________________ 198] [राजप्रश्नीयसूत्र __प्रदेशी-हाँ भदन्त ! जानता हूँ, तीन (प्रकार के) प्राचार्य होते हैं -1. कलाचार्य, 2. शिल्पाचार्य, 3. धर्माचार्य / केशी कुमारश्रमण–प्रदेशी ! तुम जानते हो कि इन तीन आचार्यों में से किसकी कैसी विनयप्रतिपत्ति करनी चाहिए ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! जानता हैं। कलाचार्य और शिल्पाचार्य के शरीर पर चन्दनादि का लेप और तेल आदि का मर्दन (मालिश) करना चाहिए, उन्हें स्नान कराना चाहिए, उनके सामने पुष्प आदि भेंट रूप में रखना चाहिए, उनके कपड़ों आदि को सुरभि गन्ध से सुगन्धित करना चाहिए, आभूषणों आदि से उन्हें अलंकृत करना चाहिए, आदरपूर्वक भोजन कराना चाहिए और आजीविका के योग्य विपूल प्रीतिदान देना चाहिए, एवं उनके लिये ऐसी आजीविका की व्यवस्था करना चाहिये कि पुत्र-पौत्रादि परम्परा भी जिसका लाभ ले सके / धर्माचार्य के जहाँ भी दर्शन हों, वहीं उनको वन्दना-नमस्कार करना चाहिए, उनका सत्कार-संमान करना चाहिए और कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एवं ज्ञानरूप उनको पर्युपासना करनी चाहिए तथा अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य भोजन-पान से उन्हें प्रतिलाभित करना चाहिए, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या-संस्तारक आदि ग्रहण करने के लिये उनसे प्रार्थना करनी चाहिए। केशी कुमारश्रमण-प्रदेशी ! इस प्रकार की विनयप्रतिपत्ति जानते हुए भी तुम अभी तक मेरे प्रति जो प्रतिकूल व्यवहार एवं प्रवृत्ति करते रहे, उसके लिए क्षमा मांगे बिना ही सेयविया नगरी की ओर चलने के लिये उद्यत हो रहे हो ? / २७०-तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वदासी-एवं खलु भंते ! मम एथारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्था एवं खलु अहं देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाव वट्टिए, तं सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभायाए रयणोए फुल्लुयलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए रत्तासोग-किसुयसुयमुह-गुजद्धरागसरिसे कमलागरनलिणिसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते अंतेउरपरियालसद्धि संपरिवुडस्स देवाणुप्पिए वंदित्तए नमंसित्तए एतमट्ठ भुज्जो-भुज्जो सम्म विणएणं खामित्तए-त्ति कटु जामेव दिसि पाउन्भूते तामेव दिसि पडिगए। तए णं से पएसी राया कल्लं पाउप्प भायाए रयणीए जाव तेयसा जलते हट्टतुट्ठ-जाव-हियए जहेव कूणिए' तहेव निग्गच्छइ अंते उरपरियालसद्धि संपरिवुड़े पंचविहेणं अभिगमेणं बंदइ नमसइ एयम भुज्जो भुज्जो सम्मं विणएणं खामेइ / __ २७०-केशी कुमारश्रमण के इस संकेत को सुनकर प्रत्युत्तर में प्रदेशी राजा ने केशो कुमारश्रमण से यह निवेदन किया-हे भदन्त ! आपका कथन योग्य है किन्तु मेरा इस प्रकार यह प्राध्यात्मिक—आन्तरिक यावत् विचार-संकल्प है कि अभी तक आप देवानुप्रिय के प्रति मैंने जो प्रतिकूल यावत् व्यवहार किया है, उसके लिये आगामी कल, रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित होने, उत्पलों और कमनीय कमलों के उन्मीलित और विकसित होने, प्रभात के पांडुर (पीलाश लिये श्वेत वर्ण का) होने, रक्ताशोक, पलाशपुष्प, शुकमुख (तोते की चोंच), गुजाफल के अर्धभाग जैसे लाल, सरोवर में 1. देखिए समिति द्वारा प्रकाशित प्रौपपातिक सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org