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________________ चित्त को केशी कुमारश्रमण से सेयविया पधारने की प्रार्थना] [145 के प्रति संशय रहित था, लब्धार्थ—(गुरुजनों से) यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त कर लिया था, ग्रहीतार्थ—उसे ग्रहण किये हुए था, विनिश्चितार्थ-निश्चित रूप से उस अर्थ को आत्मसात् कर लिया था एवं अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्मानुराग से भरा था अर्थात् उसकी रग-रग में निर्गन्थ प्रवचन के प्रति प्रेम और अनुराग व्याप्त था। वह दूसरों को संबोधित करते हुए कहता था कि-- आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही अर्थ - प्रयोजन भूत है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय अन्य-अन्यतीथिक के कथन कुगतिप्रापक होने से अनर्थ-अप्रयोजनभूत हैं / असद् विचारों से रहित हो जाने के कारण उसका हृदय स्फटिक की तरह निर्मल हो गया था। निर्ग्रन्थ श्रमणों का भिक्षा के निमित्त सरलता से प्रवेश हो सकने के विचार से उसके घर का द्वार अर्गलारहित था अर्थात् सुपात्र दान के लिये उसका द्वार सदा खुला रहता था। सभी के घरों, यहाँ तक कि अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश शंकारहित होने से प्रीतिजनक था / चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या एवं पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषधव्रत का समीचीन रूप से पालन करते हुए, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक, एषणीय-स्वीकार करने योग्य-- निदोष अशन, पान, खाद्य, स्वाद्याहार, पीठ, फलक, शय्या, सस्तारक, आसन, वस्त्र, पात्र, कब पादपोंछन (रजोहरण), औषध, भैषज से प्रतिलाभित करते हए एवं यथाविधि ग्रहण किये हए तप कर्म से आत्मा को भावित-शुद्ध करते हुए जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं उस श्रावस्ती नगरी के राज्यकार्यों यावत् राज्यव्यवहारों का बारम्बार अवलोकन-अनुभव करते हुए विचरने लगा। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में ऐसे मनुष्य का चरित्र-चित्रण किया है, जो जीवनशुद्धि के निमित्त धार्मिक आचार-विचारों के अनुरूप प्रवृत्ति करता है। २२३–तए णं से जियसत्तुराया अण्णया कयाइ महत्थं जाव पाहुडं सज्जेइ, चित्तं सारहिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छाहि णं तुम चित्ता ! सेयवियं नरि, पएसिस्स रन्नो इमं महत्थं जाव पाहुडं उवणेहि / मम पाउग्गं च णं जहाभणियं प्रवितहमसंदिद्धवयणं विनवेहि त्ति कट्ट विसज्जिए। २२३-तत्पश्चात् अर्थात् चित्त सारथी को श्रावस्ती नगरी में रहते-रहते पर्याप्त समय हो जाने के पश्चात् जितशत्रु राजा ने किसी समय महाप्रयोजनसाधक यावत् प्राभूत (उपहार) तैयार किया और चित्त सारथी को बुलाया। बुलाकर उससे इस प्रकार कहा-हे चित्त ! तुम वापस सेय बिया नगरी जाओ और महाप्रयोजनसाधक यावत् इस उपहार को प्रदेशी राजा के सन्मुख भेंट करना तथा मेरी ओर से विनयपूर्वक उनसे निवेदन करना कि आपने मेरे लिये जो संदेश भिजवाया है, उसे उसी प्रकार अवितथ-सत्य, प्रमाणिक एवं असंदिग्ध रूप से स्वीकार करता हूँ। ऐसा कहकर चित्त सारथी को सम्मानपूर्वक विदा किया। चित्त को केशी कुमारश्रमण से सेयविया पधारने की प्रार्थना २२४-तए णं से चित्ते सारही जियसत्तुणा रन्ना विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाव (महग्घ, महरिहं, रायरिहं पाहडं)गिण्हइ जाव जियसत्तुस्स रण्णो अंतियानो पडिनिक्खमइ / सावत्थी नयरीए मजझमाझेणं निग्गच्छई। जेणेव रायमगमोगाढे अावासे तेणेव उवागच्छइ, तं महत्थं जाव ठवइ, हाए जाव (कयबलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धपवेलाई मंगसाई वत्थाइंपवर परिहिए अप्पमहग्घा. भरणालंकिय) सरीरे सकोरंट.' महया०२ पायचारविहारेण महया पुरिसवरंगुरापरिक्खित्ते रायमग. 1. यहां ' ' से 'मल्लदामेणं छत्तण धरेज्जमाणेणं' पदों का संग्रह किया है। 2. यहां 0 से 'भडचडगररहपहकरविंद परिक्खित' पद का संग्रह किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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