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________________ सूर्याभविमान के द्वारों का वर्णन ] ११६.-से णं एगेणं पागारेणं सम्वनो समता संपरिषिखत्ते। से णं पागारे तिण्णि जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले एगं जोयणसयं विक्खंभेणं, मज्झे पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं, उपि पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं / भूले विस्थिणे, मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे। ११६-वह सूर्याभ विमान चारों दिशाओं में सभी ओर से एक प्राकार-परकोटे से घिरा हुआ है / यह प्राकार तीन सौ योजन ऊँचा है, मूल में इस प्राकार का विष्कम्भ (चौड़ाई) एक सौ योजन, मध्य में पचास योजन और ऊपर पच्चीस योजन है। इस तरह यह प्राकार मूल में चौड़ा, मध्य में संकड़ा और सबसे ऊपर अल्प-पतला होने से गोपुच्छ के प्राकार जैसा है। यह प्राकार सर्वात्मना रत्नों से बना होने से रत्नमय है, स्फटिकमणि के समान निर्मल है यावत् प्रतिरूप-अतिशय मनोहर है / १२०--से णं पागारे णाणाविहपंचवणेहि कविसीसएहि उपसोभिते, तं जहा--कण्हेहि य नीलेहि य लोहितेहि हालिद्देहि सुकिल्लेहि कविसीसहि / ते णं कविसीसगा एगं जोयणं पायामेणं, प्रद्धजोयणं विक्खंभेणं, देसणं जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / 120 -- वह प्राकार अनेक प्रकार के कृष्ण, नील, लोहित-लाल, हारिद्र-पीले और श्वेत इन पाँच वर्णों वाले कपिशीर्षकों (कंगूरों) से शोभित है / ये प्रत्येक कपिशीर्षक (कंगो) एक-एक योजन लम्बे, प्राधे योजन चौड़े और कुछ कम एक योजन ऊंचे हैं तथा ये सब रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् बहुत रमणीय हैं / सूर्याभविमान के द्वारों का वर्णन-- 121~ सूरियाभस्स गं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए दारसहस्सं दारसहस्सं भवतीति मक्खायं / ते गं दारा पंच जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेलेणं, सेया वरकणगभियागा ईहामिय-उस भ-तुरग-णर-मगर-विहग-वालग-किन्नर-हरु-सरभचमर-कुजर-वणलय-पउमलयभत्ति-चित्ता, खंभुग्गयवरवयरवेइयापरिगयाभिरामा, विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ता विव, प्रच्चीसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया, भिसमाणा भिभिसमाणा, चक्खुल्लोयणलेसा, सुहफासा सस्सिरीय रूवा / वन्नो दाराणं तेसि होइ–तं जहा--बइरामया णिम्मा, रिद्वामया पइट्ठाणा, वेरुलियमया खंभा, जायरूवोवचिय-पवरपंचवन्न-मणिरयण-कोट्टिमतला, हंसम्ममया एलुया, गोमेज्जमया इंदकीला, लोहियक्खमतीतो चेडामो, जोईरसमया उत्तरंगा, लोहियक्षमईप्रो सुईनो, बयरामया संधी, नाणामणिमया समुग्गया, वयरामया अगला-अम्गलपासाया, रययामयामो प्रावत्तणढियायो। अंकुत्तरपासगा, निरंतरियघणकवाडा भित्तीसु चेव भित्तिगुलिता छपन्ना तिणि होति गोमाणसिया तत्तिया णाणामणिरयणवालरूवगलीलटिअसाल-भंजियागा, वयरामया कूडा, रययाम या उस्सेहा, सव्वतवणिज्जमया उल्लोया, णाणामणिरयणजालपंजर-मणिबंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमा, अंकामया पक्खा-पक्खबाहाम्रो, जोईरसामया वंसा-वंसकवेल्लुयायो, रययामईओ पट्टियानो, जायरूवमईश्रो पोहाडणोनो, वइरामईयो उरिपुञ्छणीश्रो, सव्वसेयरययामये छायणे, अंकमयकणगकूडतवणिज्जथभियागा, सेया संखतलविमलनिम्मलदधिघण-गोखीर-फेणरययणिगरपगासा तिलगरयणद्धचंद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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