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________________ 138 / [ राजप्रश्नीयसूत्र वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बम्भगुत्तीयो। णाणा इतियं तवं कोहनिग्गहाई चरणमेयं / / पांच महाव्रत, क्षमा आदि दस प्रकार का यतिधर्म, सत्रह प्रकार का संयम, आचार्य आदि का दस प्रकार का वैयावत्य, नौ ब्रह्मचर्य-गप्तियाँ, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना, बारह प्रकार का तप, क्रोधादि चार कषायों का निग्रह (ये चरणगुण के सत्तर भेद हैं)। दर्शनार्थ परिषदा का गमन और चित्त की जिज्ञासा २१४–तए णं सावस्थीए नयरीए सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउमुह-महापहपहेसु महया जणसद्दे इ वा जाणबूहे इ वा जण बोले इ बा जणकलकले इ वा जणउम्मी इ वा जणउक्कलिया इ वा जणसनिवाए इ वा जाव (बहुजणो अण्णमण्णं एवं प्राइक्खइ एवं मासेइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणपिया! पासावच्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव' गामाणुगामं दूइज्जमाणे इह मागए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव सावत्थीए नयरीए बहिया कोटुए चेइए प्रहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया! तहारूवाणं समणाणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंगपुण अभिगमण-बंदन-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि पायरियस्स घम्मियस्स सुबयणस्स सवणयाए, किमंग! पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुबासामो (एयं णं इहभवे पेच्चभवे य दियाए सहाए खमाए निस्सेयसाए प्राणगामियत्ताए भविस्सह-त्ति कटट परिसा निग्गया, केसी नाम कुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, वंदइ णमसइ, बंदित्ता णमंसित्ता णच्चासन्ने णाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलियउडे अभिमुहे विणएणं) परिसा पज्जुवासइ / २१४–तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण का पदार्पण होने के पश्चात्) श्रावस्ती नगरी के शृगाटकों (त्रिकोण वाले स्थानों), त्रिकों (तिराहों), चतुष्कों (चौराहों), चत्वरों (चौकों), चतुर्मुखों (चारों तरफ द्वार वाले स्थान-विशेषों), राजमार्गों और मार्गों (गलियों) में लोग आपस में चर्चा करने लगे, लोगों के झुड इकट्ठे होने लगे, लोगों के बोलने की घोंघाट सुनाई पड़ने लगी, जनकोलाहल होने लगा, भीड़ के कारण लोग आपस में टकराने लगे, एक के बाद एक लोगों के टोले आते दिखाई देने लगे, इधर-उधर से आकर लोग एक स्थान पर इकठ्ठ होने लगे, यावत् (बहुत से लोग परस्पर एक दूसरे से कहने लगे, बोलने लगे, प्ररूपणा करने लगे-हे देवानुप्रियो ! जाति प्रादि से संपन्न. श्रेष्ठ पाश्र्वापत्य केशी कुमारश्रमण अनुक्रम से गमन करते हुए, ग्रामानुग्राम-एक गांव से दूसरे गांव में विचरते हुए आज यहां आये हैं, प्राप्त हुए हैं, पधार गए हैं और इसी श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में यथारूप (साधुमर्यादा के अनुरूप) अवग्रह-याज्ञा लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे हैं। अतएव हे देवानुप्रियो ! जब तथारूप श्रमण भगवन्तों के नाम और गोत्र के सुनने से ही महाफल प्राप्त होता है, तब उनके समीप जाने, उनकी वंदना करने, उनसे प्रश्न पूछने और उनकी 1. देखें सूत्र संख्या 213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003481
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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