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________________ 162] [ राजप्रश्नीयसूत्र ज्ञान प्रात्मा का असाधार / अतएव ज्ञानावरणकर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से प्रात्मा का जो बोध रूप व्यापार होता है, वह ज्ञान है। आभिनिबोधिक आदि के भेद से ज्ञान के पांच प्रकार हैं / उनके लक्षण इस प्रकार हैं -- प्राभिनिबोधिक ज्ञान-जो ज्ञान पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा उत्पन्न हो और सन्मुख आये हुए पदार्थों के प्रतिनियत स्वरूप को देश, काल, अवस्था की अपेक्षा इन्द्रियों के आश्रित होकर जाने, ऐसे बोध को प्राभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं। इसका अपर नाम मतिज्ञान भी है। किन्तु अंतर यह है कि मति शव्द से ज्ञान और अज्ञान दोनों को ग्रहण किया जाता है किन्तु आभिनिबोधिक शब्द ज्ञान के लिये ही प्रयुक्त होता है। श्रुतज्ञान-शब्द को सुनकर जिससे अर्थ की उपलब्धि हो, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान का कारण शब्द है अत: उपचार से शब्द के ज्ञान को भी श्रुतज्ञान कहते हैं / अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न रखते हुए केवल आत्मा के द्वारा . रूपी—मूर्त पदार्थों का साक्षात् बोध करने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। अवधि शब्द का अर्थ मर्यादा भी होता है। अवधि ज्ञान रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है अरूपी को नहीं, यही उसकी मर्यादा है / अथवा 'अब' शब्द अधो अर्थ का वाचक है। इसलिये जो ज्ञान अधोऽधो (नीचेनीचे) विस्तृत जानने की शक्ति रखता है, अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेकर जो ज्ञान मूर्त द्रव्यों को प्रत्यक्ष करता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। मनःपर्यायज्ञान--समनस्क-संज्ञी जीव किसी भी वस्तु का चिन्तन-मनन मन से ही करते हैं / मन के चिन्तनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाये, उसे मन:पर्याय ज्ञान कहते हैं। यद्यपि मन और मानसिक आकार-प्रकारों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति अवधिज्ञान में भी मन:पर्यायज्ञान मन के पर्यायों-ग्राकार-प्रकारों को सूक्ष्म एवं निर्मल रूप में प्रत्यक्ष कर सकता है अवधिज्ञान नहीं। केवलज्ञान-केवल शब्द एक, असहाय, विशुद्ध, प्रतिपूर्ण, अनन्त और निरावरण, इन अर्थों में प्रयुक्त होता है / अतः इन अर्थों के अनुसार केवलज्ञान की व्याख्या इस प्रकार है---- जिसके उत्पन्न होने पर श्योपशमजन्य मतिज्ञानादि (आभिनिबोधिकादि) चारों ज्ञानों का विलीनीकरण होकर एक ही ज्ञान शेष रह जाये, उसे केवलज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान मन, इन्द्रिय आदि किसी की सहायता के बिना संपूर्ण मूर्त-अमूर्त (रूपी-अरूपी) ज्ञेय पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष करने में सक्षम हो, वह केवलज्ञान है। जो ज्ञान विशुद्धतम हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं / जो ज्ञान सभी पदार्थों की प्रतिपूर्ण समस्त पर्यायों को जानने की शक्ति वाला हो, वह केवलज्ञान है। जो ज्ञान अनन्त-अनन्त पदार्थों को जानने में सक्षम है, अथवा उत्पन्न होने के पश्चात् जिसका कभी अन्त न हो, ऐसे ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं / जो ज्ञान निरावरण, नित्य और शाश्वत हो, वह केवलज्ञान है। इन पाँच प्रकार के ज्ञानों में से आदि के दो ज्ञान परोक्ष और अंतिम तीन प्रत्यक्ष हैं। मन और इन्द्रियों के माध्यम से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे परोक्ष और जो ज्ञान साक्षात आत्मा के द्वारा होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं / यद्यपि मन और इन्द्रियों के माध्यम से होने वाला ज्ञान भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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