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________________ केशी कुमारश्रमण का उत्तर ] [147 केशी कुमारश्रमरण का उत्तर २२६-तए णं केसी कुमारसमणे चित्तण सारहिणा दोच्च पि तच्चं पि एवं वृत्त समाणे चित्तं साहि एवं वयासी-चित्ता! से जहानामए वणसंडे सिया—किण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे, से पूर्ण चित्ता ! से वणसंडे बहूणं दुपय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खी-सिरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? हंता अभिगमणिज्जे। तंप्ति च णं चित्ता ! वणसंडसि बहवे भिलुगा नाम पावसउणा परिवसंति, जे णं तेसि बहूणं दयय-चउपय-मिय-सु-पक्खी-सिरीप्तिवाण ठियाणं चेव मंससोणियं प्राहारेति / से णूणं चित्ता! से वणसंडे तेसि बहूर्ण दुपय जाब सिरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? णो तिण? सम?। कम्हा णं? भते ! सोक्सग्गे। एवामेव चित्ता ! तुभ पि सेवियाए णयरीए पएसी नाम राया परिवसइ अम्मिए जाव (अधम्नि-अधम्मक्खाई प्रधम्माणुए-अधम्मपलोई-अधम्मपजणणे-अधम्मसीलसमुयायारे-अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे 'हण'-छिद'-भिदं'-पवत्तए, लोहिय-पाणी, पावे, चंडे, रुद्दे, खुद्दे, साहस्सीए, उक्कंचणवंचण-माया-नियडि-कड कवड-सायिसंपयोग-बहुले, निस्सीले, निव्वए, निग्गुणे, निम्मे रे, निष्पचक्खाणपोसहोववासे, बहूणं दुप्पय-च उप्पयमिय-पसु-पकावी-सिरिसवाण घायाए बहाए उच्छायणयाए अधम्मके ऊ, समुदिए गुरूणं णो प्रभुट्ठति, णो विणयं पउंजइ, सयस्स वि य णं जणवयस्स) णो सम्म करभरवित्ति पवत्तइ, त कहं णं अहं चित्ता ! सेयर्यावयाए नगरीए समोसरिस्सामि ? २२६-चित्त सारथी द्वारा दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार से विनति किये जाने पर केशो कुमार श्रमण ने चित्त सारथी से कहा-हे चित्त ! जैसे कोई एक कृष्ण वर्ण एवं कृष्ण प्रभा वाला अयान हरा-भरा यावत् अतीव मनमोहक सघन छाया वाला वनखंड हो तो हे चित्त ! वह वनखंड अनेक द्विपद (मनुष्य आदि), चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों आदि के गमन योग्य-- रहने लायक है, अथवा नहीं है ? चित्त ने उत्तर दिया- हाँ, भदन्त ! वह उनके गमन योग्य–वास करने योग्य होता है / इसके पश्चात् पुनः केशी कुमारश्रमण ने चित सारथी से पूछा- और यदि उसी वनखंड में, हे चित्त ! उन बहुत से द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सर्प आदि प्राणियों के रक्त-मांस को खाने वाले भीलुगा नामक पापशकुन (पशुओं का शिकार करने वाले पापिष्ठ भोल) रहते हों तो क्या वह वनखंड उन अनेक द्विपदों यावत् सरीसृपों के रहने योग्य हो सकता है ? चित्त ने उत्तर दिया-यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ऐसी स्थिति में वह वास करने योग्य नहीं हो सकता है। पुनः केशी कुमारश्रमण ने पूछा-क्यों ? अर्थात् वह उनके लिये अभिगमनीय-प्रवेश करने योग्य, रहने योग्य क्यों नहीं हो सकता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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