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________________ 32 ] [राजप्रश्नीयसूत्र प्रेक्षागृह-निर्माण ४५-तए णं से प्राभियोगिए देवे तस्स दिन्वस्स जाणविमाणस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं पिच्छाघरमंडवं विउव्वइ, अणेगखंभसय-संनिविट्ठ अभुग्गयसुकयवरवेइयातोरणवररइयसालभंजियागं सुसिलिट्टविसिटुलसंठियपसत्थवेरुलियविमलखम्भं जाणामणिखचिय-उज्जलबहुसमसुविभत्तभूमि भार्ग, ईहामिय-उसम-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग-किनर-रुरु-सरभ-चमर-कुञ्जर-वणलयपउमलय-भत्तिचित्त, खंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालणीयं, रूवगसहस्सकलियं, भिसमाणं भिभिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफास सस्सिरीयरूवं कंचणमणि रयणथभियागं णाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरं चवलं मरीइकवयं विणिम्मयंत, लाइय-उल्लोइयमहियं, गोसीस-सरसरत्तचंदण-ददरदिन्नयंचंगुलितल, उचियचंदणकलसं, चंदणघड-सुकयतोरणपडिदुवारदेसभाग, पासत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावं, पंचवण्णसरससुरभिमुक्कयुप्फपुजोवयारकलियं, कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुदधुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधट्टिभूतं प्रच्छरगणसंघसंविकिण्णं दिव्वतुड़ियसहसंपणाइयं अच्छं जाव [सहं अभिरूवं पडिरूवं / तस्स णं पिच्छाघरमण्डवस्स अंतो बहसमरमणिज्जभूमिभाग विउब्वति जाव' मणीणं फासो। तस्स णं पेच्छाघरमण्डवस्स उल्लोयं विउच्वति पउमलयभत्ति-चित्तं जाव [अच्छे सण्ठं लण्ठं घट्ठणोरयं निम्मलं निप्पं निक्कंकडच्छायं सप्पभं समिरोयं सउज्जोयं पासादीयं दरिसणिज्ज, अभिरूवं] पडिरूवं / ४५---तदनन्तर आभियोगिक देवों ने उस दिव्य यान विमान के अंदर बीचों-बीच एक विशाल प्रेक्षागृह मंडप की रचना की। वह प्रेक्षागृह मंडप अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट (स्थित) था। अभ्युन्नतऊंचो एवं सुरचित वेदिकाओं, तोरणों तथा सुन्दर पुतलियों से सजाया गया था। सुन्दर विशिष्ट रमणीय संस्थान-प्राकार-वाली प्रशस्त और विमल वैडूर्य मणियों से निर्मित स्तम्भों से उपशोभित था। उसका भूमिभाग विविध प्रकार की उज्ज्वल मणियों से खचित, सुविभक्त एवं अत्यन्त सम था। उसमें ईहामृग (भेड़िया) वृषभ, तुरंग-घोड़ा, नर, मगर, विहग-पक्षी, सर्प, किनर, रुरु (कस्तूरी मृग), सरभ (अष्टापद), चमरी गाय, कुजर (हाथी), वनलता पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित थे। स्तम्भों के शिरोभाग में बज्र रत्नों से बनी हुई वेदिकाओं से मनोहर दिखता था / यत्रचालित-जैसे विद्याधर युगलों से शोभित था / सूर्य के सदश हजारों किरणों से सुशोभित एवं हजारों सुन्दर घंटाओं से युक्त था। देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान होने से दर्शकों के नेत्रों को प्राकृष्ट करने वाला, सुखप्रद स्पर्श और रूप-शोभा से सम्पन्न था। उस पर स्वर्ण, मणि एवं रत्नमय स्तूप बने हुए थे। उसके शिखर का अग्र भाग नाना प्रकार की घंटियों और पंचरंगी पताकाओं से परिमंडित-सुशोभित था / और अपनी चमचमाहट एवं सभी ओर फैल रही किरणों के कारण चंचल-सा दिखता था / उसका प्रांगण गोबर से लिपा था और दिवारें सफेद मिट्टी से पुती थीं / स्थान-स्थान पर सरस गोशीर्ष रक्तचंदन के हाथे लगे हुए थे और चंदनचित कलश रखे थे / प्रत्येक द्वार तोरणों और चन्दन-कलशों से शोभित थे / दीवालों पर ऊपर से लेकर नीचे तक सुगंधित 1. देखें सूत्र संख्या 31, 33, 35, 37, 39, 41, 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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