________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र रिट्ठामया पतिढाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्ण-रुप्पमया फलया, नाणामणिमया कलेवरसंघाङगा णाणामणिमया रूवा जाणामणिमया रूवसंघाडगा अंकामया पक्खा, पक्खबाहाओ, जोईरसामया वंसा वंसकवेल्लुयानो, रययामईश्रो पट्टियानो जायरूवमईयो अोहाडणीसो वइरामईप्रो उवरिपुच्छणी, सव्वरयणामए अच्छायणं / सा णं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं, ए.' गवक्खजालेणं, एक खिखिणीजालेणं, ए० घंटाजालेणं, ए० मुत्ताजालेणं, ए० मणिजालेणं, ए० कणगजालेणं, ए० पउमजालेणं सव्वतो समंता संपरिखित्ता, तेणं जाला तणिज्जलंबूसगा जाव' चिट्ठति / तोसे णं पउमवरवेड्याए तत्थ-तस्थ-देसे तहि तहिं बहवे हयसंघाडा जाव' उसभसंघाडा सम्वरयणामया अच्छा जाव घडिरूवा पासादीया जाव वोहीनो पंतीयो मिहुणाणि लयाओ। १५५-वह पद्मवरवेदिका ऊँचाई में आधे योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी और उपकारिकालयन जितनी इसकी परिधि है / उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार का किया गया है, जैसे कि वज्ररत्नमय (इसकी नेम हैं। रिष्टरत्नमय इसके प्रतिष्ठान-मूल पाद हैं। वैडर्यरत्नमय इसके स्तम्भ हैं)। स्वर्ण और रजतमय इसके फलक-पाटिये हैं / लोहिताक्ष रत्नों से बनी इसकी सूचियाँ-कीलें हैं / विविध मणिरत्नमय इसका कलेवर-ढांचा है तथा इसका कलेवर संघात-भीतरी-बाहरी ढांचा विविध प्रकार की मणियों से बना हुआ है / अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से इस पर चित्र बने हुए हैं। नानामणि-रत्नों से इसमें रूपक संघात–बेल-बूटों, चित्रों आदि के समूह बने हैं / अंक रत्नमय इसके पक्ष-सभी हिस्ते हैं और अंक रत्नमय ही इसके पक्षबाहा-प्रत्येक भाग है। ज्योतिरस रत्नमय इसके वंश-बांस, वला और वंशकवेल्लुक (सीधे रखे बांसों के दोनों ओर रखे तिरछे बांस एवं कवेल) हैं। रजतमय इनकी पट्टियां (बांसों को लपेटने के लिये ऊपर नीचे लगी पट्टियां-लागे) हैं। स्वर्णमयी अवघाटनियां (ढंकनी) और वज्ररत्नमयी उपरिप्रोंछनी (नरियां) हैं / सर्वरत्नमय आच्छादन (तिरपाल) हैं। वह पद्मवरवेदिका सभी दिशा-विदिशाओं में चारों ओर से एक-एक हेमजाल (स्वर्णमय माल्यसमूह) से जाल (गवाक्ष की प्राकृति के रत्नविशेष के माल्यसमुह) से, किंकणी (घुघरु) घंटिका, मोती, मणि, कनक (स्वर्ण-विशेष) रत्न और पद्म (कमल) की लंबी-लंबी मालाओं से परिवेष्टित है अर्थात उस पर लंबी-लंबी मालायें लटक रही हैं / ये सभी मालायें सोने के लंबूसकों (गेंद को प्राकृति जैसे आभूषणविशेषों, मनकों) आदि से अलकृत हैं। उस पद्मवरवेदिका के यथायोग्य उन-उन स्थानों पर अश्वसंघात (समान प्राकृति-संस्थान वाले अश्वयुगल) यावत् वृषभयुगल सुशोभित हो रहे हैं। ये सभी सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् प्रतिरूप, प्रासादिक-मन को प्रफुल्लित करने वाले हैं यावत् इसी प्रकार इनकी वीथियाँ, पंक्तियाँ, मिथुन एवं लतायें हैं। 1. 'ए.' अक्षर 'एगमेगेणं' पद का दर्शक हैं। 2. देखें सूत्र संख्या 49 / 3. देखें सूत्र संख्या 130 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org