SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 66] বিলসহনীয় १२४–तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तबद्धा वग्घारितमल्लदामकलावा णील-लोहितहालिद्द-सुक्किलसुत्तबद्धा बग्घारितमल्लदामकलावा / ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा, सुवन्नपयरगमंडिया नाणाविहमणिरयणविविहहारउवसोभियसमुदया जाव (ईसि अण्णमण्णम-संपत्ता, वाहि पुवावरदाहिणुत्तरागएहि मंदायं मंदाय एज्जमाणाणि एज्जमाणाणि पलंबमाणाणि पलंबमाणाणि वदमाणाणि वदमाणाणि उरालेणं मणुन्नणं मणहरेणं कण्ण-मणणिव्वतिकरेणं सद्देणं ते पएसे सम्बयो समंता प्रापूरेमाणा प्रापूरमाणा) सिरीए अईच अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति / १२४-इन नागदन्तों पर काले सूत्र से गथी हई तथा नीले, लाल, पीले और सफेद डोरे से गूथी हुई लंबी-लंबी मालायें लटक रही हैं / वे मालायें सोने के झूमकों और सोने के पत्तों से परिमंडित तथा नाना प्रकार के मणि-रत्नों से रचित विविध प्रकार के शोभनीक हारों-अर्धहारों के अभ्युदय यावत् (पास-पास टंगे होने से पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर की हवा के मंद-मंद झोकों से हिलने-डुलने और एक दूसरे से टकराने पर विशिष्ट, मनोज्ञ, मनहर, कर्ण और मन को शांति प्रदान करने वाली ध्वनि से समीपवर्ती समस्त प्रदेश को व्याप्त करते हुए) अपनी श्री-शोभा से अतीव-अतीव उपशोभित हैं। १२५–तेसि णं णागदंताणां उवरि अन्नाश्रो सोलस-सोलस नागदंतपरिवाडीनो पन्नत्ता, ते णं णागदंता तं चेव जाव गयदंतसमाणा पन्नत्ता समाणाउसो! तेसु णं णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कगा पन्नत्ता, तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामईनो धूवघडीमो पण्णत्ताप्रो, तानो णं धूवघडीपो कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगंधुधुयाभिरामाप्रो सुगंधवरगंधियातो गंधवट्टिभूयारो अोरालेणं मणुणेणं मणहरेणं घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं ते पदेसे सवो समंता प्रापूरेमाणा प्रापूरमाणा जाव (सिरीए अतीव प्रतीव उवसोभेमाणा उबसोभेमाणा) चिट्ठति / १२५-~-इन नागदंतों के भी ऊपर अन्य-दुसरी सोलह-सोलह नागदन्तों की पंक्तियाँ कही हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! पूर्ववणित नागदंतों की तरह ये नागदंत भी यावत् विशाल गजदंतों के समान हैं। इन नागदन्तों पर बहुत से रजतमय शोंके (छींके) लटके हैं। इन प्रत्येक रजतमय शीकों में वैडूर्य-मणियों से बनी हुई धूप-घटिकायें रखी हैं / ये धूपघटिकायें काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क, तुरुष्क (लोभान) और सुगंधित धूप के जलने से उत्पन्न मघमघाती मनमोहक सुगन्ध के उड़ने एवं उत्तम सुरभि-गंध की अधिकता से गंधवर्तिका के जैसी प्रतीत होती हैं तथा सर्वोत्तम, मनोज्ञ, मनोहर, नासिका और मन को तृप्तिप्रदायक गंध से उस प्रदेश को सब तरफ से अधिवासित करती हुई यावत् अपनी श्री से अतीव-अतीव शोभायमान हो रही हैं। द्वारस्थित पुतलियां १२६-तेसि णं दाराणं उभनो पासे दुहनो णिसीहियाए सोलस सोलस सालभंजियापरिवाडीयो पन्नत्तानो, तानो पं सालभंजियानो लीलट्ठियाओ, सुपइट्टियानो, सुप्रलंकियाो, णाणाविहरागवसणाप्रो, णाणामल्लपिणद्धारो. मुट्ठिगिज्झसुमज्झायो, पामेलगजमलजुयल-वट्टिय-अन्भुन्नय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy