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________________ 146] [ राजप्रश्नीयसूत्र मोगाढायो प्रावासाो निग्गच्छइ, सावत्थीनगरीए मज्झमझणं निग्गच्छति, जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छति, केसी कुमारसमणस्स अन्तिए धम्म सोच्चा जाव (निसम्म हट्ठ-तुटु-चित्तमाणदिए-पोइमणे-परमसोमणस्सिए हरिसवसविसध्यमाणहियए उठाए उ8 इ, उ?त्ता केसि कुमारसमणं तिक्खुत्तो प्रायाहिणंपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदई णमंसइ, वंदित्ता गमंसित्ता) एवं वयासी- एवं खलु अहं भते ! जियसत्तुणा रन्ना पएसिस्स रन्नो इमं महत्थं जाव उवणेहि त्ति कटु विसज्जिए, तं गच्छामि णं अहं भते! सेयवियं नरि, पासादीया णं भते ! सेयर्यावया णगरी, एवं दरिसणिज्जा गं भते ! सेयविया पगरी, अभिरूवा णं मते ! सेयविया नगरी, पडिरूवा णं भते ! सेयविया नगरी, समोसरह णं भते ! तुन्भे सेयवियं नरि / २२४–तत्पश्चात् जितात्र राजा द्वारा विदा किये गये चित्त सारथी ने उस महाप्रयोजनसाधक यावत् उपहार को ग्रहण किया यावत् जितशत्रु राजा के पास से रवाना होकर श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच से निकला / निकल कर राजमार्ग पर स्थित अपने आवास में आया और उस महार्थक यावत् उपहार को एक प्रोर रखा / फिर स्नान किया, यावत् शरीर को विभूषित किया, कोन्ट पुष्प की मालानों से युक्त छत्र को धारण कर विशाल जनसमुदाय के साथ पैदल ही राजमार्ग स्थित श्रावासगृह से निकला और श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच से चलता हुआ वहाँ पाया जहाँ कोष्ठक चैत्य था, उसमें भी जहाँ केसी कुमारश्रमण विराजमान थे / वहाँ पाकर केशी कुमार श्रमण से धर्म सुनकर यावत् (उसका मनन कर हषित, परितुष्ट, चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुग्रा, सौम्य मानसिक भावों से युक्त एवं हर्षातिरेक से विकसितहृदय होकर अपने आसन से उठा, और उठकर केशी कुमारश्रमण की तीनवार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वंदनवंदन-नमस्कार करके) इस प्रकार निवेदन किया भगवन् ! 'प्रदेशी राजा के लिए यह महार्थक यावत् उपहार ले जायो' कहकर जितशत्रु राजा ने आज मुझे विदा किया है / अतएव हे भदन्त ! मैं सेयविया नगरी लौट रहा हूँ। हे भदन्त ! सेयविया नगरी प्रासादीया--मन को आनन्द देने वाली है। भगवन् ! सेयविया नगरी दर्शनीय-देखने योग्य है / भदन्त ! सेयविया नगरी अभिरूपा-मनोहर है / भगवन् ! यविया नगरी प्रतिरूपाअतीव मनोहर है / अतएव हे भदन्त ! आप सेयविया नगरी में पधारने की कृपा करें। २२५–तए णं से केसी कुमारसमणे चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ते समाणे चित्तस्स सारहिस्स एयमणो पाढाइ, णो परिजागाइ, तुसिणीए संचिढइ / तए णं से चित्ते सारही केसी कुमारसमणं दोच्चं पि तच्च पि एवं क्यासी-~-एव खलु अहं भते ! जियसत्तुणा रन्ना पएसिस्स रण्णो इमं महत्थं जाय विसज्जिए, तं चेव जाव समासरह ण भंते ! तुम्भे सेयवियं नरि। 225- इस प्रकार से चित्त सारथी द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भी केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी के कथन का आदर नहीं किया अर्थात् उसे स्वीकार नहीं किया / वे मौन रहे। तब चित्त सारथी ने पुनः दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा-हे भदन्त ! प्रदेशी राजा के लिए महाप्रयोजन साधक उपहार देकर जितशत्रु राजा ने मुझे विदा कर दिया है। अतएव मैं लौट रहा हूँ। सेविया नगरी प्रासादिक है, आप वहाँ पधारने की अवश्य कृपा करें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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