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________________ सूर्याभविमान के द्वारों का वर्णन ] प्रोच्छनियाँ (टाटियाँ) वज्ररत्नों की हैं। टाटियों के ऊपर और कबेलुगों के नीचे के प्राच्छादन सर्वात्मना श्वेत-धवल और रजतमय हैं / उनके शिखर अंकरत्नों के हैं और उन पर तपनीय-स्वर्ण की स्तूपिकायें बनी हुई हैं / ये द्वार शंख के समान विमल, दही एवं दुग्धफेन और चांदी के ढेर जैसी श्वेत प्रभा वाले हैं / उन द्वारों के ऊपरी भाग में तिलकरत्नों से निर्मित अनेक प्रकार के अर्धचन्द्रों के चित्र बने हुए हैं / अनेक प्रकार की मणियों की मालाओं से अलंकृत हैं। वे द्वार अन्दर और बाहर अत्यन्त स्निग्ध और सुकोमल हैं। उनमें सोने के समान पीली बालुका बिछी हुई है / सुखद स्पर्श वाले रूपशोभासम्पन्न, मन को प्रसन्न करने वाले, देखने योग्य, मनोहर और अतीव रमणीय हैं। १२२–तेसि णं दाराणं उभनो पासे दुहम्रो निसीहियाए सोलस सोलस चंदणकलसपरिवाडीओ पन्नत्तानो, ते णं चंदणकलसा वरकमल-पइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा, चंदणकयचच्चागा, प्राविद्ध कंठे गुणा, पउमुप्पलपिहाणा सव्वरयणामया, अच्छा जाव' पडिरूवगा महयामहया इदकुभसमाणा पन्नत्ता समणाउसो! १२२-उन द्वारों की दोनों बाजुओं की दोनों निशीधिकाओं (बैठकों) में सोलह-सोलह चन्दनकलशों की पंक्तियाँ हैं, अर्थात् उन द्वारों की दायीं बायीं बाजू की एक-एक बैठक में पंक्तिबद्ध सोलहसोलह चन्दनकलश स्थापित हैं। ये चन्दनकलश श्रेष्ठ उत्तम कमलों पर प्रतिष्ठित-रखे हैं, उत्तम सुगन्धित जल से भरे हुए हैं, चन्दन के लेप से चचित-मंडित, विभूषित हैं, उनके कंठों में कलावा (रक्तवर्ण सूत) बंधा हुआ है और मुख पद्मोत्पल के ढक्कनों से ढके हुए हैं / हे आयुष्मन् श्रमणो ! ये सभी कलश सर्वात्मना रत्नमय हैं, निर्मल यावत् बृहत् इन्द्रकुभ जैसे विशाल एवं अतिशय रमणीय हैं। १२३–तेसि णं दाराण उभयो पासे दुहम्रो मिसीहियाए सोलस-सोलस णागदन्तपरिवाडीयो पन्नत्तायो। ते णं णागवंता मत्ताजालंतरुसियहेमजाल-गवक्खजाल-खिखिणीघंटाजाल-परिक्खित्ता प्रभुग्गया अभिणिसिट्टा तिरियं सुसंपरिग्गहिया अहेपन्नगद्धरूवा, पन्नगद्धसंठाणसंठिया, सव्वषयरामया अच्छा जावर पडिरूवा महया महया गयदंतसमाणा पन्नता समाणाउसो ! १२३–उन द्वारों की उभय पार्श्ववर्ती दोनों निशीधिकाओं में सोलह-सोलह नागदन्तों (खूटियों-नकूचों) की पंक्तियाँ कही हैं। ये नागदन्त मोतियों और सोने की मालाओं में लटकती हुई गवाक्षाकार (गाय की आँख) जैसी आकृति वाले घुघरुओं से युक्त, छोटी-छोटी घंटिकानों से परिवेष्टित-व्याप्त, घिरे हुए हैं। इनका अग्रभाग ऊपर की ओर उठा और दीवाल से बाहर निकलता हुआ है एवं पिछला भाग अन्दर दीवाल में अच्छी तरह से घुसा हुआ है और आकार सर्प के अधोभाग जैसा है / अग्रभाग का संस्थान सपर्धि के समान है। वे वज्ररत्नों से बने हुए हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! बड़े-बड़े गजदन्तों जैसे ये नागदन्त अतीव स्वच्छ, निर्मल यावत् प्रतिरूप-अतिशय शोभाजनक हैं। 1-2. देखें सूत्र संख्या 118. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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