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________________ प्रवेशी की प्रतिक्रिया एवं श्रावकधर्म-ग्रहण ] [ 197 इसी कारण हे प्रदेशी ! मैंने यह कहा है कि यदि तुम अपना दुराग्रह नहीं छोड़ोगे तो उस लोहभार को ढोने वाले दुराग्रही की तरह तुम्हें भी पश्चात्ताप करना पड़ेगा। प्रदेशी की प्रतिक्रिया एवं श्रावकधर्म-ग्रहरण २६८-एस्थ णं से पएसी राया संबद्ध केसिकुमारसमणं वंदइ जाव एवं वयासी–णो खलु भंते ! अहं पच्छाणुताबिए भविस्सामि जहा व से पुरिसे अयभारिए, तं इच्छामि गं देवाणुप्पियाणं अंतिए केलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए / अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह / धम्मकहा जहा चित्तस्स / तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। २६८-~-इस प्रकार समझाये जाने पर यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त कर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण को वंदना की यावत् निवेदन किया-भदन्त ! मैं वैसा कुछ नहीं करूंगा जिससे उस लोहभारवाहक पुरुष की तरह मुझे पश्चात्ताप करना पड़े। अत: आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहता हूँ। केशी कुमारश्रमण-देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसा करो, परन्तु विलंब मत करो। इसके पश्चात् प्रदेशी की जिज्ञासा-वृत्ति देखकर केशी कुमारश्रमण ने जैसे चित्त सारथी को धर्मोपदेश देकर श्रावकधर्म समझाया था उसी तरह राजा प्रदेशी को भी धर्मकथा सुनाकर गृहिधर्म का विस्तार से विवेचन किया। राजा गृहस्थधर्म स्वीकार करके सेयविया नगरी की ओर चलने को तत्पर हुआ। २६६–तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी-जाणासि तुमं पएसी ! कइ प्रायरिया पन्नत्ता? हंता जाणामि, तो प्रायरिया पण्णत्ता, तंजहा—कलायरिए, सिम्पायरिए, धम्मायरिए / जाणासि गं तुमं पएसी ! तेमि तिहं प्रायरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पजियम्वा ? हंता जाणामि, कलायरियस्स सिप्पायरिस्स उबलेवणं संमज्जणं वा करेज्जा, पुरो पुष्पाणि वा प्राणवेज्जा, मज्जावेज्जा, मंडावेज्जा, भोयाविज्जा वा विउलं जीवितारिहं पोइदाणं दलएज्जा, पुत्ताणुपुत्तियं वित्ति कप्पेज्जा / जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा तत्थेव वंदेज्जा णमंसेज्जा सक्कारेज्जा सम्माणेज्जा, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा, फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेज्जा, पाडिहारिएणं पीढ-फलग-सिज्जा-संथारएणं उवनिमंतेज्जा। एवं च ताव तुमं पएसी ! एवं जाणासि तहावि गं तुमं ममं वामं वामेणं जाव वट्टित्ता ममं एयम8 अखामित्ता जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए? २६९-तब केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-प्रदेशी ! जानते हो कितने प्रकार के प्राचार्य होते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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