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________________ 34] राजप्रश्नीयसूत्र उस सिंहासन पर ईहामृग, वृषभ, तुरग-अश्व, नर, मगर, विहग-पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु सरभ (अष्टापद), चमर अथवा चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र बने हुए थे / सिंहासन के सामने स्थापित पाद-पीठ सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान् मणियों और रत्नों का बना हुआ था / उस पादपीठ पर पैर रखने के लिए बिछा हुअा मसूरक (गोल आसन) नवतृण कुशाग्र और केसर तंतुओं जैसे अत्यन्त सुकोमल सुन्दर प्रास्तारक से ढका हुअा था / उसका स्पर्श आजिनक (चर्म का वस्त्र) (मृग छाला) रुई, बूर, मक्खन और आक की रुई जैसा मृदु-कोमल था / वह सुन्दर सुरचित रजस्त्राण से आच्छादित था / उसपर कसीदा काढ़े क्षौम दुकल (रुई से बने वस्त्र) का चद्दर बिछा हुआ था और अत्यन्त रमणीय लाल वस्त्र से आच्छादित था। जिससे वह सिंहासन अत्यन्त रमणीय, मन को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप-अतीव मनोहर दिखता था। ४९-तस्स णं सोहासणस्स उवरि एस्थ णं महेगं विजयदुसं विउव्वति, संख-कुद-दगरय-अमयमहियफेणपुंज-संनिगासं सव्वरयणामयं अच्छे सण्हं पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं / ४१-उस सिंहासन के ऊपरी भाग में शंख, कुदपुष्प, जलकण, मथे हुए क्षीरोदधि के फेनपुज के सदृश प्रभावाले रत्नों से बने हुए, स्वच्छ, निर्मल, स्निग्ध प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप एक विजयदृष्य (वस्त्र विशेष, छत्राकार जैसे चंदेवे) को बांधा। ५०–तस्स णं सीहासणस्स उरि विजयदूसस्स य बहुमज्झदेस भागे एत्थ णं महं एगं वयरामयं अंकुसं विउब्वति / ५०-उस सिंहासन के ऊपरी भाग में बंधे हुए विजयदूष्य के बीचों-बीच वज्ररत्नमय एक अंकुश (अंकुडिया) लगाया ! ५१-तस्ति च णं वयरामयंसि अंकुसंमि कुभिक्कं मुत्तादामं विउव्वति / से णं कुभिक्के मुत्तादामे अन्नेहि चउहि अद्धकुभिक्केहि मुत्तादामेहि तदछुच्चपमाणेहि सम्वनो समता संपरिक्खित्ते / ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा णाणामगिरयणविविह-हारहारउवसोभियसमुदाया ईसि अण्णमण्णमसंपत्ता वाएहि पुम्वावरदाहिणुत्तरागएहि मंदायं मंदायं एज्जमाणाणि एज्जमाणाणि पलंबमाणाणि पलंबमाणाणि वदमाणाणि वदमाणाणि उरालेणं मन्नेणं मणहरेणं कण्ण-मण-णिन्युति-करेणं सद्देणं ते पएसे सन्चो संमता प्रापूरेमाणा प्रापूरमाणा सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवलोभेमाणा चिट्ठति / ५१-उस वज्र रत्नमयी अंकुश में (मगध देश में प्रसिद्ध) कुभ परिणाम जैसे एक बड़े मुक्तादाम (मोतियों के झूमर-फानूस) को लटकाया और वह कुभपरिमाण वाला मुक्तादाम भी चारों दिशाओं में उसके परिमाण से आधे अर्थात् अर्धकुभ परिमाण वाले और दूसरे चार मुक्तादामों से परिवेष्टित था। वे सभी दाम (अमर) सोने के लंबूसकों (गेंद जैसे आकार वाले आभूषणों), विविध प्रकार की मणियों, रत्नों अथवा विविध प्रकार के मणिरत्नों से बने हुए हारों, अर्ध हारों के समुदायों से शोभित हो रहे थे और पास-पास टंगे होने से लटकने से जब पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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