________________ केकय अर्ध जनपद और प्रदेशी राजा] [129 तीसे णं सेवियाए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसौभागे एत्थ णं मिगवणे णामं उज्जाणे होत्था--रम्मे नंदणवणप्पगासे, सव्वोउयफलसमिद्ध, सुभसुरभिसीयलाए छायाए सव्वनो चेव समणुबद्ध पासादीए जाव पडिरूवे। तत्थ णं सेयवियाए णगरोए पएसी णामं राया होत्था, महयाहिमवंत जाव' विहरइ / अधम्मिए, अधम्मिट्ठ, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपजणणे, प्रधम्मसीलसमुयायारे, अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे 'हण'-'छिद'-भिंद-पवत्तए, लोहियपाणी पावे, रुद्दे, खुद्दे, साहस्सोए, उपकंचण-वंचण-माया-नियडि-कूड-कवड-सायिसंजोगबहुले, निस्सीले, निव्वए, निग्गुणे, निम्मेरे, निष्पच्चकखाणपोसहोववासे, बहूर्ण दुपय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खी-सिरिसवाण घायाए वहाए उच्छायणयाए अधम्मकेऊ, समुट्टिए, गुरूणं णो अभट्ठति, णो विणयं पउंजइ, सयस्स वि य णं जणवयस्स णो सम्म करभरवित्ति पयत्तेइ। २०७-हे गौतम ! इस प्रकार गौतम स्वामी को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा हे गौतम ! उस काल और उस समय में (इस अवसर्पिणी काल के चौथे पारे रूप काल एवं केशीस्वामी कुमार श्रमण के विचरने के समय में) इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में केकयअर्ध (केकयि-अध) नामक जनपद-देश था। जो भवनादिक वैभव से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र-परचक्र के भय से रहित और समृद्ध-धनधान्यादि वैभव से सम्पन्न-परिपूर्ण था। सर्व ऋतुओं के फल-फूलों से समृद्ध, रमणीय, नन्दनवन के समान मनोरम, प्रासादिक-मन को प्रसन्न करने वाला, यावत् (दर्शनीय, बारंबार देखने योग्य प्रतिरूप) अतीव मनोहर था। उस केकय-अर्ध जनपद में सेयबिया नाम की नगरी थी। यह नगरी भी ऋद्धि-सम्पन्न स्तमित-शत्रुभय से मुक्त एवं समृद्धिशाली यावत् प्रतिरूप थी। उस सेयविया नगरी के बाहर ईशान कोण में मृगवन नामक उद्यान था। यह उद्यान रमणीय, नन्दनवन के समान सर्व ऋतुनों के फल-फूलों से समृद्ध, शुभ-सुखकारी, सुरभिगंध और शीतल छाया से समनुबद्ध (व्याप्त) प्रासादिक यावत् प्रतिरूप-असाधारण शोभा से सम्पन्न था। उस सेयविया नगरी के राजा का नाम प्रदेशी था। प्रदेशी राजा महाहिमवान. मलय पर्वत. मन्दर एवं महेन्द्र पर्वत जैसा महान था। किन्तु वह अधामिक-(धम विरोधी ), अमिष्ठ (अधर्मप्रेमी), अधर्माख्यायी (अधर्म का कथन और प्रचार करने वाला), अधर्मानुग (अधर्म का अनुसरण करने वाला), अधर्म प्रलोको (सर्वत्र अधर्म का अवलोकन करने वाला), अधर्मप्रजनक (विशेष रूप से अधार्मिक आचार-विचारों का जनक-प्रचार करने वाला-प्रजा को अधर्माचरण की ओर प्रवृत्त करने वाला) अधर्मशीलसमुदाचारी (अधर्ममय स्वभाव और प्राचारवाला) तथा अधर्म से ही आजीविका चलाने वाला था। वह सदैव 'मारो, छेदन करो, भेदन करो' इस प्रकार की आज्ञा का प्रवर्तक था / अर्थात् मारो आदि वचनों के द्वारा अपने आश्रितों को जीवों की हिंसा वगैरह के कार्यों में लगाये रखता था। उसके हाथ सदा रक्त से भरे रहते थे। साक्षात् पाप का अवतार था। 1. देखें सूत्र संख्या 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org