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________________ केशी कुमारश्रमण को देखकर प्रदेशी का चिन्तन] 163 किसी अपेक्षा (लौकिक दृष्टि से) प्रत्यक्ष कहा जाता है, किन्तु वह ज्ञान मन और इन्द्रियों के आश्रित होने से परोक्ष ही है। जब हम इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कोटि में ग्रहण करते हैं तो वहाँ यह प्राशय समझना चाहिये कि लोक-प्रतिपत्ति, व्यवहार की दृष्टि से वह ज्ञान प्रत्यक्ष है, लेकिन यथार्थतः तो साक्षात् आत्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान ही प्रत्यक्ष कहलाता है। इन दोनों दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए जैनदर्शन में प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद किये हैं। नंदीसूत्र में इन दोनों के लिये क्रमश: इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया है / स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के भेद से इन्द्रियां पांच होने से इन्द्रियप्रत्यक्ष के पांच भेद हैं। कान से होने वाला ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष है, इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के लिये समझना चाहिये / अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान ये तीन नोइन्द्रियप्रत्यक्ष हैं / उक्त नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के तीन भेदों में से अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक / तत्तत् योनिविशेष में जन्म लेने पर जो ज्ञान उत्पन्न हो अर्थात् जिसकी उत्पत्ति में भव प्रधान कारण हो, ऐसा ज्ञान भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहलाता है। यह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान देवों और नारकों को होता है। तपस्या आदि विशेष गुणों के कारण अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहते हैं / यह मनुष्यों और तिर्यंचों में पाया जाता है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान 1. प्रानुगामिक, 2. अनानुगामिक, 3. वर्धमान, 4. हीयमान, 5. प्रतिपातिक और 6. अप्रतिपातिक के भेद से छह प्रकार का है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान के उक्त छह भेदों में से प्रानुगामिक अवधिज्ञान दो प्रकार का है-- 1. अन्तगत और 2. मध्यगत / इनमें से अन्तगत अवधिज्ञान तीन प्रकार का है-१.पूरतः (आगे से) अन्तगत-जो अवधिज्ञान आगे-मागे संख्यात, असंख्यात योजनों तक पदार्थ को जाने, 2. मार्गतः (पीछे से) अन्तगत--जो ज्ञान पीछे के संख्यात, असंख्यात योजनों तक के पदार्थ को जाने, 3. पार्वतः (दोनों पाश्वों-बाजुओं) से अन्तगत—जो ज्ञान दोनों पाश्वों में संख्यात, असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित पदार्थों को जाने / जो ज्ञान चारों ओर के पदार्थों को जानते हुए ज्ञाता के साथ रहता है, उसे मध्यगत अवधिज्ञान कहते हैं / अनानगामिक अवधिज्ञान जिस स्थान पर उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर स्थित रहकर अवधिज्ञानी संख्यात, असंख्यात योजन प्रमाण सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध द्रव्यों को जानता है, अन्यत्र चले जाने पर नहीं जानता है। ____ जो अवधिज्ञान पारिणामिक विशुद्धि से उत्तरोत्तर दिशाओं और विदिशाओं में बढ़ता जाता है, उसे वर्धमानक अवधिज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान पारिणामिक संक्लेश के कारण उत्तरोत्तर हीन-हीन होता जाता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है / नारक, देव और तीर्थकर अवधिज्ञान से युक्त ही होते हैं। वे सब दिशाओं-विदिशाओंवर्ती पदार्थों को जानते हैं, किन्तु सामान्य मनुष्यों और तिर्यचों के लिए ऐसा नियम नहीं है। वे सब दिशा में और एक दिशा में भी क्षयोपशम के अनुसार जानते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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