________________ सूर्याभदेव का अभिषेक-महोत्सव ] [109 गिण्हित्ता एगतो मिलायंति मिलाइत्ता ताए उक्किट्ठाए जाव' जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सरियाभे विमाणे जेणेव अभिसेयसभा जेणेव रियाभे देवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धाविति वद्धावित्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेयं उवट्ठति / १६०–तत्पश्चात् उन आभियोगिक देवों ने सामानिक देवों की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित यावत् विकसित हृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके 'देव ! बहुत अच्छा ! ऐसा ही करेंगे' कहकर विनय पूर्वक आज्ञा-वचनों को स्वीकार किया। स्वीकार करके वे उत्तरपूर्व दिग्भाग में गये और उस उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया। __ वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दण्ड बनाया यावत् पुनः दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात करके एक हजार आठ स्वर्णकलशों की, एक हजार आठ रुप्यकलशों की, एक हजार आठ मणिमय कलशों की, एक हजार आठ स्वर्ण-रजतमय कलशों की, एक हजार आठ स्वर्ण-मणिमय कलशों की, एक हजार आठ रजत-मणिमय कलशों की, एक हजार आठ स्वर्ण-रूप्य-मणिमय कलशों की, एक हजार पाठ भौमेय (मिट्टी के) कलशों की एवं इसी प्रकार एक हजार आठ--एक हजार आठ भगारों, दर्पणों, थालों, पात्रियों, सप्रतिष्ठानों वातकरकों, रत्नकरंडकों, पुष्पचंगेरिकाओं यावत मयूरपिच्छचंगेरिकाओं, पुष्पपटलकों यावत् मयूरपिच्छपटलकों, सिंहासनों, छत्रों, चामरों, तेलसमुद्गकों यावत् अंजनसमुद्गकों, ध्वजारों, धूपकडुच्छकों (धूपदानों) की विकुर्वणा (रचना) की। विकुर्वणा करके उन स्वाभाविक और विक्रियाजन्य कलशों यावत् धूपकडुच्छकों को अपनेअपने हाथों में लिया और लेकर सूर्याभविमान से बाहर निकले / निकलकर अपनी उत्कृष्ट चपल दिव्य गति से यावत् तिर्यक् लोक में असंख्यात योजनप्रमाण क्षेत्र को उलांघते हुए जहां क्षीरोदधि समूद्र था, वहाँ पाये। वहाँ अाकर कलशों में क्षारसमुद्र के जल को भरा तथा वहां के पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुडरीक, महापुण्डरीक) शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों को लिया। ____ कमलों आदि को लेकर जहां पुष्करोदक समुद्र था वहाँ आये, आकर पुष्करोदक को कलशों में में भरा तथा वहां के उत्पल शतपत्र सहस्रपत्र आदि कमलों को लिया। तत्पश्चात् जहाँ मनुष्यक्षेत्र था और उसमें भी जहाँ भरत-ऐरवत क्षेत्र थे, जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ थे वहाँ आये और प्राकर उन-उन तीर्थों के जल को भरा और वहाँ की मिट्टी ग्रहण की। इस प्रकार से तीर्थोदक और मृत्तिका को लेकर जहाँ गंगा, सिन्धु, रक्ता रक्तवती महानदियां थीं, वहाँ आये / आकर नदियों के जल और उनके दोनों तटों की मिट्टी को लिया / नदियों के जल और मिट्टी को लेकर चुल्लहिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत पर आये। वहाँ आकर कलशों में जल भरा तथा सर्व ऋतुओं के श्रेष्ठ--उत्तम पुष्पों, समस्त गंधद्रव्यों, समस्त पुष्पसमूहों और सर्व प्रकार की प्रौषधियों एवं सिद्धार्थकों (सरसों) को लिया और फिर पद्मद्रह एवं पुंडरीकद्रह पर पाये / यहाँ आकर भी पूर्ववत् कलशों में द्रह-जल भरा तथा सुन्दर श्रेष्ठ उत्पल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लिया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org