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________________ आभियोगिक देव द्वारा आज्ञा-पूत्ति को रचना] भद्दासहि णिसीयंति / अक्सेसा देवा य देवीयो य तं दिव्वं जाणविमाणं जाव (अणपयाहिणी करेमाणा) दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहंति, दूरूहित्ता पत्तेयं पत्तेयं पुव्वण्णत्थेहि भद्दासणेहि निसीयंति। ५७-तत्पश्चात् सूर्याभ देव के चार हजार सामानिक देव उस यान विमान की प्रदक्षिणा करते हुए उत्तर दिग्वर्ती त्रिसोपान प्रतिरूपक द्वारा उस पर चढ़े और अपने लिये पहले से हो स्थापित भद्रासनों पर बैठे तथा इनसे शेष रहे और दूसरे देव एवं देवियां भी प्रदक्षिणापूर्वक दक्षिण दिशा के सोपानों द्वारा उस दिव्य-यान विमान पर चढ़कर प्रत्येक अपने-अपने लिये पहले से ही निश्चित भद्रासनों पर बैठे। ५८-तए णं तस्स सरियाभस्स देवस्स तं दिव्वं जाणविमाणं दुरूढस्स समाणस्स अट्ठमङ्गलगा पुरतो अहाणुपुवीए संपस्थिता, तं जहा–सोस्थिय-सिरिवच्छ-जाव (नन्दियावत्त-वद्धमाणगभद्दासन-कलस-मच्छ) दप्पणा / ५८-उस दिव्य यान विमान पर सूर्याभ देव आदि देव-देवियों के प्रारूढ हो जाने के पश्चात् अनुक्रम से आठ मंगल-द्रव्य उसके सामने चले। वे पाठ मंगल-द्रव्य इस प्रकार हैं-१. स्वस्तिक 2. श्रीवत्स यावत् (3. नन्दावर्त 4. वर्धमानक-शरावसम्पुट----सिकोरे का संपुट 5. भद्रासन, 6. कलश, 7. मत्स्ययुगल और) 8. दर्पण / ५६-तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिगार दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा सणरतिया-पालोयदरिसणिज्जा वाउछुयविजयवेजयंतीपडागा ऊसिया गगण-तलमणुलिहंती पुरतो अहाणुपुव्वीए संयत्थिया। 59- आठ मंगल द्रव्यों के अनन्तर पूर्ण कलश, भृगार-झारी, चामर सहित दिव्य छत्र, पताका तथा इनके साथ गगन तल का स्पर्श करती हुई अतिशय सुन्दर, आलोकदर्शनीय (प्रस्थान करते समय मांगलिक होने के कारण दर्शनीय) और वायु से फरफराती हुई एक बहुत ऊंची विजय वैजयंती पताका अनुक्रम से उसके आगे चली। ६०-तयणंतरं च णं वेरुलियभिसंतविमलदण्डं पलम्बकोरंटमल्लदामोवसोभितं चंदमंडल निभं समुस्सियं विमलमायवत्तं पवरसीहासणं च मणिरयणभत्तिचित्तं सपायपीढं सपाउयाजोयसमाउत्तं बहुकिकरामरपरिग्गहियं पुरतो अहाणुपुव्वीए संपत्थियं / ६०-विजय वैजयंती पताका के अनन्तर वैडूर्यरत्नों से निर्मित दीप्यमान, निर्मल दंडवाले लटकती हुई कोरंट पुष्पों की मालानों से सुशोभित, चंद्रमंडल के समान निर्मल, श्वेत-धवल ऊंचा आतपत्र-छत्र और अनेक किंकर देवों द्वारा वहन किया जा रहा, मणिरत्नों से बने हुए वेलबूटों से उपशोभित, पादुकाद्वय युक्त पादपीठ सहित प्रवर–उत्तम सिंहासन अनुक्रम से उसके आगे चला / ६१--तयणंतरं च णं वइरामयबट्टलटुसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमटुसुपतिलुए विसि? अणेगवरपंचवण्ण-कुडभीसहस्सुस्सिए परिमंडियाभिरामे वाउ विजय-वेजयंती पडागच्छत्तात्तिच्छत्तकलिते तुगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जो अणसहस्समूसिए महतिमहालए महिंद-ज्झए अहाणुपुव्वोए संपत्थिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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