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________________ मणियों का स्पर्श [31 उसीरपुडाण वा, मरुमापुडाण वा, जातियुडाण वा, जहियायुडाण वा, मल्लियापुडाण वा, पहाणमल्लियापुडाण वा, केतगिपुडाण वा, पाडलिपुडाण वा, णोमालियापुडाण वा, अगुरुपुडाण वा, लवंगपुडाण वा, वासपुडाण वा, कप्पूरपुडाण वा, अणुवायंसि वा, प्रोभिज्जमाणाण वा, कुट्टिज्जमाणाण वा, भंजिज्जमाणाण वा, उक्किरिज्जमाणाण वा, विक्किरिज्जमाणाण वा, परिभुज्जमाणाण वा, परिभाइज्जमाणाण बा, भण्डाओ वा भंडं साहरिज्जमाणाण वा, पोराला मणुण्णा मणहरा धाणमणनियुतिकरा सवतो समंता गंधा अभिनिस्सरंति, भवे एयारूवे सिया? ४१-उस दिव्य यान विमान के अन्तर्वर्ती सम भूभाग में खचित मणियां क्या वैसी ही सुरभिगंध वाली थी जैसी कोष्ठ (गन्धद्रव्य-विशेष) तगर, इलाइची, चोया, चंपा, दमनक, कुकुम, चंदन, उशीर (खश), मरुपा (सुगंधित पौधा विशेष) जाई पुष्प, जुही, मल्लिका, स्नान-मल्लिका, केतकी, पाटल, नवमल्लिका, अगर, लवंग, वास. कपूर और कपूर के पुड़ों को अनुक्ल वायु में खोलने पर, कूटने पर, तोड़ने पर, उत्कीर्ण करने पर, बिखेरने पर, उपभोग करने पर, दूसरों को देने पर, एक पात्र से दूसरे पात्र में रखने पर, (उडेलने पर) उदार, आकर्षक, मनोज्ञ, मनहर घ्राण और मन को शांतिदायक गंध सभी दिशाओं में मघमघाती हुई फैलती है, महकती है ? / विवेचन हीरा, पन्ना, माणिक आदि मणिरत्नों में प्रकाश, चमचमाहट और अमुक प्रकार का रंग आदि तो दिखता है परन्तु इनके पार्थिव होने और पृथ्वी के गंधवती होने पर भी मणियों में अमुक प्रकार की उत्कट गंध नहीं होती है। किन्तु देव-विक्रियाजन्य होने की विशेषता बतलाने के लिए मणियों की गंध का वर्णन किया गया है। ४२–णो इण? सम?, तेणं मणी एतो इट्टतराए चेव, [कंततराए चेव, मणुण्णतराए चेव, मणामतराए चेव] गंधेणं पन्नत्ता / ४२-हे आयुष्मन् श्रमणो! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं / ये तो मात्र उपमायें हैं / वे मणियां तो इनसे भी अधिक इष्टतर यावत् मनमोहक, मनहर, मनोज्ञ-सुरभि गंध वाली थी। मरिणयों का स्पर्श ४३–तेसि णं मणोणं इमेयारवे फासे पण्णत्ते, से जहानामए प्राइणे ति वा, रूए ति वा बूरे इवा णवणीए इ वा हंसगम्भतूलिया इ वा सिरीसकुसुमनिचये इ वा बालकुमुदपत्तरासी ति वा भवे एयारूवे सिया? __ ४३-उन मणियों का स्पर्श क्या अजिनक (चर्म का वस्त्र अथवा मृगछाला) रुई, बूर (वनस्पति विशेष), मक्खन, हंसगर्भ नामक रुई विशेष, शिरीष पुष्पों के समूह अथवा नवजात कमलपत्रों की राशि जैसा कोमल था ? ४४-णो इण? सम?, तेणं मणी एत्तो इट्टतराए चेव जाव' फासेणं पन्नत्ता। ४४-आयुष्मन् श्रमणो ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / वे मणियां तो इनसे भी अधिक इष्टतर यावत् (सरस, मनोहर और मनोज्ञ कोमल) स्पर्शवाली थीं। 1. देखें सूत्र संख्या 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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