रियों और मन से अर्थावग्रह होने से अर्थावग्रह के छह भेद हैं। प्राप्यकारी श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा (जीभ) और स्पर्शन, इन चार इन्द्रियों से बद्ध-स्पृष्ट अर्थों का जो अत्यन्त अव्यक्त सामान्यात्मक ग्रहण हो, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। इन चार इन्द्रियों से होने के कारण व्यंजनावग्रह के चार भेद हैं। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन ] [165 अर्थावग्रह में अभ्यस्तदशा तथा विशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा है और व्यंजनावग्रह अनभ्यस्तावस्था एवं क्षयोपशम की मंदता में होता है / अर्थावग्रह का काल एक समय है किन्तु व्यंजनावग्रह का असंख्यात समय है। 2. अवग्रह के उत्तर और अवाय से पूर्व सद्भूत अर्थ की पर्यालोचना रूप चेष्टा को ईहा कहते हैं / अथवा अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा अथवा अवग्रह द्वारा गृहीत सामान्य विषय को विशेष रूप से निश्चित करने के लिए होने वाली विचारणा ईहा है / पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा होने से ईहा के तत्तत् नामक छह भेद हैं / 3. ईहा के द्वारा ग्रहण किये अर्थों का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना, अवाय कहलाता है। ईहा की तरह इसके भी छह भेद हैं / 4. निर्णीत अर्थ का धारण करना अथवा कालान्तर में भी उसकी स्मृति हो पाना धारणा है। पांच इन्द्रियों और मन से होने के कारण धारणा के भी छह भेद हैं / अवग्रह आदि चारों में से अवग्रह का काल एक समय, ईहा और अवाय का अन्तर्मुहूर्त तथा धारणा का संख्यात, असंख्यात समय प्रमाण है। पांच इन्द्रियों और मन, इन छह निमित्तों से होने वाले अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के छह-छह भेद हैं तथा मन और चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से होने के कारण व्यंजनावग्रह के चार भेद हैं ! सब मिलाकर ये अट्ठाईस (28) भेद हैं। ये सब पुन: विषय और क्षयोपशम की विविधता से 12-12 प्रकार के हैं। जिससे अवग्रहादि रूप श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के कुल मिलाकर 336 भेद हो जाते हैं। अश्रुतनिश्रित के प्रौत्पत्तिकीबुद्धि आदि चार भेदों को मिलाने से मतिज्ञान के 340 भेद होते हैं। क्षायोपशमिक विविधता के बारह प्रकार ये हैं 1-2. बहु-अल्पग्राही, 3-4. बहुविध-एकविधग्राही, 5-6. क्षिप्र-अक्षिप्रग्राही, 7-6. निश्रित-अनिश्रितग्राही, 6-10. असंदिग्ध-संदिग्धग्राही, 11-12. ध्र व-अध्र वग्राही / श्रुतज्ञान के भेदों का विचार विस्तार और संक्षेप, इन दो दृष्टियों से किया गया है। विस्तार से श्रुतज्ञान के चौदह भेदों के नाम इस प्रकार हैं-- 1-2 अक्षर-अनक्षर श्रुत, 3-4 संज्ञी-असंज्ञी श्रुत, 5-6 सम्यक्-मिथ्या श्रुत, 7-8 सादिअनादि श्रुत, 9-10 सपर्यवसित-अपर्यवसित श्रुत, 11-12 गमिक-अगमिक श्रुत, 13-14 अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य श्रुत / 1-2. अक्षर-अनक्षर श्रुत-क्षर् संचलने धातु से अक्षर शब्द बनता है, 'न क्षरति-न चलति इत्यक्षरम्' अर्थात् जो अपने स्वरूप से चलित नहीं होता, उसे अक्षर कहते हैं / इसीलिये ज्ञान का नाम अक्षर है / इसके संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर, ये तीन भेद हैं। अक्षर की प्राकृति-संस्थान, बनावट को संज्ञाक्षर कहते हैं। उच्चारण किये जाने-बोले जाने वाले अक्षर व्यंजनाक्षर हैं और शब्द को सुनकर अर्थ का अनुभवपूर्वक पर्यालोचन होना लब्धि-अक्षर कहलाता है। अनक्षरश्रुत अनेक प्रकार का है। छींकना, श्वासोच्छ्वास आदि सब अनक्षरश्रुत रूप हैं। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 / [ राजप्रश्नीयसूत्र 3-4. संज्ञि-प्रसंज्ञि श्रुत-संज्ञी और असंज्ञी जीवों के श्रुत को क्रमशः संज्ञि, असंज्ञि श्रुत कहते हैं / कालिकी-उपदेश, हेतु-उपदेश और दृष्टिवाद-उपदेश के भेद से संज्ञिश्रुत तीन प्रकार का है। ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, इस प्रकार के विचार-विमर्श से वस्तु के स्वरूप को अधिगत करने की शक्ति जिसमें है, वह कालिकी-उपदेश से संज्ञी है और जिसमें उक्त ईहा, अपोह आदि रूप शक्ति नहीं, वह असंही है। जिस जीव की विचारपूर्वक क्रिया करने में प्रवृत्ति होती है, वह हेतु-उपदेश की अपेक्षा से संज्ञो है और जिसमें विचारपूर्वक क्रिया करने की शक्ति नहीं, वह असंज्ञी है / दृष्टि दर्शन का नाम है और सम्यग्ज्ञान का नाम संज्ञा है / ऐसी संज्ञा जिसमें हो, उसे दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी कहते हैं, उक्त संज्ञा जिसमें नहीं वह असंज्ञी है। 5.6. सम्यक्-मिथ्या श्रुत-सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवन्तों द्वारा प्ररूपित श्रुत सम्यक्श्रुत और मिथ्यादृष्टि स्वच्छन्द बुद्धि वालों के द्वारा कहा गया श्रुत मिथ्याश्रुत कहलाता है। आचारांग आदि दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग रूप तथा सम्पूर्ण दशपूर्वधारी द्वारा कहा गया श्रुत सम्यक्श्रुत है। 7-8-6-10. सादि, सपर्यवसित, अनादि, अपर्यवसित श्रुत-व्यवच्छित्ति—पर्यायाथिक नय की अपेक्षा सादि-सपर्यवसित (सान्त) है और अव्यवच्छित्ति-द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादिअपर्यवसित (अनन्त) है। 11-12. गमिक-अमिक श्रत--जिस श्रत के आदि, मध्य और अवसान में किंचित विशेषता रखते हए पून:-पूनः पूर्वोक्त शब्दों का उच्चारण हो, उसे गमिक श्रत और जिस शास्त्र में पुनः-पुन: एक सरीखे पाठ न पाते हों, उसे अगमिक श्रुत कहते हैं। 13-14. अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य श्रुत-जिन शास्त्रों की रचना तीर्थंकरों के उपदेशानुसार गणधर स्वयं करते हैं, वे अंगप्रविष्ट तथा गणधरों के अतिरिक्त अंगों का प्राधार लेकर स्थविरों द्वारा प्रणीत शास्त्र अंगबाह्य कहलाते हैं / अंगप्रविष्ट श्रुत के प्राचारांग आदि बारह भेद हैं। आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त के भेद से अंगबाह्य श्रुत दो प्रकार का है / गुणों के द्वारा आत्मा को वश में करना आवश्यकीय है, ऐसा वर्णन जिसमें हो, उसे आवश्यक श्रुत कहते हैं। आवश्यक श्रुत के छह भेद हैं-१. सामायिक, 2. चतुर्विशतिस्तव, 3. वंदना, 4. प्रतिक्रमण, 5. कायोत्सर्ग और 6. प्रत्याख्यान तथा आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुत के दो भेद हैं-कालिक और उत्कालिक / जो शास्त्र दिन और रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में पढ़े जाते हैं, वे कालिक और जिनका कालवेला वर्ज कर अध्ययन किया जाता है अर्थात् अस्वाध्याय के समय को छोड़कर शेष रात्रि और दिन में पढ़े जाते हैं, वे उत्कालिक शास्त्र कहलाते हैं। उत्कालिक और कालिक शास्त्र अनेक प्रकार के हैं। ___इन सभी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य शास्त्रों का विशेष परिचय नंदीसूत्र और उसकी चूर्णि एवं वत्ति में दिया गया है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरोरवाद मंडन-खंडन ] [167 तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन २४२-तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं क्यासी--अह णं भंते ! इहं उवविसामि ? पएसी ! एसाए उज्जाणभूमीए तुमंसि चेव जाणए / तए णं से पएसी राया चित्तेणं सारहिणा सद्धि केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसइ, केसिकुमारसमणं एवं वदासी--तुम्भे णं भंते ! समणाणं जिग्गंथाणं एसा सण्णा, एसा पइण्णा, एसा दिट्ठी, एसा रुई, एस हेऊ, एस उवएसे, एस संकप्पे, एसा तुला, एस माणे, एस पमाणे, एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जोवो तं सरीरं? २४२--केशीस्वामी के कथन को सुनने के अनन्तर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से निवेदन किया-भदन्त ! क्या मैं यहाँ बैठ जाऊं? __केशी-हे प्रदेशी ! यह उद्यानभूमि तुम्हारी अपनी है, अतएव बैठने या न बैठने के विषय में तुम स्वयं समझ लो-निर्णय कर लो।। तत्पश्चात् चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा केशी कुमारश्रमण के समीप बैठ गया और बैठकर केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार पूछा भदन्त ! क्या आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी सम्यग्ज्ञान रूप संज्ञा है, तत्त्वनिश्चय रूप प्रतिज्ञा है, दर्शन रूप दृष्टि है, श्रद्धानुगत अभिप्राय रूप रुचि है, अर्थ का प्रतिपादन करने रूप हेतु है, शिक्षा वचन रूप उपदेश है, तात्त्विक अध्यवसाय रूप संकल्प है, मान्यता है, तुला-समीचीन निश्चयकसौटी है, दृढ़ धारणा है, अविसंवादी दृष्ट एवं इष्ट रूप प्रत्यक्षादि प्रमाणसंगत मंतव्य है और स्वीकृत सिद्धान्त है कि जीव अन्य है और शरीर अत्य है ? अर्थात् जीव और शरीर भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले हैं ? शरीर और जीव दोनों एक नहीं हैं ? २४३-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं क्यासी–पएसी ! अम्हं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव' एस समोसरणे, जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं / २४३---प्रदेशी राजा के प्रश्न को सुनकर प्रत्युत्तर में केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-हे प्रदेशी ! हम श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् समोसरण-सिद्धान्त है कि जीव भिन्न-- पृथक् है और शरीर भिन्न है, परन्तु जो जीव है वही शरीर है, ऐसी हमारी धारणा नहीं है / २४४-तए णं से पएसो राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-जति णं भंते ! तुम्भं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव' समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं, एवं खलु ममं अज्जए होत्या, इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णगरीए अधम्मिए जाव: सगस्स वि य णं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेति, से णं तुभं वत्तवयाए सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु णेरइयत्ताए उबवणे / तस्स णं अज्जगस्स णं अहं णत्तुए होत्था इठे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए संमए 1-2. देखें सूत्र संख्या 242 3. देखें सूत्र संख्या 226 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र बहुमए अणुमए रयणकरंडगसमाणे जीविउस्सविए हिययणंदिजणणे उंबरयुप्फ पिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं जति णं से अज्जए ममं प्रागंतु वएज्जा एवं खलु नत्तुया ! प्रहं तव प्रज्जए होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेमि, तए णं अहं सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता नरएसु उववण्णे, तं मा णं नत्तुया! तुम पि भवाहि अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्ति पवत्तेहि, मा णं तुमं पि एवं चेव सब पावकम्मं जाव उववन्जिहिसि / तं जहणं से प्रज्जए ममं प्रागंतवएज्जा तो णं अहं सहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, जो तं जीवो तं सरीरं / जम्हा णं से प्रज्जए ममं आगंतु नो एवं वयासो तम्हा सुपइट्ठिया मम यइन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीरं। २४४-तब प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! यदि आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् सिद्धान्त है कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, किन्तु ऐसी मान्यता नहीं है कि जो जीव है वही शरीर है, तो मेरे पितामह, जो इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप की सेयविया नगरी में प्रधामिक यावत् राजकर लेकर भी अपने जनपद का भली-भांति पालन, रक्षण नहीं करते थे, वे आपके कथनानुसार अत्यन्त कलुषित पापकर्मों को उपाजित करके मरण-समय में मरण करके किसी एक नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुए हैं। उन पितामह का मैं इष्ट, कान्त (अभिलषित), प्रिय, मनोज्ञ, मणाम (अतीव प्रिय), धैर्य और विश्वास का स्थान (आधार, पात्र), कार्य करने में सम्मत (माना हुआ), बहुत कार्य करने में माना हुमा तथा कार्य करने के बाद भी अनुमत, रत्नकरंडक (आभूषणों की पेटी) के समान, जीवन की श्वासोच्छ्वास के समान, हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला, गूलर के फूल के समान जिसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की बात ही क्या है, ऐसा पौत्र हूँ / इसलिये यदि मेरे पितामह पाकर मुझ से इस प्रकार कहें कि 'हे पौत्र ! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी सेयविया नगरी में अधार्मिक यावत प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप में उनका पालन, रक्षण नहीं करता था। इस कारण मैं बहुत एवं अतीव कलुषित पापकर्मों का संचय करके नरक में उत्पन्न हुआ हूँ। किन्तु हे नाती (पौत्र)! तुम अधार्मिक नहीं होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन, रक्षण में प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पाप कर्मों का उपार्जन-संचय ही करना। तो मैं आपके कथन पर श्रद्धा कर सकता हूँ, प्रतीति (विश्वास) कर सकता है एवं उसे अपनी रुचि का विषय बना सकता हूँ कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है। जीव और शरीर एक रूप नहीं हैं / लेकिन जब तक मेरे पितामह आकर मुझसे ऐसा नहीं कहते तब तक हे आयुष्मन् श्रमण ! मेरी यह धारणा सुप्रतिष्ठित-समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है / विवेचन:-यहाँ राजा पएसी (प्रदेशी) ने अपने दादा का दृष्टान्त देकर जो कथन किया है, उसी बात को दीघनिकाय में राजा पायासि ने अपने मित्रों का उदाहरण देकर कहा है। दीघनिकाय में जिसका उल्लेख इस प्रकार से किया गया है राजा पायासि और कुमार काश्यप के मिलने पर पायासि अपनी शंका काश्यप के समक्ष उपस्थित करता है और काश्यप उसका समाधान करते है कि-राजन्य ! ये सूर्य, चन्द्र क्या हैं ? वे इहलोक हैं या परलोक हैं ? देव हैं या मानव हैं ? अर्थात् इन उदाहरणों के द्वारा काश्यप परलोक Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन] [169 की सिद्धि करते हैं / किन्तु राजा को यह बात समझ में नहीं पाती है और वह पुनः कहता है-मेरे कुछ ज्ञातिजन एवं मित्र प्राणातिपात-हिंसा आदि पापकार्यों में निरत रहते थे, उनको मैंने कह रखा था कि हिंसादिक पापकार्यों से तुम नरक में जानो तो मुझे इसकी सूचना देना / लेकिन वे यहाँ आये नहीं और न कोई दूत भी भेजा। इसलिये परलोक नहीं है, मेरी यह श्रद्धा सुसंगत है।। २४५-तए णं केसी कुमारसमणे पसि रायं एवं वदासी-अस्थि णं पएसी ! तव सूरियकता णामं देवी? हंता अस्थि / ___ जइ णं तुमं पएसी! तं सूरियकंतं देविं हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सवालंकारविभूसियं केणइ पुरिसेणं व्हाएणं जाव सन्वालंकारविमूसिएणं सद्धि इ8 सद्द-फरिस-रस-रूव. गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणि पासिज्जासि, तस्स णं तुम पएसी ! पुरिसस्स के दंडं निव्वत्तेज्जासि? अहं णं भंते ! तं पुरिसं हत्थच्छिण्णगं वा, सूलाइगं वा, सूलभिन्नगं वा, पायछिन्नगं वा, एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवएज्जा। अह णं पएसी से पुरिसे तुम एवं वदेज्जा—'मा ताव मे सामी ! मुहत्तगं हत्थछिण्णगं वा जाव . जीवियानो ववरोवेहि जाव ताव अहं मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परिजणं एवं वयामि एवं खलु देवाणुप्पिया! पावाइं कम्माइं समायरेत्ता इमेयारूवं प्रावई पाविज्जामि, तं मा णं देवाणुप्पिया! तुम्भे वि केइ पावाई कम्माइं समायरह, मा णं से वि एवं चेव प्रावई पाविज्जिहिह जहा णं अहं / ' तस्स णं तुम पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमट्ठ पडिसुणेज्जासि ? णो तिण? सम?। कम्हा गं? जम्हा पं भंते ! प्रवराही णं से पुरिसे। एवामेव पएसी ! तव वि अज्जए होत्था, इहेव सेयवियाए णयरीए अधम्मिए जाव' णो सम्म करभरवित्ति पवत्तेइ, से णं अम्हं वत्तम्बयाए सुबहुं जाव उववन्नो, तस्स णं प्रज्जगस्स तुमं णत्तुए होत्था इट्रे कंते जाव' पासणयाए। से णं इच्छइ माणसं लोगं हब्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएति हव्वमाच्छित्तए। चहि ठाणेहि पएसी प्रहुणोववण्णए नरएसु नेरइए इच्छेइ माणुसं लोग हन्वमागच्छित्तए नो चेव णं संचाएइ 1. प्रहुणोववन्नए नरएसु नेरइए से णं तत्थ महब्भूयं वेयणं वेदेमाणे इच्छेज्जा माणुस्सं लोगं हव्वं (प्रागच्छित्तए) णो चेव णं संचाएइ / 2. अहुणोववन्नए नरएसु नेरइए निरयपालेहि भुज्जो-भुज्जो समहिट्ठिज्जमाणे इच्छइ माणुसं लोगं हवमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएइ / 1. देखें सूत्र संख्या 226 2. देखें सूत्र संख्या 244 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [राजप्रश्नीयसूत्र __3. हुणोववन्नए नरएसु नेरइए निरयवेयणिज्जसि कम्मंसि अक्खीणसि प्रवेइयंसि अनिज्जिन्नंसि इच्छइ माणुसं लोगं (हव्वमागच्छित्तए) नो चेव णं संचाएइ। 4, एवं रइए निरयाउयंसि कम्मंसि अक्खीणंसि प्रवेइयंसि अणिज्जिन्नंसि इच्छइ माणसं लोगं० नो चेव णं संचाएइ हन्धमागच्छित्तए। ___ इच्चेएहि चहिं ठाणेहि पएसी अहणोवबन्ने नरएसु नेरइए इच्छइ माणुसं लोग० णो चेव णं संचाइए। तं सद्दहाहि णं पएसो! जहा–अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं। २४५-प्रदेशी राजा की युक्ति को सुनने के पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे प्रदेशी ! तुम्हारी सूर्यकान्ता नाम की रानी है ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! है। केशी कुमारश्रमण-तो हे प्रदेशी ! यदि तुम उस सूर्यकान्ता देवी को स्नान, बलिकर्म और कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त करके एवं समस्त आभरण-अलंकारों से विभूषित होकर किसी स्नान किये हुए यावन् समस्त प्राभरण-अलंकारों से विभूषित पुरुष के साथ इष्ट-मनोनुकूल शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंधमूलक पांच प्रकार के मानवीय कामभोगों को भोगते हुए देख लो तो, हे प्रदेशी ! उस पुरुष के लिए. तुम क्या दंड निश्चित करोगे ? प्रदेशी हे भगवन् ! मैं उस पुरुष के हाथ काट दूंगा, उसे शूली पर चढ़ा दूंगा, कांटों से छेद दूगा, पैर काट दूंगा अथवा एक ही वार से जीवनरहित कर दूंगा–मार डालूगा / प्रदेशी राजा के इस कथन को सुनकर केशी कुमारश्रमण ने उससे कहा-हे प्रदेशी ! यदि वह पुरुष तुमसे यह कहे कि—'हे स्वामिन् ! आप घड़ी भर रुक जाओ, तब तक आप मेरे हाथ न काटें, यावत् मुझे जीवन रहित न करें जब तक मैं अपने मित्र, ज्ञातिजन, निजक-पुत्र आदि स्वजनसंबंधी और परिचितों से यह कह आऊँ कि हे देवानुप्रियो ! मैं इस प्रकार के पापकर्मों का आचरण करने के कारण यह दंड भोग रहा हूँ, अतएव हे देवानुप्रियो ! तुम कोई ऐसे पाप कर्मों में प्रवृत्ति मत करना, जिससे तुमको इस प्रकार का दंड भोगना पड़े, जैसा कि मैं भोग रहा हूँ।' तो हे प्रदेशी क्या तम क्षणमात्र के लिए भी उस परुष की यह बात मानोगे ? प्रदेशी–हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् उसकी यह बात नहीं मानूगा / केशी कुमारश्रमण-उसकी बात क्यों नहीं मानोगे ? प्रदेशी-क्योंकि हे भदन्त ! वह पुरुष अपराधी है / तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम्हारे पितामह भी हैं, जिन्होंने इसी सेयविया नगरी में अधामिक होकर जीवन व्यतीत किया यावत प्रजाजनों से कर लेकर भी उनका अच्छी तरह से पालन, रक्षण नहीं किया एवं मेरे कथनानुसार वे बहुत से पापकर्मों का उपार्जन करके नरक में उत्पन्न हुए हैं / उन्हीं पितामह के तुम इष्ट, कान्त यावत् दुर्लभ पौत्र हो / यद्यपि वे शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहते हैं किन्तु वहाँ से आने में समर्थ नहीं हैं / क्योंकि--प्रदेशी ! तत्काल नरक में तारक रूप से - Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीर-वाद मंडन-खंडन ] [171 उत्पन्न जीव शीघ्र ही चार कारणों से मनुष्यलोक में आने की इच्छा तो करते हैं, किन्तु वहाँ से आ नहीं पाते हैं / वे चार कारण इस प्रकार हैं 1. नरक में अधुनोत्पन्न नारक वहाँ की अत्यन्त तीव्र वेदना का वेदन करने के कारण मनुष्यलोक में शीघ्र पाने की आकांक्षा करते हैं, किन्तु आने में असमर्थ हैं / / 2. नरक में तत्काल नैरयिक रूप से उत्पन्न जीव परमाधार्मिक नरकपालों द्वारा बारंबार ताडित-प्रताड़ित किये जाने से घबराकर शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की इच्छा तो करते हैं, किन्तु वैसा करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं / 3. अधुनोपपन्नक नारक मनुष्यलोक में आने की अभिलाषा तो रखते हैं किन्तु नरक संबन्धी असातावेदनीय कर्म के क्षय नहीं होने, अननुभूत एवं अनिर्जीर्ण होने से वे वहाँ से निकलने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। 4. इसी प्रकार नरक संबंधी आयुकर्म के क्षय नहीं होने से, अननुभूत एवं अनिर्जीर्ण होने से नारक जीव मनुष्यलोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी वहाँ से पा नहीं सकते हैं / अतएव हे प्रदेशी ! तुम इस बात पर विश्वास करो, श्रद्धा रखो कि जीव अन्य-भिन्न है और शरीर अन्य है, किन्तु यह मत मानो कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है। विवेचन-नरक में से जीव के न आ सकने के इन्हीं कारणों का दीघनिकाय (बौद्ध ग्रन्थ) में भी इसी प्रकार से उल्लेख किया है। २४६–तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वदासी-- अस्थि णं भंते ! एसा पण्णा उधमा, इमेण पुण कारणेण नो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! मम अज्जिया होत्था, इहेव सेयवियाए नगरीए धम्मिया जाव वित्ति कम्पेमाणी समणोवासिया अभिगयजोवा० सम्वो वण्णो जाध' अप्पाणं भावेमाणी विहरइ, सा गं तुझं वत्तब्धयाए सुबहुं पुन्नोवचयं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेस देवलोएस देवत्ताए उववण्णा, तीसे णं अज्जियाए अहं नत्तुए होत्था इदु कते जाव पासणयाए, तं जइ गं सा प्रज्जिया मम पागंत एवं वएज्जा-एवं खलु नत्तुया ! प्रहं तव अज्जिया होत्था, इहेव सेयवियाए नगरीए धम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणो समणो. वासिया जाव विहरामि / तए णं अहं सुबह पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता जाव देवलोएसु उववण्णा, तं तुम पि णत्तुया ! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि, तए णं तुम पि एयं चेव सुबहुं पुष्णोवचयं समज्जिणित्ता जाव (कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए) उववज्जिहिसि / तं जइ णं अज्जिया मम प्रागंतु एवं वएज्जा तो गं अहं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोइज्जा जहानण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णोतं जीवो तं सरीरं। जम्हा सा अज्जिया ममं प्रागंतुणो एवं वदासी, तम्हा सुपइट्ठिया मे पइण्णा जहा--तं जीवो तं सरीरं, नो प्रनो जीवो अन्नं सरीरं। 1. देखें सूत्र संख्या 222 2. देखें सूत्र संख्या 244 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र २४६-केशी कुमारश्रमण के पूर्वोक्त कथन को सुनने के पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण के समक्ष नया तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा- हे भदन्त ! मेरी आजी-दादी थीं। वह इसी सेयविया नगरी में धर्मपरायण यावत् धार्मिक प्राचार-विचारपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करनेवाली, जीव-अजीव आदि तत्त्वों की ज्ञाता श्रमणोपासिक यावत् तप से आत्मा को भावित करती हुई अपना समय व्यतीत करती थीं इत्यादि समस्त वर्णन यहाँ समझ लेना चाहिये और आपके कथनानुसार वे पुण्य का उपार्जन कर कालमास में काल करके किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुई हैं। उन आयिका (दादी) का मैं इष्ट, कान्त यावत दुर्लभदर्शन पौत्र हैं। अतएव वे आयिका यदि यहाँ पाकर मुझसे इस प्रकार कहें कि-हे पौत्र ! मैं तुम्हारी दादी थी और इसी सेयविया नगरी में धार्मिक जीवन व्यतीत करती हई श्रमणोपासिका हो यावत अपना समय बिताती थी। इस कारण मैं विपूल पुण्य का संचय करके यावत् देवलोक में उत्पन्न हुई हूँ। हे पौत्र ! तुम भी धार्मिक आचार-विचारपूर्वक अपना जीवन बिताओ। जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन करके यावत् (मरणसमय में मरण करके किसी एक देवलोक में देवरूप से) उत्पन्न होप्रोगे। ___इस प्रकार से यदि मेरी दादी प्राकर मुझसे कहें कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है किन्तु वही जीव वही शरीर नहीं अर्थात् जीव और शरीर एक नहीं हैं, तो हे भदन्त ! मैं आपके कथन पर विश्वास कर स सकता है, प्रतीति कर सकता है और अपनी रुचि का विषय बना सकता है। परन्तु जब तक मेरी दादी नाकर मुझसे ऐसा नहीं कहती तब तक मेरी यह धारणा सुप्रतिष्ठित एवं समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है / किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। विवेचन-यहाँ राजा प्रदेशी ने अपनी धार्मिक दादी का उदाहरण देकर जो व्यक्त किया, उसे दीघनिकाय में राजा पायासि ने अपने धर्मपरायण मित्रों के उदाहरण द्वारा बताया है कि आप अपनी धर्मवृत्ति के कारण स्वर्ग जाने वाले हैं और ऐसा हो तो आप मुझे यह समाचार अवश्य देना। २४७–तए णं केसी कुमारसमणे पएसोरायं एवं क्यासी-जति गं तुमं पएसी! व्हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं उल्लपडसाडगं भिगारकडुच्छयहत्थगयं देवकुलमणुपविसमाणं केइ य पुरिसे बच्चघरंसि ठिच्चा एवं ववेज्जा-एह ताव सामी ! इह मुहुत्तमं आसयह वा, चिट्ठह वा, निसीयह वा, तुयट्टह वा, तस्स णं तुमं पएसी! पुरिसस्स खणमवि एयमटुं पडिसुणिज्जासि ? णो तिणठे समठे। कम्हा गं? भंते ! असुई असुइ सामंतो। एवामेव पएसी ! तव वि अज्जिया होत्या, इहेव सेयवियाए पयरीए धम्मिया जाव विहरति, सा णं प्रम्हं वत्तवाए सुबहुं जाव उववन्ना, तोसे गं अज्जियाए तुम णत्तुए होत्था इठे० किमंग पुण पासणयाए ? सा णं इच्छइ माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए / चहि ठाणेहि पएसो! अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ 1. अहुणोचवण्णे देवे देवलोएसु दिन्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए-गिद्ध-गढिए-अज्झोववण्णे से णं माणसे भोगे नो पाढाति, नो परिजाणाति, से णं इच्छिज्ज माणसं० नो चेव णं संचाएति / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [173 2. अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु दिन्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव प्रजभोक्वण्णे, तस्स णं माणुस्से पेम्मे वोच्छिन्नए भवति, दिव्वे पिम्में संकते भवति, से णं इच्छेज्जा माणुसं० णो चेव णं संचाएइ। 3. अहुणोववण्णे देवे दिव्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव अज्झोववणे, तस्स णं एवं भवइइयाणि गच्छं मुहत्तं जाव इह गच्छं, अप्पाउया गरा कालधम्मुणा संजुसा भवंति, से गं इच्छेज्जा माणुस्सं० को चेव णं संचाएइ / 4. अहुणोववण्णे देवे दिवेहि जाव अज्झो ववष्णे, तस्स माणुस्सए उराले दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे भवइ, उड्ढं पि य णं चत्तारि पंच जोअणसए असुभे माणुस्सए गंधे अभिसमागच्छति, से गं इच्छेज्जा माणुसं० णो चेव णं संचाइज्जा। इच्चेएहि ठाणेहि पएसी ! प्रहुणोंबवणे देवे देवलोएसु इच्छेज्ज माणुसं लोग हन्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमाच्छित्तए, तं सद्दहाहि गं तुमं पएसी! जहा–प्रन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरोरं। २४७–प्रदेशी राजा का उक्त तर्क सुनकर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार पूछा-हे प्रदेशी ! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त करके गीली धोती पहन, झारी और धूपदान हाथ में लेकर देवकुल में प्रविष्ट हो रहे होमो और उस समय कोई पुरुष विष्ठागृह (शौचालय) में खड़े होकर यह कहे कि-हे स्वामिन् ! आओ और क्षणमात्र के लिये यहाँ बैठो, खड़े होप्रो और लेटो, तो क्या हे प्रदेशी ! एक क्षण के लिये भी तुम उस पुरुष की यह बात स्वीकार कर लोगे? प्रदेशी-- हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् उस पुरुष की बात स्वीकार नहीं करूंगा। कुमारश्रमण केशीस्वामी-उस पुरुष की बात क्यों स्वीकार नहीं करोगे ? प्रदेशी-क्योंकि भदन्त ! वह स्थान अपवित्र है और अपवित्र वस्तुओं से भरा हुग्राव्याप्त है। केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार प्रदेशी ! इसी सेयविया नगरी में तुम्हारी जो दादी धार्मिक यावत् धर्मानुरागपूर्वक जीवन व्यतीत करती थीं और हमारी मान्यतानुसार वे बहुत से पुण्य का संचय करके यावत् देवलोक में उत्पन्न हुई हैं तथा उन्हीं दादी के तुम इष्ट यावत् दुर्लभदर्शन जैसे पौत्र हो / वे तुम्हारी दादी भी शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की अभिलाषी हैं किन्तु पा नहीं सकती। हे प्रदेशी ! अधुनोत्पन्न देव देवलोक से मनुष्यलोक में आने के आकांक्षी होते हुए भी इन चार कारणों से आ नहीं पाते हैं 1. तत्काल उत्पन्न देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में मूच्छित, गृद्ध, अासक्त और तल्लीन हो जाने में मानवीय भोगों के प्रति आकर्षित नहीं होते हैं, न ध्यान देते हैं और न उनकी इच्छा करते हैं / जिससे वे मनुष्यलोक में आने की आकांक्षा रखते हुए भी आने में समर्थ नहीं हो पाते हैं / 2. देवलोक संबंधी दिव्य कामभोगों में मूच्छित यावत् तल्लीन हो जाने से अधुनोत्पन्नक देव का मनुष्य संबंधी प्रेम (आकर्षण) व्युच्छिन्न-समाप्त-सा हो जाता है- टूट जाता है और देवलोक Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] . | राजप्रश्नीयसूत्र संबंधी अनुराग संक्रांत हो जाने से मनुष्य लोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी यहाँ प्रा नहीं पाते हैं। 3. अधुनोत्पन्न देव देवलोक में जब दिव्य कामभोगों में मूच्छित यावत् तल्लीन हो जाते हैं तब वे सोचते तो हैं कि अब जाऊँ, अब जाऊँ, कुछ समय बाद जाऊँगा, किन्तु उतने समय में तो उनके इस मनुष्यलोक के अल्पायुषी संबंधी कालधर्म (मरण) को प्राप्त हो चुकते हैं। जिससे मनुष्यलोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी वे यहाँ पा नहीं पाते हैं / 4. वे अधुनोत्पन्नक देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में यावत् तल्लीन हो जाते हैं कि जिससे उनको मर्त्यलोक संबंधी अतिशय तीव्र दुर्गन्ध प्रतिकूल और अनिष्टकर लगती है एवं उस मानवीय कुत्सित दुर्गन्ध को ऊपर आकाश में चार-पांच सौ योजन तक फैल जाने से मनुष्यलोक में पाने की इच्छा रखते हुए भी वे उस दुर्गन्ध के कारण पाने में असमर्थ हो जाते हैं। अतएव हे प्रदेशी! मनुष्यलोक में आने के इच्छुक होने पर भी इन चार कारणों से अधुनोत्पन्न देव देवलोक से यहाँ आ नहीं सकते हैं। इसलिये प्रदेशी! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और न शरीर जीव है। विवेचन-यहाँ दिये गये देवकुल में प्रवेश करने के उदाहरण के स्थान पर दीघनिकाय में कुमार काश्यप ने दूसरा उदाहरण दिया है जैसे कोई पुरुष दुर्गन्धमय कूप में पड़ा हो और उसका शरीर मल से लिप्त हो और उस पुरुष को बाहर निकलकर स्नान, शरीर पर सुगंधित तेल आदि का विलेपन और माला आदि से शृगारित करने के बाद पुन: उसे दुर्गन्धित कूप में घुसने के लिए कहा जाये तो क्या वह उसमें घुसेगा ? प्रत्युत्तर में राजा ने कहा--नहीं घुसेगा। काश्यप-तो इसी प्रकार दुर्गन्धित मनुष्यलोक से स्वर्ग में पहुँचे हुए देव पुनः दूसरी बार दुर्गन्धमय मर्त्यलोक में आयेंगे क्या इत्यादि ? मनुष्यलोक में देवों के न आने के जो कारण यहां बताये हैं, इसी प्रकार दीघनिकाय में भी कहा है कि इस मनुष्यलोक के सौ वर्षों के बराबर त्रायस्त्रिंश देवों का एक दिन-रात होता है / ऐसे सौसौ वर्ष जितने समय वाले तीस दिन-रात होते हैं, तब देवों का एक मास और ऐसे बारह मास का एक वर्ष होता है / इन त्रायस्त्रिश देवों का ऐसे दिव्य हजार वर्षों जितना दीर्घ आयुष्य होता है। ये देव भी विचार करते हैं कि दो-तीन दिन में इन दिव्य कामगुणों को भोगने के बाद अपने मानवसंबंधियों को समाचार देने जाऊंगा इत्यादि / यहाँ मनुष्यलोक संबंधी दुर्गन्ध ऊपर आकाश में चार-सौ, पांच-सौ योजन तक पहुँचने का उल्लेख किया है, इसके बदले दीघनिकाय में कहा है कि देवों की दृष्टि में मनुष्य अपवित्र है, दुरभिगंध वाला है, घृणित है / मनुष्यलोक संबंधी दुर्गन्ध ऊपर सौ योजन तक पहुँचकर देवों को बाधा उत्पन्न करती है। प्रस्तुत में चार-सौ, पाँच-सौ योजन तक दुर्गन्ध पहुँचने का जो उल्लेख किया है उसकी नौ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीर वाद मंडन-खंडन] [175 योजन से अधिक दूर से आते सगंध पुद्गल ध्राणेन्द्रिय के विषय नहीं हो सकते हैं----इस शास्त्रीय उल्लेख से किस प्रकार संगति बैठ सकती है ? क्योंकि नौ योजन से अधिक दूर से जो पुद्गल आते हैं उनकी गंध अत्यन्त मंद हो जाती है, जिससे वे घ्राणेन्द्रिय के विषय नहीं हो सकते हैं। इसका समाधान करते हुए टीकाकार ने कहा है कि यद्यपि नियम तो ऐसा ही है किन्तु जो पुद्गल अति उत्कट गंध वाले होते हैं, उनके नौ योजन तक पहुँचने पर जो दूसरे पुद्गल उनसे मिलते हैं, उनमें अपनी गन्ध संक्रांत कर देते हैं और फिर वे पुद्गल भी आगे जाकर दूसरे पुद्गलों को अपनी गंध से वासित कर देते हैं / इस प्रकार ऊपर-ऊपर पुद्गल चार सौ, पाँच-सौ योजन तक पहुँचते हैं / परन्तु यह बात लक्ष्य में रखने योग्य है कि ऊपर-ऊपर वह गंध मंद-मंद होती जाती है / इसी प्रकार से मनुष्यलोक संबंधी दुर्गन्ध साधारणतया चार सौ योजन तक और यदि दुर्गन्ध अत्यन्त तीव्र हो तब पाँच सौ योजन तक पहुंचती है, इसीलिए मूलशास्त्र में चार सो, पाँच सी ये दो संख्यायें बताई हैं। इस संबंध में स्थानांग के टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि का मंतव्य है कि इससे मनुष्यक्षेत्र के दुर्गन्धित स्वरूप को सूचित किया गया है। वस्तुतः देव अथवा दूसरा कोई नौ योजन से अधिक दूर से आगत पुद्गलों की गंध नहीं जानता है, जान नहीं सकता है / शास्त्र में इन्द्रियों का जो विषयप्रमाण बतलाया है, वह संभव है कि प्रौदारिक शरीर संबंधी इन्द्रियों की अपेक्षा कहा हो / भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुखमा काल होने पर उसकी दुर्गन्ध चार सौ योजन तक और वह काल न हो तब पांच सौ योजन तक पहुँचती है, इसीलिए दो संख्याएँ बताई हैं। २४८–तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-~ अस्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छति, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाई वाहिरियाए उवदाणसालाए प्रणग गणणायक-दंडणायग-राय-ईसर-तलवर-माइंबिय कोडुबिय-इन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाह-मंति-महामंति-गणग-दोबारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्द-नगर-निगमदुय-संधिवालेहि सद्धि संपरिखुडे विहरामि / तए णं मम जगरगुत्तिया ससक्खं सलोइं सगेवेज्ज प्रवउडबंधणबद्ध चोरं उवणेति / तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतं चेव प्रउकुभीए पक्खिवावेमि, अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि, पएण य तउएण य आयावेमि, पायपच्चइयएहिं पुरिसेहिं रक्खामि / तए णं अहं अण्णया कयाइं जेणामेव सा अउकुभी तेणामेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता तं अउकुभि उग्गलच्छावेमि, उग्गलच्छावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि, णो चेव णं तीसे अयकुभोए केइ छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा जो णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए / जइ णं भंते ! तीसे अउकुभीए होज्जा केई छिड्डे वा जाव राई वा जो णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए, तो गं अहं सद्दहेज्जा-पत्तिएज्जा-रोएज्जा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं, जम्हा णं भंते ! तीसे प्रउभीए णस्थि केइ छिड्डे वा जाव निग्गए, तम्हा सुपतिट्टिया मे पइन्ना जहा-तं जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं। __ २४८--केशी कुमारश्रमण के इस उत्तर को सुनने के अनन्तर राजा प्रदेशी ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [राजप्रश्नीयसूत्र हे भदन्त ! जीव और शरीर की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए अापने देवों के नहीं आने के कारण रूप में जो उपमा दी, वह तो बुद्धि से कल्पित एक दृष्टान्त मात्र है कि देव इन कारणों से मनुष्यलोक में नहीं पाते हैं / परन्तु भदन्त ! किसी एक दिन मैं अपने अनेक गणनायक (समूह के मुखिया), दंडनायक (अपराध का विचार करने वाले), राजा (जागीरदार), ईश्वर (युवराज), तलवर (राजा की ओर से स्वर्णपट्ट प्राप्त करने वाले), माडंबिक (पांच सौ गांव के स्वामी), कौटुम्बिक (ग्रामप्रधान), इब्भ (अनेकों करोड़ धन-संपत्ति के स्वामी), श्रेष्ठी (प्रमुख व्यापारी), सेनापति, सार्थवाह (देश-देशान्तर जाकर व्यापार करने वाले), मंत्री, महामंत्री, गणक (ज्योतिषशास्त्र वेत्ता), दौवारिक (राजसभा का रक्षक), अमात्य, चेट (सेवक), पीठमर्दक (समवयस्क मित्र विशेष), नागरिक, व्यापारी, दूत, संधिपाल प्रादि के साथ अपनी बाह्य उपस्थानशाला (सभाभवन) में बैठा हुआ था। उसी समय नगर-रक्षक चुराई हुई वस्तु और साक्षी-गवाह सहित गरदन और पीछे दोनों हाथ बांधे एक चोर को पकड़ कर मेरे सामने लाये। तब मैंने उसे जीवित ही एक लोहे की भी में बंद करवा कर अच्छी तरह लोहे के ढक्कन से उसका मुख ढंक दिया / फिर गरम लोहे एवं रांगे से उस पर लेप करा दिया और देखरेख के लिये अपने विश्वासपात्र पुरुषों को नियुक्त कर दिया / तत्पश्चात् किसी दिन मैं उस लोहे की कुभी के पास गया / वहाँ जाकर मैंने उस लोहे की कभी को खुलवाया। खुलवा कर मैंने स्वयं उस पुरुष को देखा तो वह मर चुका था। किन्तु उस लोह कुंभी में राई जितना न कोई छेद था, न कोई विवर था, न कोई अंतर था और न कोई दरार थी कि जिसमें से उस (अंदर बंद) पुरुष का जीव बाहर निकल जाता। यदि उस लोहकूभी में कोई छिद्र यावत् दरार होती तो हे भदन्त ! मैं यह मान लेता कि भीतर बंद पुरुष का जीव बाहर निकल गया है और तब उससे आपकी बात पर विश्वास कर लेता, प्रतीति कर लेता एवं अपनी रुचि का विषय बना लेता-निर्णय कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव शरीर रूप नहीं और शरीर जीव रूप नहीं है। लेकिन उस लोहकभी में जब कोई छिद्र ही नहीं है यावत् जीव नहीं है तो हे भदन्त ! मेरा यह मंतव्य ठीक है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है, जीव शरीर से भिन्न नहीं और शरीर जीव से भिन्न नहीं है / २४६-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी पएसी ! से जहा नामए कडागारसाला सिया दुहनो लित्ता-गुत्ता-गुत्तदुवारा-णिवायगंभीरा / ग्रहणं के परिसे भेरि च दंडं च गहाय कडागारसालाए अंतो अंतो प्रणपविसति, तीसे कडागार. सालाए सव्वतो समंता घण-निचिय-निरंतर-णिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेइ, तीसे कडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरि दंडएणं महया-महया सद्देणं तालेज्जा, से जूणं पएसी ! से सद्दे णं अंतोहितो बहिया निग्गच्छइ ? हंता णिगच्छइ। अस्थि शं पएसी! तोसे कूडागारसालाए केइ छिड्डे वा जाव राई वा जत्रो णं से सद्दे अंतोहितो बहिया णिग्गए ? Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन / [ 177 नो तिणठे समठे। एवामेव पएसी! जीवे वि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा, सिलं भिच्चा, पव्वयं भिच्चा अंतोहितो बहिया णिग्गच्छइ, तं सद्दहाहि णं तुम पएसी! अण्णो जीवो तं चेव / २४६–प्रदेशी राजा की इस युक्ति को सुनने के पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा हे प्रदेशी! जैसे कोई एक कटाकारशाला (पर्वत के शिखर जैसी आकृति वाला भवन) हो और वह भीतर-बाहर चारों ओर लीपी हुई हो, अच्छी तरह से आच्छादित हो, उसका द्वार भी गुप्त हो और हवा का प्रवेश भी जिसमें नहीं हो सके, ऐसी गहरी हो / अब यदि उस कुटाकारशाला में कोई पुरुष भेरी और बजाने के लिए डंडा लेकर घुस जाये और घुसकर उस कुटाकारशाला के द्वार आदि को इस प्रकार चारों ओर से बंद कर दे कि जिससे कहीं पर भी थोड़ा-सा अंतर नहीं रहे और उसके बाद उस कुटाकारशाला के बीचों-बीच खड़े होकर डंडे से भेरी को जोर-जोर से बजाये तो हे प्रदेशी! तुम्हीं बताओ कि वह भीतर की आवाज बाहर निकलती है अथवा नहीं ? अर्थात् सुनाई पड़ती है या नहीं? प्रदेशी–हाँ भदन्त ! निकलती है / केशी कुमारश्रमण हे प्रदेशी ! क्या उस कुटाकारशाला में कोई छिद्र यावत् दरार है कि जिसमें से वह शब्द बाहर निकला हो? प्रदेशी–हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् वहाँ पर कोई छिद्रादि नहीं कि जिससे शब्द बाहर निकल सके / केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार प्रदेशी! जीव भी अप्रतिहत गति वाला है / वह पृथ्वी का भेदन कर, शिला का भेदन कर, पर्वत का भेदन कर भीतर से बाहर निकल जाता है / इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न (पृथक्-पृथक् ) हैं, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं है। २५०-तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वदासी अस्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाइ बाहिरियाए उदट्ठाणसालाए जाव' बिहरामि, तए णं ममं जगरगुत्तिया ससक्खं जाव' उवणेति, तए णं अहं (तं) पुरिसं जीवियानो ववरोवेमि, जीवियानो ववरोवेत्ता अयोकुभीए पक्खिवावेमि, प्रउमएणं पिहावेमि जाव' पच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि। तए णं अहं अन्नया कयाइं जेणेव सा कुभी तेणेव उवागच्छामि, तं प्रउकुभि उग्गलच्छावेमि, तं अउकुमि किमिकुभि पिव पासामि / णो चेव णं तोसे अउकुमीए केइ छिड्डे इ वा जाव राई वा जता णं ते जीवा बहियाहितो अणुपविट्ठा, जति णं तीसे प्रउकुमोए होज्ज केइ छिड्डे इ वा जाव 1-2. देखें सूत्र संख्या 248 3. देखें सूत्र संख्या 248 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र प्रणपविठ्ठा, तेणं अहं सद्दहेज्जा जहा-अन्नो जीवोतं चेव, जम्हा ण तोसे अउभीए नत्थि केइ छिड्डे इ वा जाव अणुपविट्ठा तम्हा सुपति ठिया मे पइण्णा जहा--तं जीवो तं सरीरं तं चेव / २५०-इस उत्तर को सुनने के पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा भदन्त ! यह आप द्वारा प्रयुक्त उपमा तो बुद्धिविशेष रूप है, इससे मेरे मन में जीव और शरीर की भिन्नता का विचार युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि हे भदन्त ! किसी समय मैं अपनी बाहरी उपस्थानशाला में गणनायक आदि के साथ बैठा हुआ था। तब मेरे नगररक्षकों ने साक्षी सहित यावत् एक चोर पुरुष को उपस्थित किया। मैंने उस पुरुष को प्राणरहित कर दिया अर्थात मार डाला और मारकर एक लोहक भी में डलवा दिया, ढक्कन से ढांक दिया यावत अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया। इसके बाद किसी दिन जहाँ वह कुभी थी, मैं वहाँ आया। आकर उस लोहकुभी को उघाड़ा तो उसे कृमिकुल से व्याप्त देखा। लेकिन उस लोहकु भी में न तो कोई छेद था, न कोई दरार थी कि जिसमें से वे जीव बाहर से उसमें प्रविष्ट हो सकें। यदि उस लोहकुभी में कोई छेद होता यावत् दरार होती तो यह माना जा सकता था-मान लेता कि वे जीव उसमें से होकर कुभी में प्रविष्ट हए हैं और तब मैं श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है। लोहक भी में कोई छेद आदि नहीं थे, फिर भी उसमें जीव प्रविष्ट हो गये / अत: मेरी यह प्रतीति सुप्रतिष्ठित-समीचीन है कि जीव और शरीर एक ही हैं अर्थात् जीव शरीर रूप है और शरीर जीव रूप है। २५१-तए णं केसी कुमारसमणे पएसी रायं एवं क्यासी-- अस्थि णं तुमे पएसी! कयाइ भए धंतपुध्वे वा धम्मावियपुध्वे वा ? हंता प्रथि। से पूणं पएसी ! अए धंते समाणे सव्वे अगणिपरिणए भवति ? हंता भवति / अस्थि णं पएसी ! तस्स अयस्स केई छिड्डे इ वा जेणं से जोई बहियाहितो अंतो अणुपविठे ? नो इणमठे (इणठे) समठे। एवामेव पएसी! जीवो वि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा, सिलं भिच्चा बहियाहितो अणुपविसइ, तं सद्दहाहि णं तुम पएसी ! तहेव / २५१--तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा--हे प्रदेशी ! क्या तुमने पहले कभी अग्नि से तपाया हुअा लोहा देखा है अथवा स्वयं लोहे को तपवाया है ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! देखा है। केशी कुमारश्रमण-तब हे प्रदेशी ! तपाये जाने पर वह लोहा पूर्णतया अग्नि रूप में परिणत हो जाता है या नहीं ? Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [ 179 प्रदेशी–हाँ भदन्त ! हो जाता है। ___ केशी कुमारश्रमण--हे प्रदेशी ! उस लोहे में कोई छिद्र आदि है क्या, जिससे वह अग्नि बाहर से उसके भीतर प्रविष्ट हो गई ? प्रदेशी-भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है / अर्थात् उस लोहे में कोई छिद्र आदि नहीं होता। केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव भी अप्रतिहत गति वाला है, जिससे वह पृथ्वी, शिला आदि का भेदन करके बाहर से भीतर प्रविष्ट हो जाता है / इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम इस बात की श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है। विवेचन-केशी कूमारश्रमण के कथन का यह आशय है कि ये जीव दूसरी गति से च्यवन कर इस मृत शरीर में आकर उत्पन्न हुए हैं / २५२–तए णं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं वयासी अस्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छई, अस्थि णं भंते ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए पभू पंचकंडगं निसिरित्तए ? हंता, पभू / जति णं भंते ! सो च्चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे पभू होज्जा पंचकंडगं निसिरित्तए, तो णं अहं सद्दहेज्जा जहा-अन्नो जीवो तं चेव, जम्हा णं भंते ! स चेव से पुरिसे जाव मंदविन्माणे णो पभू पंचकंडगं निसिरित्तए, तम्हा सुपइट्ठिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो तं चेव / / .२५२–पूर्वोक्त युक्ति को सुनकर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा--बुद्धि-विशेषजन्य होने से आपकी उपमा वास्तविक नहीं है। किन्तु जो कारण मैं बता रहा हूँ, उससे जीव और शरीर को भिन्नता सिद्ध नहीं होती है / वह कारण इस प्रकार है हे भदन्त ! जैसे कोई एक तरुण यावत् (युगवान, बलशाली, निरोग, स्थिर संहनन वाला, सुदृढ़ पहुँचा वाला, हाथ-पैर-पोठ-जंघाओं आदि से संपन्न, सघन-सुदृढ गोल-गोल कंधे वाला, चमड़े के पट्टों, मुष्टिकाओं आदि के प्रहारों से सुगठित शरीर वाला, हृदय बल से संपन्न, सहोत्पन्न ताल वृक्ष के समान बाहु-युगल वाला, लांघने-कूदने-चलने में समर्थ, चतुर, दक्ष, कुशल, बुद्धिमान्) और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुण पुरुष क्या एक साथ पांच वाणों को निकालने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमण-हाँ वह समर्थ है / प्रदेशी-लेकिन वही पुरुष यदि बाल यावत् मंदविज्ञान वाला होते हुए भी पांच वाणों को एक साथ निकालने में समर्थ होता तो हे भदन्त ! मैं यह श्रद्धा कर सकता था कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर नहीं है। लेकिन वही बाल, मंदविज्ञान वाला पुरुष पांच वाणों को एक साथ निकालने में समर्थ नहीं है, इसलिये भदन्त ! मेरी यह धारणा कि जीव और शरीर एक हैं, जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है, सुप्रतिष्ठित--प्रामाणिक, सुसंगत है / Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र २५३-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासो--- से जहानामए केह पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवएणं धणुणा नवियाए जीवाए नवएणं इसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए? हंता, पमू। सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगते कोरिल्लिएणं धणुणा कोरिल्लियाए जीवाए कोरिल्लिएणं इसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए ? जो तिणमठे समठे। कम्हा ? भंते ! तस्स पुरिसस्स अपज्जत्ताई उवगरणाई हवंति / एवामेव पएसी ! सो चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे अपज्जत्तोवगरणे, णो पभू पंचकंडयं निसिरित्तए, तं सदहाहि गं तुमं पएसी! जहा अन्नो जीवो तं चेव / २५३-राजा प्रदेशी के इस तर्क के प्रत्युत्तर में केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहाजैसे कोई एक तरुण यावत् कार्य करने में निपुण पुरुष नवीन धनुष, नई प्रत्यंचा (डोरी) और नवीन बाण से क्या एक साथ पाँच वाण निकालने में समर्थ है अथवा नहीं है ? प्रदेशी-हाँ समर्थ है। केशी कुमारश्रमण-लेकिन वही तरुण यावत् कार्य-कुशल पुरुष जीर्ण-शीर्ण, पुराने धनुष, जीर्ण प्रत्यंचा और वैसे ही जीर्ण बाण से क्या एक साथ पाँच वाणों को छोड़ने में समर्थ हो सकता है ? प्रदेशी-भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् पुराने धनुष आदि से वह एक साथ पांच वाण छोड़ने में समर्थ नहीं होगा। केशी कुमारश्रमण-क्या कारण है कि जिससे यह अर्थ समर्थ नहीं है ? प्रदेशी-भदन्त ! उस पुरुष के पास उपकरण (साधन) अपर्याप्त हैं / केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह बाल यावत् मंदविज्ञान पुरुष योग्यता रूप उपकरण की अपर्याप्तता के कारण एक साथ पांच वाणों को छोड़ने में समर्थ नहीं हो पाता है। अतः प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक हैं, जीव शरीर नहीं और शरीर जीव नहीं है। २५४--तए णं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं क्यासी-- अस्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेण पुण कारणेणं नो उवागच्छइ, भंते ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगते पभू एगं महं अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारगं या परिवहितए ? हंता पभू। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [ 181 सो चेव णं भंते ! पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियवेहे सिढिलवलितयाविणट्ठगत्ते दंडपरिग्गहियगहत्थे पविरलपरिसडियदंतसेढी प्राउरे किसिए पिवासिए दुब्बले किलते नो पमू एगं महं अयमारगं वा जाव परिवहित्तए, जति णं भंते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियवेहे जाव परिकिलते पभू एगं महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए तो गं सद्दहेज्जा तहेव, जम्हा णं भंते ! से चेव पुरिसे जुन्ने जाव किलते नो पभ एगं महं प्रयभारं वा जाव परिवहितए, तम्हा सुपतिट्टिता मे पइण्णा तहेव / २५४--इस उत्तर को सुनकर प्रदेशी राजा ने पुन: केशी कुमारश्रमण से कहा--हे भदन्त ! यह तो प्रज्ञाजन्य उपमा है, वास्तविक नहीं है। किन्तु मेरे द्वारा प्रस्तुत हेतु से तो यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर में भेद नहीं है / वह हेतु इस प्रकार है भदन्त ! कोई एक तरुण यावत् कार्यक्षम पुरुष एक विशाल वजनदार लोहे के भार को, सीसे के भार को या रांगे के भार को उठाने में समर्थ है अथवा नहीं है ? केशी कुमारश्रमण-हाँ समर्थ है। प्रदेशी-लेकिन भदन्त ! जब वही पुरुष वृद्ध हो जाए और वृद्धावस्था के कारण शरीर जर्जरित, शिथिल, झुरियों वाला एवं अशक्त हो, चलते समय सहारे के लिए हाथ में लकड़ी ले, दंतपंक्ति में से बहुत से दांत गिर चुके हों, खाँसी, श्वास आदि रोगों से पीड़ित होने के कारण कमजोर हो, भूख-प्यास से व्याकुल रहता हो, दुर्बल और क्लान्त-थका-मांदा हो तो उस वजनदार लोहे के भार को, रांगे के भार को अथवा सीसे के भार को उठाने में समर्थ नहीं हो पाता है / हे भदन्त ! यदि वही पुरुष वृद्ध, जरा-जर्जरित शरीर यावत् परिक्लान्त होने पर भी उस विशाल लोहे के भार आदि को उठाने में समर्थ होता तो मैं यह विश्वास कर सकता था कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है, जीव और शरीर एक नहीं हैं। लेकिन भदन्त ! वह पुरुष वृद्ध यावत् क्लान्त हो जाने से एक विशाल लोहे के भार आदि को उठाने में समर्थ नहीं है / अतः मेरी यह धारणा सुसंगत-समीचीन है कि जीव और शरीर दोनों एक ही हैं, किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। २५५-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी-- से जहाणामए के पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवियाए विहंगियाए, णवएहि सिक्कएहि, णवहि पच्छिपिंडएहिं पहू एगं महं अयभारं जाव (वा तउयभारं वा सोसगभारं वा) परिवहित्तए ? हंता पमू। पएसी ! से चेव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए जुन्नियाए दुब्बलियाए घुणक्खइयाए विहंगियाए जुण्णएहिं दुब्बलएहि घुणक्खइएहि सिढिलतयापिणद्धहि सिक्कएहि, जुण्णएहिं दुब्बलिएहि घुणखइएहि पछिपिडएहि पभू एगं महं प्रयभारं वा जाव परिवहित्तए ? जो तिणठे समठे। कम्हा गं? भंते ! तस्स पुरिसस्स जुन्नाइं उवगरणाई भवंति / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [राजप्रश्नीयसूत्र पएसी ! से चेव से पुरिसे जुन्ने जाव' किलते जुत्तोवगरणे नो पभू एग महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसो ! जहा-अन्नो जीवो अन्नं सरोरं / २५५--प्रदेशी राजा की इस बात को सुनकर केशी कुमारश्रमण ने राजा प्रदेशी से कहा-- जैसे कोई एक तरुण यावत् कार्यनिपुण पुरुष नवीन कावड़ से, रस्सी से बने नवीन सीके से और नवीन टोकनी से एक बहुत बड़े, वजनदार लोहे के भार को यावत् (रांगे और सीसे के भार को) वहन करने में (उठाने, ढोने में) समर्थ है या नहीं है ? प्रदेशी–हाँ समर्थ है। केशी कुमारश्रमण-अब मैं पुन: तुम से पूछता हूँ कि हे प्रदेशी ! वही तरुण यावत् कार्यकुशल पुरुष क्या सड़ी-गली, पुरानी, कमजोर, घुन से खाई हुई कावड़ से, जीर्ण-शीर्ण, दुर्बल, दीमक के खाये एवं ढोले-ढाले सोंके से. और पुराने, कमजोर और दीमक लगे टोकने से एक बड़े वजनदार लोहे के भार आदि को ले जाने में समर्थ है ? प्रदेशी-हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् जीर्ण-शीर्ष कावड़ आदि से भार ले जाने में समर्थ नहीं है। केशी कुमारश्रमण-क्यों समर्थ नहीं है ? प्रदेशी-क्योंकि भदन्त ! उस पुरुष के पास भारवहन करने के उपकरण–साधन जीर्णशीर्ण हैं। केशी कुमारश्रमण तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह पुरुष जीर्ण यावत् क्लान्त शरीर प्रादि उपकरणों वाला होने से एक भारी वजनदार लोहे के भार को यावत् (सीसे के भार को, रांगे के भार को) वहन करने में समर्थ नहीं है। इसीलिए प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं / २५६-तए णं से पएसी केसिकुमारसमणं एवं क्यासी-- अस्थि णं भंते ! जाव (एस पण्णा उवमा इमेण पुण कारणणं) नो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! जाव' विहरामि / तए णं मम जगरगुत्तिया चोरं उवणेति / तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतगं चेव तुलेमि, तुलेत्ता छविच्छेयं अकुश्वमाणे जीवियाओ ववरोवेमि, मयं तुलेमि, णो चेव णं तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स वा मुयस्स वा तुलियस्स केइ प्राणते वा, नाणत्ते वा, ओमत्ते वा, तुच्छत्ते वा, गुरुयत्ते वा, लहुयत्ते वा, जति णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स केइ अन्नत्ते वा जाब लहुयत्ते वा तो णं अहं सद्दहेज्जा तं चेव / जम्हा णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जोवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा तुलियस्स नस्थि केइ अन्नत्ते वा लहुयत्ते वा तम्हा सुपतिविया मे पइन्ना जहा-तं जोवो तं चेव / २५६-इसके बाद उस प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से ऐसा कहा-हे भदन्त ! आपकी यह उपमा वास्तविक नहीं है, इससे जीव और शरीर को भिन्नता नहीं मानी जा सकती 1. देखे सूत्र संख्या 254 2. देखें सूत्र संख्या 248 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [183 है / लेकिन जो प्रत्यक्ष कारण मैं बताता हूँ, उससे यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर एक ही हैं / वह कारण इस प्रकार है-- हे भदन्त ! किसी एक दिन मैं गणनायक आदि के साथ बाहरी उपस्थानशाला में बैठा था। तोला / तोलकर फिर मैंने अंगभंग किये बिना ही उसको जीवन रहित कर दिया--मार डाला और मार कर फिर मैंने उसे तोला / उस पुरुष का जीवित रहते जो तोल था उतना ही मरने के बाद था। जीवित रहते और मरने के बाद के तोल में मुझे किसो भी प्रकार का अंतर-न्यूनाधिकता दिखाई नहीं दी, न उसका भार बढ़ा और न कम हुना, न वह वजनदार हुआ और न हल्का हुना। इसलिए हे भदन्त ! यदि उस पुरुष के जोवितावस्था के वजन से मृतावस्था के वजन में किसी प्रकार को न्यूनाधिकता हो जातो, यावत् हलकापन पा जाता तो मैं इस बात पर श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है / / लेकिन भदन्त ! मैंने उस पुरुष की जीवित और मृत अवस्था में किये गये तोल में किसी प्रकार की भिन्नता, न्यूनाधिकता यावत् लघुता नहीं देखी। इस कारण मेरा यह मानना समोचीन है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। २५७----तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासीअस्थि णं पएसी! तुमे कयाइ क्थी धंतपुठने वा धमावियपुब्वे वा ? हंता अस्थि / अस्थि णं पएसो तस्त वस्थिस्स पुण्णस्स वा तुलियस्स अपुण्णस्स वा तुलियस्स केइ अण्णत्ते या जाव लहुयत्ते वा? णो तिणठे समठे। एवामेव पएसी ! जीवस्स अगुरुलधुयत्तं पडुच्च जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस वा तुलियस्स नस्थि केइ प्राणते वा जाव लहुयत्ते वा, तं सदाहि णं तुमं पएसी! तं चेव / २५७---इसके बाद केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे प्रदेशी ! तुमने कभी धौंकनी में हवा भरी है अथवा किसी से भरवाई है ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! भरी है और भरवाई है / केशी कुमारश्रमण-हे प्रदेशी ! जब वायु से भर कर उस धौंकनी को तोला तब और वायु को निकाल कर तोला तब तुमको उसके वजन में कुछ न्यूनाधिकता यावत् लघुता मालूम हुई ? प्रदेशी-भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है, यानी न्यूनाधिकता यावत् लघुता कुछ भी दृष्टिगत नहीं हुई। केशी कुमारश्रमण-तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव के अगुरुलघुत्व को समझ कर उस चोर के शरीर के जीवितावस्था में किये गये तोल में और मृतावस्था में किये गये तोल में कुछ भी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [राजप्रश्नीयसूत्र नानात्व यावत् लघुत्व नहीं है। इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव-शरीर एक नहीं हैं। २५८–तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी-- अस्थि णं भंते ! एसा जाव' नो उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया जाव चोरं उवणेति / तए णं अहं तं पुरिसं सव्वतो समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, तए णं अहं तं पुरिसं दुहा फालियं करेमि, करित्ता सव्वतो समंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि, एवं तिहा चउहा संखेज्जफालियं करेमि, णो चेव णं तत्थ जीवं पासामि / जइ णं भंते ! अहं तं पुरिसं दुहा वा, तिहा वा, चउहा वा, संखेज्जहा वा फालियंमि वा जीवं पासंतो तो णं अहं सद्दहेज्जा नो तं चेव, जम्हा गं भंते ! अहं तंसि दुहा वा तिहा वा चउहा वा संखिज्जहा वा फालियंमि वा जीवं न पासामि तम्हा सुपतिट्टिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो तं सरीरं तं चेव / २५८--केशी कुमारश्रमण की उक्त बात को सुनने के पश्चात् प्रदेशी राजा ने पुन: केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! आपकी यह उपमा बुद्धिप्रेरित होने से वास्तविक नहीं है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक् हैं। क्योंकि भदन्त ! बात यह है कि किसी समय मैं अपने गणनायकों आदि के साथ बाह्य उपस्थानशाला में बैठा था। यावत् नगररक्षक एक चोर को पकड़ कर लाये / तब मैंने उस पुरुष को सभी अोर से (सिर से पैर तक) अच्छी तरह देखा-भाला, परन्तु उसमें मुझे कहीं भी जीव दिखाई नहीं दिया। इसके बाद मैंने उस पुरुष के दो टुकड़े कर दिये। टुकड़े करके फिर मैंने अच्छी तरह सभी ओर से देखा। तब भी मुझे जीव नहीं दिखा। इसके बाद मैंने उसके तीन, चार यावत् संख्यात टुकड़े किये, परन्तु उनमें भी मुझे कहीं पर जीव दिखाई नहीं दिया। यदि भदन्त ! मुझे उस पुरुष के दो, तीन, चार अथवा संख्यात टुकड़े करने पर भी कहीं जीव दिखता तो मैं यह श्रद्धा-विश्वास कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं हैं। लेकिन हे भदन्त ! जब मैंने उस पुरुष के दो, तीन, चार अथवा संख्यात टुकड़ों में भी जीव नहीं देखा है तो मेरी यह धारणा कि जीव शरीर है और शरीर जीव है, जीव-शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं, सुसंगत-सुस्थिर है। २५६–तए णं केसिकुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासीमूढतराए णं तुमं पएसी ! तानो तुच्छतरायो / के णं भंते ! तुच्छतराए ? पएसी ! से जहाणामए केइ पुरिसे वणत्थी वणोवजीवो वणगवेसणयाए जोइं च जोइभायणं च गहाय कटाणं अडवि अणुपविट्ठा, तए णं ते पुरिसा तीसे अगामियाए जाव किचिदेसं अणुप्पत्ता समाणा एगं पुरिसं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया! कट्ठाणं अडवि पविसामो, एत्तो गं तुमं जोइभायणाश्रो जोइं गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि / अह तं जोइभायणे जोई विझवेज्जा एत्तो णं तुम कट्टायो जोई गहाय अम्हं असणं साहेज्जासि, ति कटु कट्ठाणं अडवि अणुपविट्ठा। 1. देखें सूत्र संख्या 254 2. देखें सूत्र संख्या 248 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [ 185 ___तए णं से पुरिसे तो मुहत्तन्तरस्स तेसि पुरिसाणं असणं साहेमि ति कटु जेणेव जोतिभायणे तेणेव उवागच्छइ / जोइभायणे जोई विज्झायमेव पासति / तए णं से पुरिसे जेणेव से कट्ठ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं कटु सम्वनो समंता समभिलोएति, नो चेव णं तत्थ जोइं पासति / तए णं से पुरिसे परियरं बंधइ, फरसुगिण्हइ, तं कट्ठ दुहा फालियं करेइ, सव्वतो समंता समभिलोएइ, णो चेव णं तत्थ जोइं पासइ / एवं जाव संखेज्जफालियं करेइ, सन्वतो समंता समभिलोएइ, नो चेव णं तत्थ जोई पासइ। तंते परिसंते निविणे समाणे परसु एगते एडेइ, परियरं मुयइ एवं बयासो-अहो ! मए तेसि पुरिसाणं असणे नो साहिए ति कटु पोयमणसंकप्पे चित्तासोगसागरसंपविट्ठ करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्माणोवगए भूमिगयदि ट्ठिए झियाइ। तए णं ते पुरिसा कट्ठाई छिदंति, जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति / तं पुरिसं पोहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासंति एवं वयासो–कि णं तुम देवाणुपिया ! प्रोहयमणसंकप्पे जाव झियायर्यास? तए णं से पुरिसे एवं क्यासी-तुझे णं देवाणुपिया ! कट्टाणं अधि अपविसमाणा मम एवं क्यासी-प्रम्हे गं देवाणप्पिया ! कटाणं अडवि जाव पविट्ठा, तए णं अहं तत्तो मुहत्तंतरस्स तुझं असणं साहेमि त्ति कटु जेणेव जोइभायणे जाव झियामि। तए णं तेसि पुरिसाणं एगे पुरिसे छेए, दक्खे, पत्त? जाव उवएसलद्ध, ते पुरिसे एवं वयासीगच्छह गं तुझे देवाणुप्पिया ! व्हाया कयबलिकम्मा जाव हव्यमागच्छेह, जा गं अहं असणं साहेमि त्ति कटु परियरं बंधइ, परसु गिण्हइ सरं करेइ, सरेण अरणि महेइ जोई पाडेइ, जोई संधुक्खेइ, तेसि पुरिताणं असणं साहेइ। तए णं ते पुरिसा बहाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति, तए णं से पुरिसे तेसि पुरिसाणं सुहासणवरगयाणं तं विउलं असणं-पाणं-खाइम-साइमं उवणेइ / तए णं ते पुरिसा तं विउल असणं 4 (पाणं-खाइम-साइमं) प्रासाएमाणा वीसाएमाणा जाव विहरंति / जिमियभुत्तुतरागया वि य णं समाणा प्रायंता चोक्खा परमसुइभूया तं पुरिसं एवं वयासो-अहो ! णं तुम देवाणुप्पिया ! जड्डे-मूढे-अपंडिए-णिविण्णाणे-अणुवएसलद्ध, जे णं तुम इच्छसि कसि दुहाफालियंसि वा जोति पासित्तए / 256 –प्रदेशी राजा के इस कथन को सुनने के अनन्तर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-हे प्रदेशो! तुम तो मुझे उस दीन-हीन कठियारे (लकड़ी ढोने वाले) से भी अधिक मूढविवेकहीन प्रतीत होते हो। प्रदेशी–हे भदन्त ! कौनसा दीन-हीन कठियारा ? केशी कुमारश्रमण-हे प्रदेशी! वन में रहने वाले और वन से आजीविका कमाने वाले कुछएक पुरुष वनोत्पन्न वस्तुओं की खोज में आग और अंगीठी लेकर लकड़ियों के वन में प्रविष्ट हुए। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [ राजप्रश्नीयसूत्र प्रविष्ट होने के पश्चात् उन पुरुषों ने दुर्गम वन के किसी प्रदेश में पहुंचने पर अपने एक साथी से कहा-देवानप्रिय ! हम इस लकड़ियों के जंगल में जाते हैं। तम यहाँ अंगीठी से प्राग लेकर हमारे लिये भोजन तैयार करना / यदि अंगीठी में आग बुझ जाये तो तुम इस लकड़ी से आग पैदा करके हमारे लिए भोजन बना लेना / इस प्रकार कहकर वे सब उस काष्ठ-वन में प्रविष्ट हो गए। उनके चले जाने पर कुछ समय पश्चात् उस पुरुष ने विचार किया-चलो उन लोगों के लिए जल्दी से भोजन बना लू। ऐसा विचार कर वह जहाँ अंगीठी रखी थी, वहाँ आया। आकर अंगीठी में आग को बुझा हुआ देखा / तब वह पुरुष वहाँ पहुँचा जहाँ वह काष्ठ पड़ा हुआ था। वहाँ पहुँचकर चारों ओर से उसने काष्ठ को अच्छी तरह देखा, किन्तु कहीं भी उसे आग दिखाई नहीं दी / तब उस पुरुष ने कमर कसी और कुल्हाड़ी लेकर उस काष्ठ के दो टुकड़े कर दिये। फिर उन टुकड़ों को भी सभी ओर से अच्छी तरह देखा, किन्तु कहीं आग दिखाई नहीं दी। इसी प्रकार फिर तीन, चार, पाँच यावत् संख्यात टुकड़े किये परन्तु देखने पर भी उनमें कहीं आग दिखाई नहीं दी। __इसके बाद जब उस पुरुष को काष्ठ के दो से लेकर संख्यात टुकड़े करने पर भी कहीं आग दिखाई नहीं दी तो वह श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और दुःखित हो, कुल्हाड़ी को एक ओर रख और कमर को खोलकर मन-ही-मन इस प्रकार बोला-अरे ! मैं उन लोगों के लिए भोजन नहीं बना सका / अब क्या करूं। इस विचार से अत्यन्त निराश, दुःखी, चिन्तित, शोकातुर हो हथेली पर मुंह को टिकाकर प्रार्तध्यानपूर्वक नीचे जमीन में आँखें गड़ाकर चिंता में डूब गया। लकड़ियों को काटने के पश्चात् वे लोग वहाँ आये जहाँ अपना साथी था और उसको निराश, दुःखी यावत् चिन्ताग्रस्त देखकर उससे पूछा-देवानुप्रिय ! तुम क्यों निराश, दुःखी यावत् चिन्ता में डूबे हुए हो? तब उस पुरुष ने बताया कि देवानुप्रियो ! आप लोगों ने लकड़ी काटने के लिए वन में प्रविष्ट होने से पहले मुझसे कहा था-देवानुप्रिय ! हम लोग लकड़ी लाने जंगल में जाते हैं, इत्यादि यावत् जंगल में चले गये / कुछ समय बाद मैंने विचार किया कि आप लोगों के लिए भोजन बना लू। ऐसा विचार कर जहाँ अंगीठी थी, वहाँ पहुँचा यावत् (वहाँ जाकर मैंने देखा कि अंगीठी में आग बुझी हुई है। फिर मैं काष्ठ के पास आया। मैंने अच्छी तरह सभी ओर से उस काष्ठ को देखा किन्तु कहीं भी मुझे प्राग दिखाई नहीं दी / तब मैंने कुल्हाड़ी लेकर उस काष्ठ के दो टुकड़े किये और उन्हें भी इधर-उधर से अच्छी तरह देखा / परन्तु वहाँ भी मुझे प्राग दिखाई नहीं दी। इसके बाद मैंने उसके तीन, चार यावत् संख्यात टुकड़े किये / उनको भी अच्छी तरह देखा, परन्तु उनमें भी कहीं आग दिखलाई नहीं दी। तब श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और दु:खित होकर कुल्हाड़ी को एक ओर रखकर विचार किया कि मैं आप लोगों के लिए भोजन नहीं बना सका। इस विचार से मैं अत्यन्त निराश, दुःखी हो शोक और चिन्ता रूपी समुद्र में डूबकर हथेली पर मुंह को टिकाये) पातध्यान कर रहा हूँ। . उन मनुष्यों में कोई एक छेक-अवसर को जानने वाला, दक्ष-चतुर, प्राप्तार्थ-कुशलता से अपने अभीप्सित अर्थ को प्राप्त करने वाला यावत् (बुद्धिमान्, कुशल, विनीत, विशिष्टज्ञानसंपन्न), उपदेश लब्ध-गुरु से उपदेश प्राप्त पुरुष था। उस पुरुष ने अपने दूसरे साथी लोगों से इस प्रकार कहा--- Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद खंडन-मंडन] [ 187 हे देवानुप्रियो ! आप जाओ और स्नान, बलिकर्म आदि करके शीघ्र आ जायो / तब तक मैं आप लोगों के लिए भोजन तैयार करता हैं / ऐसा कहकर उसने अपनी कमर कसी और कुल्हाड़ी लेकर सर बनाया, सर से अरणि-काष्ठ को रगड़कर अाग की चिनगारी प्रगट की। फिर उसे धौंक कर सुलगाया और फिर उन लोगों के लिए भोजन बनाया। . __इतने में स्नान आदि करने गये पुरुष वापस स्नान करके, बलिकर्म करके यावत् प्रायश्चित्त करके उस भोजन बनाने वाले पुरुष के पास आ गये। तत्पश्चात् उस पुरुष ने सुखपूर्वक अपने-अपने आसनों पर बैठे उन लोगों के सामने उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चार प्रकार का भोजन रखा-परोसा / वे उस विपुल अशन आदि रूप चारों प्रकार के भोजन का स्वाद लेते हुए, खाते हुए यावत् विचरने लगे। भोजन के बाद आचमनकुल्ला आदि करके स्वच्छ, शुद्ध होकर अपने पहले साथी से इस प्रकार बोले- हे देवानुप्रिय ! तुम जड़अनभिज्ञ, मूढ-मूर्ख (विवेकहीन), अपंडित (प्रतिभारहित), निविज्ञान (निपुणतारहित) और अनुपदेशलब्ध (अशिक्षित) हो, जो तुमने काठ के टुकड़ों में आग देखना चाही। इसी प्रकार की तुम्हारी भी प्रवृत्ति देखकर मैंने यह कहा-हे प्रदेशी ! तुम इस तुच्छ कठियारे से भी अधिक मूढ़ हो कि शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके जीव को देखना चाहते हो। २६०-तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी जुतए णं भंते ! तुम्भ इय छेयाणं दक्खाणं बुद्धाणं कुसलाणं महामईणं विणीयाणं विष्णाणपत्ताणं उवएसलद्धाणं अहं इमोसाए महालियाए महच्च परिसाए मज्झे उच्चावएहि पाउसेहि प्राउसितए ? उच्चावयाहि उद्धसणाहि उद्ध सित्तए ? एवं निभंछणाहि निब्भंच्छणित्तए ? निच्छोडपाहि निच्छोडणत्तए ? २६०-कुमारश्रमण केशीस्वामी की उक्त बात (उदाहरण) को सुनकर प्रदेशी राजा ने केशीस्वामी से कहा-भंते ! आप जैसे छेक--अवसरज्ञ, दक्ष-चतुर, बुद्ध-तत्त्वज्ञ, कुशल-कर्तव्याकर्तव्य के निर्णायक, बुद्धिमान्, विनीत--विनयशील, विशिष्ट ज्ञानी, सत्-असत् के विवेक से संपन्न (हेयोपादेय को परीक्षा करने वाले), उपदेशलब्ध-गुरु से शिक्षा प्राप्त पुरुष का इस अति विशाल परिषद् के बीच मेरे लिये इस प्रकार के निष्ठुर-आक्रोशपूर्ण शब्दों का प्रयोग करना, अनादरसूचक शब्दों से मेरी भर्त्सना करना, अनेक प्रकार के अवहेलना भरे शब्दों से मुझे प्रताडित करना, धमकाना क्या उचित है ? २६१–तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं बयासीजाणासि णं तुमं पएसी! कति परिसानो पण्णत्तानो ? जाणामि, चत्तारि परिसानो पण्णतामो, तं जहा-खत्तियपरिसा, गाहावइपरिसा, माहणपरिसा, इसिपरिप्ता। जाणासि णं तुम पएसी राया ! एयासि चउण्हं परिसाणं कस्स का दंडणीई पण्णता ? Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [ राजप्रश्नीयसूत्र हता ! जाणामि / जे णं खत्तियपरिसाए अवरज्झइ से णं हत्थच्छिण्णए वा, पायच्छिण्णए वा, सीसच्छिण्णए वा, सूलाइए वा एगाहच्चे कूडाहच्चे जीवियाओ क्वरोविज्जइ / जे णं गाहावइपरिसाए अवरज्झइ से णं तएण वा, वेढेण वा, पलालेण वा, वेढित्ता अगणिकाएणं झामिज्जइ। __ जे णं माहणपरिसाए अवरज्झइ से णं अणिढाहिं अकंताहिं जाव अमणामाहिं वागूहि उवालंभित्ता कुडियालंछणए वा सूणगलंछणए वा कोरइ, निधिसए वा प्राणविज्जइ / जे णं इसिपरिसाए अवरज्झइ से णं णाइअणिवाहिं जाव गाइग्रमणामाहि वहि उवालगभइ। एवं च ताव पएसो! तुमं जाणासि तहा वि गं तुम ममं वामं वामेणं, दंडं दंडेणं, पडिकूलं पडिकलेणं, पडिलोमं पडिलोमेणं, विविच्चासं विविच्चासेणं वट्टसि / २६१–प्रदेशी राजा के इस उपालंभ को सुनने के पश्चात् केशी कुमाणश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा हे प्रदेशी ! जानते हो कि कितनी परिषदायें कही गई हैं ? प्रदेशी-जी हाँ जानता हूँ चार परिषदायें कही हैं-१. क्षत्रिय परिषदा, 2. गाथापतिपरिषदा, 3. ब्राह्मणपरिषदा और 4. ऋषिपरिषदा / के शी कुमारश्रमण---प्रदेशी ! तुम यह भी जानते हो कि इन चार परिषदानों के अपराधियों के लिये क्या दंडनीति बताई गई है ? प्रदेशी-हाँ जानता हूँ / जो क्षत्रिय-परिषद् का अपराध-अपमान करता है, उसके या तो हाथ काट दिये जाते हैं अथवा पैर काट दिये जाते हैं या शिर काट दिया जाता है, अथवा उसे शूली पर चढ़ा देते हैं या एक ही प्रहार से या कुचलकर प्राणरहित कर दिया जाता है-मार दिया जाता है / जो गाथापति-परिषद् का अपराध करता है, उसे घास से अथवा पेड़ के पत्तों से अथवा पलाल-पुआल से लपेट कर अग्नि में झोंक दिया जाता है / ___ जो ब्राह्मणपरिषद् का अपराध करता है, उसे अनिष्ट, रोषपूर्ण, अप्रिय या अमणाम शब्दों से उपालंभ देकर अग्नितप्त लोहे से कुडिका चिह्न अथवा कुत्ते के चिह्न से लांछित-चिह्नित कर दिया जाता है अथवा निर्वासित कर दिया जाता है, अर्थात् देश से निकल जाने की आज्ञा दी जाती है। जो ऋषिपरिषद् का अपमान-अपराध करता है, उसे न अति अनिष्ट यावत न अति अमनोज्ञ शब्दों द्वारा उपालंभ दिया जाता है। केशी कुमारश्रमण- इस प्रकार की दंडनीति को जानते हुए भी हे प्रदेशी ! तुम मेरे प्रति विपरीत, परितापजनक, प्रतिकूल, विरुद्ध सर्वथा विपरीत व्यवहार कर रहे हो ! २६२–तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिाह पढमिल्लुएणं चेव वागरण संलते, तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए जाव संकप्पे समुपज्जित्था Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन ] [ 186 जहा जहा णं एयस्स पुरिसस्स वामं वामेणं जाब विवच्चासं विवच्चासेणं वट्टिस्सामि तहा तहा णं अहं नाणं च नाणोवलंभं च करणं च करणोवलंभं च दंसणं च सणोवलंभं च जीवं च जीवोवलंभं च उवलभिस्सामि, तं एएणं अहं कारणेणं देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाब विवच्चासं विवच्चासेणं वट्टिए। २६२-तब प्रदेशी राजा ने अपनी मनोभावना व्यक्त करते हुए केशी कुमारश्रमण से कहा--- बात यह है-भदन्त ! मेरा आप देवानुप्रिय मे जब प्रथम ही वार्तालाप हुआ तभी मेरे मन में इस प्रकार का विचार यावत् संकल्प उत्पन्न हुया कि जितना-जितना और जैसे-जैसे मैं इस पुरुष के विपरीत यावत् सर्वथा विपरीत व्यवहार करूंगा, उतना-उतना और वैसे-वैसे मैं अधिक-अधिक तत्त्व को जानूगा, ज्ञान प्राप्त करूगा, चारित्र को, चारित्रलाभ को, तत्त्वार्थश्रद्धा रूप दर्शन-सम्यक्त्व को, सम्यक्त्व लाभ को, जीव को, जोव के स्वरूप को समझ सकूगा / इसी कारण आप देवानुप्रिय के प्रति मैंने विपरीत यावत् अत्यन्त विरुद्ध व्यवहार किया है / २६३-तए णं केसी कुमारसमणे पएसीरायं एवं वयासीजाणासि णं तुम पएसी ! कई क्वहारगा पण्णता? हंता जाणामि / चतारि ववहारगा पण्णत्ता-१ वेइ नामेगे जो सपणवेइ। 2 सन्नवेइ नामेगे नो देइ। 3 एगे देइ वि सन्नवेइ वि। 4 एगे णो देइ णो सण्णवेइ / जाणासि णं तुमं पएसी ! एएसि चउण्हं पुरिसाणं के ववहारी के अव्ववहारी ? हंता जाणामि / तत्थ णं जे से पुरिसे दे णो सण्णवेइ, से गं पुरिसे ववहारी। तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ सण्णवेइ, से गं पुरिसे ववहारी। तत्थ णं जे से पुरिसे देइ वि सन्नवेइ वि से पुरिसे यवहारी / तस्थ णं जे से पुरिसे णो देइ णो सन्नवेइ से णं अव्ववहारी। एवामेव तुमं पि ववहारी, णो चेव णं तुम पएसी अन्ववहारी। २६३–प्रदेशी राजा की इस भावना को सुनकर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-- हे प्रदेशी ! जानते हो तुम कि व्यवहारकर्ता कितने प्रकार के बतलाये गए हैं ? प्रदेशी--हां, भदन्त ! जानता हूँ कि व्यवहारकों के चार प्रकार है-१. कोई किसी को दान देता है, किन्तु उसके साथ प्रीतिजनक वाणी नहीं बोलत! / 2. कोई संतोषप्रद बातें तो करता है, किन्तु देता नहीं हैं। 3. कोई देता भी है और लेने वाले के साथ सन्तोषप्रद वार्तालाप भी करता है और 4. कोई देता भी कुछ नहीं और न संतोषप्रद बात करता है। केशी कुमारश्रमण--हे प्रदेशी ! जानते हो तुम कि इन चार प्रकार के व्यक्तियों में से कौन व्यवहारकुशल है और कौन व्यवहारशून्य है-व्यवहार को नहीं समझने वाला है ? / प्रदेशी-हाँ जानता हूँ / इनमें से जो पुरुष देता है, किन्तु संभाषण नहीं करता, वह व्यवहारी है। जो पुरुष देता नहीं किन्तु सम्यग् आलाप (बातचीत) से संतोष उत्पन्न करता है (दिलासा देता है), धीरज बंधाता है, वह व्यवहारी है / जो पुरुष देता भी है और शिष्ट वचन भी कहता है, वह व्यवहारी है, किन्तु जो न देता है और न मधुर वाणी बोलता है, वह अव्यवहारी है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] [ राजप्रश्नीयसूत्र केशी कुमारश्रमण-उसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी व्यवहारी हो, अव्यवहारी नहीं हो। अर्थात् तुमने मेरे साथ यद्यपि शिष्टजनमान्य वाग-व्यवहार नहीं किया, फिर भी मेरे प्रति भक्ति और संमान प्रदर्शित करने के कारण व्यवहारी हो। ' २६४-तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं बयासी--- तुज्झे णं भंते ! इय छया दक्खा जाव उवएसलद्धा, समत्या णं भंते ! ममं करयलंसि वा मामलयं जीवं सरीराम्रो अभिनिवट्टित्ताणं उवदंसित्तए ? तेणं कालेणं तेणं समएणं पएसिस्स रणो अदूरसामंते वाउयाए संवृत्ते, तणवणस्सइकाए एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ / तए णं केतो कुमारसमणे पएसिराय एवं वयासीपाससि णं तुमं पएसी राया ! एयं तणवणस्सई एयंत जाव तं तं भावं परिणमंतं ? हंता पासामि। जाणासि णं तुम पएसी! एयं तणवणस्सइकायं कि देवो चालेइ, असुरो वा चालेइ, णागो वा, किन्नरो वा चालेइ, किंपुरिसो वा चालेइ, महोरगो वा चालेइ, गंधव्यो वा चालेइ ? हंता जाणामि–णो देवो चालेइ जाव णो गंधवो चालेइ, वाउयाए चालेइ / पाससि गं तुम पएसी ! एतस्स वाउकायस्स सरूविस्स सकामस्स सरागस्स समोहस्स सवेयरस सलेसस्स ससरीरस्स रूवं? णो तिण? (सम?)। __ जइ णं तुमं पएसी राया ! एयरस वाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीरस्स रूवं न पाससि तं कहं णं पएसो! तय करयलंसि वा प्रामलगं जोवं उवदंसिस्सामि ? एवं खलु पएसी! दसटाणाई छ उमत्थे मणुस्से सब्वभावेणं न जाणइ न पास इ, तंजहा–धम्मत्थिकायं 1, अधम्मस्थिकायं 2, प्रागासस्थिकायं 3, जीवं असरीरबद्ध 4, परमाणपोग्गलं 5, सई 6, गंधं 7, वायं 8, अयं जिणे भविस्सइ वा णो भविस्सइ 6, अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा नो वा 10 / एताणि चेव उप्पननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ तं जहा-धम्मत्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसो ! जहा–प्रन्नो जीबो तं चेव / / २६४-तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा-हे भदन्त ! आप अवसर को जानने में निपुण हैं, कार्यकुशल हैं यावत् आपने गुरु से शिक्षा प्राप्त की है तो भदन्त ! क्या आप मुझे हथेली में स्थित आंवले की तरह शरीर से बाहर जीव को निकालकर दिखाने में समर्थ हैं ? प्रदेशी राजा ने यह कहा ही था कि उसी काल और उसी समय प्रदेशी राजा से अति दूर नहीं अर्थात् निकट ही हवा के चलने से तृण-घास, वृक्ष आदि वनस्पतियां हिलने-डुलने लगीं, कंपने लगीं, फरकने लगीं, परस्पर टकराने लगीं, अनेक विभिन्न रूपों में परिणत होने लगीं। ___ तब केशी कुमारश्रमण ने राजा प्रदेशी से पूछा-हे प्रदेशी ! तुम इन तृणादि वनस्पतियों को हिलते-डुलते यावत् उन-उन अनेक रूपों में परिणत होते देख रहे हो? Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तज्जीव-तच्छरीरवाद मंडन-खंडन] [191 प्रदेशी-हां, देख रहा हूँ। केशी कुमारश्रमण--तो प्रदेशी! क्या तुम यह भी जानते हो कि इन तृण-वनस्पतियों को कोई देव हिला रहा है अथवा असुर हिला रहा है अथवा कोई नाग, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गंधर्व हिला रहा है ? __ प्रदेशी-हां, भदन्त ! जानता हूँ। इनको न कोई देव हिला-डुला रहा है, यावत् न गंधर्व हिला रहा है / ये वायु से हिल-डुल रही हैं / कुमारश्रमण केशी–हे प्रदेशी ! क्या तुम उस मूर्त, काम, राग, मोह, वेद, लेश्या और शरीरधारी वायु के रूप को देखते हो ? प्रदेशी—यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् भदन्त ! मैं उसे नहीं देखता हूँ। केशी कुमारश्रमण-जब राजन् ! तुम इस रूपधारी (मूर्त) यावत् सशरीर वायु के रूप को भी नहीं देख सकते तो हे प्रदेशी ! इन्द्रियातीत ऐसे अमूर्त जीव को हाथ में रखे आंवले की तरह कैसे देख सकते हो? क्योंकि प्रदेशी ! छद्मस्थ (अल्पज्ञ) मनुष्य (जीव) इस दस वस्तुओं को उनके सर्व भावों-पर्यायों सहित जानते-देखते नहीं हैं / यथा (उनके नाम इस प्रकार हैं-) 1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. प्राकाशास्तिकाय, 4. अशरीरी (शरीर रहित) जीव, 5. परमाणु पुद्गल, 6. शब्द, 7. गंध, 8. वायु, 6. यह जिन (कर्म-क्षय करने वाला) होगा अथवा जिन नहीं होगा और 10. यह समस्त दुःखों का अन्त करेगा या नहीं करेगा। किन्तु उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक (केवलज्ञानी, केवलदर्शी, सर्वज्ञ सर्वदर्शी) अर्हन्त, जिन, केवली इन दस बातों को उनकी समस्त पर्यायों सहित जानते-देखते हैं, यथा-धर्मास्तिकाय यावत् सर्व दु:खों का अन्त करेगा या नहीं करेगा। इसलिये प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर एक नहीं हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में वायुकायिक जीवों के उल्लेख द्वारा संसारी जीवों का स्वरूप बताया है कि सभी संसारी जीव सूक्ष्म और बादर इन दो प्रकारों में से किसी-न-किसी एक प्रकार वाले हैं / इन प्रकारों के होने के कारण सूक्ष्म नाम और बादर नाम कर्म हैं / सूक्ष्म नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर इन्द्रियग्राह्य नहीं हो पाता है और बादर नामकर्म के उदय से शरीर में ऐसा बादर परिणाम उत्पन्न होता है कि जिससे वे इन्द्रियग्राह्य हो सकते हैं। सूक्ष्म और बादर नामकर्म का उदय तिर्यंचगति के जीवों में होता है और इनके एक पहली स्पर्शनेन्द्रिय होती है। सभी संसारी जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव, इन चार गतियों में से किसी-न-किसी गति वाले हैं और स्वाभाविक चैतन्य गुण के साथ गतियों के अनुरूप प्राप्त इन्द्रियों, शरीर, वेद एवं रागद्वेष, मोह आदि वैभाविक भावों तथा लेश्या परिणाम वाले होते हैं। वायूकाय के जीवों की गति तिर्यंच है और उनके एक स्पर्शनेन्द्रिय, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या, नपुंसक वेद और औदारिक, वैक्रिय, तेजस, कार्मण शरीर होते हैं / २६५–तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं क्यासीसे नणं भंते ! हस्थिरस कुथुस्स य समे चेव जीवे ? हंता पएसी ! हथिस्स य कुथुस्स य समे चेव जीवे / Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [ राजप्रश्नीयसूत्र से णणं भंते ! हत्थीउ कुथू अप्पकम्मतराए चेव अपकिरियतराए चेव अध्यासवतराए चेव एवं प्राहार-नोहार-उस्सास-नीसास-इड्ढोए महज्जुइअध्यतराए चेव, एवं च कुथुप्रो हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरिय० जाब ? / हता पएसी ! हत्थीयो कुथू अप्पकम्मतराए चेव कुथुप्रो वा हत्थी महाकम्मतराए चैव तं चेव / कम्हा णं भंते ! हथिस्स य कुथुस्स य समे चेव जीवे ? पएसी! जहा णाम ए कूडागारसाला सिया जाब गंभोरा, अह णं केइ पुरिसे जोइं व दीवं व गहाय तं कूडागारसालं अंतो अंतो अणुपविसइ तीसे कूडागारसालाए सव्वतो समंता घनिचियनिरंतराणि णिच्छिडडाई दवारवयणाई पिडेति, तीसे कडागारसालाए बदमझदेसभाए तं पईवं पलीवेज्जा तए णं से पईवे तं कडागारसालं अंतो अंतो प्रोभासइ उज्जोवेइ तवति पभासंह, णो चव ण बाहि / अह णं पुरिसे तं पईवं इड्डरएणं पिहेज्जा, तए णं से पईवे तं इड्डरयं अंतो प्रोभासे इ, णो चेव णं इड्डरगस्स बाहिं, जो चेव णं कूडागारसालाए बाहि, एवं गोकिलिजेणं, पछिपिडएणं, गंडमाणियाए, प्राढ़तेणं, प्रद्धाढतेणं, पत्थएणं, अद्धपत्थएणं, कुलवेणं, अद्धकुलवेणं, चाउम्भाइयाए, अट्ठभाइयाए, सोलसियाए, बत्तीसियाए, चउसट्टियाए, दीवचंपएणं तए णं से पदोवे दोवचंपगस्स अंतो प्रोभासति, नो चेव णं दीवचंपगस्स बाहि, नो चेव णं चउसट्टियाए बाहि, णो चेव गं कूडागारसालं, णो चेव णं कूडागारसालाए बाहि / एवामेव पएसी ! जीवे वि जं जारिसयं पुवकम्मनिबद्ध बोंदि णिव्वत्तेइ तं असंखेजेहि जीवपदेसेहि सचित्तं करेइ खुड्डियं वा महालियं वा, तं सद्दहाहि णं तुम पएसी ! जहा-अण्णो जोवो तं चेवणं / २६५–तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा--भंते ! क्या हाथी और कुथु का जीव एक-जैसा है ? केशी कुमारश्रमण -हाँ, प्रदेशी। हाथी और कुथु का जीव एक-जैसा है, समान प्रदेश परिमाण वाला है, न्यूनाधिक प्रदेश-परिमाण वाला नहीं है / प्रदेशी-हे भदन्त ! हाथो से कुथु अल्पकर्म (आयुष्यकर्म), अल्पक्रिया, अल्प प्राणातिपात ग्रादि आश्रव वाला है, और इसी प्रकार कुथु का ग्राहार, निहार, श्वासोच्छ्वास, ऋद्धि-शारीरिकबल, द्युति आदि भी अल्प है और कुथु से हाथी अधिक कर्मवाला, अधिक क्रियावाला यावत् अधिक द्युति संपन्न है ? केशी कुमारश्रमण-हाँ प्रदेशी ! ऐसा ही है-हाथी से कुथु अल्प कर्मवाला और कुथु से हाथी महाकर्मवाला है। प्रदेशी-तो फिर भदन्त ! हाथी और कुथु का जीव समान परिमाण वाला कैसे हो सकता है ? केशी कुमारश्रमण-हाथी और कुथु के जीव को समान परिमाण वाला ऐसे समझा जा सकता है-हे प्रदेशी ! जैसे कोई कूटाकार (पर्वतशिखर के आकार-जैसी) यावत् विशाल एक Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी की परंपरागत मान्यता का निराकरण ] [193 शाला (घर) हो और कोई एक पुरुष उस कूटाकारशाला में अग्नि और दीपक के साथ घुसकर उसके ठीक मध्यभाग में खड़ा हो जाए / तत्पश्चात् उस कूटाकारशाला के सभी द्वारों के किवाड़ों को इस प्रकार सटाकर अच्छी तरह बंद कर दे कि उनमें किंचिन्मात्र भी सांध-छिद्र न रहे / फिर उस कटाकारशाला के बीचोंबीच उस प्रदीप को जलाये तो जलाने पर वह दीपक उस कारशाला के अन्तर्वर्ती भाग को ही प्रकाशित, उद्योतित, तापित और प्रभासित करता है, किन्तु बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करता है। अब यदि वही पुरुष उस दीपक को एक विशाल पिटारे से ढंक दे तो वह दीपक कुटाकार. शाला की तरह उस पिटारे के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करेगा किन्तु पिटारे के बाहरी भाग को प्रकाशित नहीं करेगा। इसी तरह गोकिलिंज (गाय को घास रखने का पात्र-डलिया), पच्छिकापिटक (पिटारी), गंडमाणिका (अनाज को मापने का बर्तन), आढ़क (चार सेर धान्य मापने का पात्र), अर्धाढक, प्रस्थक, अर्धप्रस्थक, कुलव, अर्धकुलव, चतुर्भागिका, अष्टभागिका, षोडशिका, द्वात्रिंशतिका, चतुष्पष्टिका अथवा दीपचम्पक (दीपक का ढ़कना) से ढंके तो वह दीपक उस ढक्कन के भीतरी भाग को हो प्रकाशित करेगा, ढक्कन के बाहरी भाग को नहीं और न चतुष्पष्टिका के बाहरी भाग को, न कुटाकारशाला को, न कूटाकारशाला के बाहरी भाग को प्रकाशित करेगा। इसी प्रकार हे प्रदेशी ! पूर्वभवोपार्जित कर्म के निमित्त से जीव को क्षुद्र-छोटे अथवा महत्बड़े जैसे भी शरीर को निष्पत्ति-प्राप्ति होती है, उसी के अनुसार आत्मप्रदेशों को संकुचित और विस्तृत करने के स्वभाव के कारण वह उस शरीर को अपने असंख्यात आत्मप्रदेशों द्वारा सचित्त अर्थात् प्रात्मप्रदेशों से व्याप्त करता है / अतएव प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो-इस बात पर विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं और शरीर जीव नहीं है। विवेचन–प्रस्तत सूत्र में दीपक को ढंकने पर उन-उन के भीतरी भाग को प्रकाशित करने के लिये जिन पात्रों (बर्तनों) के नामों का उल्लेख किया है, वे सभी प्राचीनकाल में मगध देश में प्रचलित-गेहूँ, चावल, आदि धान्य तथा घी, तेल आदि तरल पदार्थ मापने के साधन-माप हैं / गंडमाणिका से लेकर अर्धकुलव पर्यन्त के मापों से धान्य और चतुर्भागिका आदि चतुष्पष्टिका पर्यन्त के पात्रों से तरल पदार्थों को मापा जाता था। वैदिक दर्शनों में आत्मा के आकार और परिमाण के विषय में अणमात्र से लेकर सर्वदेशव्याप्त तक मानने की कल्पनायें हैं / वे प्रमाणसिद्ध नहीं हैं और न वैसा अनुभव ही होता है / इसीलिये उन सब कल्पनाओं का निराकरण और प्रात्मा के सही परिमाण का निर्देश सूत्र में किया गया है कि न तो आत्मा अणु-प्रमाण है और न सर्वलोक व्यापी आदि है। किन्तु कर्मोपाजित शरीर के आकार के अनुरूप होकर जीव के असंख्यात प्रदेश उस समस्त शरीर में व्याप्त रहते हैं। प्रदेशी की परंपरागत मान्यता का निराकरण २६६-तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं क्यासी-एवं खलु भंते ! मम प्रज्जगस्स एस सन्ना जाव समोसरणे जहा- तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं। तयाणंतरं च णं ममं पिउणो वि एस सण्णा, तयाणंतरं मम वि एसा सण्णा जाव समोसरणं, तं नो खलु अहं बहुपुरिसपरंपरागयं कुलनिस्सियं दिट्टि छडेस्सामि। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र २६६--तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से कहा-भदन्त ! आपने बताया सो ठीक, किन्तु मेरेपितामह की यही ज्ञानरूप संज्ञा-ब्रद्धि थी यावत समवसरण-सिद्धान्त था कि जो जीव है वही शरीर है, जो शरीर है वही जीव है। जीव शरीर से भिन्न नहीं और शरीर जीव से भिन्न नहीं है। तत्पश्चात् (पितामह के काल-कवलित हो जाने के बाद) मेरे पिता की भी ऐसी ही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण था और उनके बाद मेरी भी यही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण है। तो फिर अनेक पुरुषों (पीढ़ियों) एवं कुलपरंपरा से चली आ रही अपनी दृष्टि-मान्यता को कैसे छोड़ दू? विवेचन--लोक परंपराएँ, मान्यताएँ कैसे प्रचलित होती हैं, इसका सूत्र में संकेत है। हम मानवों में जो भी अनुपयोगी और मिथ्या रूढियाँ चालू हैं उनका आधार पूर्वजों का नाम, लोकदिखावा और अहंकार का पोषण है। हम उनके साथ ऐसे जुड़े हैं कि छोड़ने में प्रतिष्ठाहानि और भय अनुभव करते हैं। इस कारण दिनोंदिन हिंसा, झूठ, छल-फरेब, चोरी-जारी बढ़ रही है और नैतिक पतन होने से मानवीय गुणों का कुछ भी मूल्य नहीं रहा है। २६७–तए णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं वयासी-मा णं तुमं पएसो! पच्छाणुताविए भवेज्जासि, जहा व से पुरिसे अयहारए। के णं भंते ! से अयहारए ? पएसी! से जहाणामए केई पुरिसा प्रत्थत्थी, प्रत्थगवेसी, अत्थलुद्धगा, अत्थकंख्यिा , प्रथपिवासिया अस्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडमायाए सुबहुं भत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अकामियं (अगामियं) छिन्नावायं दोहमद्ध अवि अणुपविट्ठा। तए णं ते पुरिसा तीसे अकामियाए अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ता समाणा एगमहं प्रयागरं पासंति, अएणं सवतो समंता प्राइण्णं विच्छिण्णं सच्छड उवच्छडं फुडं गाढं पासंति हट्टतु?--जावहियया अन्नमन्नं सदाति एवं क्यासी-एस णं देवाणुप्पिया ! अयभंडे इठे कंते जाव मणामे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं अयभारए बंधित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमट्ठ पडिसुणेति प्रयभारं बंधति, अहाणुपुन्वोए संपत्थिया। तए णं ते पुरिसा प्रकामियाए जाव अडवीए किंचि देसं अणुपत्ता समाणा एगं महं तउप्रागरं पासंति, तउएणं प्राइण्णं तं चेव जाव सद्दावेत्ता एवं वयासी-एस गं देवाणुप्पिया! तउयभंडे जाव मणामे, अप्पेणं चेव तउएणं सुबहुं अए लम्भति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अयभारए छड्डेता तउयभारए बंधित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स अंतिए एयम पडिसुणेति, अयभारं छड्डेंति तउयभारं बंधति / तत्थ णं एगे पुरिसे णो संचाएइ प्रयभारं छड्डेत्तए तउयभारं बंधित्तए / तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! तउयभंडे जाव सुबहुं पए लन्भति, तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया ! अयभारगं, तउयभारगं बंधाहि / तए से पुरिसे एवं वयासी-दूराहडे मे देवाणुप्पिया ! अए, चिराहडे मे देवाणुप्पिया! अए, प्रहगाढबंधणबद्ध मे देवाणुप्पिया! अए, असिढिलबंधणबद्ध देवाणुप्पिया ! प्रए. धणियबंधणबद्ध देवाणुपिया! अए, गो संचाएमि अयभारगं छड्डेता तउयमारगं बंधित्तए / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी की परम्परागत मान्यता का निराकरण } [195 तए णं ते पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचायति बहहि प्रावणाहि य पन्नवणाहि य प्रायवित्तए वा पण्णवित्तए वा तया अहाणुपुचीए संपत्थिया, एवं तंबागरं रुप्पागरं सुवण्णागरं रयणागरं वइरागरं। तए णं ते पुरिसा जेणेव सया जणवया, जेणेव साइं साई नगराई, तेणेव उवागच्छन्ति वयरविक्कणणं करेंति, सुबहुदासीदासगोमहिसगवेलगं गिण्हंति, अमृतलमूसियवडंसगे कारावेति, पहाया कयबलिकम्मा उप्पि पासायवरगया फुट्टमाणेहि मुइंगमस्थरहि बत्तीस इबद्धहि नाडएहि वरतरुणीसंपउत्तेहि उवणच्चिज्जमाणा उवलालिज्जमाणा इठे सद्द-फरिस-जाव विहरति / तए णं से पुरिसे अयभारेण जेणेव सए नगरे तेणेव उवागच्छइ, अयभारेणं गहाय प्रयविक्किणणं करेति, तंसि अप्पमोल्लंसि निहियंसि झीणपरिव्वए, ते पुरिसे उप्पि पासायवरगए जाव विहरमाणे पासति, पासित्ता एवं क्यासी-अहो! णं अहं अधन्नो अपुन्नो अकयस्थो अकयलक्खणो हिरिसिरिवज्जिए हीणपुण्णचाउद्दसे दुरंतपंतलकखणे / जति णं अहं मित्ताण वा णाईण वा नियगाण वा सुणेतो तो णं अहं पि एवं चेव उप्पि पासायवरगए जाव विहरतो। से तेणठेणं पएसी एवं वुच्चइ-मा तुमं पएसी पच्छाणुताविए भविज्जासि, जहा ब से पुरिसे प्रयभारिए। २६७-प्रदेशी राजा की बात सुनकर केशी कुमारश्रमण ने इस प्रकार कहा--प्रदेशी! तुम उस अयोहारक (लोहे के भार को ढोने वाले लोहवणिक) की तरह पश्चात्ताप करने वाले मत होप्रो। अर्थात् जैसे वह अयोहारक-लोहवणिक् पछताया उसी तरह तुम्हें भी अपनी कुलपरम्परागत अन्धश्रद्धा के कारण पछताना पड़ेगा। प्रदेशी-भदन्त ! वह अयोहारक कौन था और उसे क्यों पछताना पड़ा? केशी कुमारश्रमण- प्रदेशी! कुछ अर्थ (धन) के अभिलाषी, अर्थ की गवेषणा करने वाले, अर्थ के लोभी, अर्थ की कांक्षा और अर्थ को लिप्सा वाले पुरुष अर्थ-गवेषणा करने (धनोपार्जन करने) के निमित्त विपुल परिमाण में बिक्री करने योग्य पदार्थों और साथ में खाने-पीने के लिये पुष्कलपर्याप्त पाथेय (नाश्ता) लेकर निर्जन, हिंसक प्राणियों से व्याप्त और पार होने के लिये रास्ता न मिले, ऐसी एक बहुत बड़ी अटवी (वन) में जा पहुँचे / / ____ जब वे लोग उस निर्जन अटवी में कुछ आगे बढ़े तो किसी स्थान पर उन्होंने इधर-उधर सारयुक्त लोहे से व्याप्त लम्बी-चौड़ी और गहरी एक विशाल लोहे की खान देखी। वहाँ लोहा खब विखरा पड़ा था। उस खान को देखकर हषित, संतुष्ट यावत् विकसितहृदय होकर उन्होंने आपस में एक दूसरे को बुलाया और कहा, यह सलाह की-देवानुप्रियो ! यह लोहा हमारे लिये इष्ट, प्रिय यावत मनोज्ञ है, अतः देवानुप्रियो ! हमें इस लोहे के भार को बांध लेना चाहिए / इस विचार को एक दूसरे ने स्वीकार करके लोहे का भारा बांध लिया। बांधकर उसी अटवी में प्रागे चल दिये। तत्पश्चात् आगे चलते-चलते वे लोग जब उस निर्जन यावत् अटवी में एक स्थान पर पहुँचे तब उन्होंने सीसे से भरी हुई एक विशाल सीसे की खान देखी, यावत् एक दूसरे को बुलाकर कहाहे देवानुप्रियो ! हमें इस सीसे का संग्रह करना यावत् लाभदायक है। थोड़े से सीसे के बदले हम Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 ] [राजप्रश्नीयसूब बहुत-सा लोहा ले सकते हैं / इसलिये देवानुप्रियो ! हमें इस लोहे के भार को छोड़कर सीसे का पोटला बांध लेना योग्य है। ऐसा कहकर आपस में एक दूसरे ने इस विचार को स्वीकार किया और लोहे को छोड़कर सीसे के भार को बांध लिया। किन्तु उनमें से एक व्यक्ति लोहे को छोड़कर सीसे के भार को बांधने के लिये तैयार नहीं हुआ। तब दूसरे व्यक्तियों (साथियों) ने अपने उस साथी से कहा-देवानुप्रिय ! हमें लोहे की अपेक्षा इस सीसे का संग्रह करना अधिक अच्छा है, यावत् हम इस थोड़े से सीसे से बहुत-सा लोहा प्राप्त कर सकते हैं / अतएव देवानुप्रिय ! इस लोहे को छोड़कर सीसे का भार बांध लो। तब उस व्यक्ति ने कहा-देवानुप्रियो ! मैं इस लोहे के भार को बहुत दूर से लादे चला पा रहा हूँ। देवानुप्रियो ! इस लोहे को बहुत समय से लादे हुए हूँ / देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को बहुत ही कसकर बांधा है। देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे का अशिथिल बंधन से बांधा है / देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को अत्यधिक प्रगाढ़ बंधन से बांधा है / इसलिए मैं इस लोहे को छोड़कर सीसे के भार को नहीं बांध सकता हूँ। तब दूसरे साथियों ने उस व्यक्ति को अनुकल-प्रतिकूल सभी तरह की आख्यापना (सामान्य रूप से प्रतिपादन करने वाली बाणी) से, प्रज्ञापना (विशेष रूप से प्रतिपादन करने वालो-समझान वाली-वाणी) से समझाया। लेकिन जब वे उस पुरुष को समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए तो अनुक्रम से आगे-आगे चलते गये और वहाँ-वहाँ पहुँचकर उन्होंने तांबे की, चांदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खाने देखीं एवं इनको जैसे-जैसे बहुमूल्य वस्तुएँ मिलती गई, वैसे-वैसे पहले-पहले के अल्प मूल्य वाले तांबे आदि को छोड़कर अधिक-अधिक मूल्यवाली वस्तुओं को बांधते गये। सभी खानों पर उन्होंने अपने उस दुराग्रही साथी को समझाया किन्तु उसके दुराग्रह को छुड़ाने में वे समर्थ नहीं हुए। इसके बाद वे सभी व्यक्ति जहाँ अपना जनपद-देश था और देश में जहाँ अपने-अपने नगर थे, वहाँ आये। वहाँ आकर उन्होंने हीरों को बेचा। उससे प्राप्त धन से अनेक दास-दासी, गाय, भैस और भेड़ों को खरीदा, बड़े-बड़े आठ-आठ मंजिल के ऊंचे भवन बनवाये और इसके बाद स्नान, बलिकर्म आदि करके उन श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपरी भागों में बैठकर बजते हुए मृदंग आदि वाद्योंनिनादों एवं उत्तम तरुणियों द्वारा की जा रही नृत्य-गान युक्त बत्तीस प्रकार की नाट्य लीलाओं को देखते तथा साथ ही इष्ट शब्द, स्पर्श यावत् (रस, रूप और गंध मूलक मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगते हुए अपना-अपना समय) व्यतीत करने लगे। वह लोहवाहक पुरुष भी लोहमार को लेकर अपने नगर में पाया / वहाँ आकर उस लोहभार के लोहे को बेचा। किन्तु अल्प मूल्य वाला होने से उसे थोड़ा-सा धन मिला। उ ने अपने साथियों को श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपर रहते हुए यावत् (भोग-विलास में) अपना समय बिताते हुए देखा। देखकर अपने आपसे इस प्रकार कहने लगा-अरे ! मैं अधन्य, पुण्यहीन, अकृतार्थ, शुभलक्षणों से रहित, श्री-ही से वजित, हीनपुण्य चातुर्दशिक (कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को जन्मा हुआ), दुरंत-प्रान्त लक्षण वाला कुलक्षणी हूँ। यदि उन मित्रों, ज्ञातिजनों और अपने हितैषियों की बात मान लेता तो आज मैं भी इसी तरह श्रेष्ठ प्रासादों में रहता हुआ यावत् अपना समय व्यतीत करता। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेशी की प्रतिक्रिया एवं श्रावकधर्म-ग्रहण ] [ 197 इसी कारण हे प्रदेशी ! मैंने यह कहा है कि यदि तुम अपना दुराग्रह नहीं छोड़ोगे तो उस लोहभार को ढोने वाले दुराग्रही की तरह तुम्हें भी पश्चात्ताप करना पड़ेगा। प्रदेशी की प्रतिक्रिया एवं श्रावकधर्म-ग्रहरण २६८-एस्थ णं से पएसी राया संबद्ध केसिकुमारसमणं वंदइ जाव एवं वयासी–णो खलु भंते ! अहं पच्छाणुताबिए भविस्सामि जहा व से पुरिसे अयभारिए, तं इच्छामि गं देवाणुप्पियाणं अंतिए केलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए / अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह / धम्मकहा जहा चित्तस्स / तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। २६८-~-इस प्रकार समझाये जाने पर यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त कर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण को वंदना की यावत् निवेदन किया-भदन्त ! मैं वैसा कुछ नहीं करूंगा जिससे उस लोहभारवाहक पुरुष की तरह मुझे पश्चात्ताप करना पड़े। अत: आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहता हूँ। केशी कुमारश्रमण-देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसा करो, परन्तु विलंब मत करो। इसके पश्चात् प्रदेशी की जिज्ञासा-वृत्ति देखकर केशी कुमारश्रमण ने जैसे चित्त सारथी को धर्मोपदेश देकर श्रावकधर्म समझाया था उसी तरह राजा प्रदेशी को भी धर्मकथा सुनाकर गृहिधर्म का विस्तार से विवेचन किया। राजा गृहस्थधर्म स्वीकार करके सेयविया नगरी की ओर चलने को तत्पर हुआ। २६६–तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी-जाणासि तुमं पएसी ! कइ प्रायरिया पन्नत्ता? हंता जाणामि, तो प्रायरिया पण्णत्ता, तंजहा—कलायरिए, सिम्पायरिए, धम्मायरिए / जाणासि गं तुमं पएसी ! तेमि तिहं प्रायरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पजियम्वा ? हंता जाणामि, कलायरियस्स सिप्पायरिस्स उबलेवणं संमज्जणं वा करेज्जा, पुरो पुष्पाणि वा प्राणवेज्जा, मज्जावेज्जा, मंडावेज्जा, भोयाविज्जा वा विउलं जीवितारिहं पोइदाणं दलएज्जा, पुत्ताणुपुत्तियं वित्ति कप्पेज्जा / जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा तत्थेव वंदेज्जा णमंसेज्जा सक्कारेज्जा सम्माणेज्जा, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा, फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेज्जा, पाडिहारिएणं पीढ-फलग-सिज्जा-संथारएणं उवनिमंतेज्जा। एवं च ताव तुमं पएसी ! एवं जाणासि तहावि गं तुमं ममं वामं वामेणं जाव वट्टित्ता ममं एयम8 अखामित्ता जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए? २६९-तब केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-प्रदेशी ! जानते हो कितने प्रकार के प्राचार्य होते हैं ? Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [राजप्रश्नीयसूत्र __प्रदेशी-हाँ भदन्त ! जानता हूँ, तीन (प्रकार के) प्राचार्य होते हैं -1. कलाचार्य, 2. शिल्पाचार्य, 3. धर्माचार्य / केशी कुमारश्रमण–प्रदेशी ! तुम जानते हो कि इन तीन आचार्यों में से किसकी कैसी विनयप्रतिपत्ति करनी चाहिए ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! जानता हैं। कलाचार्य और शिल्पाचार्य के शरीर पर चन्दनादि का लेप और तेल आदि का मर्दन (मालिश) करना चाहिए, उन्हें स्नान कराना चाहिए, उनके सामने पुष्प आदि भेंट रूप में रखना चाहिए, उनके कपड़ों आदि को सुरभि गन्ध से सुगन्धित करना चाहिए, आभूषणों आदि से उन्हें अलंकृत करना चाहिए, आदरपूर्वक भोजन कराना चाहिए और आजीविका के योग्य विपूल प्रीतिदान देना चाहिए, एवं उनके लिये ऐसी आजीविका की व्यवस्था करना चाहिये कि पुत्र-पौत्रादि परम्परा भी जिसका लाभ ले सके / धर्माचार्य के जहाँ भी दर्शन हों, वहीं उनको वन्दना-नमस्कार करना चाहिए, उनका सत्कार-संमान करना चाहिए और कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एवं ज्ञानरूप उनको पर्युपासना करनी चाहिए तथा अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य भोजन-पान से उन्हें प्रतिलाभित करना चाहिए, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या-संस्तारक आदि ग्रहण करने के लिये उनसे प्रार्थना करनी चाहिए। केशी कुमारश्रमण-प्रदेशी ! इस प्रकार की विनयप्रतिपत्ति जानते हुए भी तुम अभी तक मेरे प्रति जो प्रतिकूल व्यवहार एवं प्रवृत्ति करते रहे, उसके लिए क्षमा मांगे बिना ही सेयविया नगरी की ओर चलने के लिये उद्यत हो रहे हो ? / २७०-तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वदासी-एवं खलु भंते ! मम एथारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्था एवं खलु अहं देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाव वट्टिए, तं सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभायाए रयणोए फुल्लुयलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए रत्तासोग-किसुयसुयमुह-गुजद्धरागसरिसे कमलागरनलिणिसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते अंतेउरपरियालसद्धि संपरिवुडस्स देवाणुप्पिए वंदित्तए नमंसित्तए एतमट्ठ भुज्जो-भुज्जो सम्म विणएणं खामित्तए-त्ति कटु जामेव दिसि पाउन्भूते तामेव दिसि पडिगए। तए णं से पएसी राया कल्लं पाउप्प भायाए रयणीए जाव तेयसा जलते हट्टतुट्ठ-जाव-हियए जहेव कूणिए' तहेव निग्गच्छइ अंते उरपरियालसद्धि संपरिवुड़े पंचविहेणं अभिगमेणं बंदइ नमसइ एयम भुज्जो भुज्जो सम्मं विणएणं खामेइ / __ २७०-केशी कुमारश्रमण के इस संकेत को सुनकर प्रत्युत्तर में प्रदेशी राजा ने केशो कुमारश्रमण से यह निवेदन किया-हे भदन्त ! आपका कथन योग्य है किन्तु मेरा इस प्रकार यह प्राध्यात्मिक—आन्तरिक यावत् विचार-संकल्प है कि अभी तक आप देवानुप्रिय के प्रति मैंने जो प्रतिकूल यावत् व्यवहार किया है, उसके लिये आगामी कल, रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित होने, उत्पलों और कमनीय कमलों के उन्मीलित और विकसित होने, प्रभात के पांडुर (पीलाश लिये श्वेत वर्ण का) होने, रक्ताशोक, पलाशपुष्प, शुकमुख (तोते की चोंच), गुजाफल के अर्धभाग जैसे लाल, सरोवर में 1. देखिए समिति द्वारा प्रकाशित प्रौपपातिक सूत्र Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी की प्रतिक्रिया एवं धावकधर्म-ग्रहण] [199 स्थित कमलिनीकुलों के विकासक सूर्य का उदय होने एवं जाज्वल्यमान तेज सहित सहस्ररश्मि दिनकर के प्रकाशित होने पर अन्तःपुर-परिवार सहित आप देवानुप्रिय की वन्दना-नमस्कार करने और अवमानना रूप अपने अपराध की वारंवार विनयपूर्वक क्षमापना के लिये सेवा में उपस्थित होऊं / ऐसा निवेदन कर वह जिस ओर से आया था, उसी ओर लौट गया / दूसरे दिन जब रात्रि के प्रभात रूप में रूपान्तरित होने यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित दिनकर के प्रकाशित होने पर प्रदेशी राजा हष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होता हुअा कोणिक राजा की तरह दर्शनार्थ निकला। उसने अन्तःपुर-परिवार आदि के साथ पांच प्रकार के अभिगमपूर्वक वन्दननमस्कार किया और यथाविधि विनयपूर्वक अपने प्रतिकूल प्राचरण के लिये वारंवार क्षमायाचना की। विवेचन-पांच अभिगमों के नाम इस प्रकार हैं१. सचित्त द्रव्यों (पुष्प, पान आदि) का त्याग / 2. अचित्त द्रव्यों (वस्त्र, आभूषण आदि) का अत्याग / 3. एक शाटिका (दुपट्टा) का उत्तरासंग करना। 4. दृष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़ना। 5. मन को एकाग्र करना / २७१–तए णं केसी कुमारसमणे पएसिस्स रण्णो सूरियकंतप्पमुहाणं देवीणं तीसे य महतिमहालियाए महच्चपरिसाए जाव धम्म परिकहेइ / तए णं से पएसी राया धम्म सोच्चा निसम्म उठाए उठेति, केसिकुमारसमणं बंदइ नमसइ जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। २७१-तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा, सूर्यकान्ता आदि रानियों और उस अति विशाल परिषद् को यावत् धर्मकथा सुनाई। इसके बाद प्रदेशी राजा धर्मदेशना सुन कर और उसे हृदय में धारण करके अपने आसन से उठा एवं केशी कुमारश्रमण को वंदन-नमस्कार किया। बंदन-नमस्कार करके सेयविया नगरी की ओर चलने के लिये उद्यत हुआ। २७२---तए णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं वदासी--मा णं तुम पएसी ! पुब्धि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा परमणिज्जे भविज्जासि, जहा से वणसंडे इ वा, गट्टसाला इ वा इक्खुवाडए इ वा, खलवाडए इ वा। कहं णं भंते ! ? वणसंडे पत्तिए पुफिए फलिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठइ, तया णं वणसंडे रमणिज्जे भवति / जया णं वणसंडे नो पत्तिए, नो पुफिए, नो फलिए नो हरियगरेरिज्जमाणे णो सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे चिटुइ तया गं जुन्ने झडे परिसडिय पंडुपत्ते सुक्करक्खे इव मिलायमाणे चिटुइ तया णं वणे णो रमणिज्जे भवति / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र जया णं णट्टसाला वि गिज्जइ वाइज्जइ नच्चिज्जइ हसिज्जइ रमिज्जइ तया णं णसाला रमणिज्जा भवइ, जया णं नट्टसाला णो गिज्जइ जाव णों रमिज्जइ तया णं णसाला अरमणिज्जा भवति / जया णं इक्खुवाडे छिज्जइ भिज्जइ सिज्जइ पिज्जइ दिज्जइ तया णं इक्खुवाडे रमणिज्जे भवइ, जया णं इक्खुवाडे णो छिज्जइ जाव तया इक्खुवाडे प्ररमणिज्जे भवइ / जया णं खलवाडे उच्छुब्भइ उडुइज्जइ मलइज्जइ मुणिज्जइ खज्जइ पिज्जइ दिज्जइ तया णं खलवाडे रमणिज्जे भवति जया णं खलवाडे नो उच्छुभइ जाव अरमणिज्जे भवति / से तेणठेण पएसी ! एवं वुच्चइ मा णं तुमे पएसो! पुवि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा परमणिज्जे भविज्जासि जहा वणसंडे इ वा / २७२-राजा प्रदेशी को सेयविया नगरी की ओर चलने के लिये उद्यत देखकर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा इस प्रकार कहा-जैसे वनखंड अथवा नाट्यशाला अथवा इक्षुवाड (गन्ने का खेत) अथवा खलवाड (खलिहान) पर्व में रमणीय होकर पश्चात अरमणीय हो जाते हैं, उस प्रकार तुम पहले रमणीय (धार्मिक) होकर बाद में अरमणीय (अधार्मिक) मत हो जाना / / प्रदेशी-भदन्त ! यह कैसे कि वनखंड आदि पूर्व में रमणीय (मनोरम, सुन्दर) होकर बाद में अरमणीय हो जाते हैं ? ___ केशी कुमारश्रमण-प्रदेशी ! वनखंड आदि पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय ऐसे हो जाते हैं कि वनखंड जब तक हरे-भरे पत्तों, पुष्पों, फलों से संपन्न और अतिशय सुहावनी सघन छाया एवं हरियाली से व्याप्त होता है तब तक अपनी शोभा से अतीव-अतीव सुशोभित होता हा रमणीय लगता है। लेकिन वही वनखंड पत्तों, फलों, फलों और नाममात्र की भी हरियाली नई हराभरा, देदीप्यमान न होकर कुरूप, भयावना दिखने लगता है तब सूखे वृक्ष की तरह छाल-पत्तों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने, झर जाने, सड़ जाने, पीले और म्लान हो जाने से रमणीय नहीं रहता है। इसी प्रकार नाट्यशाला भी जब तक संगीत-गान होता रहता है, बाजे बजते रहते हैं, नृत्य होते रहते हैं, लोगों के हास्य से व्याप्त रहती है और विविध प्रकार की रमतें-क्रीडायें होती रहती हैं तब तक रमणीय-सुहावनी लगती है, किन्तु जब उसी नाट्यशाला में गीत नहीं गाये जा रहे हों यावत् क्रीडायें नहीं हो रही हो, तब वही नाट्यशाला असुहावनी हो जाती है / इसी तरह प्रदेशी ! जब तक इक्षुबाड़ (ईख के खेत) में ईख कटती हो, टूटती हो, पेरी जाती हो, लोग उसका रस पीते हों, कोई उसे लेते-देते हों, तब तक वह इक्षुवाड़ रमणीय लगता है। लेकिन जब उसी इक्षुवाड़ में ईख न कटती हो आदि तब वही मन को अरमणीय-अप्रिय, अनिष्टकर लगने लगती है। इसी प्रकार प्रदेशी ! जब तक खलवाड़ (खलिहान) में धान्य के ढेर लगे रहते हैं, उड़ावनी होती रहती है, धान्य का मर्दन (दांय) होता रहता है, तिल आदि पेरे जाते हैं, लोग एक साथ मिलकर भोजन खाते-पीते, देते-लेते हैं, तब तक वह रमणीय मालूम होता है, लेकिन जब धान्य के ढेर आदि नहीं रहते तब वही अरमणीय दिखने लगता है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी द्वारा कृत राज्यव्यवस्था] [201 इसीलिये हे प्रदेशी ! मैंने यह कहा है कि तुम पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय मत हो जाना, जैसे कि वनखंड आदि हो जाते हैं। . ___विवेचन--प्रस्तुत सूत्रगत–'मा णं तुमं पएसी! पुदिव रमणिज्जे भवित्ता पच्छा परमणिज्जे भविज्जासि' वाक्य का टीकाकार आचार्य ने इस प्रकार आशय स्पष्ट किया है—केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा कि हे राजन् ! जब तुम धर्मानुगामी नहीं थे तब दूसरे लोगों को दान देते थे तो दान देने की यह प्रथा अब भी चालू रखना। अर्थात् पूर्व में जैसे रमणीय-दानी थे उसी तरह अब भी रमणीय-दानी रहना किन्तु अरमणीय न होना / यदि अरमणीय हो जानोगे-संकुचित दृष्टि वाले हो जानोगे तो इससे निर्ग्रन्थप्रवचन की अपकीर्ति फैलेगी और हमें अन्तराय कर्म का बंध होगा। २७३–तए णं पएसी केसि कुमारसमणं एवं बयासी—णो खलु भंते ! प्रहं पुचि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा प्ररमणिज्जे भविस्सामि, जहा वणसंडे इ वा जाव खलवाडे इ वा / प्रहं णं सेयवियानगरीपमुक्खाइं सतगामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि, एग भागं बलवाहणस्स दलइस्सामि, एगं भागं कुट्ठागारे छुभिस्सामि, एगं भागं अंतेउरस्स दलइस्सामि, एगेणं भागेणं महतिमहलयं कूडागारसालं करिस्सामि, तत्थ णं बहूहिं पुरिसेहि दिनभइभत्तवेयणेहि विउलं असणं० (पानं-खाइम-साइमं) उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-भिक्खुयाणं-पंथियपहियाणं परिभाएमाणे बहहिं सीलव्वयगुणवयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासस्स जाव विहरिस्सामि त्ति कटु जामेव दिसि पाउन्मूए तामेव दिसि पडिगए। २७३–तब प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार निवेदन किया-भदन्त ! आप द्वारा दिये गये वनखंड यावत् खलवाड़ के उदाहरणों की तरह में पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय नहीं बनगा। क्योंकि मैंने यह विचार किया है कि सेयावियानगरी आदि सात हजार ग्रामों के चार विभाग करूगा। उनमें से एक भाग राज्य की व्यवस्था और रक्षण के लिये बल (सेना) और वाहन के लिये दूंगा, एक भाग प्रजा के पालन हेतु कोठार में अन्न आदि के लिये रखू गा, एक भाग अंतःपुर के निर्वाह और रक्षा के लिये दूगा और शेष एक भाग से एक विशाल कुटाकार शाला बनवाऊंगा और फिर बहुत से पुरुषों को भोजन, वेतन और दैनिक मजदूरी पर नियुक्त कर प्रतिदिन विपुल मात्रा में अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप चारों प्रकार का प्राहार बनवाकर अनेक श्रमणों, माहनों, भिक्षुओं, यात्रियों और पथिकों को देते हुए एवं शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास आदि यावत् (तप द्वारा आत्मा को भावित करते हुए) अपना जीवनयापन करू गा, ऐसा कहकर जिस दिशा से आया था, वापस उसी ओर लौट गया। प्रदेशो द्वारा कृत राज्यव्यवस्था २७५-तए णं से पएसी राया कल्लं जाव तेयसा जलंते सेयवियापामोक्खाई सत्त गामसहस्साइं चत्तारि भाए करेइ, एगं भागं बलवाहणस्स दलह जाव कूडागारसालं करेइ, तत्थ णं बहूहि पुरिसेहिं जाव उवक्खडावेत्ता बहूणं समण जाव परिभाएमाणे विहरइ। २७४–तत्पश्चात् प्रदेशी राजा ने अगले दिन यावत् जाज्वल्यमान तेजसहित सूर्य के प्रकाशित होने पर सेयविया प्रभृति सात हजार ग्रामों के चार भाग किये। उनमें से एक भाग बल-वाहनों को Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [राजप्रश्नीयसूत्र दिया यावत् कुटाकारशाला का निर्माण कराया / उसमें बहुत से पुरुषों को नियुक्त कर यावत् भोजन बनवाकर बहुत से श्रमणों यावत् पथिकों को देते हुए अपना समय बिताने लगा। २७५-तए णं से पएसी राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे० विहर। जप्पमिदं च णं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई च णं रज्जं च, रच, बलं च, वाहणं च, कोडागारं च, पुरं च, अंतेउरं च, जणवयं च, अणाढायमाणे यावि विहरति / प्रदेशी राजा अब श्रमणोपासक हो गया और जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता होता हुआ धार्मिक आचार-विचारपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। जबसे वह प्रदेशी राजा श्रमणोपासक हुआ तब से राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोठार, पुर, अन्तःपुर और जनपद के प्रति भी उदासीन रहने लगा। सूर्यकान्ता रानी का षड्यंत्र २७६-तए णं तीसे सुरियकताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-जप्पमिई च णं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई च णं रज्जं च रट्ट जाब अंतेउरं च ममं जणवयं च प्रणाढायमाणे विहरइ; तं संयं खलु मे पएसि रायं केवि सत्थप्पोएण वा अग्गिप्पग्रोएण वा मंतप्पप्रोगेण वा विसप्पप्रोगेण वा उद्दवेत्ता सूरियकंतं कुमारं रज्जे ठवित्ता सयमेव रज्जसिरि कारेमाणोए पालेमाणीए विहरित्तए ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता सूरियकंतं कुमारं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी जप्पभिई च णं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभियं च णं रज्जं च जाव अंतेउरं च णं जणवयं च माणुसस्ए य कामभोगे प्रणाढायमाणे विहरइ, तं सेयं खलु तव पुत्ता? पएसि रायं केणइ सत्थप्पयोगेण वा जाव उद्दवित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरित्तए / तए णं सूरियकते कुमारे सूरियकताए देवीए एवं वृत्ते समाणे सूरियकताए देवीए एयम→ णो प्राढाइ नो परियाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / तए णं तीसे सूरियकताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था—मा णं सरियकते कुमारे पएसिस्स रन्नो इमं रहस्सभेयं करिस्सइ त्ति कटु पएसिस्स रण्णो छिद्दाणि य मम्माणि य रहस्साणि य विवराणि य अंतराणि य पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ। २७६--राजा प्रदेशी को राज्य प्रादि के प्रति उदासीन देखकर सूर्यकान्ता रानी को यह और इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि-जब से राजा प्रदेशी श्रमणोपासक हुआ है, उसी दिन से राज्य, राष्ट्र यावत् अन्तःपुर, जनपद और मुझसे विमुख हो गया है / अतः मुझे यही उचित है कि शस्त्रप्रयोग, अग्निप्रयोग, मंत्रप्रयोग अथवा विषप्रयोग द्वारा प्रदेशी राजा को मारकर और सूर्यकान्त कुमार को राज्य पर आसीन करके अर्थात् राजा बनाकर स्वयं राज्यलक्ष्मी का भोग करती हुई, प्रजा का पालन करती हुई आनन्दपूर्वक रहूँ। ऐसा उसने विचार किया। विचार करके सूर्यकान्त कुमार को बुलाया और बुलाकर अपनी मनोभावना बताई Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी का संलेखना-मरण ] [203 हे पुत्र ! जब से प्रदेशी राजा ने श्रमणोपासक धर्म स्वीकार कर लिया है, तभी से राज्य यावत् अन्तःपुर, जनपद और मनुष्य संबंधी कामभोगों की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है। इसलिये पुत्र ! तुम्हें यही श्रेयस्कर है कि शस्त्रप्रयोग आदि किसी-न-किसी उपाय से प्रदेशी राजा को मार कर स्वयं राज्यलक्ष्मी का भोग एवं प्रजा का पालन करते हुए अपना जीवन बिताओ। सूर्यकान्ता देवी के इस विचार को सुनकर सूर्यकान्त कुमार ने उसका आदर नहीं किया, उस पर ध्यान नहीं दिया किन्तु शांत-मौन ही रहा। तब सूर्यकान्ता रानी को इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् विचार उत्पन्न हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि सूर्यकान्त कुमार प्रदेशी राजा के सामने मेरे इस रहस्य को प्रकाशित कर दे। ऐसा सोचकर सूर्यकान्ता रानी प्रदेशी राजा को मारने के लिये उसके दोष रूप छिद्रों को, कुकृत्य रूप आन्तरिक मर्मों को, एकान्त में सेवित निषिद्ध आचरण रूप रहस्यों को, एकान्त निर्जन स्थानों को और अनुकूल अवसर रूप अंतरों को जानने की ताक में रहने लगी। २७७–तए णं सूरियकंता देवी अन्नया कयाइ पएसिस्स रणो अंतरं जाणइ, असणं जाव खाइमं सव्वं वत्थ-गंध-मल्लालंकारं विसष्पजोगं पउंजइ, पएसिस्स रणो ण्हायस्स जाव पायच्छित्तस्स सुहासणवरगयस्स तं विससंजुत्तं असणं वत्थं जाव-प्रलंकारं निसिरेइ, घातइ / तए णं तस्स पएसिस्स रणो तं विससंजुत्तं असणं आहारेमाणस्स सरीरगंमि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विपुला पगाढा कक्कसा कडया फरुसा निठुरा चंडा तिव्वा दुक्खा दुग्गा दुरहियासा पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिया वि बिहरह। २७७--तत्पश्चात् किसी एक दिन अनुकूल अवसर मिलने पर सूर्यकान्ता रानी ने प्रदेशी राजा को मारने के लिये अशन-पान आदि भोजन में तथा शरीर पर धारण करने योग्य सभी वस्त्रों, सूधने योग्य सुगंधित वस्तुओं, पुष्पमालाओं और आभूषणों में विष डालकर विषैला कर दिया। इसके बाद जब वह प्रदेशी राजा स्नान यावत् मंगल प्रायश्चित्त कर भोजन करने के लिये सुखपूर्वक श्रेष्ठ आसन पर बैठा तब वह विषमिश्रित घातक अशन आदि रूप आहार परोसा तथा विषमय वस्त्र पहनाये यावत् विषमय अलंकारों से उसको शृगारित किया। ___ तब उस विषमिले आहार को खाने से प्रदेशी राजा के शरीर में उत्कट, प्रचुर, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, रौद्र, दुःखद, विकट और दुस्सह वेदना उत्पन्न हुई। विषम पित्तज्वर से सारे शरीर में जलन होने लगी। प्रदेशी का संलेखना-मरण २७८--तए णं से पएसी राया सूरियकताए देवीए अत्ताणं संपलद्धं जाणित्ता सूरियकताए देवीए मणसावि अप्पदुस्समाणे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, पोसहसालं पमज्जइ, उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, दम्भसंथारगं संयरेह, दम्भसंथारगं दुरूहइ, पुरस्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं अंजलि मत्थए त्ति कट्ट एवं वयासी नमोऽत्थु णं अरहताणं जाव' संपत्ताणं / नमोऽत्थु णं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मोव१. देखें सूत्र संख्या 199 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [ राजप्रश्नीयसूत्र देसगस्स धम्मायरियस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउ मे भगवं तत्थ गए इह गयं ति कटटबंदहनमंसह पवि पिणंमए केसिस्स कमारसमणस अंतिए थलपाणाइवाए पच्चक्खाए जाव परिगहे, तं इयाणि पिणं तस्सेव भगवतो अंतिए सम्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव परिग्गह, सव्वं कोहं जाव मिच्छादंसणसल्लं, अकरणिज्जं जोयं पच्चक्खामि, सव्वं प्रसणं चउन्विहं पि प्राहारं जावज्जीवाए पच्चक्खामि, जंपि य मे सरीरं इ8 जाव फुसंतु त्ति एवं पि य गं चरिमेहि ऊसासनिस्साहि वोसिरामि त्ति कटु आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सूरियामे विमाणे उववायसमाए जाव वण्णो / २७८-तत्पश्चात् प्रदेशी राजा सूर्यकान्ता देवी के इस उत्पात (षड्यंत्र, धोखे) को जानकर भी उस के प्रति मन में लेशमात्र भी द्वेष-रोष न करते हुए जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया। आकर उसने पौषधशाला की प्रमार्जना की, उच्चारप्रस्रवणभूमि (स्थंडिल भूमि) का प्रतिलेखन किया। फिर दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आसीन हुआ / आसीन होकर उसने पूर्व दिशा की ओर मुख करके पर्यंकासन (पद्मासन) से बैठकर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा अरिहंतों यावत् सिद्धगति को प्राप्त भगवन्तों को नमस्कार हो / मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो / यहाँ स्थित मैं वहाँ विराजमान भगवान् की वंदना करता हूँ। वहाँ पर विरा र विराजमान वे भगवन यहाँ रहकर वंदना करने वाले मझे देखें। पहले भी मैंने केशी कुमारश्रमण के समक्ष स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया है / अब इस समय भी मैं उन्हीं भगवन्तों की साक्षी से (यावज्जीवन के लिये) संपूर्ण प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह, क्रोध यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का (अठारह पापस्थानों का) प्रत्याख्यान करता हूँ। प्रकरणीय (नहीं करने योग्य जैसे) समस्त कार्यों एवं मन-वचन-काय योग का प्रत्याख्यान करता हूँ और जीवनपर्यंत के लिये सभी अशन-पान आदि रूप चारों प्रकार के प्राहार का भी त्याग करता हूँ। __ यद्यपि मुझे यह शरीर इष्ट-प्रिय रहा है, मैंने यह ध्यान रखा है कि इसमें कोई रोग आदि उत्पन्न न हों परन्तु अब अंतिम श्वासोच्छ्वास तक के लिये इस शरीर का भी परित्याग करता हूँ। इस प्रकार के निश्चय के साथ पुनः आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक मरण समय के प्राप्त होने पर काल करके सौधर्मकल्प के सूर्याभविमान की उपपात सभा में सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न हुआ, इत्यादि पूर्व में किया गया समस्त वर्णन यहाँ कर लेना चाहिये। सूर्याभदेव का भावी जन्म २७६-तए णं से सूरियाभे देवे अहुणोववन्नए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छति, तं०-पाहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंवियपज्जत्तीए प्राणपाणपज्जत्तीए भास-मणपज्जत्तीए, तं एवं खलु भो ! सूरियाभेणं देवेणं दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुती दिव्वे देवाणुभावे लद्ध पत्ते अभिसमन्नागए। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता-पिता द्वारा कृत जन्मादि संस्कार] [205 सूरियामस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता। गोयमा ! चत्तारि पलिप्रोवमाई ठिती पण्णत्ता। से णं सूरियामे देवे तानो लोगानो पाउखएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं प्रणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिति कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा! महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुलाणि भवंति, तं०-प्रडाई वित्ताई विउलाई विच्छिणविपलभवण-सयणासण-जाण-वाहणाई बधण-बहजातरूख-रयया आप्रो विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूताई, तत्थ अन्नयरेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पच्चाइस्सइ / २७६-तत्काल उत्पन्न हुआ वह सूर्याभदेव पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ / वे पर्याप्तियां इस प्रकार हैं-१. आहारपर्याप्ति, 2. शरीरपर्याप्ति, 3. इन्द्रियपर्याप्ति, 4. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, 5. भाषा-मनःपर्याप्ति / इस प्रकार से हे गौतम ! उस सूर्याभदेव ने यह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवानभाव-देवप्रभाव उपाजित किया है, प्राप्त किया है और अधिगत-अधीन किय गौतम-भदन्त ! उस सूर्याभदेव की प्रायुष्यमर्यादा कितने काल की है ? भगवान् गौतम ! उसकी आयुष्यमर्यादा चार पल्योपम की है। गौतम-भगवन् ! आयुष्य पूर्ण होने, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के अनन्तर सूर्याभदेव उस देवलोक से च्यवन करके कहाँ जायेगा ? कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान्–गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जो कुल पाठ्य-धन-धान्यसमृद्ध, दीप्त-प्रभावक, विपुलबड़े कुटुम्ब परिवारवाले, बहुत से भवनों, शय्याओं, आसनों और यानवाहनों के स्वामी, बहुत से धन, सोने-चांदी के अधिपति, अर्थोपार्जन के व्यापार-व्यवसाय में प्रवृत्त एवं दीनजनों को जिनके यहाँ से प्रचुर मात्रा में भोजनपान प्राप्त होता है, सेवा करने के लिये बहुत से दास-दासी रहते हैं, बहुसंख्यक गाय, भैंस, भेड़ आदि पशुधन है और जिनका बहुत से लोगों द्वारा भी पराभव-तिरस्कार नहीं किया जा सकता, ऐसे प्रसिद्ध कुलों में से किसी एक कुल में वह पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। माता-पिता द्वारा कृत जन्मादि संस्कार २८०-तए णं तंसि दारगंसि गब्भगयंसि चेव समाणसि अम्मापिऊणं धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ। तए णं तस्स दारयस्स नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वितिक्कताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपंचिदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुदरंगं ससिसोमाकारं कंतं पियदसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठितिवडियं करेहिति, ततियदिवसे चंदसरदंसणिगं करिस्संति, छठे दिवसे जागरियं जागरिस्संति, एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते संपत्ते बारसाहे दिवसे णिवित्त असुइजायकम्मकरणे चोक्खे संमज्जिवलिते विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [राजप्रश्नीय सूत्र वेस्संति, मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणं प्रामंतेत्ता तो पच्छा व्हाया कायबलिकम्मा जाव अलंकिया भोयणमंडवंसि सुहासणवरगया ते मित्तणाइ-जाव परिजणेण सद्धि विउलं असणं प्रासाएमाणा विसाए. माणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणा एवं चेव णं विहरिस्संति, जिमियभुत्तत्तरागया वि य णं समाणा प्रायंता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्तणाइ-जाव परिजणं विउलेणं वस्थगंघमल्लालंकारेणं सक्कारेस्संति सम्माणिस्संति तस्सेव मित-जाव-परिजणस्स पुरतो एवं वइस्संति जम्हा णं देवाणप्पिया ! इमंसि दारगंसि गब्भगयंसि चेव समाणंसि धम्मे दढा पइण्णा जाया, तं होउ णं अम्हं एयस्स दारयस्स दढपइण्णे णामेणं / तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज करिस्संति---दढपइण्णो य दढपइण्णो य। ___ तए णं तस्स अम्मापियरो आणुपुवेणं ठितिवडियं च चंदसूरियदरिसणं च धम्मजागरियं च नामधिज्जकरणं च पजेमणगं च पडिवद्धावणगं च पचंकमणगं च कन्नवेहणं च संवच्छरपडिलेहणगं च चूलोवणयं च अन्नाणि य बहूणि गम्भाहाणजम्मणाइयाई महया इड्डीसक्कारसमुदएणं करिस्संति / २८०–तत्पश्चात् उस दारक के गर्भ में आने पर माता-पिता की धर्म में दृढ प्रतिज्ञा-श्रद्धा होगी। उसके बाद नौ मास और साढ़े सात रात्रि-दिन बीतने पर दारक की माता सुकुमार हाथ-पैर वाले शुभ लक्षणों एवं परिपूर्ण पांच इन्द्रियों और शरीर वाले, सामुद्रिक शास्त्र में बताये गये शारीरिक लक्षणों, तिल आदि व्यंजनों और गुणों से युक्त, माप, तोल और नाप में बराबर, सुजात, सर्वांगसुन्दर, चन्द्रमा के समान सौम्य आकार वाले, कमनीय, प्रियदर्शन एवं सरूपवान् पुत्र को जन्म देगी। __ तब उस दारक के माता-पिता प्रथम दिवस स्थितिपतिता (कुलपरंपरागत क्रियाओं से पुत्रजन्मोत्सव) करेंगे / तीसरे दिन चन्द्रदर्शन और सूर्यदर्शन सम्बंधी क्रियायें करेंगे। छठे दिन रात्रिजागरण करेंगे / ग्यारह दिन बीतने के बाद बारहवें दिन जातकर्म संबन्धी अशुचि की निवृत्ति के लिये घर झाड़बुहार और लीप-पोत कर शुद्ध करेंगे / घर की शुद्धि करने के बाद अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप विपुल भोजनसामग्री बनवायेंगे और मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजन-संबन्धियों एवं दास-दासी आदि परिजनों, परिचितों को आमंत्रित करेंगे / इसके बाद स्नान, बलिकर्म, तिलक आदि कौतुक-मंगलप्रायश्चित्त यावत् प्राभूषणों से शरीर को अलंकृत करके भोजनमंडप में श्रेष्ठ प्रासनों पर सुखपूर्वक बैठकर मित्रों यावत् परिजनों के साथ विपुल अशनादि रूप भोजन का आस्वादन, विशेष रूप में प्रास्वादन करेंगे, उसका परिभोग करेंगे, एक दूसरे को परोसेंगे और भोजन करने के पश्चात् आचमनकुल्ला आदि करके स्वच्छ, परम शुचिभूत होकर उन मित्रों, ज्ञातिजनों यावत् परिजनों का विपुल वस्त्र, गंध, माला, अलंकारों आदि से सत्कार-संमान करेंगे और फिर उन्हीं मित्रों यावत् परिजनों से कहेंगे देवानुप्रियो ! जब से यह दारक माता की कुक्षि में गर्भ रूप से आया था तभी से हमारी धर्म में दृढ प्रतिज्ञा-श्रद्धा हुई है, इसलिये हमारे इस बालक का 'दृढप्रतिज्ञ' यह नाम हो / इस तरह उस दारक के माता-पिता 'दृढप्रतिज्ञ' यह नामकरण करेंगे। इस प्रकार से उसके माता-पिता अनुक्रम से 1. स्थितिपतिता, 2, चन्द्र-सूर्यदर्शन, 3. धर्मजागरण, 4. नामकरण, 5. अन्नप्राशन 6. प्रतिवर्धापन (आशीर्वाद, अभिनंदन-संमान समारोह), Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरुप्रतिज्ञ का लालन-पालन, कलाशिक्षण ] [207 7. प्रचंक्रमण (पैरों चलना-डग भरना और शब्दोच्चारण करना), 8. कर्णवेधन 9. संवत्सर प्रतिलेख (प्रथम वर्ष का जन्मोत्सव) और 10. चूलोपनयन (मुडनोत्सव-झड़ ला उतारना) आदि तथा अन्य दूसरे भी बहुत से गर्भाधान, जन्मादि संबन्धी उत्सव भव्य समारोह के साथ प्रभावक रूप में करेंगे। दृढप्रतिज्ञ का लालन-पालन __२८१-तए णं दढपतिण्णे दारगे पंचधाईपरिविखत्ते-खीरधाईए-मंडणधाईए-मज्जणधाईएअंकधाईए-कोलावणधाईए, अन्नाहि बहूहिं खुज्जाहि, चिलाइयाहि, वामणियाहि, वडभियाहि, बब्बराहि बउसियाहिं, जोण्हियाहि, पण्ण वियाहिं, ईसिणियाहि, वारुणियाहिं, लासियाहि, लाउसियाहि, दमिलीहि, सिंहलीहि, पुलिदीहि, आरबीहि, पक्कणीहि, बहलोहि, मुरंडीहि, सबरीहि, पारसीहि, णाणावेसी-विदेसपरिमंडियाहि इंगियचितियपत्थियवियाणाहिं सदेसणेवत्थगहियवेसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचक्कवालतरुणिवंदपरियालपरिवुडे वरिसधरकंचुइमहयरवंदपरिक्खित्ते हत्थानो हत्थं साहरिज्ज. माणे उपनचिज्जमाणे अंकाप्रो अंकं परिभुज्जमाणे उवगिज्जेमाणे उवलालिज्जमाणे उवगूहिज्जमाणे अवतासिज्जमाणे परियंदिज्जमाणे परिचु बिज्जमाणे रम्मेसु मणिकोट्टिमतलेसु परंगमाणे गिरिकंदरमल्लोणे विव चंपगवरपायवे णिव्याघायंसि सुहंसुहेण परिवढिस्सइ। २८१-उसके बाद वह दृढ़प्रतिज्ञ शिशु 1. क्षीरधात्री-दूध पिलानेवाली धाय, 2. मंडनधात्रीवस्त्राभूषण पहनाने वाली धाय, 3. मज्जनधात्री-स्नान कराने वाली धाय, 4, अंकधात्री--गोद में लेने वाली धाय और 5. क्रीडापनधात्री-खेल खिलाने वाली धाय-इन पांच धायमाताओं की देखरेख में तथा इनके अतिरिक्त इंगित (मुख आदि की चेष्टा), चितित (मानसिक विचार), प्रार्थित (अभिलषित) को जानने वालीं, अपने-अपने देश के वेष को पहनने वालीं, निपुण, कुशल-प्रवीण एवं प्रशिक्षित ऐसी कुब्जा (कुबड़ी), चिलातिका (चिलात-किरात नामक देश में उत्पन्न), वामनी (चीनी), वडभी (बड़े पेट वाली), बर्बरी (बर्बर देश की), बकुश देश की, योनक देश की, पल्हविका (पल्हव देश की), ईसिनिका, वारुणिका (वरुण देश की), लासिका (तिब्बत देश की), लाकुसिका (लकुस देश की), द्रावड़ी (द्रविड़ देश की), सिंहली (सिंहल देश, लंका की), पुलिंदी (पुलिंद देश की), आरबी (अरब देश की), पक्कणी (पक्कण देश की), बहली (बहल देश को), मुरण्डी (मुरंड देश की): शबरी (शबर देश की), पारसी (पारस देश की) आदि अनेक देश-विदेशों की तरुण दासियों एवं वर्षधरों (प्रयोग द्वारा नपुसक बनाये हुए पुरुषों), कंचुकियों और महत्तरकों (अन्तपुर के कार्य की चिन्ता रखने वालों) के समुदाय से परिवेष्टित होता हुआ, हाथों ही हाथों में लिया जाता, दुलराया जाता, एक गोद से दूसरी गोद में लिया जाता, गा-गाकर बहलाया जाता, क्रीड़ा आदि के द्वारा लालन-पालन किया जाता, लाड़ किया जाता, लोरियां सुनाया जाता, चुम्बन किया जाता और रमणीय मणिजटित प्रांगण में चलाया जाता हग्रा व्याघात रहित गिरि-गुफा में स्थित श्रेष्ठ चंपक वृक्ष के समान सुखपूर्वक दिनोंदिन परिवर्धित होगा-बढ़ेगा। दृढ़प्रतिज्ञ का कलाशिक्षण २८२-तए णं तं दढपतिण्णं दारगं अम्मापियरो सातिरेगप्रवासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणणखत्तमुहत्तंसि व्हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सम्बालंकारविभूसियं करेत्ता महया इड्डीसक्कारसमुदएणं कलायरियस्स उवणेहिति / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र तए णं से कलायरिए तं दढपसिण्णं दारगं लेहाइयानो गणियप्पहाणाम्रो सउणरुयपज्जवसाणाम्रो बावत्तरि कलाप्रो सुत्तो प्रत्थरो य गंथयो य करणनो य सेहावेहि य पसिक्खावेहि य। . तं जहा-लेहं गणियं रूवं नट्ट गीयं वाइयं सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूयं जणवयं पासगं अट्ठावयं पारेकव्वं दगमट्टियं अन्नविहिं पाणविहिं वस्यविहि विलेवणविहि सयणविहि प्रज्जं पहेलियं मागहियं णिहाइयं गाहं गीइयं सिलोग हिरण्णत्ति सुवण्णत्ति प्राभरणविहि तरुणीपडिकम्मं इस्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं कुक्कुडलक्खणं छत्तलक्खणं चक्षकलक्खणं दंडलक्षणं असिलक्षणं मणिलक्षणं कागणिलक्खणं वत्थुविज णगरमाणं खंधवारं माणवारं पडिचारं बहं चक्कवूहं गरुलवूहं सगडवह जुद्ध नियुद्ध जुद्धजुद्ध अद्विजुद्ध मुट्ठिजुद्ध बाहुजुद्ध लयाजुद्ध ईसत्थं छरुष्पवायं धणुवेयं हिरण्णपागं सुवण्णपागं मणिपागं धाउपागं सुत्तखेड्ड वट्टखेड्डं णालियाखेड्डं पत्तच्छेज्ज कडगच्छेज्जं सज्जीवनिज्जीवं सउणरुयं-इति / २८२-तत्पश्चात् दृढ़प्रतिज्ञ बालक को कुछ अधिक आठ वर्ष का होने पर कलाशिक्षण के लिये माता-पिता शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में स्नान, बलिकर्म, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त कराके और अलंकारों से विभूषित कर ऋद्धि-वैभव, सत्कार, समारोहपूर्वक कलाचार्य के पास ले जायेंगे। तब कलाचार्य उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को गणित जिनमें प्रधान है ऐसी लेख (लिपि) आदि शकुनिरुत (पक्षियों के शब्द-बोली) तक की बहत्तर कलाओं को सूत्र से, अर्थ से (विस्तार से व्याख्या करके), ग्रन्थ से तथा प्रयोग से सिद्ध करायेंगे, अभ्यास करायेंगे / वे कलायें इस प्रकार हैं 1. लेखन, 2. गणित, 3. रूप सजाने की कला, 4. नाट्य (अभिनय) अथवा नृत्य करने की कला, 5. संगीत, 6. वाद्य बजाना, 7. स्वर जानना, 8. वाद्य सुधारना अथवा ढोल आदि बजाने की कला, ह. संगीत में गीत और वाद्यों के सर-ताल की समानता को जानना.१०. द्यत-जय दुमा खेलना, 11. लोगों के साथ वार्तालाप और वाद-विवाद करना, 12. पासों से खेलना, 13. चौपड़ खेलना, 14. तत्काल काव्य-कविता की रचना करना, 15. जल और मिट्टी को मिलाकर वस्तु निर्माण करना, अथवा जल और मिट्टी के गुणों की परीक्षा करना, 16. अन्न उत्पन्न करने अथवा भोजन बनाने की कला, 17. नया पानी उत्पन्न करना अथवा औषधि आदि के संयोग-संस्कार से पानी को शुद्ध करना, स्वादिष्ट पेय पदार्थों का बनाना, 18. नवीन वस्त्र बनाना, वस्त्रों को रंगना, सीना और पहनना, 19 विलेपनविधि-शरीर पर लेप करने की विधि, 20. शय्या बनाना और शयन करने की विधि जानना, 21. मात्रिक छन्दों को बनाना और पहचानना, 22. पहेलियां बनाना और बुझाना, 23. मागधिक-मागधी भाषा में गाथा-छन्द प्रादि बनाना, 24. निद्रायिका नींद में सुलाने की कला, 25. प्राकृत भाषा में गाथा आदि बनाना, 26. गीति-छंद बनाना, 27. श्लोक (अनुष्टुप छंद) बनाना, 28. हिरण्ययुक्ति-चांदी बनाना और चांदी शुद्ध करना, 29. स्वर्णयुक्ति स्वर्ण बनाना और स्वर्ण शुद्ध करना, 20. आभूषण-अलंकार बनाना, 31. तरुणीप्रतिकर्म-स्त्रियों का शृंगार-प्रसाधन करना, 32. स्त्रियों के शुभाशुभ लक्षणों को जानना, 33. पुरुष के लक्षण जानना, 34. अश्व के लक्षण जानना, 35. हाथी के लक्षण जानना, 36. मुर्गों के लक्षण जानना, 37. छत्रलक्षण जानना, 38. चक्र-लक्षण जानना, 36. दंड-लक्षण जानना, 40, असि-(तलवार) लक्षण जानना, 41. मणि-लक्षण जानना, 42. काकणी-(रत्न-विशेष) लक्षण जानना, 43. वास्तुविधा-गृह, Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाचार्य का सम्मान, दृढ़प्रतिज्ञ की भोगसमर्थता] [209 गृहभूमि के गुण-दोषों को जानना, 44. नया नगर बसाने आदि की कला, 45. स्कन्धावार-सेना के पड़ाव की रचना करने की कला, 46. मापने-नापने-तोलने के साधनों को जानना, 47. प्रतिचारशत्रु सेना के सामने अपनी सेना को चलाना, 48. व्यूह-युद्ध में शत्रु सेना के समक्ष अपनी सेना का मोर्चा बनाना, 46. चक्रव्यूह-चक्र के प्रकार की मोर्चाबन्दी करना, 50. गरुडव्यूह-गरुड के आकार की व्यूहरचना करना, 51. शकटव्यूह रचना, 52. सामान्य युद्ध करना, 53. नियुद्धमल्लयुद्ध करने की कला, कुश्ती लड़ना, 54. युद्ध-युद्ध-शत्रु सेना की स्थिति को जानकर युद्धविधि को बदलने की कला अथवा घमासान युद्ध करना, 55. अट्रि (यष्ठि-लाठी या अस्थि-हड्डी) से युद्ध करना, 56. मुष्ठियुद्ध करना, 57. बाहुयुद्ध करना, 58. लतायुद्ध करना, 59. इष्वस्त्र-शस्त्रबाग बनाने की कला अथवा नागबाण आदि विशिष्ट बाणों के प्रक्षेपण की विधि, 60. तलवार चलाने की कला, 61. धनुर्वेद--धनुष-बाण संबन्धी कौशल, 62. चांदी का पाक बनाना, 63. सोने का पाक बनाना, 64. मणियों के निर्माण की कला अथवा मणियों की भस्म आदि औषधि बनाना, 65. धातुपाक-औषधि के लिये स्वर्ण आदि धातुओं की भस्म बनाना, 66. सूत्रखेल-रस्सी पर खेल-तमाशे, क्रीडा करने की कला, 67. वृत्तखेल-क्रीडाविशेष, 68 नालिकाखेल-चूत-जुआविशेष, 66. पत्र को छेदने की कला, 70. पार्वतीय भूमि छेदने की कला, 71. मूछित को होश में लाने और अमूच्छित को मृततुल्य करने की कला, 72 काक, घूक आदि पक्षियों की बोली और उससे अच्छेबुरे शकुन का ज्ञान करना। कलाचार्य का सम्मान २८३–तए णं से कलारिए तं दढपइण्णं दारगं लेहाइयानो गणियप्पहाणाम्रो सउणस्यपज्जवसाणाम्रो बावरिं कलामो सुत्तमो य अत्यनो य गंथनो य करणो य सिक्खावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं उवहिति / तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारिस्संति सम्माणिस्संति विउलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलइस्संति विउलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलइत्ता पडिविसज्जेहिंति / २८३-तत्पश्चात् कलाचार्य उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को गणित प्रधान, लेखन (लिपि) से लेकर शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कलाओं को सूत्र (मूल पाठ) से, अर्थ (व्याख्या) से, ग्रन्थ एवं प्रयोग से सिखला कर, सिद्ध कराकर माता-पिता के पास ले जायेंगे / तब उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक के माता-पिता विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाध रूप चतुर्विध ग्राहार, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारों से कलाचार्य का सत्कार, सम्मान करेंगे और के योग्य विपुल प्रीतिदान (भेंट) देंगे / जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान देकर विदा करेंगे। दृढप्रतिज्ञ की भोगसमर्थता २८४---तए णं से दढपतिण्णे दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते बावरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिबोहए अट्ठारसविहदेसिप्पगारमासाबिसारए गोयरई गंधवणट्टकुसले सिंगारागारचारुवेसे संगयगयहसियभणियचिट्ठियविलासनिउणजुत्तोवयारकुसले हयजोहो गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी प्रलंभोगसमत्थे साहस्सीए विधालचारी यावि भविस्सइ / Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [राजश्नीयसूत्र २८४--इसके बाद वह दृढप्रतिज्ञ बालक बालभाव से मुक्त हो परिपक्व विज्ञानयुक्त, युवावस्थासंपन्न हो जायेगा / बहत्तर कलाओं में पंडित होगा, बाल्यावस्था के कारण मनुष्य के जो नौ अंग-दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, जिह्वा, त्वचा और मन सुप्त-से अर्थात् अव्यक्त चेतना वाले रहते हैं, वे जागृत हो जायेंगे / अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में कुशल हो जायेगा, वह गीत का अनुरागी, गीत और नृत्य में कुशल हो जायेगा / अपने सुन्दर वेष से शृगार का आगार-जैसा प्रतीत होगा / उसकी चाल, हास्य, भाषण, शारीरिक और नेत्रों की चेष्टायें आदि सभी संगत होंगी। पारस्परिक पालाप-संलाप एवं व्यवहार में निपुण-कुशल होगा / अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहुयुद्ध करने एवं अपनी भुजाओं से विपक्षी का मर्दन करने में सक्षम एवं भोग भोगने की सामर्थ्य से संपन्न हो जायेगा तथा साहसी ऐसा हो जायेगा कि विकालचारी (मध्यरात्रि में इधर-उधर जाने-माने में भी) भयभीत नहीं होगा / विवेचन--प्रस्तुत सूत्रगत 'बावत्तरिकलापंडिए' और 'अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए' इन दो पदों का विचार करते हैं / कला का अर्थ है-कार्य को भलीभांति करने का कौशल ! व्यक्ति के उन संस्कारों को सबल बनाना जो स्वयं उसके एवं सामाजिक जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक हैं। यदि व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण न हो, चारित्र का विकास न हो और संस्कृति की सुरक्षा के लिये सामाजिक तथा धार्मिक कर्तव्यों एवं दायित्वों का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं किया जाये तो मानव का कुछ भी महत्त्व नहीं है / मानव और दानव, पशु में कुछ भी अन्तर नहीं रहेगा / यही कारण है कि प्रत्येक युग में मानव को सुसंस्कारी बनाने, शारीरिक, मानसिक दृष्टि से विकसित करने और आजीविका के प्रामाणिक साधनों की योग्यता अजित करने के लिये कलानों के शिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। यद्यपि कलाओं के विषय में प्रत्येक देश के साहित्य में विचार किया गया है, तथापि हम अपने देश की ही मुख्य धर्मपरंपराओं के साहित्य को देखें तो सर्वत्र विस्तार के साथ कलाओं का विवरण उपलब्ध है / वैदिक परंपरा के रामायण, महाभारत, शुक्रनीति, वाक्यपदीय आदि ग्रन्थों में, बौद्ध-परंपरा के ललितविस्तरा में और जैन परंपरा के समवायांगसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ज्ञातासूत्र, औपपातिकसूत्र, कल्पसूत्र और इनकी व्याख्याओं में वर्णन किया गया है। किन्तु संख्या और नामों में अन्तर है। कहीं कलाओं की संख्या चौसठ बताई है तो क्षेमेन्द्र के कलाविलास ग्रन्थ में सौ से अधिक कलाओं का वर्णन किया है। बौद्धसाहित्य में इनकी संख्या छियासी कही है। जैनसाहित्य में पुरुष योग्य बहत्तर और महिलाओं के लिये चौसठ कलाओं का उल्लेख है। लेकिन जैनसाहित्यगत पुरुषयोग्य कलायें बहत्तर मानने की परंपरा सर्वमान्य है। जिसकी पुष्टि जनसाधारण में प्रचलित इस दोहे से हो जाती है कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार / एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार / / जीवन धारण करने के लिये मानव को जैसे रोटी, कपड़ा और मकान जरूरी है, उसी प्रकार जीवन की सुरक्षा के लिये शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शुद्धि और आजीविका के साधनों की व्यवस्था, ये तीन भी आवश्यक हैं / अतएव पूर्व सूत्र में उल्लिखित बहत्तर कलाओं के नामों में ध्यान Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृढप्रतिज्ञ की अनासक्ति] [211 देने योग्य यह है कि उनके चयन में दीर्घदृष्टि से काम लिया गया है। उनमें जीवन की सुरक्षा के तीनों अंगों के साधनों का समावेश करने के साथ लोकव्यवहारों के निर्वाह करने की क्षमता और प्राकृतिक पदार्थों को अपने लिये उपयोगी बनाने और उनका समीचीन उपयोग करने की योग्यता अजित करने का लक्ष्य रखा गया है / ___ कलाओं के शिक्षण की प्राचीन पद्धति पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय शिक्षणपद्धति का स्तर क्या था? मात्र पुस्तकीय ज्ञान करा देना अथवा ग्रंथ रटा देना और वाणो द्वारा व्याख्या कर देना ही पर्याप्त नहीं माना जाता था, किन्तु प्रयोग द्वारा वैसा कार्य भी कराया जाता था। यदि उन कलाओं और शिक्षणपद्धति को सन्मुख रखकर आज की शिक्षा-नीति निर्धारित की जाये तो उपयोगी रहेगा। विद्वत्ता के लिये जैसे आज अनेक देशों की बोलियों पोर भाषाओं को जानना आवश्यक है, उसी तरह प्राचीन काल में भी कलाओं के अध्ययन के साथ प्रत्येक व्यक्ति और विशेषकर समृद्ध परिवारों में जन्मे व्यक्तियों और देश-विदेश में व्यापार के निमित्त जाने वालों के लिये अनेक भाषाओं का ज्ञाता होना अनिवार्य था। जो दृढ़प्रतिज्ञ के उत्पन्न होने के कुलों के लिये दिये विशेषणों से स्पष्ट है। यद्यपि यहाँ की तरह अन्य आगम-पाठों में भी 'अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए' पद आया है। वह वर्ण्य व्यक्ति की विशेषता बताने के लिये प्रयुक्त हुआ है। किन्तु वे अठारह भाषायें कौनसी थीं, इसका उल्लेख मूल पाठों में कहीं भी देखने में नहीं पाया है। हाँ समवायांग, प्रज्ञापना, विशेषावश्यकभाष्य और कल्पसूत्र की टीकाओं में अठारह लिपियों के नाम मिलते हैं। परन्तु इन नामों में भी भिन्नता है। इस स्थिति में यही माना जा सकता है कि उस समय बहुमान्य प्रचलित बोलियों को एक-एक भाषा माना जाता हो और उनको बोलने-समझने में निष्णात होने का बोध कराने के लिये हो 'अठारह भाषाविशारद' पद ग्रहण किया गया हो। २८५-तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जाव वियालचारि च वियाणित्ता विउलेहिं अन्नभोगेहि य पाणभोगेहि य लेणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सयणभोगेहि य उनिमंतिहिति / २८५-तब उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को बाल्यावस्था से मुक्त यावत् विकालचारी जानकर माता-पिता विपुल अन्नभोगों, पानभोगों, प्रासादभोगों, वस्त्रभोगों और शय्याभोगों के योग्य भोगों को भोगने के लिये आमंत्रित करेंगे / अर्थात् माता-पिता उसे भोगसमर्थ जानकर कहेंगे कि हे चिरंजीव ! तुम युवा हो गये हो अतः अब कामभोगों की इस विपुल सामग्री का भोग करो। दृढप्रतिज्ञ की अनासक्ति __ २८६-तए णं दढपइण्णे दारए तेहि विउलेहि अन्नभोएहिं जाव सयणभोगेहि णो सज्जिहिति, णो गिझिहिति, णो मुच्छिहिति, णो अज्झोववजिहिति, से जहा णामए पउमुप्पले ति वा पउमे इ वा जाव सयसहस्सपत्तेति वा पंके जाते जले संवुड्ढे गोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पड जलरएणं, एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहि जाते भोगेहिं संवटिए गोवलिप्पिहिति० मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरिजणणं / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [राजप्रश्नीयसूत्र से णं तथारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहि बुझिहिति, केवलं मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पब्वइस्सति, से णं अणगारे भविस्सइ ईरियासमिए जाव सुहुययासणो इव तेयसा जलते / तस्स णं भगवतो अणत्तरेणं णाणणं एवं सणणं चरित्तेणं प्रालएणं विहारेणं प्रज्जवेणं महवेणं लाघवेणं खन्तीए गुत्तीए मत्तीए अणत्तरेणं सव्वसंजमसुचरियतवफलणिवाणमग्गेण अपाणं भावेमाणस्स अणते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिवाघाए केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जिहिति / तए णं से भगवं परहा जिणे केवलो भविस्सइ सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियायं जाणहिति तं०-प्रागति गति ठिति चवणं उववायं तक्कं कडं मणोमाणसियं खइयं भुत्तं पडिसेवियं प्रावीकम्म रहोकम्मं अरहा अरहस्सभागी तं तं मणवयकायजोगे बट्टमाणाणं सवलोए सबजीवाणं सवभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ / / तए णं दढपइन्ने केवली एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता अप्पणो पाउसेसं प्राभोएत्ता बहूई भत्ताई पच्चक्खाइस्सइ, बहूई भत्ताई अणसणाए छेइस्सइ, जस्सट्टाए कीरइ जग्गभावे केसलोचबंभचेरवासे अण्हाणगं प्रदंतवणं अणुवहाणगं भूमिसेज्जाप्रो फलहसेज्जासो परघरपवेसो लद्धावलद्धाई माणावमाणाई परेसि होलणाम्रो निदणाप्रो खिसणाप्रो तज्जणानो ताडणाम्रो गरहणामो उच्चावया विरूवरूवा बावीसं परीसहोवसग्गा गामकंटगा अहियासिज्जति तमझें पाराहेइ, चरिमेहि उस्सासनिस्सासेहि सिज्झिहिति मुच्चिहिति परिनिव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति / २८६-तब वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक उन विपुल अन्न रूप भोग्य पदार्थों यावत् शयन रूप भोग्य पदार्थों में आसक्त नहीं होगा, गृद्ध नहीं होगा, मूच्छित नहीं होगा और अनुरक्त नहीं होगा। जैसे कि नीलकमल, पद्मकमल (सूर्यविकासी कमल) यावत् शतपत्र या सहस्रपत्र कमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं और जल में वद्धिगत होते हैं, फिर भी पंकरज और जल रज से लिप्त नहीं होते हैं, इसी प्रकार वह दृढ़प्रतिज्ञ दारक भी कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों के बीच लालन-पालन किये जाने पर भी उन कामभोगों में एवं मित्रों, ज्ञातिजनों, निजी-स्वजन-सम्बन्धियों और परिजनों में अनुरक्त नहीं होगा। किन्तु वह तथारूप स्थविरों से केवलबोधि-सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त करेगा एवं मुडित होकर, गृहत्याग कर अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार करेगा / अनगार होकर ईर्यासमिति आदि अनगार धर्म का पालन करते हुए सुहुत (अच्छी तरह से होम को गई) हुताशन (अग्नि) को तरह अपने तपस्तेज से चमकेगा, दीप्तमान होगा। इसके साथ ही अनुत्तर (सर्वोत्तम) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अप्रतिबद्ध विहार, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति (निर्लोभता) सर्व संयम एवं निर्वाण की प्राप्ति जिसका फल है ऐसे तपोमार्ग से आत्मा को भावित करते हुए उस भगवान् (दृढप्रतिज्ञ) को अनन्त, अनुत्तर, सकल, परिपूर्ण, निरावरण, निर्व्याघात, अप्रतिहत, सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होगा। तब वे दृढ़प्रतिज्ञ भगवान् अर्हत, जिन, केवली हो जायेंगे। जिसमें देव, मनुष्य तथा असुर आदि रहते हैं ऐसे लोक की समस्त पर्यायों को वे जानेंगे / अर्थात् वे प्राणिमात्र की प्रागति--एक गति से दूसरी गति में आगमन को, गति-वर्तमान गति को छोड़कर अन्यगति में गमन को, स्थिति, च्यवन, उपपात (देव या नारक जीवों की उत्पत्ति-जन्म), तर्क (विचार), क्रिया, मनोभावों, क्षयप्राप्त Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार] [213 (भोगे जा चुके), प्रतिसेवित (भोग-परिभोग को वस्तुओं), आविष्कर्म (प्रकट कार्यों), रहःकर्म (एकान्त में किये गुप्त कार्यो) आदि, प्रगट और गुप्त रूप से होने वाले उस-उस मन, वचन और काययोग में विद्यमान लोकवर्ती सभी जीवों के सर्वभावों को जानते-देखते हुए विचरण करेंगे। तत्पश्चात वे दढप्रतिज्ञ केवली इस प्रकार के विहार से विचरण करते हुए और अनेक वर्षों तक केवलिपर्याय का पालन कर, आयु के अंत को जानकर अपने अनेक भक्तों-भोजनों का प्रत्याख्यान व त्याग करेंगे और अनशन द्वारा बहुत से भोजनों का छेदन करेंगे और जिस साध्य की सिद्धि के लिये नग्नभाव, केशलोच, ब्रह्मचर्यधारण, स्नान का त्याग, दंतधावन का त्याग, पादुकाओं का त्याग, भूमि पर शयन करना, काष्ठासन पर सोना, भिक्षार्थ परगृहप्रवेश, लाभ-अलाभ में सम रहना, मान-अपमान सहना, दूसरों के द्वारा की जाने वाली हीलना (तिरस्कार), निन्दा, खिसना (अवर्णवाद), तर्जना (धमकी), ताड़ना, गहरे (घृणा) एवं अनुकूल-प्रतिकुल अनेक प्रकार के बाईस परीषह, उपसर्ग तथा लोकापवाद (गाली-गलौच) सहन किये जाते हैं, उस साध्य--मोक्ष की साधना करके चरम श्वासोच्छ्वास में सिद्ध हो जायेंगे, मुक्त हो जायेंगे, सकल कर्ममल का क्षय और समस्त दुःखों का अंत करेंगे। उपसंहार २८७-सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / 287-- इस प्रकार से सूर्याभदेव के अतीत, अनागत और वर्तमान जीवन-प्रसंगों को सुनने के पश्चात् गौतम स्वामी ने कहा भगवन् ! वह ऐसा ही है जैसा आपने प्रतिपादन किया है, हे भगवन् ! वह इसी प्रकार है, जैसा आप फरमाते हैं, इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। २८८---णमो जिणाणं जियभयाणं / णमो सुयदेवयाए भगवतीए / णमो पण्णत्तीए भगवईए। णमो भगवो प्ररहनो पासस्स / पस्से सुपस्से पस्सवणा णमो / ग्रन्थाग्रम-२१२० / // रायपसेणइयं समत्तं // भयों के विजेता भगवान् को नमस्कार हो। भगवती श्रुत देवता को नमस्कार हो / प्रज्ञप्ति भगवती को नमस्कार हो। अर्हत् भगवान् पार्श्वनाथ को नमस्कार हो / प्रदेशी राजा के प्रश्नों के . प्रदर्शक को नमस्कार हो। ॥राजप्रश्नीयसूत्र समाप्त / / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ नृत्य-संगीत-नाट्य-वाद्य से सम्बन्धित शब्दसूची م س مر ه س ه ا ر अइमुत्तययलयापविभत्ती अच्छिज्जती अट्ठगुण अस्थमणत्थमण अप्फालिज्जमाण अभिणय अभिसेयचरिय असोगलयापविभत्ती असोयपल्लवपविभत्ती अंचिन अंचियरिभित्र अंतो मज्भावसाणिय अंबपल्लवप० आउज्जविहाण आगमणागमण प्राताडिज्जंत आमोडिज्जंत आमोत प्रारभड प्रारभडभसोल आलवंत आलिंग आवड आवरणावरण पाहम्मत ईहामित्र उक्खित्त उक्खित्ताय 56 उग्गमणग्गमण 51 उत्तालिज्जंत 77 उधुमंत 54 उप्पयनिवयपवत्त 51 उपायनिवायपवत्त 58, 112 उप्पिंजलभूत 57 उसभ 56 उसभमंडल 56 एक्कारसालंकार 57, 58, 111 एगओचक्कवाल 56 एगतोवंक 58 एगावली एगुणपण्णग्राउज्जविहाण 48, 50 ककारपविभत्ति कच्छभी 51 कणगावली 51 कडंब 51 कत्थ 57, 58,111 करडा 57, 111 करणसुद्ध कलस / 51 कलसिया 53 कहकहभूम 54 कामभोगचरिय 51 किणि 53 किन्नर 58, 77 कुट्टिज्जंत 111 कुतुब مہ م م ه م ي م م س م Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : नृत्य-संगीत-नाट्य-वाद्य से सम्बन्धित शब्दसूची] [215 कोसंबपल्लव कंसताल कुंजर कुतुब कुदलयापविभत्ति खकारपविभत्ति खरमही खरमुहीवाय गकारपविभत्ति गज्ज गयविलसिन गयविलंविध 56 चंदत्थमण 51 चंपगलयाप० चंपापविभत्ति चित्तवीणा 56 छद्दोस 55 छब्भाभरी 48, 51 छिप्पन्ती 48 जक्खमंडल जम्मणचरिय जार xxxx GK CCCCCCXCCCCCCCCCCCCC गह गी गेय गेय गोमुही गंधवणट्टकुसल गंधव्वमंडल गुजाऽवंककुहरोवगूढ घकारपविभत्ति घट्टिज्जत घण 58,111 डकारपविभत्ति चकारवग्ग चक्कद्धचक्कवाल जारपविभत्ति 55 जोवणचरिय 51 जंबूपल्लव 52 झल्लरी 51, 77 झसिर 58, 111 झंझा 51 टकारवग्ग डिडिम 54 पट्टविह 21 गट्टविहि 55 णट्टसाला तकारवग्ग 58, 111 तत तल तवचरणचरित्र 53 ताडिज्जत 53 तार 57 तारावलि 57 ताल 56 तालिज्जत 77 तिट्ठाणकरणसुद्ध 54 तिठाण 54 तित्थपवत्तणचरिअ 54 तिसमयरेयगरइय 54 तुरग 54 तूण 19 mom 51,77 चरिमचरिअ चवणचरित्र चूयलयाप० चंदणसार चंदमंडल चंदागमण चंदावलिपविभत्ति चंदावरण चंदुग्गमण wwwG Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [राजप्रश्नीयसूत्र 51 . . Ww 51 तंती तूबवीणा थिमियामेव उन्नमंति थिमियामेव प्रोनमंति दद्दरग दद्दरिका दप्पण दिदु तिम दुत (य)विलंबित दुय दुयणाम दुहोचक्कवाल दुदुभी-दुदुही नउल 51 पच्चावड पज्ज पडह पच्चिसू. पणव पयबद्ध पयसंचार 58, 112 परिनिव्वाणचरिअ 55, 111 परिल्ली परिवायणी पल्लवपविभत्ति पवाएंसु पविभत्ति पसारिअ पसेढी पाडतिअ 606 pow0G 19 m More 54 57 53 112 नट्ट 52 पाडितिम 111 पायबद्ध 77 47 48 पायत्ताण पायंत पिरिपिरिया पिरीपिरीया पिरीपिरीयावायग पुवभवचरिअ 116 58,77 51 53 عر م م पूस م पेया नट्टविधि नट्टविहि नट्टसज्ज नट्टसज्जा नर नागमंडल नागरपविभत्ति नागलयाप० नाडय नाणुप्पायचरित्र निक्खमणचरित्र नंदापविभत्ति नंदिघोसा नंदियावत्त नंदीमुइंग पउमपत्त पउमलया पउमलयापविभत्ति पकारवग्ग पगाइंसु م ع xxx. م ل पेयावायग फुट्टिज्जंती फुल्लावलि फमिज्जंत 51 बत्तीसइबद्धनट्टविहि 53 बत्तीसइबद्धनाडय बद्धग बद्धीस 55 बालभावचरित्र 50 भद्दासण 59, 150, 195 ل Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : नृत्य-संगीत-नाट्य-बाय से सम्बन्धित शब्दसूची] [217 54 77 54 57, 58, 111 रक्खस 51 रत्त 54 रयणावली 51 रयारइअ 57 रिभित्र 112 रियारिय 51, 57, 58 112 مه 3 रेयग भसोल भामरी भूतमंडल भेरी भंत भंतसंभंतणाम भंभा मगर मगरिया मगरंड मच्छ मच्छंड मच्छंडापविभत्ति मड्डया मत्तगजविल सिम मत्तगयविलंबिम मत्तय विलसिम मत्तहयविलंबित्र 58 58,77 MNCCCCCCCCC سه 9 xxxdow ر م ع 52, 53 मद्दल orm 53 रोइतावसाण 53 रोइयावसाण रिगिरिसया लत्तिया लय लया लोगअंतोमज्झावसाणिन 55 वणलया 55 वणलयाप० 55 वद्धमाणग वलियावलिपविभत्ति 55 वल्लकी 51 वसंतलया 54 वाइन वाइज्जंत वाइत्त बातिम वालग वाली वासंतियलयाप० विचिक्की 51 वितत वितार विपंची 52 विलंबिय विलंबियनट्टविहि विहग 58, 77,111 वीणा मयरंडापविमत्ति महुर महोरग महंती माणवय मार मारपविभत्ति मिउरिभिय मुइंग . 58, 111 MY Mmx Moor 53 56 58, 111 मुगुद मुच्छिज्जंत मुत्तावली मुरय xx Mor 57 मंगलभत्तिचित्त मंडलमंडल 57, 111 मंद मंदाय Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [राजप्रश्नीयसूत्र 218] वेयालियवीणा वेलु वंस cxcxccc M 0 52, 53 0 0 112 48, 51 0 48 48 77 सूरागमण 51 सूरावरण सूरावलिपविभत्ति सूरुग्गमण सेढी सोत्थिय सोवत्थिय संकूचिय 50 संकुचियपसारिय संख संखवाय संखियवाय संखिया संगयामेव उन्नमंति संगयामेव ओनमंति 58 संमंत __ संहरणचरित्र 112 सिंग सिगवाय 52 सिंगार 55 सुसुमारिया 51 हयविलसिय 51 विलंबिय 51 हुडुक्की 48, 51 सत्तसर सम समामेव अवणमंति समामेव उन्नमंति समामेव पसरांति समामेव समोसरण सरभ सललिअ सहितामेव उन्नमंति सहितामेव ओनमंति सागरतरंग सागरपविभत्ति सामन्नोविणिवाइय सामलयापविभत्ति सामंतोवणिवाइस सारिज्जंत सिरिवच्छ सीहमंडल सुघोसा सुण सुरइ सूरत्थमण 53 0 CCCCC 6 6 48, 51 cccccc < KnowNRNA होरंभ सूरमंडल 54 हंसाबलिपविभत्ति Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट--२ 63 212 विशिष्ट शब्दों की अनुक्रमणिका अइमुत्तयलया 70 अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसार प्रयकुभी 175 ___ अटिजुद्ध 208 अक्खय 14, 118 अणगारसय 136 अक्खर 103 अणिय अक्खाडग 33, 47, 62, 119, 120, अणियाहिवई 11, 38,126 प्रगड अणुवहाणय अगडमह 136 अणेग 175 अगणिपरिणय 178 अणंत 14,118 अग्गमहिसी 11, 126 अण्णजीविन अग्गलपासाय अण्हाणग अगला अतिमुत्तयलयामंडव अग्गिपओग 202 अत्थ 208 अच्चणिज्ज 67 अत्थजुत्त 117 अच्चणिय 125 अत्थत्थी अच्छणघरग 81 अत्थरग अच्छरगण 32 अत्थसत्थ अच्छरसातंदुल 117 अदंतवण 212 अच्छायण 86 अद्दरिट्ठ 28 अच्छि 100 अद्धकुलव 162 अच्छिपत्त 100 अद्धपत्थय 162 अज्ज 208 अद्धहार 115 अज्जग (य) 167, 163 अद्धाढत 162 अज्जिय अधम्मत्थिकाय अज्झस्थित 14 अधोऽवहिन अट्टालय अन्नविहि 208 अट्ठतलमसियवडंसग अपुणरावित्ति 14, 118 अट्ठभाइना अपुणसत्त 117 अट्ठसय 100 अपंडिअ 158 अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्त 117 अप्पकम्मतर 162 अट्ठावय 208 अप्पकिरियतर 162 164 3 M Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] [राजप्रश्नीयसूत्र morror 0.04 17 194 अप्पासवतर अप्फोयामंडवग अब्भवद्दलग अभितरपरिसा अभितरियपरिसा अभिगम अभिगमणिज्ज अभिसेग(य)समा अभिसेयभंड अमच्च प्रय अयभंड अयभारग(य) अयभारिय अयल अयविक्किणण अयहारय प्रयागर अरमणिज्ज अरहस्सभागी अरिहंत अरुअ अलंकारियभंड अलंकारियसभा अलंभोगसमत्थ अवलंबण अवलंबणबाहा प्रवाय अवंगुयदुवार अम्बाबाह अव्ववहारी असण असिलक्खण असुर असोग असोगलया असोगवण 162 अहिगरण अंक 20 अंकवाणि अंकधाई 207 126 अंकुस 10, 198 160 156 अंगबाहिर 103, 106, 121 अंचिय नट्टविहि 103 अंजण 175 अंजणपुलग 175 अंजणसमुग्ग 71, 101, 107 अंतर 202, 203 180 अंतेउर 131, 201 195 अंदोलग 80 118 अंबसालवण अंबसालवण-चेइअ 6, 13, 16, 23, 36 164 आइक्खग 164 आईणग 201 आयोग 8, 205 212 प्रागर 127 13, 118 पागासत्थिकाय 160 14, 118 आढत(य) 103, 115 प्राणपाणपज्जत्ति 104, 204 103,115, 116, 121 ग्राभरणविहि 208 206 प्राभरणारुहण 117, 119 आभिनिबोहियनाण 160, 161 आभियोगदेव प्रामलकप्पा 3, 6, 8, 13, 15, 16, 17, 22 144 23, 36 14, 118 आमलग (य) 189 पामेलग 144, 184 208 प्राययण 160 आयरक्ख 11, 126 आयरिय 197 प्रायंस 70, 101, 107 75 प्रायंसघरग 162 26 160 121 70 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट सम्दों को अनुक्रमणिका ] [ 221 207 उग्गह 44 उच्चारपासवणभूमि 13, 160 203 आरबी आराहए आलियघरग आलिंगपुक्खर आवत्तणपेढिया प्रावास 44 MINo. . प्राविकम्म प्रास प्रासम प्रासरह पासव आसवोयग आहार आहारपज्जति इक्खाग इक्खुवाड इड्डरग (य) इस्थिलक्खण इसिपरिसा इसु इब्भ इब्भपुत्त इंदकील इंदकुभ इंदमह इंदाभिसेय इंदियपज्जत्ति ईसत्थ ईसर ईसिणिया 27, 47, 76 उज्जाण 129, 146, 151, 157, 158 63 उज्जाणपालग(य) 146, 151 134 उज्जाणभूमि 167 212 उज्जुमई 156, 157 उण्णयासण 80 127 उत्तप्पसरीर 158 133, 157 उत्तरासंग 144 उत्तरंग 79 उम्पत्तिया 131 131 उप्पल 104, 204 उप्पलहत्थए 136 उप्पायपव्वयग 166,200 उप्फेस 162 उयगरस 76 208 41, 187, 187 उल्लोय 32, 47, 63 उवएस 139, 175 उबगाइज्जमाण उवगारियालयण उबट्टाणसाला 65 उवनच्चिज्जमाण 139 उवप्पयाण 106, 111 उवरिपुछणी 140, 204 उबलेवण 208 उववाइन 7,136 136, 175 उववाय 212 207 उववायसभा 102, 121 131, 160 उसड्ड 80 25, 32, 63 उसभ 25, 32, 63, 63 उसभकंठ 71, 101 77, 111 उसभसंघाड 134 उसभासण 136 उंबरपुप्फ 134 AWWads Aw 131 197 ईहामिय उक्कीडिय उक्खित्त उग्ग उग्गपुत्त Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [ राजप्रश्नीयसूत्र किण्हसुत्त ऊसियफलिह एगाहच्च एरवय एला एलासमुग्ग एलुय प्रोछ अोमत्त ओरोह प्रोसह मोहाडणी ओहि ओहिणाण कज्ज 70 कट्ठ MY 09 . W w कडग कडगच्छेज्ज कडिसुत्त कडुच्छ्य कत्थ कन्नवेण कब्बड कम्मया कयबलिकम्म 144 कामभोग 6, 131 161 कारण 108 कालागुरु 6, 16, 21, 32. 66, 117 30, 71 किन्नर 25, 32, 77, 160 किन्नरकंठ 100 किन्नरसंघाड 182 किमिकुभी 177 3 किरिया 144 144 किलावणधाई 207 63 कुक्कुड 12, 21 कुक्कुडलक्षण 208 कुट्टागार 201, 206 131 कुणाल (जणवय) 132, 134, 149 16, 184 कप्पूरपुड कुमुम कुलनिस्सिय 163 155 कुलव 162 117 कुलसंपण्ण 136 77 कुसुमघरग 206 कुहंडिया 127 131 कूडागारसाला 61, 176, 162, 201 134, 136, 141, 153, 169 कूडाहच्च 172, 206 के इयअद्ध (जणवय) 128, 134 केउकर 208 केऊर 126, 147, 167, 168 केवलकप्प 9, 13, 17 केवलनाण 160 6, 27, 37, 70, 107 212 केवली 190 केसरिहह 108 3, 63 केसि कुमारसमण 136, 138, 140, 141, 142 100 143, 146, 146, 151, 154, 156 3, 6 केसंत केसभूमि 100 208 कोट्टिमतल mr 1 Mum w WA कयलिघरग करण करभरवित्ति करयल कलस कलेवरसंघाडग कवाड कविसीसय(ग) कवोल कहग कागणिलक्षण Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : विशिष्ट शब्दों की अनुक्रमणिका ] [ 223 कोट्ठ कोट्ठयचेइन कोट्ठागार खंभ 208 26, 63, 70, 87 87 87 87 65, 86 ওও 175 30 खंडरक्ख 133, 136, 138, 141 खंदमह 8,131, 202 खंधवार 3,175 133, 134, 140, 152 __ खंभपुडंतर खंभबाहा 180 खंभसीस 8, 131 खिखणीजाल 207 गज्ज 136 गणग गणनायग गणिय 156, 157 गणियप्पहाण 30 गति 77, 190 गत्त 71 गत्तग गब्भघरग 3, 25, 32, 33 गब्भाहाण 101 गयकंठ 6,13 गयलक्खण 188 गयसंघाड 70 गया 6, 16, 21, 32, 66, 117 गरुलवह 191, 192 गरुलालन गवक्खजाल गाम 160 गामकंटक गामसहस्स गायलट्ठी 187, 188 गाहा गाहावइपरिसा 199, 200, 201 गिरिमह गिहिधम्म 76, 107 गीइय 127 गीय 76 गीयरइ कोडुबिय कोडुबियपुरिस कोरव्व कोरिल्लिन कोस कंचुई कंचुइज्जपुरिस कंबल कंबिधा कंबो कु कुम किंपुरिस किंपुरिसकंठ किपरिससंघाड कुंजर कुडधार पडिमा कुंडल कुडियालंछण कुदलया कुदुरुक्क कुथु कोचासण खइन खोवसमिय खग्ग खत्तिय खत्तियपरिसा खरिंगाल खलवाड खात खीरधाई खीरोदयसमुद्द खेड खोदोयग 10.0. xs YYY ar us: muorror 208 212 208 80 65, 86 127 212 201 200 187, 188 136 142,143 208 ... 207 / 208 6 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र 12 26 गुणब्वय गुज्झ गुत्त गेय 6, 32, 67 65, 86 67 गो 136 136, 159 गोकलिंजर गोकलिज गोपुच्छ गोपुर गोमाणसिया गोयम गोयमाइ(दि)य 208 108 208 गोल 25, 32, 33 98, 44, 45 201 घणमुइंग 131 घोसेडिय 176 घंटा घंटाजाल घंटापास 70 चउक्क 162 चउद्दसपुवी 63 चउनाणोवगय चक्क 63, 66 चक्कल 60, 128 चक्कलक्खण 45, 50, 56 चक्कवट्टिविजय 120 चक्कवूह 106 चच्चर 32 चमर 115, 117,116, 120, 121 / / __ चम्मेलुग 108 चरिम 3 चरिय 103 चवण 192 चवल चाउज्जाम चाउब्भाइया 208 चामर 9, 108, 190 चामरधारपडिमा 115 चित्तगर चित्तघरग 77, 136, 190 चित्तसारहि 17 चिलाइया चुचुम 70 चुण्णारहण 117 चुल्लहिमवंत चयलया 16, 117 चूयगवण 78 चूलोवणय 79 चेइन 111 चेइयखंभ 212 141 गोलवट्टसमुग्गय गोसीस गोसीसचंदण गंगा गंठिभेद गंठी गंडमाणिया गंडलेहा गंडोवट्टाणय गंथ गंध गंधकासाइय गंधपज्जव गंधव्व गंधव्वकंठ गंधव्वघरग गंधव्वसंघाड गंधारुहण गंधोवाइ गंधोदय गुजालिया घोयग धण 192 71, 107 101 101 87 81 131, 133, 134, 140 207 100 117 108 70 75 206 3, 6, 16, 17, 22, 167 . 97, 106, 120 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दों की अनुक्रमणिका ] [ 225 चेड चेडा 22 15 27 / Illuminat 0000/r orxr m चेइयथभ 120 जल्ल चेइयमह जव चेइयरुक्ख 94, 120 जाग 175 जागरिया जाण चेतित जाणवय चेतिय जाणविमाण 25, 26, 27, 32, 35, 36, चोक्ख 106, 116, 185, 205, 206. चोप्पाल 99, 121 जाणु चोय जाण चोयगसमुग्म 71 जातिमंडवग 81, 82 जातिसंपण्ण चोर 175 136 चंगेरी 71 जायरूव 8, 17 चंदणकलस जार 32, 65, 70,101 चंदसूरदंसणिग जालकड़ग चंदसूरियदरिसण जालघरग 81 चंदाणण जिण चंपछल्ली जिणपडिमा 93, 100, 101,106, 117, 120 चंपगलया 70 जिणवर 117 चंपगवण जिणसकहा 67, 106, 120 6, 70, 71, 70, 107, 154 जिणिदाभिगमणजोग्ग छत्तधारगपडिमा जियसत्तू 133, 134, 145 छत्तलक्षण 208 जीव 167, 175, 184, 190 छरुप्पवाय 208 जीवा 180 छविच्छेय __जीविया(ता)रिह 152, 197 छायण जीहा छिवाडी _जुवइसन्निविट्ठ छेयायरिय छंदण 103 जुद्धजुद्ध जइपरिसा 41 जुद्धसज्ज 133 जक्खपडिमा जुवराय 131 जक्खमह 139 जय जगईपन्वय जूहियामंडव जडड 158, 160, 185 जोइ 184, 185, 192 जणवय 8,128,132, 133, 147, 151,153 जोइस 40 167, 195, 202, 208 जोइ(ति)भायण 184, 185 छत्त 101 WMM 0 0 لر و لله Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र 108 108 28 38 167 108 175, 164 164 0 180, 194 212 ہم اس 226 ] जोई 178 णिसढ जोईरस णीलवंत जोग 3 णीली जोण्डिया 207 णेज्जाय जोय 204 रइयत्त जोह 139 णंदणवण जंघा तउध जंत तउयप्रागर ,15, 16, 17, 22, 23, 39, 128 तउयभार तउयभारग जंबूफल तउयभंड भय 6,101, 107 तक्क झसिर 111 तगर ठितिवडिय 205, 206 तगरसमुग्ग डिबडमर तज्जीव णगरगुत्तिय 175, 177 तण णगरमाण तडवडा णग्गभाव णमृग तणवणस्सइकाय णसाला तत 199, 200 णड तरुण णत्तुम 167, 166 तरुणीपडिकम्म गवणीय 82, 98 तल णवमालियामंडवग 81 तलवर णाई तलाग णाग 144, 160 ताण णागलयामंडवग तारा णाडग 136 ताल णाणादेसी 207 तालाचर णाय 139 तालु णालियाखेड 208 तिगिच्छिदह णिग्गंथ 144, 167 तिच्छडिय णिडालपट्टिया 100 तित्थयराइसेस णिदाइय 208 तिय णिम्मा 26, 63 तिसोपाण णियग 169 तिसोवाण णिविण्णाण 185 तुडिय Yurn 25 ruru purn.ru 26 al or 208 12 136, 175 3 3, 138 26, 36,37, 36 12, 13 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दों को अनुक्रमणिका ] [ 227 तुरग तुरिय 205, 206, 207, 208 a 4 9 तुरुक्क तुला तूणइल्ल 203 3, 25, 32, 63 दार 13 दारग 16, 33, 66, 117 दारचेडी 167 दारुइज्जपव्वयग दाहवक्कंतिया 18 दाहिण 71, 101, 107 दिट्ठिवाय 3, 26, 32, 70, 71 दिट्ठी 12 दिसासोवत्थिअ 165 दिसासोवत्थिआसण av 2 तुली 160 167 70, 80 81 13, 162 81 दीव 162 162 80 3,78 175 160 तेल्लसमुग्ग तोरण तंती तंबागर तंबोलिमंडवग तुंबवीणिय थाल थूभ थूभमह थूभाभिमुही थभिया थेज्ज थेर दक्ख दगथालग दगधारा दगपासायग दगमट्टिय दगमालग दगमंचग दगमंडव दढपइण्ण दप्पण दब्भसंथारग दमणापुड दमिली दरिमह दव्वट्ठया दसद्धवन्न दहिवासुयमंडवग 80 41 3,6 दीवचंप 101, 107 दीवचंपग दीहासण 136 दीहिया 63 दुगुल्ल 63 दुघण 167 दुतविलंबियनट्टविहि 212 दुयनट्टविहि 157, 160 दूय 20 देव 116, 120 देवच्छंदय देवपरिसा 208 देवदूसजुयल 80 देवसणिज्ज 80 देवाइ 80 दोणमुह 206 दोर 27 दोवारिय 203 दंड 30 दंडणायग 207 दंडलक्षण 136 दंडसंपुच्छणी 87 16, 21,117 दंतवाणिअ 81 दंसण 115, 117 18, 102, 121 127 103 175 17, 131 175 208 दंत 160 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 / राजप्रश्नीयसूत्र धणु 206 धणुवेय धम्म धम्मकहा धम्मजागरिय धम्मत्थिकाय धम्मायरिअ धम्मावियपुव धम्मि धम्मोवदेसग धाउपाग धारणा धारिणी धव धूवकडुच्छ्य धूवघडी धंतपुत्व नईमह नक्ख नगर 144 158 66, 180 नाणसंपण्ण 208 नाभी 100 41, 154, 197, १९ह नामगोअ 167 नामधिज्जकरण 206 नारिकत 108 160 नासिगा 152, 167, 204 निचिय 176 178 निगम 127, 175 171 निग्गंथ 42 152, 203 निग्गंथपावयण 142 208 निच्छोडण 187 निज्जर निभंछण 187 16, 120 नियइपव्वयग 101, 107 नियुद्ध 208 66, 96 निरयपाल 178, 183 निविण्ण 185 निविषणाण निव्विसय 188 127, 175 निसीहिया 3, 12, 208 208 नंदणवण 65, 66, 104 नंदि (सूत्र) नंदियावत्त 27, 37 136 नंदीसरवर पइ(ति)ट्ठाण 63, 65, 86 167, 168, 169, 170 पइण्णा (ना) 167, 168, 178, 176, 181 182, 184206 70 पईव 65, 66, 70, 66, 67 पउम 87 101 पउमपुंडरीयदह 108 136 पउमलया 70 70 पउमवरवेदिया 79, 85, 86,87 150 पउमासण 80,66 160 पएसी 126, 147, 150, 153, 156, 157 182 160, 169, 176, 180, 182, 183, 184 100 सिटी नद्र ওও नंदा नड नत्तुअ नयणमाला नयप्पहाण नरकंठ नरय नरव नरसंघाड नागदन्त नागपडिमा नागमह नागलया नाडय नाण नाणत्त Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 229 103 208 71 192 108 176, 180, 181, 182 131, 167 77 212 28 190 185 44 185 108 परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दों की अनुक्रमणिका ] पएसी 185, 187, 188, 190, 191 पत्त 162, 193, 167, 18, 199, 201, 202 पत्तग पओग पत्तच्छेज्ज पओहर 67 पत्तसमुग्ग पकाम 158 पत्थय पक्कणी 207 पभास पक्ख 63, 86, 87 पभू पक्खपडंतर 87 पमाण पक्खपेरंत पयबद्ध पक्खबाह 63, 86, 87 पयरग पक्खासण परधरपवेस पक्खंदोलग བ༠ परपु? पगंठग 68, 70 परमाणुपोग्गल पच्चक्खाण 201 परसु पच्छाणुताविअ 164, 195, 167, परित्तसंसारित पच्छिपिंडय 181, 162 परियर पचंकमणग 206 परियाय पच्छियपिडय 181 परिसहोवसम्म पजेमणग 206 परिसा पज्ज 77 पलिओवम पज्जत्ति 204 पवग पज्जुवासण पवेसण पज्जवासणिज्ज 97 पसाहणघरग पट्टण 127 पहरणकोस पट्टिआ 63, 86 पह पडलग पहेलि पडागा पडिम्गह 144 पाउया पडिचार 208 पागार पडिपाय पाडिहारिअ पडिवद्धावणग 206 पाणविहि पण्णविया 207 पाणाइवाअ पण्णा 171,177, 176, 180 पाय पणयासण 80 पायचार पणिय 3 पायच्छिण्ण पतिट्ठाण 26 पायच्छिन्नग 212 10,11,41, 138, 151 114, 127, 205 81 66, 121 पाई 208 70, 101, 107 13, 152 3, 63 148,151 208 98 204 33,67 145 188 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 230 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र पायतल 100 पुप्फपडलग 20, 101, 107 पायत्त 111 पुष्फवद्दल 20 पायत्ताणियाहिवइ 22, 23 पुष्फारुहण 117, 116 पायपीढ 13, 33, 152 पुर 131, 202 पायपुछण 144 पुरिस 156, 179, 180, 181, 182, 185 पायबद्ध 77 पुरिसआसीविस पायरास 134 पुरिसलक्खण पायसीसग 33, 68 पुरिसवरगंधहत्थी 8, 13, 118 पारसी 207 पुरिसवरपुडरीअ 8, 13, 118 पारिणामिया 131 पुरिससीह 8, 13, 118 पारेकव्व 208 पुरोहि पालियाय 29 पुलग पालंब 13 पुलिंदी 207 पावसउण 147 पेच्छाघरमंडव 62,93, 119, 120 पासग पोत्थयरयण 103, 116, 121 पासावच्चिज्ज 136, 138, 140, 146, 159 पोसह 144 पाहुड 133, 134,145 पोसहसाला 203 167 पोसहोववास 201 पिउ 179, 180 पिच्छणघरग 81 पंचविहनाण 160 पिच्छाघर 32 पंचाणुवइम 142 पिच्छाघरमण्डव 47 पंडगवण 77, 108 पित्तजर 160 पिहुणमिजिया पंथियपहिय 201 पीइदाण 152, 167 पुंडरीय 108 पीढ 144, 148, 146, 151, 167 पोंडरीय पीढमद्द 175 फरसु पुक्खरगय 208 फरिस 6, 136, 169 पुक्खरिणी 78, 65, 96, 104, 121 फलग 26, 70, 96, 17, 144, 148, 149, पुक्खरोदय 108 151, 167 पुग्गल फलहसेज्जा 212 177, 178 फलिह पुढवीसिलापट्टग फलिहरयण पुत्त फलिहा पुप्फचंगेरी 20, 107 फालिन 184, 185 पुष्फछज्जिय 20 फासपज्जव 87 पिअ 163 पंचकंडग 203 पंथ 27 पुढवी 7, 82 202 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दों को अनुक्रमणिका ] [ 231 201 भेरि बउसिया बत्तीसिया बब्बरा बल बलवाहण बलिपीढ बलिविसज्जण बहली बाल बावत्तरिकलापंडिय बाहिरपरिसा बाहिरियपरिसा बाहुजुद्ध बिब्बोयण बिलपंति 144 बूर 194 भुयग 207 भुसु ढि 162 भूमिचवेड 112 207 भूमिसेज्जा 212 131, 142, 202 भूयपडिमा 101 भूयमह 104, 121 121 207 भेसज्ज 180 भोग 206 भोम 35 भंड 70 126 भिंगार 7.0, 101, 107, 116 208 मउड 98 मउंदमह 139 78 मगर 25, 32, 63 33, 82, 98 मगरासण 80 162 मगरंडग 144 मच्छ 27, 78 16, 20 मज्जणधरग 212 मज्जणधाई 207 77, 108 मज्झिमपरिसा 35, 126 27, 35, 37, 80 मट्टिय 108 100 मडंब 127 108 मणपज्जवनाण 160, 161 मणाम 167, 164 मणिपाग 208 160 मणिपेढिया 33, 47, 93, 94, 95, 67, 98 41 99, 102, 116, 121 131 मणिलक्षण 15, 16, 17, 39, 128 मणुण्ण 167 104, 204 मणोगुलिया 70, 66, 101 153, 201 मणोमाणसिय 212 मणोरहमाला 63 मणोसिलासमुन्ग 147 मम्म 202 बोदि बंध भइयदारअ भत्त भद्दसालवण भद्दासण भमुहा भरह भवण भवणव भवपच्चइय भवसिद्धित भाउयवयंस भारहवास भासमणपज्जत्ति भिक्खुअ भित्ति भित्तिगुलिता भिलुग 81 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र 97, 106, 120 208 81, 82 139, 153, 154, 201 187, 188 129 204 149, 151, 157, 158 150 208 3, 6 232 ] मरीति माणवय मरुआपुड माणवार मल्ल मल्लइ 139 मालवन्त मल्लारुहण 117 मालागारदार मल्लियामंडवग मालियघरग मसारगल्ल 17 मालयामंडवग मसी 103 माहण मसूरग माहणपरिसा महाघ 106, 133 मिगवण महत्थ 106, 133, 134,145, 146, 150 मिच्छादसणसल्ल मयर 207 मियवण महरिह 109, 133 महाणई 108 मुइंगमस्थय महाणदी .108 मुट्ठिजुद्ध महानई मुट्ठिय महापउमद्दह 108 मुणिपरिसा महापुडरीय 87 मुत्तादाम महापुडरीयद्दह 108 मुद्दियामंडवग महापोंडरीय 27 मुद्धय महामंति 175 मुद्धाभिसित्त महाविदेह 108, 205 मुरवि महावीर 13, 15, 16, 18, 19, 21, 22, 23 मुरंडी 39, 40, 41, 44, 45, 46, 60 मुहमंडव महाहिमवंत 108 मूढ महिस महिंदज्झय 37, 39, 95, 99, 120 मोक्ख महोरग 77, 190 मोहणघरग महोरगकंठ 71 मंख महोरगसंघाड मंगल मागह 6, 108 मंडणधाई मागहिय माडंबिम 139, 175 मंत माण माणउम्माणपमाण मंतपयोग माणवग 97, 98 मंति 0 km 61, 119, 120 158, 185 मेढी 144 70 208 मंडल 6, 17 207 70 131 202 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दों की अनुक्रमणिका ] [233 मंद मंदरपन्वत मंदरपव्वय 136 108 108 25, 32, 63 9,86, 136, 169, 208 रज्जसिरि रज्जु 07r is www 77, 111 रट्ठ रतिकरपव्वत रत्तवई रत्ता रमणिज्ज रम्मगवास रयण रयणकरंडग रयणप्पभापुढवी रयणागर रयत्ताण रयय 111 रुद्दमह 8 रुप्पकुलम 108 रुप्पागार 158 रुप्पि 131, 202 रुरु 202 रूव रूवसंघाडग 131, 202 रूवसंपण्ण 39 रोइया(ता)वसाण 108 रोमराई 108 रोहिन 166, 200, 201 रोहियंस 108 लक्खण 17 लद्धावलद्ध 71,101, 107, 168 लयाघरग 61 लयाजुद्ध 165 लाउसिया लाला 17 लावण्ण 6,136, 169 लासग 87 लासिया 3, 76, 150, 157, 158 / / लित्त लिप्पासण 131, 202 लेक्ख लेच्छ लेणभोग 139 लेह 175, 177 लेहणी 8 लेहाइया लोमहत्य लोमहत्थग 133, 144 लोमहत्थचंगेरी 127 लोहियक्ख m रस . रसपज्जव रह 207 176 103 रहवाग्र रहस्स 202 139 211 208 103 208 रहस्सभेन रहोकम्म राइण्ण राई रायकुल रायनीति रायमग्ग रायववहार रायहाणी रिट्ठ 119, 120, 121 107 17 लंख 167 लंबूसग 139 वर रुक्खमह 25 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र 207 71,101, 107 9 93 207 25, 32, 63 119 77 78 184 mmsm Um 87 131, 142, 202 वइरागर 195 वामणिया वक्खारपव्वय 108 वाय वग्धारिय 6, 32 वायकरग वच्चघर 172 वारिसेण वट्टखेड्ड 208 वारुणिया वट्टवेयड्डपव्वय 108 वारुणोयग वडभिया 207 वालग वडिसय 62 वालरूवय वणत्थि 184 वालुया वणसंड 88,96, 147, 199, 200, 201 वाविया वणिच्छित्त वासवद्दलग वणोवजीवी वासहरपव्वय वत्थ 144, 203 वासंतिमंडवग वत्थविहि वासंतियलया वत्थी वासिक्कछत्त वत्थुविज्जा वाहण वद्धमाण विउलमई वद्धमाणग 27, 37 विच्च वनलया 70 विजयदूस वन्नपज्जव 87 विज्जाहर वन्नारुहण 117 विडिमा वप्पिण विवत वयणमाला वियडावाति वयर वियालचारी वयरविक्कणण 195 विलास वरदाम 108 विलेवणविहि वरिसधर 207 विलंबियनट्टविहि ववसाय 116 विवच्चास ववसायसभा 103, 104, 116, 121 विवणि ववहारग 189 विवर ववहारी 189 विसप्पभोग वाइन 12, 208 विसप्पजोग वाउकाय 190 विससंजुत्त वाउयाय 190 विहग वाणमंतर 18, 40 विहंगिया वाम 189, 197, 198 वूह M 25, 32, 63 10 208 111 186 0 0 0 203 25, 32, 63 181 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दों की अनुक्रमणिका ] [ 235 87 127 207 13, 15, 16, 17, 138 153, 154, 167, 201 144, 202 171 208 108 167, 163 77 सय 208 97 185 208 78 25, 32, 63 वेइयपुडंतर 87 सन्निवेस वेइयफलत 87 सबरी वेइया समण वेइयाबाहा 87 वेउब्वियसमुग्घाय 17, 19, 20, 46, 47, 107 समणोवासय वेच्च समणोवासिआ वेणतिया 131 समताल वेणुसलागिगा 19 समयखेत्त वेमाणि 12, 40 समुग्गय वेयण 169 समोसरण वेयप्पहाण 136 सयग्घी वेयालियवीणा सयणविहि वेरमण 201 सयवत्त वेरुलिय 17 सर वेलंवग 3,6 सरगय वेसमणमह 136 सरपंतिया बेसासिम 167 सरभ वंजण 9 सरमह वंस 63.86 सरसरपंतिया वंसकवेल्लुया 63, 86 सरीर सउणरुय 208 सरीरपज्जत्ती सउणरुयपज्जवसाणा 208 सलागाहत्थग सक्कर 16 सवण सगडवह 208 सव्वण्णू (न्नू) सागरोवम 114 सव्वदरिसी सचित्त 192 सव्वोसहि सज्जीवनिज्जीव 208 सहस्सपत्त सण्णा 167, 163 सहस्सवत्त सतपत्त 27 सागरमह सत्तवन्नवण 75 साम सत्तसर ওও सामलया सत्तसिक्खाव 142 सामाय सत्थपयोग 202 सामी सस्थवाह 136, 175 सायिसंपयोग 9, 136, 169, 190 सारहि सद्दावाति 108 सालघरग 61, 153, 157, 167 104, 204 100 14, 118 14, 118 108 27 139, 140 131 7.4ror सद्द Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र 30 87 87 सालभंजिया 25, 32, 63, 66, 70, 119 / सुत्तखेड्ड 208 सालि सुपइट्ट 70 सालितंदुल सुपइट्ठाण 101, 107 सालिंगणवट्टिय सुभग 27, 87 सालीपिट्ठ सुयनाण 160, 161 सावस्थीनयरी 133, 134, 136, 140, 141 सुरभिगंधकासाइय 115 149, 151 सुवण्णकूला 108 सासया सुवण्णजुत्ति 208 सिक्कग(य) 66, 70, 66,67 सुवण्णपाग 208 सिग्घगमण 25 सुवण्णागार सिज्जा 167 सुसरा 22, 23 सिद्धत्थय 108 सुहम्मा-सभा 11, 21, 22, 91, 67, 102 सिद्धायतण 99, 101, 116, 117 120, 121, 125 सिद्धिगइनामधेय-ठाण 14 सूई 26, 63, 87 सिप्पायरिय 167 सूईपुडंतर 87 सिप्पी सूईफलय 87 सिरिवच्छ 27, 37, 100 सिरीसिव 129, 147 सूणगलंछण 188 सिल 177, 178 सूरियकंत-कुमार 131, 202 सिलोग 208 सूरियकता-देवी 131, 166, 202, 203 सिव 8, 14, 118 सूरियाभदेव 11, 21 22, 40, 106, 204 सिवमह 136 सूरियाभविमाण 11, 21, 22, 62, 106, सिहर 111, 204 सिहरी 108 सूरियाभाइ सीता 108 सूरिल्लियमंडवग सीतोदा 108 सूल भिन्नग 169 सीमंकर सूलाइग सीमंधर सेयराया सीय 3, 73 सेज्जा 144, 148, 151 सीलव्वय 201 सेटिठ 136, 175 सीसघडि सेणाव 139, 175 सीसच्छिण्ण 180 सेय 104 सीसभारग 188 सेयविया-नयरी 128, 145, 146, 147, 149 सीहासण 13, 14, 33, 47, 71,74, 80 150, 151, 157, 167, 168, 166, 197, 98, 106, 107, 115, 119, 121 208 सोगंधि 17, 27 100 सुत्त Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : विशिष्ट शब्दों की अनुक्रमणिका। [ 237 188 100 191, 192 71,101 167 सोत्थिय सोमणसवण सोलसिम सोहम्मकप्प संकप्प संकला संखला संखवाणिय संखेज्जफालिन संडेय संदमाणी संथार संधि संधिवाल संपलद्ध संपलियंकनिसन्न 208 70, 86 102, 106 108 27, 37 हत्थच्छिण्णग्न 77, 108 हत्थच्छिण्णग 192 हत्थतल 109, 204 हथि यकंठ 103 यजोही 67 हयलक्खण 160 हयसंघाड 185 हरय हरिकंत 3, 76 हरियाल 144, 148, 151, 197 हरियालसमुग्ग 26, 33, 63, 98 हरियालिया 175 हरिवास 203 हल 93, 203 हलधर 127 हलिद्दा हिमवंत 167 हिययमाला 167 हिरण्णजुत्ति 206 हिरणपाग به ه 0dum संवाह संभम m 8, 77 संमअ संमज्जण संवच्छरपडिलेहणग संवट्टयवाय संवर सिंगार सिघाडग 208 208 154, 167 65, 86 144 हेमजाल हेमवय 108 हंसगब्भ 17 सिंधु 3,138, 151 108 207 सिंहली सुक हंसगब्भतुलिया हंसासण हिंगुलयसमुग्ग हत्थ 207 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है / मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है / वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्त', तं जहा- उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, निग्याते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्धाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा—अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुम्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। ---स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाआसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तअपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा—पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्त / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुन्वण्हे, अवरण्हे, पोसे, पच्चूसे / - स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं / जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेप्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है। अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्घात--बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो पहर तक अस्वाध्याय काल है / 6 यूपक- शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिकाकृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है / जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / 10. रज-उद्घात-वायु के कारण ग्राकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं / औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डी मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का प्रस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15 श्मशान--श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं / 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढपूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों को शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री शा० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया.बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम / 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास भैरुदानजी लाभ 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी बिनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूषालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16 श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 6. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धक रणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोल लाभचंदजी सुराणा, नागौर Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [सदस्य-नामावली mr 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 6. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपूर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपर 32. श्री बादलचंदजी जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी. गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री जंवरी३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, __ लालजी गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, अागरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी / 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45 श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री प्रासूमल एण्ड कं०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्री छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवर चन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम 39. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा mmmmm m " Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली ] [ 243 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 76. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेडतासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री माँगीलालजी मदनलालजी चोरडिया भैरूद 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एन्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखवचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रुणवाल, मैसूर जोधपुर 61 श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 86. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जगराजजी बाफना, बैंगलोर 10. श्री इन्द्रचन्दजी मकन्दचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, राज- 14. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी नांदगाँव 65. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 66. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 17. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 0 000 244 ] [सदस्य-नामावली 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, भरतपुर 116. श्रीमती रामकुवरबाई धर्मपत्नी श्रीचांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, __ लोढ़ा, बम्बई बोलारम . 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर), मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धुलिया 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरूंदा 126. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रुणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवारणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं. बैंगलोर 115 श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. र. जैनभूषण श्रीज्ञानमुनिजी महाराज श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र को ध्यान से पढ़ा। गुरुदेव पूज्यश्री आत्मारामजी म. फर्माया करते थे—'भगवद्वाणी के स्वाध्याय से, चिन्तन-मनन से अकथनीय हर्षानुभूति होती है।' पूज्य गुरुदेव की यह उक्ति ज्ञाताधर्मकथांग के स्वाध्याय-काल में साकार होती हुई अनुभव में आई / सूत्र को पढ़ कर सचमुच बड़ी प्रसन्नता हुई। श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग का अनुवाद गहरे चिन्तन और श्रम के साथ किया गया है / इस सत्य से कभी इन्कार नहीं किया जा सकता है। ....."जैनजगत् के विख्यात लेखक पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सत्र के अनुवादक हैं, विवेचक हैं। पण्डितजी की लेखनी के चमत्कार सर्वप्रसिद्ध हैं। इनकी लेखन कला में एक निराला आकर्षण है। पढ़ना आरंभ कर दें तो छोड़ने को मन नहीं करता। मैं अनुवादक पण्डितजी का तथा संस्था का धन्यवादी हूँ जिन्होंने जन-जीवन को आगमों की ज्ञानसम्पदा से मालामाल बनाने का बुद्धिशुद्ध प्रयास किया है / श्री आगमप्रकाशन समिति ब्यावर का सौभाग्य है जिसे ऐसेऐसे अनुभवी और आगमज्ञ अनुवादकों का सान्निध्य सम्प्राप्त For Private & Personal use only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत श्रमणसूर्य मरुधरकेसरी प्रवर्तक मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज [छप्पय] जैनागम बत्तीस गहन सागर रत्नाकर, भरा छलाछल ज्ञान आत्म का करन उजागर / यह हिन्दी अनुवाद मनोहर करण विचारा, तज प्रमाद को दूर सूर बन मन दृढ़ धारा। अच्छे सहयोगी मिले शीघ्र प्रकाशन कर लिया धन्यवाद देऊ सतत कल्पवृक्ष सा रच दिया // 1 // साहस-युत सुध सेव पुण्य के उदय मिली है, देख प्रकाशन शुभ्र हृदय की कली खिली है। एकादश हैं अंग और उपांगज बारा, चार छेद चतु मूल और आवश्यक प्यारा / टिप्पण देकर और भी खूब खुलासा पा गए, भव्य ! पढो बल भाव से ज्ञान-खजाने पा गए॥२॥ सरल और सश्रीक भावयत भाषा लीनी, युवाचार्य बन प्रथम ज्ञान-गंगा बहा दीनी / पत्राकार यदि होत श्रमण-श्रमणी मन भाते, तदपि हैं सजिल्द पत्र कहिं बिखर न जाते / दोय मंजुषा में सभी पेक करा कर संघ को, भेजे यत्न के सहित रख कर लहे उमंग को // 3 // चरण करण अरु धर्म द्रव्य अनुयोग चार हैं, पागम के अभिराम भरा परमार्थ-सार हैं। नय निक्षेप प्रस्तार अंक अरु फलिक लहरो, भांगे विविध प्रकार भगवती बीच शहरी। अनुयोगद्वार प्रादिक सबी चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति वर, बड़ी शोध करके अहा! उसे छपाना विज्ञवर // 4 // सम्पादक-मण्डल सहित, प्रिन्टकार आदीय / अर्थराशि दाता प्रति, धन्यवाद रमणीय // -आचार्य श्री रघुनाथ जैनस्मृतिभवन, पाली 23-1-82 www.jainelibi