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________________ 62] [ राजप्रेश्नीयसूत्र भासरासिवण्णाभे, असंखेज्जाप्रो जोअणकोडाकोडीनो पायामविक्खं भेणं, असंखेज्जाओ जोअणकोडाकोडोप्रो परिक्खेवेणं, एस्थ णं सोहम्माणं देवाणं बत्तीसं विमाणावासयसहसाई भवंति इति, मक्खायं / ते णं विमाणा सवरयणामया अच्छा जाव (सण्हा लण्हा, घट्टा मट्ठा, णीरया निम्मला, नियंका निक्ककडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया, दरिसणिज्जा अभिरूवा) पडिरूवा / तेसिं गं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडिसया पन्नत्ता, तं जहा-असोगडिसए सत्तवण्णवडिसए चंपगवडिसए' चूतडिसए मज्झे सोधम्मडिसए / ते णं वडिसगा सघरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / तस्स णं सोधम्मवडिसगस्स महाविमाणस्स पुरथिमेणं तिरियं असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई वोइवइत्ता एस्थ णं सूरियाभस्स देवस्स सूरियाभे विमाणे पण्णत्ते, अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं, अउणयालीसं च सयसहस्साई बावन्नं च सहस्साइं अट्ट य अडयाल जोयणसते' परिक्खेवेणं। ११८-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर (सुमेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रमणीय समतल भूभाग से ऊपर ऊर्ध्वदिशा में चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण नक्षत्र और तारामण्डल से आगे भी ऊंचाई में बहुत से मैकड़ों योजनों, हजारों योजनों, लाखों, करोड़ों योजनों और सैकड़ों करोड़, हजारों करोड़, लाखों करोड़ योजनों, करोड़ों करोड़ योजन को पार करने के बाद प्राप्त स्थान पर सौधर्मकल्प नाम का कल्प है-अर्थात् सौधर्म नामक स्वर्गलोक है / वह सौधर्मकल्प पूर्व-पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण विस्तृत-चौड़ा है, अर्धचन्द्र के समान उसका आकार है, सूर्य किरणों की तरह अपनी द्युति-कान्ति से सदैव चमचमाता रहता है / असंख्यात कोडाकोडि योजन प्रमाण उसकी लम्बाई-चौड़ाई तथा असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण उसकी परिधि है। उस सौधर्मकल्प में सौधर्मकल्पवासी देवों के बत्तीस लाख विमान बताये हैं। वे सभी सर्वात्मना रत्नों से बने हुए स्फटिक मणिवत स्वच्छ यावत (सलौने, अत्यन्त चिकने. घिसे हए, मंजे हए, नीरज, निर्मल, निष्कलंक, निरावरण, दीप्ति, कान्ति, तेज और उद्योत-प्रकाशयुक्त, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, मनोहर एवं) अतीव मनोहर हैं। उन विमानों के मध्यातिमध्य भाग में-ठीक बीचोंबीच-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चार दिशाओं में अनुक्रम से अशोक-अवतंसक, सप्तपर्ण-अवतंसक, चंपक-अवतंसक, आम्र-अवतंसक तथा मध्य में सौधर्म-अवतंसक, ये पांच अवतंसक (मुख्य श्रेष्ठ भवन) हैं। ये पांचों अवतंसक भी रत्नों से निर्मित, निर्मल यावत् प्रतिरूप-अतीव मनोहर हैं। उस सौधर्म-अवतंसक महाविमान की पूर्व दिशा में तिरछे असंख्यात लाख योजन प्रमाण आगे जाने पर प्रागत स्थान में सूर्याभ देव का सूर्याभ नामक विमान है / उसका आयाम-विष्कंभ (लम्बाईचौड़ाई) साढ़े बारह लाख योजन और परिधि उनतालीस लाख बावन हजार आठ सौ अड़तालीस योजन है। 1. पाठान्तर--भूतवडेंसए, भूयगडिसते / 2. पाठान्तर—अतो तेरसय सहस्साई आयामविक्खंभेणं बायालीसं च सयसहस्साई अ य अड० / 3. अउणयालीसं च सयसहस्साई अट्ठ य अडयालजोयणसते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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