SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 164] [ राजप्रश्नीयसूत्र मनःपर्यायज्ञान पर्याप्त, गर्भज संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज सम्यग्दृष्टि, ऋद्धिसंपन्न अप्रमत्तसंयत मुनियों में ही पाया जाता है। इसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति / द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा ऋजुमति मनःपर्यायज्ञानी से विपुलमति मनःपर्यायज्ञान वाला अधिकअधिक विशुद्धि, निर्मलता से पदार्थों को जानता है। वह मनुष्यक्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन में परिचिन्तित अर्थ को जानने वाला है। केवलज्ञान दो प्रकार का है-भवस्थ-केवलज्ञान और सिद्ध-केवलज्ञान 1 भवस्थ-केवलज्ञान सयोगिकेवलि और अयोगिकेवलि गुणस्थानवी जीवों को होता है। सिद्ध केवलज्ञान सिद्धों को होता है। उस के भी दो भेद हैं-१. अनन्तर-सिद्ध केवलज्ञान और 2. परंपर-सिद्ध केवलज्ञान / जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम ही समय है और जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो गये हैं, उन्हें क्रमशः अनन्तरसिद्ध और परंपरसिद्ध कहते हैं और उनका केवलज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान एवं परंपरसिद्ध-केवलज्ञान कहलाता है / द्रव्य से केवलज्ञानी सर्व द्रव्यों को जानता है, क्षेत्र से सर्व लोकालोक को जानता है, काल से भूत, वर्तमान और भविष्य, इन तीनों कालवर्ती द्रव्यों को जानता है और भाव से सर्व भावों-पर्यायों को जानता है। पूर्वोक्त प्रकार से प्रत्यक्ष ज्ञानों की संक्षेप में रूपरेखा बतलाने के अनन्तर अब परोक्ष ज्ञानों का वर्णन करते हैं। प्राभिनिबोधिक (मति) ज्ञान श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित के भेद से दो प्रकार का है। श्रुतज्ञान के संस्कार के आधार से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान को श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहते हैं और जो तथाविध क्षयोपशमभाव से उत्पन्न हो, जिसमें श्रुतज्ञान के संस्कार की अपेक्षा न हो, वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान है। अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान चार प्रकार का है (1) औत्पत्तिकीबुद्धि तथाविध क्षयोपशमभाव के कारण और शास्त्र-अभ्यास के बिना अचानक जिस बुद्धि की उत्पत्ति हो / (2) वैनयिकीबुद्धि-गुरु आदि की विनय-भक्ति से उत्पन्न बुद्धि / (3) कर्मजाबुद्धि-शिल्पादि के अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि / (4) पारिणामिकीबुद्धि-चिरकालीन पूर्वापर पर्यालोचन से उत्पन्न बुद्धि / श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार भेद हैं—(१) अवग्रह, (2) ईहा, (3) अवाय, (4) धारणा। 1. जो अनिर्देश्य सामान्य मात्र अर्थ को जानता है, उसे अवग्रह कहते हैं। इसके दो भेद हैं-अर्थावग्रह, व्यंजनावग्रह / जो सामान्य मात्र का ग्रहण होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं। पांच इन्द्रियों और मन से अर्थावग्रह होने से अर्थावग्रह के छह भेद हैं। प्राप्यकारी श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा (जीभ) और स्पर्शन, इन चार इन्द्रियों से बद्ध-स्पृष्ट अर्थों का जो अत्यन्त अव्यक्त सामान्यात्मक ग्रहण हो, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। इन चार इन्द्रियों से होने के कारण व्यंजनावग्रह के चार भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy