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________________ 170] [राजप्रश्नीयसूत्र __3. हुणोववन्नए नरएसु नेरइए निरयवेयणिज्जसि कम्मंसि अक्खीणसि प्रवेइयंसि अनिज्जिन्नंसि इच्छइ माणुसं लोगं (हव्वमागच्छित्तए) नो चेव णं संचाएइ। 4, एवं रइए निरयाउयंसि कम्मंसि अक्खीणंसि प्रवेइयंसि अणिज्जिन्नंसि इच्छइ माणसं लोगं० नो चेव णं संचाएइ हन्धमागच्छित्तए। ___ इच्चेएहि चहिं ठाणेहि पएसी अहणोवबन्ने नरएसु नेरइए इच्छइ माणुसं लोग० णो चेव णं संचाइए। तं सद्दहाहि णं पएसो! जहा–अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं। २४५-प्रदेशी राजा की युक्ति को सुनने के पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे प्रदेशी ! तुम्हारी सूर्यकान्ता नाम की रानी है ? प्रदेशी-हाँ भदन्त ! है। केशी कुमारश्रमण-तो हे प्रदेशी ! यदि तुम उस सूर्यकान्ता देवी को स्नान, बलिकर्म और कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त करके एवं समस्त आभरण-अलंकारों से विभूषित होकर किसी स्नान किये हुए यावन् समस्त प्राभरण-अलंकारों से विभूषित पुरुष के साथ इष्ट-मनोनुकूल शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंधमूलक पांच प्रकार के मानवीय कामभोगों को भोगते हुए देख लो तो, हे प्रदेशी ! उस पुरुष के लिए. तुम क्या दंड निश्चित करोगे ? प्रदेशी हे भगवन् ! मैं उस पुरुष के हाथ काट दूंगा, उसे शूली पर चढ़ा दूंगा, कांटों से छेद दूगा, पैर काट दूंगा अथवा एक ही वार से जीवनरहित कर दूंगा–मार डालूगा / प्रदेशी राजा के इस कथन को सुनकर केशी कुमारश्रमण ने उससे कहा-हे प्रदेशी ! यदि वह पुरुष तुमसे यह कहे कि—'हे स्वामिन् ! आप घड़ी भर रुक जाओ, तब तक आप मेरे हाथ न काटें, यावत् मुझे जीवन रहित न करें जब तक मैं अपने मित्र, ज्ञातिजन, निजक-पुत्र आदि स्वजनसंबंधी और परिचितों से यह कह आऊँ कि हे देवानुप्रियो ! मैं इस प्रकार के पापकर्मों का आचरण करने के कारण यह दंड भोग रहा हूँ, अतएव हे देवानुप्रियो ! तुम कोई ऐसे पाप कर्मों में प्रवृत्ति मत करना, जिससे तुमको इस प्रकार का दंड भोगना पड़े, जैसा कि मैं भोग रहा हूँ।' तो हे प्रदेशी क्या तम क्षणमात्र के लिए भी उस परुष की यह बात मानोगे ? प्रदेशी–हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात् उसकी यह बात नहीं मानूगा / केशी कुमारश्रमण-उसकी बात क्यों नहीं मानोगे ? प्रदेशी-क्योंकि हे भदन्त ! वह पुरुष अपराधी है / तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम्हारे पितामह भी हैं, जिन्होंने इसी सेयविया नगरी में अधामिक होकर जीवन व्यतीत किया यावत प्रजाजनों से कर लेकर भी उनका अच्छी तरह से पालन, रक्षण नहीं किया एवं मेरे कथनानुसार वे बहुत से पापकर्मों का उपार्जन करके नरक में उत्पन्न हुए हैं / उन्हीं पितामह के तुम इष्ट, कान्त यावत् दुर्लभ पौत्र हो / यद्यपि वे शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहते हैं किन्तु वहाँ से आने में समर्थ नहीं हैं / क्योंकि--प्रदेशी ! तत्काल नरक में तारक रूप से - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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