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________________ 64] [ राजप्रेश्नीयसूत्र चित्ता' नाणामणिदामालंकिया, अंतो बहिं च सण्हा तणिज्जवालुया पत्थडा, सुहफासा, सस्सिरीयरूबा, पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। १२१–सूर्याभदेव के उस विमान को एक-एक बाजू में एक-एक हजार द्वार कहे गये हैं, अर्थात् उस विमान की पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन चारों दिशाओं में से प्रत्येक में एक-एक हजार द्वार हैं। ये प्रत्येक द्वार पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं, अढाई सौ योजन चौड़े हैं और इतना ही (अढाई सौ योजन) इनका प्रवेशन—गमनागमन के लिए घुसने का स्थान--है / ये सभी द्वार श्वेत वर्ण के हैं / उत्तम स्वर्णमयी स्तूपिकानों-शिखरों से सुशोभित हैं। उन पर ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मकर विहग, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ-अष्टापद चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित स्तम्भों पर बनी हुई वज्र रत्नों की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखाई पड़ते हैं। समश्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यन्त्र द्वारा चलते हुए-से दीख पड़ते हैं / वे द्वार हजारों किरणों से व्याप्त और हजारों रूपकों-चित्रों से युक्त होने से दीप्यमान और अतीव देदीप्यमान हैं / देखते ही दर्शकों के नयन उनमें चिपक जाते हैं। उनका स्पर्श सुखप्रद है। रूप शोभासम्पन्न है। उन द्वारों का वर्ण-स्वरूपवर्णन इस प्रकार है उन द्वारों के नेम (भूभाग से ऊपर निकले प्रदेश) वज्ररत्नों से, प्रतिष्ठान (मूल पाये) रिष्ट रत्नों से स्तम्भवैडूर्य मणियों से तथा तलभाग स्वर्णजड़ित पंचरंगे मणि रत्नों से बने हुए हैं। इनकी देहलियाँ हंसगर्भ रत्नों की, इन्द्रकीलियाँ गोमेदरत्नों की, द्वारशाखायें लोहिताक्ष रत्नों की, उत्तरंग (प्रोतरंग-द्वार के ऊपर पाटने के लिये तिरछा रखा पाटिया) ज्योतिरस रत्नों के, दो पाटियों को जोड़ने के लिये ठोकी गई कीलियाँ लोहिताक्षरत्नों की हैं और उनकी सांधे वज्ररत्नों से भरी हुई हैं। समुदगक (कीलियों का ऊपरी हिस्सा-टोपी) विविध मणियों के हैं। अर्गलायें अर्गलापाशक (कुदा) वज्ररत्नों के हैं। आवर्तन पीठिकायें (इन्द्रकीली का स्थान) चाँदी की हैं। उत्तरपार्श्वक (वेनी) अंक रत्नों के हैं। इनमें लगे किवाड़ इतने सटे हुए सघन हैं कि बन्द करने पर थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं रहता है। प्रत्येक द्वार की दोनों बाजुओं की भीतों में एक सौ अड़सठ-एक सौ अड़सठ सब मिलाकर तीन सौ छप्पन भित्तिगुलिकायें (देखने के लिये गोल-गोल गुप्त झरोखे) हैं और उतनी ही गोमानसिकायें-बैठकें हैं--प्रत्येक द्वार पर अनेक प्रकार के मणि रत्नमयी व्यालरूपों-सौ-से क्रीड़ा करती पुतलियाँ बनी हुई हैं। अथवा सर्परूप धारिणी अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से निर्मित क्रीड़ा करती हुई पुतलियाँ इन द्वारों पर बनी हुई हैं। इनके माड़ वज्ररत्नों के और माड़ के शिखर चाँदी के हैं और द्वारों के ऊपरी भाग स्वर्ण के हैं / द्वारों के जालीदार झरोखे भाँति-भाँति के मणि-रत्नों से बने हए हैं / मणियों के बांसों का छप्पर है और बांसों को बाँधने की खपच्चियाँ लोहिताक्ष रत्नों की हैं। रजतमयी भूमि है अर्थात् छप्पर पर चाँदी की परत बिछी हुई है। उनकी पाखें और पाखों की बाजुये अंकरत्नों की हैं / छप्पर के नीचे सीधी और बाड़ी लगी हुई वल्लियाँ तथा कबेलू ज्योतिरस - रत्नमयी हैं / उनको पाटियाँ चाँदी की हैं। अवघाटनियाँ (कबेलुओं के ढक्कन) स्वर्ण की बनी हुई हैं / ऊरि 1. पाठान्तर --सङ्घतल-विमल निम्मल-दहिघण-गोखीरफेण-रययनियरप्पमासद्धचन्दचित्ताई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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