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________________ मणियों का स्पर्श ] गोल मालायें लटक रही थीं। सरस सुगन्धित पंचरंगे पुष्पों के मांडने बने हुए थे / उत्तम कृष्ण अगर, कुन्दरुष्क, तुरुष्क और धूप की मोहक सुगंध से महक रहा था और उस उत्तम सुरभि गंध से गंध की वर्तिका (अगरबत्ती, धूपबत्ती) प्रतीत होता था। अप्सराओं के समुदायों के गमनागमन से व्याप्त था / दिव्य वाद्यों के निनाद गंज रहा था। वह स्वच्छ यावत् (सलौना, अभिरूप) था। उस प्रेक्षागृह मंडप के अंदर अतीव सम रमणीय भू-भाग की रचना की / उस भूमि-भाग में खचित मणियों के रूप-रंग, गंध आदि की समस्त वक्तव्यता पूर्ववत् समझना चाहिये। उस सम और रमणीय प्रेक्षागृह मंडप की छत में पद्मलता आदि के चित्रामों से युक्त यावत् (स्वच्छ, सलौना, चिकना, घृष्ट, नीरज, निर्मल, निष्पंक, अप्रतिहतदीप्ति, प्रभा, किरणों वाला, उद्योत वाला, मन को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप) अतीव मनोहर चंदेवा बांधा। रंगमंच प्रादि की रचना 46- तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एग महं वइरामयं अक्खाडगं विउविति। ४६-उस सम रमणीय भूमिभाग के भी मध्यभाग में वज्ररत्नों से निर्मित एक विशाल अक्षपाट (अखाड़े-क्रीडामंच) की रचना की। 47 - तस्स णं अक्खाइयस्स बहुमझदेसभागे एत्थ णं महेगं मणिपेढियं विउव्वति-अट्ट जोयणाई प्रायाम-विक्खम्भेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमयं अच्छं सोहं जाव' पडिरूवं / ४७-उस क्रीडामंच के ठीक बीचोंबीच पाठ योजन लंबी-चौड़ी और चार योजन मोटी पूर्णतया वज्ररत्नों से बनी हुई निर्मल, चिकनी यावत् प्रतिरूप एक विशाल मणिपीठिका की विकुर्वणा की। सिंहासन की रचना 48 -तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्य णं महेगं सोहासणं विउच्चइ, तस्स णं सीहासणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते--- तवणिज्जमया चककला, रययामया सीहा, सोवणिया पाया, णाणामणिमयाइं पायसोसगाई, जंबूणयमयाइं गत्ताई, वइरामया संधी, गाणामणिमये वेच्चे, से णं सोहासणे ईहामिय-उसम-तुरग-नरमगर-विहग-वालग किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुञ्जर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्तं, ससारसारोचियमणिरयणपायपीढे, प्रत्थरगमि उमसूरगणवतयकुसंतलिबकेसर-पच्चत्थुयाभिरामे, आईणग-रुष-बूरतुलफासमउए सुविरइय-रयत्ताणे, उचियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे रत्तंसुअसंवुडे सुरम्मे पासाइए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे / 48-- उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान् सिंहासन बनाया। उस सिंहासन के चक्कला (पायों के नीचे के गोल भाग) सोने के, सिंहाकृति वाले हत्थे रत्नों के, पाये सोने के, पादशीर्षक अनेक प्रकार को मणियों के और बीच के गाते जाम्बूनद (विशिष्ट स्वर्ण) के थे / उसकी संधियां (सांधे) वज्ररत्नों से भरी हुई थी और मध्य भाग को बुनाई का वेंत बाण (निवार) मणिमय था / 1. देखें सूत्र संख्या 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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